SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 54
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रमण परम्परा की एकसूत्रता और उसके हेतु कहना अधिक संगत है। ६. जाति की अतात्त्विकता वैदिक लोग जाति को तात्त्विक मानते थे। ऋग्वेद के अनुसार ब्राह्मण प्रजापति के मुख से उत्पन्न हुआ, राजन्य उसकी बाह से उत्पन्न हुआ, वैश्य उसके उरु से उत्पन्न हआ और शूद्र उसके पैरों से उत्पन्न हुआ। श्रमण परम्परा जाति को अतात्त्विक मानती थी। ब्राह्मण जन्मना जाति के समर्थक थे। उस स्थिति में श्रमण इस सिद्धान्त का प्रतिपादन करते कि जाति कर्मणा होती है। महात्मा बुद्ध मनुष्य जाति की एकता का प्रतिपादन बहुत प्रभावशाली पद्धति से करते थे। वासेट्ठ और भारद्वाज के विवाद का परिसमापन करते हुए उन्होंने कहा 'मैं क्रमशः यथार्थ रूप से प्राणियों के जाति-भेद को बताता हूं, जिससे भिन्न-भिन्न जातियां होती हैं। तृण वृक्षों को जानो, यद्यपि वे इस बात का दावा नहीं करते, फिर भी उनमें जातिमय लक्षण हैं, जिससे भिन्न-भिन्न जातियां होती हैं। कीटों, पतंगों और चींटियों तक में जातिमय लक्षण हैं, जिससे उनमें भिन्न-भिन्न जातियां होती हैं। छोटे, बड़े जानवरों को भी जानो, उनमें भी जातिमय लक्षण हैं (जिससे) भिन्न-भिन्न जातियां होती हैं। फिर पानी में रहने वाली जलचर मछलियों को भी जानो, उनमें भी जातिमय लक्षण हैं, (जिनसे) भिन्न-भिन्न जातियां होती हैं। आकाश में पंखों द्वारा उड़ने वाले पक्षियों को भी जानो, उनमें भी जातिमय लक्षण हैं, (जिससे) भिन्न-भिन्न जातियां होती हैं। जिस प्रकार इन जातियों में भिन्न-भिन्न जातिमय लक्षण हैं, उस प्रकार मनुष्यों में भिन्न-भिन्न जातिमय लक्षण नहीं हैं। दूसरी जातियों की तरह न तो मनुष्यों के केशों में, न शिर में, न कानों में, न आंखों में, न नाक में, न ओठों में, न भौंहों में, न गले में, न अंगों में, न पेट में, न पीठ में, न पादों में, न अंगुलियों में, न नखों में, न जंघों में, न उरुओं में, न श्रेणि में, न उर में, न योनि में, न मैथुन में, न हाथों में, न वर्ण में और न स्वर में जातिमय लक्षण हैं। (प्राणियों की) भिन्नता शरीरों में है, मनुष्य में वैसा नहीं है। मनुष्यों में भिन्नता नाम मात्र की है। १. ऋग्वेद, मं० १०, अ० ७, सू० ६१, मं० १२ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003060
Book TitleSanskruti ke Do Pravah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1991
Total Pages274
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy