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जैन धर्म : हिन्दुस्तान के विविध अंचलों में
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नाथ तथा शांतिनाथ की पूजा प्रचलित थी । परमार लेख में ऋषभनाथ के पूजा का उल्लेख मिलता है और मन्दिर को अतीव सुन्दर तथा पृथ्वी का भूषण बतलाया है— श्री वृषभनाथ नाम्नः प्रतिष्ठितं भूषणेन बिम्बमिदं तेनाकारि मनोहरं जिनगृहं मूमेरिव भूषणम् ।""
पंजाब और सिन्धु- सौवीर
भगवान् महावीर ने साधुओं के लिए चारों दिशाओं की सीमा निर्धारित की, उसमें पश्चिमी सीमा 'स्थूणा' (कुरुक्षेत्र) है । इससे जान पड़ता है कि पंजाब का स्थूणा तक का भाग जैन धर्म से प्रभावित था । साढ़े पच्चीस आर्य देशों की सूची में भी कुरु का नाम है ।
सिन्धु - सौवीर सुदीर्घ काल से श्रमण संस्कृति से प्रभावित था । भगवान् महावीर महाराज उद्रायण को दीक्षित करने वहां पधारे ही थे ।
मध्य प्रदेश
बुन्देलखण्ड में ग्यारहवीं और बारहवीं शताब्दी के लगभग जैन धर्म बहुत प्रभावशाली था । आज भी वहां उसके अनेक चिह्न मिलते हैं ।' राष्ट्रकूट नरेश जैन धर्म के अनुयायी थे । उनका कलचुरि नरेशों से गहरा सम्बन्ध था । कलचुरि की राजधानी त्रिपुरा और रत्नपुर में आज भी अनेक प्राचीन जैन - मूर्तियां और खण्डहर प्राप्त हैं ।
चन्देल राज्य के प्रधान खुजराहो नगर में लेख तथा प्रतिमाओं के अध्ययन से जैन-मत के प्रचार का ज्ञान होता है । प्रतिमाओं के आधारशिला पर खुदा लेख यह प्रमाणित करता है कि राजाओं के अतिरिक्त साधारण जनता भी जैन-मत में विश्वास रखती थी । मालवा अनेक शताब्दियों तक जैन धर्म का प्रमुख प्रचार क्षेत्र था । व्यवहार भाष्य में बताया है कि अन्यतीर्थिकों के साथ वाद-विवाद मालवा आदि क्षेत्रों में करना चाहिए। इससे जाना जाता है कि अवन्तीपति चन्डप्रद्योत तथा विशेषतः सम्राट् सम्प्रति से लेकर भाष्य - रचनाकाल तक वहां जैन धर्म प्रभावशाली था ।
१. प्राचीन भारतीय अभिलेखों का अध्ययन, पृ० १२५ ।
२. खंडहरों का वैभव, १६४,२२६ ।
३. प्राचीन भारतीय अभिलेखों का अध्ययन, पृ० १२५, १२६ ।
४. व्यवहार भाष्य, उद्देशक १०, गाथा २८६ :
खेत्तं मालवमादी, अहवावी साहुभावियं जं तु । नाऊण तहा विहिणा, वातो य तहि करेयव्वो ॥
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