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श्रमण परम्परा की एकसूत्रता और उसके हेतु
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( यक्ष ) - ' अच्छी उपज की आशा से किसान जैसे स्थल ( ऊंची भूमि) में बीज बोते हैं, वैसे ही नीची भूमि में बीज बोते हैं । इसी श्रद्धा से ( अपने आपको निम्न भूमि और मुझे स्थल तुल्य मानते हुए भी तुम ) मुझे दान दो । पुण्य की आराधना करो। यह क्षेत्र है, बीज खाली नहीं जाएगा ।'
( सोमदेव ) -- ' जहां बोए हुए सारे के सारे बीज उग जाते हैं, वे क्षेत्र इस लोक में हमें ज्ञात हैं। जो ब्राह्मण जाति और विद्या से युक्त हैं, वे ही पुण्य-क्षेत्र हैं ।'
( यक्ष ) - ' जिनके क्रोध है, मान है, हिंसा है, झूठ है, चोरी है और परिग्रह है - वे ब्राह्मण जाति-विहीन, विद्या - हीन और पाप-क्षेत्र हैं । 'हे ब्राह्मणो ! इस संसार में केवल तुम वाणी का भार ढो रहे हो । वेदों को पढ़ कर भी उनका अर्थ नहीं जानते । जो मुनि उच्च और नीच घरों में भिक्षा के लिए जाते हैं, वे ही पुण्य-क्षेत्र हैं ।'
( सोमदेव ) - 'ओ ! अध्यापकों के प्रतिकूल बोलने वाले साधु ! हमारे समक्ष तू क्या अधिक बोल रहा है ? हे निर्ग्रन्थ ! यह अन्न-पान भले ही सड़ कर नष्ट हो जाए, किन्तु तुझे नहीं देंगे ।'
( यक्ष ) - 'मैं समितियों से समाहित, गुप्तियों से गुप्त और जितेन्द्रिय हूं। यह एषणीय ( विशुद्ध) आहार यदि तुम मुझे नहीं दोगे, तो इन यज्ञों का आज तुम्हें क्या लाभ होगा ?'
( सोमदेव ) - ' यहां कौन है क्षत्रिय, रसोइया, अध्यापक या छात्र, जो डण्डे और फल से पीट कर गल- हत्था देकर इस निर्ग्रन्थ को यहां से बाहर निकाले ।'
अध्यापकों के विचार सुन कर बहुत कुमार उधर दौड़े और डण्डों, बेंतों और चाबुकों से उस ऋषि को पीटने लगे ।
कोशल के राजा की भद्रा नामक सुन्दर पुत्री यज्ञ मण्डप में मुनि को प्रताड़ित हुए देख क्रुद्ध कुमारों को शान्त करने लगी । उसने कहा'राजाओं और इन्द्रों से पूजित यह वह ऋषि है जिसने मेरा त्याग किया । देवता के अभियोग से प्रेरित होकर राजा द्वारा मैं दी गई, किन्तु जिसने मुझे मन से भी नहीं चाहा । यह वही उग्र तपस्वी, महात्मा, जितेन्द्रिय, संयमी और ब्रह्मचारी है, जिसने मुझे मेरे पिता राजा कौशलिक द्वारा दिये जाने पर भी नहीं चाहा ।
'यह महान् यशस्वी है । महान् अनुभाग (अचित्य - शक्ति) से सम्पन्न
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