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________________ १७२ संस्कृति के दो प्रवाह शक्तिशाली बनाने के लिए तीर्थङ्कर की आवश्यकता थी। भगवान् महावीर से ठीक पहले हमें तीर्थङ्कर के रूप में केवल एक पार्श्व का ही अस्तित्व मिलता है, किन्तु भगवान् महावीर के काल में हम छह तीर्थंकरों का अस्तित्व पाते हैं। कुछ जैन विद्वान् यह कहते हैं कि एक तीर्थङ्कर जैसी धर्म-व्यवस्था करते हैं, वैसी ही दूसरे तीर्थङ्कर करते हैं। किन्तु ऐतिहासिक दृष्टि से इसका बहुत मूल्य नहीं है। एक तीर्थंकर ने कहा, उसका निरूपण दूसरा तीर्थङ्कर करे तो वस्तुतः वह तीर्थङ्कर ही नहीं होता। जिसका मार्ग पूर्व तीर्थङ्कर से भिन्न होता है, यानी सर्वथा सदृश नहीं होता, उसी को 'तीर्थङ्कर' कहा जाता है । हमारी यह स्थापना निराधार नहीं है। इसकी यथार्थता प्रमाणित करने के लिए हमें तीर्थङ्करों के शासन-भेद का अध्ययन करना होगा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003060
Book TitleSanskruti ke Do Pravah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1991
Total Pages274
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
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