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महावीर तीर्थङ्कर थे पर जैनधर्म के प्रवर्तक नहीं
"महाराज ! हमारे वंश का यही आचार है ।""
पहले प्रसंग से प्राप्त होता है कि बुद्ध स्वतंत्र धर्म के प्रवर्तक थे, उनका किसी परम्परा से सम्बन्ध नहीं था । दूसरे प्रसंग से प्राप्त होता है कि वे बुद्धों की परम्परा से जुड़े हुए थे । '
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भगवान् महावीर के सम्बन्ध में यह अनिश्चितता नहीं है । जैन साहित्य की यह निश्चित घोषणा है कि भगवान् महावीर स्वतंत्र धर्म के प्रवर्तक नहीं, किन्तु पूर्व - परम्परा के उन्नायक थे । वे अहिंसक परम्परा के एक तीर्थङ्कर थे । भगवान् ने स्वयं कहा है- " जो अर्हत् हो चुके हैं, जो वर्तमान में हैं, जो आगे होंगे, उन सबका यही निरूपण है कि सब जीवों की हिंसा मत करो । ३
भगवान् महावीर के मातृ पक्ष और पितृ पक्ष- दोनों भगवान् पार्श्वनाथ के अनुयायी थे । भगवान् महावीर स्वयंबुद्ध थे, इसीलिए उन्हें भगवान् पार्श्व का शिष्य नहीं कहा जा सकता । जैसे भगवान् पार्श्व ने धर्म - तीर्थं का प्रवर्तन किया था, वैसे ही भगवान् महावीर भी धर्म-तीर्थ के प्रवर्तक थे । कुमारश्रमण केशी ने गौतम से पूछा था - " लोगों को अन्ध बनाने वाले तिमिर में बहुत लोग रह रहे हैं । इस समूचे लोक में उन प्राणियों के लिए प्रकाश कौन करेगा ।""
गौतम ने कहा - " समूचे लोक में प्रकाश करने वाला एक विमल भानु उगा है । वह समूचे लोक में प्राणियों के लिए प्रकाश करेगा ।'
"भानु किसे कहा गया है" - केशी ने गौतम से पूछा । गौतम बोले - “जिसका संसार क्षीण हो चुका है, जो सर्वज्ञ है, वह अर्हत् रूपी भास्कर समूचे लोक के प्राणियों के लिए प्रकाश करेगा ।"
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भगवान् पार्श्व के निर्वाण के पश्चात् यज्ञ-संस्था बहुत प्रबल हो गई थी । इधर श्रमण परम्परा के अनुयायी और आत्म-विद्या के संरक्षक राजे भी वैदिकधारा से प्रभावित हो रहे थे, जिसका वर्णन हमें उपनिषदों में प्राप्त होता है । वैदिकों की प्रवृत्तिवादी विचारणा से श्रमणों में आचार सम्बन्धी शिथिलता घर कर रही थी । हिंसा और अब्रह्मचर्य जीवन की सहज प्रवृत्ति के रूप में अभिव्यक्ति पा रहे थे । वह स्थिति श्रमणों को घोर अन्धकारमय लग रही थी । उस स्थिति में श्रमणों की विचारधारा को
१. बुद्धचर्या, पृ० ५३ । २. वही, पृ० ५३ ३. आयारो ४।१ ।
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४. उत्तराध्ययन, २३।७५-७८ ।
५. वही, २३१७६-७८ ।
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