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________________ श्रमण संस्कृति का प्राग-ऐतिहासिक अस्तित्व विशेषण प्रयुक्त किए गए हैं' 'धर्मान् दिर्शयितुकामो वातरशनानां श्रमणानामृषीणामूर्वमन्थिनां शुक्लया तनुनावततार'-भगवान् ऋषभ श्रमणों, ऋषियों तथा ब्रह्मचारियों (ऊर्ध्वमन्थिनः) का धर्म प्रकट करने के लिए शुक्ल-सत्त्वमय विग्रह से प्रकट वैदिक साहित्य में मुनि का उल्लेख विरल है, किन्तु इसका कारण यह नहीं कि उस समय मुनि नहीं थे । वे थे, अपने ध्यान में मग्न थे। पुरोहितों के भौतिक जगत से परे वे अपने चिन्तन में लीन रहते थे और पुत्रोत्पादन या दक्षिणा-ग्रहण के कार्यों से भी दूर रहते थे।' मुनि के इस विवरण से स्पष्ट है कि वे किसी वैदिकेतर परम्परा के थे। वैदिक जगत् में यज्ञ-संस्था हो सब कुछ थी। वहां संन्यास या मुनि-पद को स्थान नहीं मिला था। वातरशन शब्द भी श्रमणों का सूचक है। तैत्तिरीयारण्यक और श्रीमद्भागवत द्वारा इस तथ्य की पुष्टि होती रही है। श्रमण का उल्लेख बृहदारण्यक उपनिषद्' और रामायण आदि में भी होता रहा है। केशी ऋग्वेद के जिस प्रकरण में वातरशन मुनि का उल्लेख है, उसी में केशी की स्तुति की गई है--- केश्यग्नि केशी विष केशी वित्ति रोदसी। केशी विश्वं स्वशे केशोदं ज्योतिरुच्यते ॥ यह 'केशी'भगवान् ऋषभ का वाचक है। वातरशन के संदर्भ में यह कल्पना करना कोई साहस का काम नहीं है। भगवान ऋषभ के केशी होने की परम्परा जैन साहित्य में आज भी उपलब्ध है। भगवान ऋषभ जब मुनि बने तब उन्होंने चार मुष्टि केशलोच किय जबकि सामान्य परम्परा पांच-मुष्टि केशलोच करने की है। भगवान् केश लोच कर रहे थे, दोनों पार्श्व-भागों का केशलोच करना बाकी था। तब १. श्रीमद्भागवत, ५।३।२० । २. वैदिककोश, पृ० ३८३ । ३. बृहदारण्यकोपनिषद्, ४।३।२२ । ४. रामायण, बालकाण्ड, सर्ग १४, श्लोक २२ : तपसा भुंजते चापि, श्रमणा भुज तथा । ५. ऋग्वेद, १०१११११३६।१ । - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003060
Book TitleSanskruti ke Do Pravah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1991
Total Pages274
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
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