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________________ श्रमण परम्परा की एकसूत्रता और उसके हेतु ५५ 'जो लोलुप नहीं है, जो निर्दोष भिक्षा से जीवन का निर्वाह करता है, जो गृहत्यागी है, जो अकिंचन है, जो गृहस्थों में अनासक्त है, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं ।' 'जिनके शिक्षा - पद, पशुओं को बलि के लिए यज्ञ के खम्भे में बांधे जाने के हेतु बनते हैं, वे सब वेद और पशु बलि आदि पाप कर्म के द्वारा किए जाने वाले यज्ञ दुराचार - सम्पन्न उस यज्ञकर्त्ता को त्राण नहीं देते, क्योंकि कर्म बलवान् होते हैं ।' 'केवल सिर- मूंड लेने से कोई श्रमण नहीं होता, 'ओम्' का जप करने मात्र से कोई ब्राह्मण नहीं होता, केवल अरण्य में रहने से कोई मुनि नहीं होता और कुश का चीवर पहनने मात्र से कोई तापस नहीं होता ।' 'समभाव की साधना करने से श्रमण होता है, ब्रह्मचर्य के पालन से ब्राह्मण होता है, ज्ञान की आराधना - मनन करने से मुनि होता है, तप का आचरण करने से तापस होता है ।' 'मनुष्य कर्म से ब्राह्मण होता है, कर्म से क्षत्रिय होता है, कर्म से वैश्य होता है और कर्म से ही शूद्र होता है ।' 'इन तत्त्वों को अर्हत् ने प्रकट किया है। इनके द्वारा जो मनुष्य स्नातक होता है, जो सब कर्मों से मुक्त होता है, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं । इस प्रकार जो गुण सम्पन्न द्विजोत्तम होते हैं, वे ही अपना और पराया उद्धार करने में समर्थ हैं ।' इस प्रकार संशय दूर होने पर विजयघोष ब्राह्मण ने जयघोष की वाणी को भलीभांति समझा और सन्तुष्ट हो, हाथ जोड़ कर उसने महामुनि जयघोष से इस प्रकार कहा 'तुमने मुझे यथार्थ ब्राह्मणत्व का बहुत ही अच्छा अर्थ समझाया है । 'तुम यज्ञों के यज्ञकर्त्ता हो, तुम वेदों को जानने वाले विद्वान् हो, तुम वेद के ज्योतिष आदि छहों अंगों के विद्वान् हो, तुम धर्मों के पारगामी हो ।' 'तुम अपना और पराया उद्धार करने में समर्थ हो, इसलिए हे भिक्षुश्रेष्ठ ! तुम हम पर भिक्षा लेने का अनुग्रह करो ।' ( मुनि ) -- 'मुझे भिक्षा से कोई प्रयोजन नहीं है । हे द्विज ! तू तुरन्त ही निष्क्रमण कर मुनि जीवन को स्वीकार कर, जिससे भय के आवर्ती से आकीर्ण इस बोर संसार-सागर में तुझे चक्कर लगाना न पड़े । ' १. उत्तराध्ययन, १२१५-३७ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003060
Book TitleSanskruti ke Do Pravah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1991
Total Pages274
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
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