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________________ संस्कृति के दो प्रवाह वातरशन श्रमणों द्वारा वह परम्परा के रूप में प्रचलित रही । श्रमण और वैदिक धारा का संगम हुआ तब प्रवृत्तिवादी वैदिक आर्य उससे प्रभावित नहीं हुए किन्तु श्रमण परम्परा के अनुयायी असुरों की धृति, आत्मलीनता और अशोक-भाव को देखा तो वे उससे सहसा प्रभावित हुए बिना नहीं रह सके । वेदोत्तर युग में आत्मविद्या और उसके परिपार्श्व में विकसित होने वाले अहिंसा, मोक्ष आदि तत्त्व दोनों धाराओं के संगम स्थल हो गए । वैदिक साहित्य में श्रमण संस्कृति के और श्रमण साहित्य में वैदिक संस्कृति के अनेक संगम स्थल हैं। यहां हम मुख्यतः आत्मविद्या और उसके रिपार्श्व में अहिंसा की चर्चा करेंगे । 1 आत्मविद्या और वेद ८२ 3 महाभारत का एक प्रसंग है । महर्षि बृहस्पति ने प्रजापति मनु से पूछा - " भगवन् ! जो इस जगत् का कारण है, जिसके लिए वैदिक कर्मों का अनुष्ठान किया जाता है, ब्राह्मण लोग जिसे ज्ञान का अन्तिम फल बतलाते हैं तथा वेद के मंत्र - वाक्यों द्वारा जिसका तत्त्व पूर्ण रूप से प्रकाश में नहीं आता, उस नित्य वस्तु का आप मेरे लिए यथार्थ वर्णन करें ।' "मनुष्य को जिस वस्तु का ज्ञान होता है, उसी को वह पाना चाहता है और पाने की इच्छा होने पर उसके लिए वह प्रयत्न आरम्भ करता है, परन्तु मैं तो उस पुरातन परमोत्कृष्ट वस्तु के विषय में कुछ जानता ही नहीं हूं, फिर पाने के लिए झूठा प्रयत्न कैसे करूं ? मैंने ऋक्, साम और यजुर्वेद का तथा छन्द का अर्थात् अथर्ववेद का एवं नक्षत्रों की गति, निरुक्त व्याकरण, कल्प और शिक्षा का भी अध्ययन किया है तो भी मैं आकाश आदि पांचों महाभूतों के उपादान कारण को न जान सका । तत्त्वज्ञान होने पर कौन - सा फल प्राप्त होता है ? कर्म करने पर किस फल की उपलब्धि होती है ? देहाभिमानी जीव देह से किस प्रकार निकलता है और फिर दूसरे शरीर में प्रवेश कैसे करता है ? ये मारी बातें भी मुझे बतलाएं ।"" इसी प्रकार नारद सनत्कुमार से कहता है- "भगवन् ! मुझे उपदेश दें ।” तब सनत्कुमार ने कहा - "तुम जो जानते हो वह मुझे बतलाओ, फिर उपदेश दूंगा ।" तब नारद ने कहा- "भगवन् ! मुझे ऋग्वेद, सामवेद और अथर्ववेद याद हैं । इतिहास, वेदों के वेद (व्याकरण), श्रद्धा- कल्प, गणित, उत्पाद - ज्ञान, निधिशास्त्र, तर्कशास्त्र, नीति, देव-विद्या, ब्रह्म-विद्या, भूतविद्या, क्षत्र-विद्या, सर्प - विद्या और देवजन-विद्या ( नृत्य, संगीत आदि) को १. महाभारत, शान्तिपर्व, २०११४ । २ . वही, शान्तिपर्व, २०१७, ८,६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003060
Book TitleSanskruti ke Do Pravah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1991
Total Pages274
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
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