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आत्मविद्या : क्षत्रियों की देन
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सन, सनत्, सुजात, सनक, ससनंदन, सनत्कुमार, कपिल और सनातन - ये सात ऋषि भी ब्रह्मा के मानस पुत्र हैं । इन्हें स्वयं विज्ञान प्राप्त है और ये निवृत्ति-धर्मावलम्बी हैं । ये प्रमुख योगवेत्ता, सांख्य-ज्ञान-विशारद धर्म-शास्त्रों के आचार्य और मोक्ष-धर्म के प्रवर्तक हैं ।
सप्ततिशतस्थान में बतलाया गया है कि जैन, शैव और सांख्य- ये तीन धर्म-दर्शन भगवान् ऋषभ के तीर्थ में प्रवृत्त हुए थे । इससे महाभारत के उक्त तथ्यांश का समर्थन होता है ।
श्रीमद्भागवत में लिखा है - भगवान् ऋषभ के कुशावर्त आदि नौ पुत्र नौ द्वीपों के अधिपति बने, कवि आदि नौ पुत्र आत्म-विद्या- विशारद श्रमण बने और भरत को छोड़कर शेष ८१ पुत्र महाश्रोत्रिय, यज्ञशील और कर्मशुद्ध ब्राह्मण बने । उन्होंने कर्मतन्त्र का प्रणयन किया ।
भगवान् ऋषभ ने आत्म-तंत्र का प्रवर्तन किया और उनके ८१ पुत्र कर्म-तन्त्र के प्रवर्तक हुए। ये दोनों धाराएं लगभग एक साथ ही प्रवृत्त हुईं । यज्ञ का अर्थ यदि आत्म-यज्ञ किया जाए तो थोड़ी भेदरेखाओं के साथ उक्त विवरण का संवादक प्रमाण जैन साहित्य में भी मिलता है और यदि यज्ञ का अर्थ वेद-विहित यज्ञ किया जाए तो यह कहना होगा कि भागवतकार ने ऋषभ के पुत्रों को यज्ञशील बता यज्ञ को जैन परम्परा से सम्बन्धित करने का प्रयत्न किया है ।
आत्मविद्या भगवान् ऋषभ द्वारा प्रवर्तित हुई । उनके पुत्रों
१. महाभारत, शान्तिपर्व, ३४०।७२-७४ :
सनः सनत्सुजातश्च सनकः ससनन्दनः । सनत्कुमारः कपिलः, सप्तमश्च सनातनः ॥ सप्तैते मानसाः प्रोक्ता, ऋषयो ब्रह्मणः सुताः । स्वयमागतविज्ञाना, निवृत्ति धर्ममास्थिताः ॥ एते योगविदो मुख्याः, सांख्यज्ञानविशारदाः । आचार्या धर्मशास्त्रषु, मोक्षधर्म प्रवर्तकाः ॥
२. सप्ततिशतस्थान, ३४०-३४१ : जइणं सइवं संखं, वेअंतियनाहिआण बुद्धाणं । इसे सियाण वि मयं, इमाई सग दरिसणाई कम ॥ तिन्नि उसहस्स तित्थे, जायाइ सीअलस्स ते दुन्नि । दरिसण मेगं पासस्स, सत्तमं वीरतित्थमि ॥ ३. श्रीमद्भागवत, ५।४।६ - १३; ११।२।१६-२१ । ४. आवश्यक निर्युक्ति, पृ० २३५-२३६ ।
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