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________________ २० संस्कृति के दो प्रवाह इसका तात्पर्य यह है कि जितनी भूख हो, उससे एक कवल. तक कम खाना भी अवमौदर्य है। निद्रा-विजय, समाधि, स्वाध्याय, परम संयम और इंद्रिय-विजय-ये अवमौदर्य के फल हैं। क्रोध, मान, माया, लोभ, कलह आदि को कम करना भी अवमौदर्य (३) भिक्षावरी (वृत्ति-संक्षेप) __ यह बाह्य तप का तीसरा प्रकार है। इसका दूसरा नाम 'वृत्तिसंक्षेप' या 'वृत्ति-परिसंख्यान' है। इसका अर्थ है 'विविध प्रकार के अभिग्रहों के द्वारा भिक्षा-वृत्ति को संक्षिप्त करना । (४) रस-परित्याग यह बाह्य तप का चौया प्रकार है। इसका अर्थ है(१) दूध, दही, घी आदि का त्याग । (२) प्रणीत-स्निग्ध पान-भोजन का त्याग । औपपातिक में इसका विस्तार मिलता है। वहां इसके निम्नलिखित प्रकार मिलते हैं १. निर्विकृति-विकृति का त्याग । २. प्रणीत रस-परित्याग-स्निग्ध व गरिष्ठ आहार का त्याग । ३. आचामाम्ल-आम्ल-रस मिश्रित भात आदि का आहार । ४. आयामसिक्थ भोजन-ओसामण में मिश्रित अन्न का आहार । ५. अरस आहार-हींग आदि से संस्कृत आहार। ६. विरस आहार-पुराने धान्य का आहार । ७. अन्त्य आहार-वल्ल आदि तुच्छ धान्य का आहार । ८. प्रान्त्य आहार-ठण्डा आहार । ६. रूक्ष आहार। १. मूलाराधना, अमितगति २११ । २. औपपातिक, सूत्र १६ । ३. समवायांग, समवाय ६ । ४. मूलाराधना, ३।२।७। ५. देखिए-उत्तराध्ययन, ३०।२५ का टिप्पण । ६. उत्तराध्ययन ३०।२६ । ७. औपपातिक, सूत्र १६ 1. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003060
Book TitleSanskruti ke Do Pravah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1991
Total Pages274
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
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