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संस्कृति के दो प्रवाह
धर्मध्यान का अधिकारी अल्पज्ञानी व्यक्ति हो सकता है, किन्तु वह नहीं हो सकता, जिसका मन अस्थिर हो ।' ध्यान और ज्ञान का निकट से कोई सम्बन्ध नहीं है । ज्ञान व्यग्र होता है—अनेक आलम्बनों में विचरण करता है और ध्यान एकाग्र होता है—एक आलम्बन पर स्थिर होता है । वस्तुतः ध्यान ज्ञान से भिन्न नहीं है, उसी की एक विशेष अवस्था है । अपरिस्पन्दमान अग्निशिखा की भांति जो ज्ञान स्थिर होता है, वही ध्यान कहलाता है ।"
जिसका संहनन वज्र की तरह सुदृढ़ होता है और जो विशिष्ट श्रुत ( पूर्व - ज्ञान ) का ज्ञाता होता है, वही व्यक्ति शुक्लध्यान का अधिकारी है । " जैन आचार्यों का यह अभिमत रहा है कि वर्तमान में शुक्लध्यान उपयुक्त सामग्री - वज्र - संहनन और ध्यानोपयोगी विशिष्ट ज्ञान प्राप्त नहीं है । उन्होंने ऐदयुगीन लोगों को धर्मध्यान का ही अधिकारी माना है ।"
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(६) अनुप्रेक्षा - आत्मोपलब्धि के दो साधन हैं- स्वाध्याय और ध्यान । कहा गया है कि स्वाध्याय करो, उससे थकान का अनुभव हो तब ध्यान करो । ध्यान से थकान का अनुभव हो, तब फिर स्वाध्याय करो । इस क्रम से स्वाध्याय और ध्यान के अभ्यास से परमात्मा प्रकाशित हो जाता है ।"
अनुप्रेक्षा स्वाध्याय का एक अंग है । ध्यान की सिद्धि के लिए अनुप्रेक्षाओं का अभ्यास करना नितान्त आवश्यक है । उनके अभ्यास से जिसका मन सुसंस्कृत होता है, वह विषम स्थिति उत्पन्न होने पर भी अविचल रह सकता है, प्रिय और अप्रिय दोनों स्थितियों को समभाव से सह सकता है । धर्मध्यान की चार अनुप्रेक्षाएं हैं । इनका उल्लेख हम 'ध्यान के प्रकार' शीर्षक में कर चुके हैं ।
(१०) लेश्या - विचारों में तरतमता होती है । वे अच्छे हों या बुरे, एक समान नहीं होते। इस तरतमता को लेश्या के द्वारा समझाया गया है । यह निश्चित है कि धर्मध्यान के समय विचार प्रवाह शुद्ध होता
१. महापुराण, २८।२६ ।
२. सर्वार्थसिद्धि, ६।२७; तत्त्वानुशासन, ४६ ।
३. ध्यानशतक, ६४ ।
४. तत्त्वानुशासन, ३६ । ५. वही, ८१ ।
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