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संस्कृति के दो प्रवाह
१. जघन्य-उत्कृष्ट- हस्तिशुण्डिका ।' एक पैर को पसार कर ताप
सहना। २. जघन्य-मध्यम---एकपादिका। एक पैर के बल पर खड़े रह कर
ताप सहना। ३. जघन्य-जघन्य-समपादिका। दोनों पैरों को समश्रेणि में रख,
खड़े-खड़े ताप सहना । तपोयोग
तप के दो भेद हैं---बाह्य और आभ्यन्तर । दोनों के छह-छह प्रकार हैं। बाह्य तप के छह प्रकार ये हैं(१) अनशन
यह बाह्य तप का पहला प्रकार है। इसके दो भेद हैं--- १. इत्वरिक---अल्पकालिक । २. यावत्कथित-मरणकालभावी।
मुनि के लिए आहार करना और न करना-दोनों सहेतुक हैं।' जब तक अपना शरीर ज्ञान, दर्शन और चारित्र की आराधना में सहायक रहे, उसके द्वारा नए-नए विकास उपलब्ध हों तब तक वह शरीर का पोषण करे। जब यह लगे कि इस शरीर के द्वारा कोई विशेष उपलब्धि नहीं हो रही हैज्ञान, दर्शन और चारित्र का नया उन्मेष नहीं आ रहा है, तब शरीर की उपेक्षा कर दे-आहार का परित्याग कर दे।' यह सिद्धान्त आमरणभावी अनशन के लिए है। अल्पकालिक अनशन का सिद्धान्त यह है कि इन्द्रियविजय या चित्त-शुद्धि के लिए जब जैसी आवश्यकता हो, वैसा अनशन करे। इसकी सामान्य मर्यादा यह है कि इन्द्रिय और योग की हानि न हो तथा मन अमंगल चिन्तन न करे, तब तक तपस्या की जाए। वह आत्म-शुद्धि १. बृहत्कल्पभाष्य, गाथा ५६४८, वृत्ति : पुताभ्यामुपविष्टस्येकपादोत्पाटनरूपा। बृहत्कल्पभाष्य, ५९५३ की वृत्ति में हस्तिशुण्डिका को निषद्या का एक प्रकार माना है और जघन्य आतापना में खड़ा रहने का विधान है। वस्तुतः इस आसन में बैठने और खड़ा रहने का मिश्रण है। २. उत्तराध्ययन, २६॥३१-३४ । ३. वही, ४१७ : लाभान्तरे जीविय वहइत्ता, पच्छा परिन्नाय मलावधंसी। ४. मरणसमाधि प्रकीर्णक, १३४ :
सो हु तवो कायव्वो, जेण मणोऽमंगलं न चितेइ । जेण न इंदियाहाणी, जेण जोगा न हायंति ॥
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