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________________ श्रमण संस्कृति का प्राग्-ऐतिहासिक अस्तित्व तक अनेकों युगों से रहती आई हूं। किन्तु अब वे काम-क्रोध के वशीभूत हो गए हैं, उनमें धर्म नहीं रह गया है इसलिए मैंने उनका साथ छोड़ दिया। इससे स्पष्ट है कि दानवों की राज्य-सत्ता सुदीर्घ-काल तक यहां रही और उसके पश्चात् वह इन्द्र के नेतृत्व में संगठित आर्यों के हाथ में चली गई। . वैदिक-आर्यों का प्रभुत्व उत्तर भारत पर अधिक हुआ था । दक्षिण भारत में उनका प्रवेश बहत विलम्ब से हआ या विशेष प्रभावशाली रूप में नहीं हुआ। जब दैत्यराज बलि की राज्यश्री ने इन्द्र का वरण किया तब इन्द्र ने दैत्यराज बलि से कहा-'ब्रह्मा ने मुझे आज्ञा दी है कि मैं तुम्हारा वध न करूं। इसीलिए मैं तुम्हारे सिर पर वज्र नहीं छोड़ रहा हूं। दैत्यराज ! तुम्हारी जहां इच्छा हो चले जाओ।' इन्द्र की यह बात सुन दैत्यराज बलि दक्षिण दिशा में चले गए और इन्द्र उत्तर दिशा में। पद्मपुराण में भी बताया गया है कि असुर लोग जैन-धर्म को स्वीकार करने के बाद नर्मदा के तट पर निवास करने लगे। इससे स्पष्ट है कि अर्हत का धर्म, उत्तर भारत में आर्यों का प्रभुत्व बढ़ जाने के बाद, दक्षिण भारत में विशेष बलशाली बन गया। असुरों का उत्तर से दक्षिण की ओर जाना भी उनकी तथा द्रविडों की सभ्यता और संस्कृति की समानता का सूचक है। असुर और आत्मविद्या __आर्यपूर्व असुर राजाओं की पराजय होने के बाद आर्यनेता इन्द्र ने वैरोचन, नमुचि और प्रह्लाद से कहा---'तुम्हारा राज्य छीन लिया गया है; तुम शत्रु के हाथ में पड़ गए हो फिर भी तुम्हारी आकृति पर कोई शोक की रेखा नहीं, यह कैसे ?" १. महाभारत, शान्तिपर्व, २२८।४६-५० । २. महाभारत, शान्तिपर्व, २२॥३७ : एवमुक्तस्तु दैत्येन्द्रो बलिरिन्द्रेण भारत । जगाम दक्षिणामाशामुदीची तु पुरन्दरः । ३. पद्मपुराण, १३।४१२ : नर्मदासरितं प्राप्य, स्थिता दानवसत्तमाः । ४. (क) महाभारत, शान्तिपर्व, २२७।१५ : शत्रुभिवर्शमानीतो, हीनः स्थानादनुत्तमात् । वैरोचने ! किमाश्रित्य, शोचितव्ये न शोचसि ॥ (ख) वही, २२६।३ : बद्धः पाशैश्च्युतः स्थानाद्, द्विषतां वशमागतः । श्रिया विहीनो नमुचे ! शोचस्याहो न शोचसि ? ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003060
Book TitleSanskruti ke Do Pravah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1991
Total Pages274
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
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