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________________ योग २०१ जी (वि० सं० १३ वीं शताब्दी) का अर्थ आचार्य हेमचन्द्र का समर्थन करता है ।' आचार्य अमितगति का मत यही है।' पद्मासन ___ आगमोक्त आसनों में पद्मासन का उल्लेख नहीं है। पहले बताया जा चुका है कि अभयदेव सूरि पर्यङ्कासन का अर्थ पद्मासन करते हैं। आगम-काल में पद्मासन के लिए 'पर्यङ्कासन' शब्द प्रचलित रहा हो तो जैन परम्परा में पद्मासन का बहुत ही महत्त्वपूर्ण स्थान माना जा सकता है। इसका उल्लेख ज्ञानार्णव', अमितगति श्रावकाचार, योगशास्त्र आदि ग्रन्थों में मिलता है। अमितगति के अनुसार एक जंघा के साथ दूसरी जंघा का समभाग में जो आश्लेष होता है, वह पद्मासन है। आचार्य हेमचन्द्र के अनुसार जंघा के मध्य भाग में दूसरी जंघा का श्लेष करना पद्मासन है। सोमदेव सूरि के अनुसार जिसमे दोनों पैर दोनों घुटनों से नीचे दोनों पिण्डलियों पर रख कर बैठा जाता है, उसे पद्मासन कहते हैं।' शङ्कराचार्य ने पद्मासन का अर्थ किया है.---'बाएं पैर को दाईं जंघा पर और दाएं पैर को बाईं जंघा पर रख कर बैठना।" १. मूलाराधना दर्पण, ३।२२५ : वीरासणं-ऊरूद्वयोपरि पादद्वयविन्यासः । २. अमितगति श्रावकाचार, ८।४७ : ऊर्वोरुपरि निक्षेपे, पादयोविहिते सति । वीरासनं चिरं कत्तं, शक्यं वीरैर्न कातरैः ।। ३. ज्ञानार्णव, २८।१०। ४. अमितगति, श्रावकाचार, ८।४५ : जंघाया जंघया श्लेषे, समभागे प्रकीर्तितम् । पद्मासने सुखाधायि, सुसाध्यं सकलैजनैः ।। ५. योगशास्त्र, ४।१२६ : जंघाया मध्यभागे तु, संश्लेषो यत्र जंघया। पद्मासनमिति प्रोक्तं, तदासनविचक्षणः ।। ६. उपासकाध्ययन, ३६७३२ : __ संन्यस्ताभ्यामधोङिघ्रभ्यामूर्वोरुपरि युक्तितः । भवेच्च समगुल्फाभ्यां पद्मवीरसुखासनम् ॥ ७. पातञ्जल योगसूत्र, २।४६, विवरण : तत्र पद्मासनं नाम-सव्यं पादमुपसंहृत्य दक्षिणोपरि निदधीत, तथैव दक्षिणं सव्यस्योपरिष्टात् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003060
Book TitleSanskruti ke Do Pravah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1991
Total Pages274
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
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