SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 225
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २१८ संस्कृति के दो प्रवाह परिवर्तना या आम्नाय को अनुप्रेक्षा से पहले रखना उचित लगता आचार्य शिष्यों को पढ़ाते हैं—यह 'वाचना' है। पढ़ते समय या पढ़ने के बाद शिष्य के मन में जो जिज्ञासाएं उत्पन्न होती हैं, उन्हें वह प्राचार्य के सामने प्रस्तुत करता है-यह 'प्रच्छना' है। आचार्य से प्राप्त प्रत को याद रखने के लिए वह बार-बार उसका पाठ करता है यह परिवर्तना' है । परिचित श्रुत का मर्म समझने के लिए वह उसका र्यालोचन करता है-यह 'अनुप्रेक्षा' है । पठित, परिचित और पर्यालोचित चुत का वह उपदेश करता है-यह 'धर्मकथा' है। इस क्रम में परिवर्तना का स्थान अनुप्रेक्षा से पहले प्राप्त होता है। सिद्धसेन गणि के अनुसार अनुप्रेक्षा का अर्थ है 'ग्रन्थ और अर्थ का मानसिक अभ्यास करना।' इसमें वर्णों का उच्चारण नहीं होता और नाम्नाय में वर्णों का उच्चारण होता है, यही इन दोनों में अन्तर है।' मनुप्रेक्षा के उक्त अर्थ के अनुसार उसे आम्नाय से पूर्व रखना भी अनुचित नहीं है। आम्नाय, घोषविशुद्ध, परिवर्तन, गुणन और रूपादानये आम्नाय या परिवर्तना के पर्यायवाची शब्द हैं। ___अर्थोपदेश, व्याख्यान, अनुयोगवर्णन, धर्मोपदेश-ये धर्मोपदेश या वर्मकथा के पर्यायवाची शब्द हैं।' (५) ध्यान यह आभ्यन्तर तप का पांचवां प्रकार है । साधना-पद्धति में इसका सर्वोपरि महत्त्व रहा है। यह हमारी चेतना की ही एक अवस्था है। इसका अनुसन्धान और अभ्यास सुदूर अतीत में हो चुका था। कोई भी आध्यात्मक धारा इसके बिना अपने साध्य तक नहीं पहुंच सकती थी। छान्दोग्य उपनिषद् के ऋषि के ध्यान महत्त्व से परिचित थे। किन्तु छान्दोग्य में इसका १. तत्त्वार्थ, ६।२५ भाष्यानुसारि टीका : सन्देहे सति ग्रन्थार्थयोर्मनसाऽभ्यासोऽनुप्रेक्षा। न तु बहिर्वर्णोच्चारणमनुश्रावणीयम् । आम्नायोऽपि परिवर्तनं उदात्तादि परिशुद्धमनुश्रावणीयमभ्यासविशेषः । २. वही, ६।२५ भाष्यानुसारि टीका : आम्नायो घोषविशुद्धं परिवर्तनं गुणनं रूपादा नमित्यर्थः । ३. वही, ६।२५ भाष्यानुसारि टीका : अर्थोपदेशो व्याख्यानं अनुयोगवर्णनं धर्मोपदेश इत्यनान्तरम् । ४. छान्दोग्य उपनिषद्, ७।६।१-२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003060
Book TitleSanskruti ke Do Pravah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1991
Total Pages274
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy