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संस्कृति के दो प्रवाह 'भू-भाग'-ध्यान किसी ऊंचे आसन या शय्या आदि पर बैठ कर नहीं करना चाहिए । उसके लिए 'भूतल' और 'शिलापट्ट'-ये दो उपयुक्त माने गए हैं। काष्ठपट्ट भी उसके लिए उपयुक्त है ।
ध्यान के लिए अभिहित आसनों की चर्चा हम 'स्थानयोग' के प्रसंग में कर चुके हैं।
समग्रदृष्टि से ध्यान के लिए निम्न अपेक्षाएं हैं(१) बाधा रहित स्थान, (२) प्रसन्न काल, (३) सुखासन, (४) सम, सरल और तनाव रहित शरीर, (५) दोनों होठ 'अधर' मिले हुए, (६) नीचे और ऊपर के दांतों में अन्तर, (७) दृष्टि नासा के अग्र भाग पर टिकी हुई, (८) प्रसन्न मुख, (E) मुंह पूर्व या उत्तर दिशा की ओर (१०) मंद श्वास-निःश्वास ।'
(५) आलम्बन-ऊपर की चढ़ाई में जैसे रस्सी आदि के सहारे की आवश्यकता होती है, वैसे ही ध्यान के लिए भी कुछ आलम्बन आवश्यक होते हैं। इनका उल्लेख 'ध्यान के प्रकार' शीर्षक में किया जा चुका है।
(६) क्रम-पहले स्थान (स्थिर रहने) का अभ्यास होना चाहिए। इसके पश्चात् मौन का अभ्यास करना चाहिए। शरीर और वाणी-दोनों की गुप्ति होने पर ध्यान (मन की गुप्ति) सहज हो जाता है । अपनी शक्ति के अनुसार ध्यान-साधना के अनेक क्रम हो सकते हैं।
(७) ध्येय-ध्येय अनेक हो सकते हैं, उनकी निश्चित संख्या नहीं की जा सकती। ध्येय विषयक चर्चा 'ध्यान के प्रकार' शीर्षक में की जा चुकी है।
(८) ध्याता-ध्यान के लिए कुछ विशेष गुणों की अपेक्षाएं हैं। वे १. तत्त्वानुशासन, ६२। २. (क) महापुराण, २११६०-६४ । (ख) योगशास्त्र, ४।१३५,१३६ ।
(ग) पासनाहचरिय, २०६ । ३. ध्यानशतक, ४३ ।
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