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बीती जा रही है । यौवन चला आ रहा है । '
अशरण भावना
सगे-सम्बन्धी तुम्हारे लिए त्राण नहीं हैं और तुम भी उनके लिए त्राण नहीं हो । '
संसार भावना
इस जन्म-मरण के चक्कर में एक पल-भर भी सुख नहीं है ।
संस्कृति के दो प्रवाह
एकत्व भावना
आदमी अकेला जन्मता है और अकेला मरता है। उसकी संज्ञा, विज्ञान और वेदना भी व्यक्तिगत होती है ।"
अन्यत्व भावना
काम-भोग मुझसे भिन्न हैं और में उनसे भिन्न हूं। पदार्थ मुझसे भिन्न हैं और मैं उनसे भिन्न हूं ।'
अशौच भावना
यह शरीर अपवित्र है, अनेक रोगों का आलय है ।'
आश्रव भावना
आश्रव - कर्म - बन्धन के हेतु ऊपर भी हैं, नीचे भी हैं और मध्य में भी हैं ।
संवर और निर्जरा भावना
नाले बन्द कर देने व अन्दर के जल को उलीच उलीच कर बाहर निकाल देने पर जैसे महातालाब सूख जाता है, वैसे ही आश्रव-द्वारों को बन्द कर देने और पूर्व संचित कर्मों को तपस्या के द्वारा निर्जीर्ण करने पर आत्मा पुद्गल-मुक्त हो जाती है ।"
लोक भावना
जो लोकदर्शी है, वह लोक के अधोभाग को भी जानता है, ऊर्ध्वभाग को भी जानता है और तिर्यग्-भाग को भी जानता है ।'
१. ( क ) आयारो, २।४,५ । (ख) उत्तराध्ययन, १३।३१ । २. (क) उत्तराध्ययन, ६ । ३ । (ख) आयारो, २८ । ३. उत्तराध्ययन, १६७४ । ४. वही, १८१४-१५ ।
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५. सूत्रकृतांग, २।२।३४ । ६. उत्तराध्ययन, १०१२७ । ७. आयारो, ५।११८ । ८. उत्तराध्ययन, ३०१५-६ । ६. आयारो, २।११५ ।
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