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श्रमण संस्कृति का प्राग्-ऐतिहासिक अस्तित्व
जिसके घर में विद्वान् वात्य अपरिमित (बहुधा) अतिथि रहे, वह अपरिमित पुण्यलोकों को अपने वश में कर लेता है।
व्रात्यकाण्ड में प्रतिपादित विषय की भगवान ऋषभ के जीवनव्रत से तुलना होती है। वे दीक्षित होने के बाद एक वर्ष तक तपस्या में स्थिर रहे थे। एक वर्ष तक भोजन न करने पर भी शरीर में पुष्टि और दीप्ति को धारण कर रहे थे।
मुनियों की चर्या को धारण करने वाले भगवान जिस-जिस ओर कदम रखते थे अर्थात् जहां-जहां जाते थे, वहीं-वहीं के लोग प्रसन्न होकर और बड़े संभ्रम के साथ आकर उन्हें प्रणाम करते थे। उनमें से कितने ही लोग कहने लगते थे-हे देव ! प्रसन्न होइए और कहिए कि क्या काम
कितने ही लोग भगवान् से ऐसी प्रार्थना करते थे कि भगवन ! हम पर प्रसन्न होइए। हमें अनुगृहीत कीजिए।'
भगवान् ऋषभ अन्त में अपुनरावृत्ति स्थान को प्राप्त हुए, जहां जाने के पश्चात् कोई लौट कर नहीं आता।"
यह बहुत सम्भव है कि व्रात्यकाण्ड में भगवान् ऋषभ का जीवन रूपक की भाषा में चित्रित है। ऋषभ के प्रति कुछ वैदिक ऋषि श्रद्धा१. अथर्ववेद, १५।२।६।१-१० । तद् यस्यवं विद्वान् व्रात्य एकां रात्रिमतिथिर्गहे वसति ।। ये पृथिव्यां पुण्या लोकास्तानेव तेनावरुन्द्धे ॥ तद् यस्यैव विद्वान् ब्रात्यो द्वितीयां रात्रिमतिथिगैहे वसति । येऽन्तरिक्षे पुण्या लोका स्तानेव तेनावरुन्द्धे ॥ तद् यस्यैवं विद्वान् व्रात्यस्तृतीयां रात्रिमतिथिर्गहे वसति । ये दिवि पुण्या लोकास्तानेव तेनावरुन्द्धे ॥ तद् यस्यैवं विद्वान् व्रात्यश्चतुर्थी रात्रिमतिथिर्गुहे वसति । ये पुण्यानां पुण्या लोकास्तानेव तेनावरुन्छ । तद् यस्यवं विद्वान् व्रात्योऽपरिमिता रात्रिरतिथिर्गृहे वसति । य एवापरिमिता: पुण्या लोकास्तानेव तेनावरुन्छे । २. महापुराण, २०६५ : हायनानशनेऽप्यने, पुष्टि दीप्तिञ्च बिभ्रते । ३. वही, २०११४,१५। ४. वही, २०१२२ । ५. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति वृत्ति, पत्र १५८ : समुज्जाए-तत्र सम्यग-अपुनरावृत्या __ ऊर्ध्व लोकाग्रलक्षणं वात:-प्राप्तः ।
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