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महावीरकालीन मतवाद
याम निर्ग्रन्थ परम्परा में प्रचलित नहीं रहे हैं । भगवान् पार्श्व के चार याम ये थे--- (१) प्राणातिपात - विरमण । (२) मृषावाद - विरमण ।
(३) अदत्तादान - विरमण । ( ४ ) बहिस्तात् - आदान- विरमण ।
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भगवान् महावीर ने निर्ग्रन्थों के लिए पांच महाव्रतों का प्रतिपादन किया था । भगवान् पार्श्व के चौथे उत्तराधिकारी कुमारश्रमण केशी एक बार श्रावस्ती में आए और तिन्दुक - उद्यान में ठहरे। उन्हीं दिनों भगवान् महावीर के प्रथम गणधर गौतम स्वामी भी वहां आए और कोष्ठक उद्यान में ठहरे । उन दोनों के शिष्य परस्पर मिले । उनके मन में एक तर्क खड़ा हुआ - "यह हमारा धर्म कैसा है ? और यह उनका धर्म कैसा है ? आचारधर्म की व्यवस्था हमारी कैसी है ? और वह उनकी कैसी है ? जो चातुर्याम धर्म है, उसका प्रतिपादन महामुनि पार्श्व ने किया है और यह जो पंच शिक्षात्मक-धर्म है, उसका प्रतिपादन महामुनि वर्द्धमान ने किया है.. " जबकि हम एक ही उद्देश्य से चले हैं तो फिर इस भेद का क्या कारण है । अपने शिष्यों की वितर्कणा को जान कर उनका सन्देह - निवारण करने के लिए केशी और गौतम मिले । केशी ने गौतम से पूछा - "जो चातुर्याम धर्म है, उसका प्रतिपादन महामुनि पार्श्व ने किया है और यह जो पंच शिक्षात्मक-धर्म है, उसका प्रतिपादन महामुनि वर्द्धमान ने किया है । एक ही उद्देश्य के लिए हम चलें हैं तो फिर इस भेद का क्या कारण है ? मेधाविन् ! धर्म के इन दो प्रकारों में तुम्हें सन्देह कैसे नहीं होता ? " केशी के कहते-कहते ही गौतम ने इस प्रकार कहा - "धर्म के परम अर्थ की, जिसमें लाखों का विनिश्चय होता है, सीमा प्रज्ञा से होती है । पहले तीर्थङ्कर के साधु ऋजु और जड़ होते हैं । अन्तिम तीर्थङ्कर के साधु वक्र और जड़ होते हैं। बीच के तीर्थङ्करों के साधु ऋजु और प्राज्ञ होते हैं, इसलिए धर्म के दो प्रकार किए हैं । पूर्ववर्ती साधुओं के लिए मुनि के आचार को यथावत् ग्रहण कर लेना कठिन है । चरमवर्ती साधुओं के लिए मुनि के आचार का पालन कठिन है । मध्यवर्ती साधु उसे यथावत् ग्रहण कर लेते हैं और उसका पालन भी वे सरलता से करते हैं । "
३. वही, २३।२३ - २७ ।
१. स्थानांग, ४११३६ ।
२. उत्तराध्ययन, २३।११,१२,१३ ।
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