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________________ ६५ धर्म की धारणा के हेतु सधते हैं ।' जैन आचार्य भी इस मान्यता का समय-समय पर समर्थन करते रहे हैं प्राज्यं राज्यं सुभग दयिता नन्दना नन्दनानां । रम्यं रूपं सरसकविताचातुरी सुस्वरत्वम् ॥ नीरोगत्वं गुणपरिचयः सज्जनत्वं सुबुद्धिः । किन्तु ब्रूमः फलपरिणति धर्मकल्पद्रुमस्य ॥ ' किंतु वास्तविक दृष्टि से धर्म अभ्युदय का प्रत्यक्ष हेतु नहीं ह । वह प्रत्यक्ष हेतु निःश्रेयस् का ही है । अभ्युदय उसका प्रासंगिक परिणाम है । धर्म ऐहिक या पारलौकिक अभ्युदय के लिए नहीं है । उसका मुख्य परिणाम है- आत्मा की पवित्रता । पवित्रता की दृष्टि से धर्म ऐहिक भो है और पारलौकिक भी । पूर्व चर्चित विषय को निष्कर्ष की भाषा में इस प्रकार प्रस्तुत कर सकते हैं कि पौद्गलिक अभ्युदय की दृष्टि से धर्म इहलौकिक भी नहीं है और पारलौकिक भी नहीं है । आत्मोदय की दृष्टि से वह इहलौकिक भी है और पारलौकिक भी । धर्म के परिणाम की चर्चा के प्रसंग में परलोक शब्द भविष्य के अर्थ में रूढ़ हो गया है । धर्म से वर्तमान शुद्ध होता है और वह शुद्धि भविष्य को प्रभावित करती है । अधर्म से वर्तमान अशुद्ध बनता है और वह अशुद्धि भविष्य को प्रभावित करती है । जब अरिष्टनेमि को पता चला कि मेरे लिए निरीह पशुओं का वध किया जा रहा है, तब उन्होंने कहा - 'यह कार्यं मेरे परलोक में कल्याणकर नहीं होगा ।" इस प्रकरण में परलोक शब्द भविष्य के अर्थ में रूढ़ है । १. वैशेषिक दर्शन, अध्याय १, आह्निक १, सूत्र २ : यतोऽभ्युदयनिः श्रेयससिद्धिः स धर्मः । २. शान्तसुधारस, १०७ । ३. पुरुषार्थसिद्ध्युपाय, २२०-२२१ : रत्नत्रयमिह हेतुर्निर्वाणस्यैव भवति नान्यस्य । आस्रवति यत्तु पुण्यं, शुभोपयोगोऽयमपराधः ॥ एकस्मिन् समवायाद्, अत्यन्त विकार्य योरपि हि । इह दहति घृतमिति यथा व्यवहारस्तादृशोऽपि रूढिमितिः ॥ ४. उत्तराध्ययन, ८ २०; १७।२१ । ५. वही, २५।१६ : जइ मज्झ कारणा एए, हम्मिहिति बहू जिया । न मे एयं तु निस्सेसं, परलोगे भविस्सई ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003060
Book TitleSanskruti ke Do Pravah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1991
Total Pages274
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
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