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________________ ११८ संस्कृति के दो प्रवाह मूर्त और अमूर्त ।' बहदारण्यक २।३।१ में भी यही बात मिलती है। पुराणसाहित्य में भी इस मान्यता की चर्चा हई है। जैन आगमों में मूर्त और अमूर्त के स्थान पर रूपी और अरूपी का प्रयोग अधिक मिलता है। इनकी चर्चा भी जितने विस्तार से उनमें हुई है, उतनी अन्यत्र प्राप्त नहीं है । रूपी और अरूपी की सामान्य परिभाषा यह है कि जिस द्रव्य में वर्ण, गन्ध, स्पर्श और संस्थान हों, वह रूपी है और जिसमें ये न हों वह अरूपी है। जीव अरूपी है इसलिए भगुपुत्रों ने अपने पिता से कहा था--'जीव अमूर्त होने के कारण इन्द्रियों द्वारा ग्राह्य नहीं है। अजीव के प्रथम चार प्रकार अरूपी हैं । पुद्गल रूपी हैं । अरूपी जगत् जनसाधारण के लिए अगम्य है। उसके लिए जो गम्य है, वह पुद्गल जगत् है। उसके चार प्रकार हैंस्कन्ध, देश, प्रदेश और परमाणु ।' परमाणु पुद्गल की सबसे छोटी इकाई है। उससे छोटा कुछ भी नहीं है। स्कन्ध उनके समुदाय का नाम है। देश और प्रदेश उसके काल्पनिक विभाग हैं। पुद्गल की वास्तविक इकाई परमाणु ही है । परमाणु सूक्ष्म होते हैं, इसीलिए वे रूपी होने पर भी हमारे लिए दृश्य नहीं हैं। इसी प्रकार उनके सूक्ष्म स्कन्ध भी हमारे लिए अदृश्य हैं। हमारे लिए वही रूपी जगत् दृश्य है जो स्थूल है। परमाणुवाद जैन आगमों में परमाणुओं के विषय में अत्यन्त विस्तृत चर्चा की गई है। यह कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि आगमों का आधा भाग परमाणुओं की चर्चा से सम्बन्धित है । उनके विषय में जैन दर्शन का एक विशेष दृष्टिकोण है । उसका अभिमत है कि इस संसार में जितना सांयोगिक परिवर्तन होता है, वह परमाणओं के आपसी संयोग-वियोग और और जीव और परमाणुओं के संयोग-वियोग से होता है। इसकी विशद चर्चा हम 'कर्मवाद और लेश्या' के प्रकरण में करेंगे। शिवदत्त ज्ञानी ने लिखा है-'परमाणवाद वैशेषिक दर्शन की ही विशेषता है । उसका प्रारम्भ उपनिषदों से होता है । जैन, आजीवक आदि द्वारा भी उसका उल्लेख किया गया है। किन्तु कणाद ने उसे व्यवस्थित रूप दिया। ज्ञानीजी का यह प्रतिपादन प्रामाणिक नहीं है। औपनिषदिक दष्टि के उपादान कारण परमाणु नहीं हैं। उसका उपादान ब्रह्म है। १. शतपथ ब्राह्मण, १४।५।३।१ । ४. वही, ३६।४ । २. विष्णुपुराण, १।२२।५३ । ५. वही, ३६।१०। ३. उत्तराध्ययन, १४।१६ ।। ६. भारतीय संस्कृति, पृ० २२६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003060
Book TitleSanskruti ke Do Pravah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1991
Total Pages274
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
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