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समणसुत्तं
सर्व-सेवा-संघ-प्रकाशन
राजघाट. वाराणसी
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समण सुत्तं
( श्रमणसूत्रम् )
रत्न
त्रय
S
सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग |
सर्व सेवा संघ - प्रकाशन राजघाट, वाराणसी
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LALIT C. SHAH
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SAMANASUTTAM
Price: Rs. 21.00
सर्व
'समजसुतं' ग्रन्थ के चौथे संस्करण का पुनर्मुद्रण प्रकाशन, श्री परशुरामजी चुनीलालजी चोरडिया, पूना ( महाराष्ट्र) के आर्थिक सहयोग से किया गया 1
राजघाट
व
प्रकाशन
पराणरी
संघ
समणसुतं
अनुवाद :
पं० कैलाशचन्द्रजी शास्त्री मुनि श्री नथमलजी
संस्कृत - छाया-परिशोधन
प० बेचरदासजी दोशी
प्रकाशक
सर्व-सेवा-संघ - प्रकाशन
राजघाट, वाराणसी - २२१००१
सस्करण : चौथा
प्रतियाँ : २,०००
कुल प्रतियाँ : २०,०००
सितम्बर, १९८९
मुद्रक : रत्ना प्रिंटिंग वक्सं वाराणसी
कमच्छा,
मूल्य : रु० २१.००
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प्रकाश की य
'समणमुत्त' ग्रन्थ का प्रकाशन करते हुए सर्व सेवा सघ गौरव एवं प्रसन्नता का अनुभव कर रहा है।
धर्म के अनन्त रूप है । शब्दी मे इन रूपो को बाँधा नही जा सकता। महापुरुपो तथा विचारक मनीषियों ने देश, काल, परिस्थिति के अनुसार अनन्त का अनन्तवाँ अ ही प्रकट किया है। महापुरषो का दर्शन सकुचित नही होता, परन्तु अर्थग्रहण की सीमाओ
शाभिनिवेश की नीव पडती है और इसी में से विविध मतवादो का उद्भव हो जाता है । निष्पक्षभाव से विश्व के सब धर्मो का गहराई से अध्ययन किया जाय तो ज्ञात हो सकता है कि महापुरषो की वाणी का अमुक-अमुक अश उस-उस देश, काल, परिस्थिति के स्तर-भेद तथा भूमिका भेद का सूचक है । जैसे-
१ सामान्य व्यक्ति की सर्वप्रथम भूमिका चार्वाक भौतिक दर्शन की ही रहती है । क्योकि सुख की आकाक्षा सब मनुष्यों में समान है ।
२ व्यापक सुख की आकाक्षा भौतिक स्तर पर पूरी होना संभव नही है इसका दर्शन जिन्हें हुआ, उन्होंने विश्व की व्यवस्था का स्वरूप जान लेने का प्रयास किया । विश्व- समस्या के मूल मे कुछ विशिष्ट मूल द्रव्य है । इन मूल द्रव्यो और उनके पारस्परिक सबधो की जानकारी पर ही व्यापक सुख निर्भर है । यही न्याय और वैशेषिक दर्शन की बुनियाद है ।
३ इससे भी सुख और समाधान अपूर्ण ही रहता है, ऐसा जिनको अनुभव हुआ वे और भी गहरे उतरे । साख्य, पूर्वमीमांसा और उत्तरमीमासा याने वेदान्त इसी अनुसन्धान की निष्पत्ति है। जैन तथा बौद्ध दर्शन भी इसी परम्परा मे आते हैं । इन सारे दर्शनो का सार यह है कि विश्व की विविधता तथा विभिन्नता का आधार एक ही विभु-सत्ता है ।
४ इस विभुसत्ता के प्रत्यक्ष दर्शन तथा उसे जीवन में प्रकाशित देखने के शोध में लगनेवाले लोगो ने योग दर्शन को साकार किया । उसमें से निष्कर्ष यह निकला कि योगानुशासन के बिना मानव और विश्व के अस्तित्वगत सबंध का न ज्ञान होगा और न जीवनव्यवहार ही फलित होगा । इसलिए बौद्धदर्शन में कहा गया है कि जीवन का यथार्थ दर्शन प्रज्ञा और उपाय के सामरस्य (हार्मनी) पर ही निर्भर है । चाहे जैन हो या बौद्ध, सांख्य हो या वेदान्त, इन सब दार्शनिक निष्ठाओ में योगानुशासन को ही प्राथमिक महत्त्व दिया जाता है । यही भारत की संस्कृति में आत्मदर्शन तथा विश्वदर्शन का अनुभव- सिद्ध मार्ग कहा गया है ।
तीन
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इस मार्ग पर अग्रसर मानव की दृष्टि समता-रन मे इतनी सहज, सूक्ष्म और तरल ( फ्लेक्सिबल) हो जाती है कि सारे सघर्ष, सामरस्य, आनन्द और सौदर्य में लीन हो जाते हैं और जीवन को विकृत करनेवाले सारे मतवाद और संघर्ष अर्थशून्य हो जाते है । जैन-धर्म का अनेकान्तवाद या स्याद्वाद इसीका निदर्शक है जो न केवल परमत-सहिष्णुता ही जगाता है, परम्पर विरोधी विचारो में समन्वय भी स्थापित करता है ।
'समणसुत्त' ग्रन्थ की निष्पत्ति के पीछे भगवान् महावीर की अव्यक्त और सन्त विनोबाजी की पावन व्यक्त प्रेरणा रही है । यह अपने में अपूर्व ऐतिहासिक घटना है कि भगवान् महावीर के २५ सौवे निर्वाण महोत्सव के वर्ष मे दिल्ली में इस ग्रन्थ की सर्वमान्यता के लिए संगीति का आयोजन हो सका । सगीति में सम्मिलित साधुओ, विद्वानो, श्रावको तथा सेवको ने हर प्रकार से अपना हार्दिक सहयोग देकर इसे सर्व मान्यता प्रदान की । जैनधर्म के सभी सम्प्रदायों के मुनियो तथा श्रावको का यह सम्मिलन विगत दो हजार वर्षो के पञ्चात् पहली बार देखने में आया ।
दिल्ली की इस ऐतिहासिक एव समन्वयात्मक संगीति का अधिवेशन दो दिन तक चार बैठको में सम्पन्न हुआ । चारो बैठको की अध्यक्षता चारो आम्नायो के मुनि श्री सुशीलकुमारजी, मुनि श्री नथमलजी, मुनि श्री जनकविजयजी तथा उपाध्याय मुनि श्री विद्यानन्दजी ने की। चारो वैठको को आचार्य श्री तुलसीजी, आचार्य श्री धर्मसागरजी, आचार्य विजयसमुद्रसूरिजी एव आचार्य देशभूषणजी के आशीर्वाद प्राप्त हुए । ग्रथ का अतिम प्रारूप सगीति के चारो अध्यक्ष और जिनेन्द्र वर्णीजी ने तैयार किया जिसमें शुरू से अंत तक आचार्य तुलसीजी का सहयोग रहा ।
इस ग्रंथ का प्रारम्भिक सकलन ब्र० जिनेन्द्र वर्णीजी ने किया है । सर्वप्रथम एक सकलन 'जैनधर्मसार' नाम से प्रकाशित किया गया। बाद में अनेक सुझावो और सशोधनो को ध्यान में रखकर दूसरा सकलन प० दलसुखभाई मालवणिया ने किया। सन्त कानजी स्वामी की प्रेरणा से डा० हुकुमचन्दजी मारिल्ल ने सकलन के लिए काफी उपयुक्त गाथाएँ सुझायी । उदयपुर के डा० कमलचन्दजी सोगानी ने गहराई से अध्ययन करके अनेक सुझाव दिये । सबका अवलोकन करके श्री वर्णीजी ने तीसरा सकलन तैयार किया जो 'जिणधम्म' नाम से संगीति में विचारार्थ रखा गया। अब जो सकलन प्रकाशित हो रहा हैं, वह अतिम एव सर्वमान्य है । इस सकलन को परिपूर्ण तथा परिमार्जित बनाने में प० दलसुखभाई मालवणिया तथा मुनि श्री नथमलजी का विशेष हाथ रहा है । डा० ए० एन० उपाध्ये, डा० दरबारीलालजी कोठिया आदि विद्वानो का भी सहयोग मिला है । गाथाओ की शुद्धि मे प० कैलाशचन्द्रजी शास्त्री, १० बेचरदासजी दोशी और मुनि नथमलजी के श्रम को भुलाया नही जा सकता। संस्कृत छाया का सशोधन और परिमार्जन प० बेचरदासजी ने एक-एक शब्द को जाँच-परखकर किया है। हिन्दी अनुवाद प० कैलाशचन्द्रजी शास्त्री तथा मुनि श्री नथमलजी ने किया है। अनुवाद सरल मूलानुगामी है ।
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विपय की पूर्वापर कडी को जोडे रखने के लिए अनुवाद में कहीं-कही कोप्टको में विशिष्ट शब्द दिये गये है। इन सब विद्वानो के सहयोग के प्रति हम हृदय से आभारी है। __ सगीति का द्वि-दिवमीय अधिवेशन अणुव्रत विहार तथा जैन बालाश्रम में आयोजित था। अणुव्रत आन्दोलन के प्रवर्तकः आचार्य श्री तुलसीजी तथा उपाध्याय मुनि श्री विद्यानन्दजी की ओर से प्रारम्भ से ही इस कार्य में प्रोत्साहन मिलता रहा है। इनके साथ-साथ दोनो सस्थाओ के व्यवस्थापको तथा कार्यकर्ताओ ने भी जो आत्मीय सहयोग दिया उसके लिए पर्व-सेवा-सघ आभारी है।
श्रावक-शिरोमणि साहू शातिप्रसादजी जैन तथा उनकी धर्मपत्नी श्रीमती रमारानी जैन तथा श्री प्रभुदयालजी डाभड़ीवाला के भी हम विशेष कृतज्ञ है जिन्होने सगीति को सफल बनाने में हार्दिक सहयोग दिया।
उपाध्याय कविरत्न जमरमुनिजी, मुनि श्री सतबालजी, कानजी स्वामी, आचार्य श्री आनन्दऋषिजी, मुनि श्री यशोविजयजी आदि सन्तो ने भी इस मगल प्रयास का पूरा समर्थन किया, अनेक सुझाव दिये और प्रेरणा दी जिससे हमे बल मिला है ।
ग्रन्थ के प्रचार में पहल करनेवालो में भारत जैन महामण्डल, बम्बई के महामत्री श्री रिषभदासजी राका तथा हैदराबाद के प्रसिद्ध सर्वोदयी मित्र श्री विरधीचन्दजी चौधरी का विशेष सहयोग मिला है। दोनो सज्जनो ने अग्रिम राशि भेजकर ग्रथ के प्रकाशन को सुलभ बना दिया है। __ भाई श्री राधाकृष्णजी बजाज ने तो प्रारभ से ही इस कार्य को अपना माना है। श्री जमनालालजी जैन का भी प्रारभ से ही सभी कार्यो में बराबर सहयोग मिलता रहा है। श्री मानव मुनिजी का भी सहयोग मिला है। ये सब सर्व-सेवा-सघ के अभिन्न अग है। अपनो के प्रति आभार कैसे माना जाय।
ब्र० जिनेन्द्र वर्णीजी का उल्लेख किये बिना रहा नहीं जाता। बाबा की प्रेरणा उन्हे स्पर्श कर गयी और वे पल-पल इस कार्य में जुट गये। कृश और अस्वस्थ काया में भी संजग एव सशक्त आत्मा के प्रकाश में आपने यह दायित्व हँसते-हँसते निभाया। वे नहीं चाहते कि कही उनका नाम टकित किया जाय, लेकिन जिसकी सुगधि भीतर से फूट रही है, फैल रही है, उसे कौन रोक सकता है। हम कौन होते है, उनका आभार व्यक्त करनेवाले ! सब प्रभु की कृपा हैं।
सबसे बड़ी बात तो यह है कि इस सपूर्ण कार्य के पीछे प्रभु-प्रवाह, काल-प्रवाह और समाज-प्रवाह की अनुकूलता मिली, जिससे समणसुत्त ग्रंथ की महत्त्वपूर्ण उपलब्धि हुई। भगवान् महावीर की २५ सौवी निर्वाण-संवत्सरी के उपलक्ष्य में यह सर्वमान्य ग्रन्थ सबके पास पहुँचे, यही मंगल भावना है ।
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अन्त में सुबी पाटको तथा विद्वानों से अनुरोध है कि ग्रथ में जहाँ भी भूल या अशुद्धि आदि दिखाई दे, उसकी सूचना गीत्र देने की कृपा करे, ताकि आगामी सस्करण में उसका परिमार्जन किया जा सके ।
महावीर जयन्ती
चैत्र शुद्ध १३ वीर नि० सं० -५०१
२४ अप्रैल १९७५
चौथा संस्करण
वीर नि० सं० २५०१ की महावीर जयन्ती के शुभ अवसर पर " समणसुत्तं" ग्रन्थ का देश के अनेक स्थानों पर अत्यन्त उत्साह पूर्वक विमोचन हुआ और उसी समय इस ग्रन्थ का प्रथम संस्करण समाप्त हो गया। दूसरे माह ही इसका द्वितीय संस्करण निकालना पडा प्रसन्नता की बात है कि इस प्रामाणिक ग्रंथ का देश के प्रायः सभी अचलो मे स्वागत हो रहा है। उदयपुर तथा नागपुर विश्वविद्यालय ने प्राकृत एवं जैन धर्म के बी० ए०, एम० ए० के पाठ्य ग्रन्थ के रूप में इसे मान्य किया है ।
कृष्णराज मेहता संचालक सर्व-सेवा-सघ- प्रकाशन
सन् १९८२ मे राजस्थान सरकार द्वारा ग्रन्थ को ७३०० प्रतियों का क्रयादेश प्राप्त हुआ था जिसकी वजह से ग्रन्थ का तृतीय संस्करण प्रकाशित किया गया था ।
अब तक जिस प्रकार से इस ग्रन्थ को लोकप्रियता बढ़ी है उसको देखते हुए हम ग्रन्थ का यह चौथा सस्करण प्रकाशित कर पाठकों तक पहुँचा रहे हैं ।
हमें आशा है कि राजस्थान की भाँति अन्य राज्यो में भी इसकी माँग होगी और घर-घर मे इसका नित्य पारायण और स्वाध्याय होगा ।
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प्रकाशक
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संगीति में प्रमुख पंडित, विद्वान् तथा श्रावकगण
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बायें से पहली पंक्ति-सर्वश्री के० भुजबली शास्त्री, मानव मुनि । दूसरी पंक्ति-ए० एन० उपाध्ये, जमनालाल जैन, यशपाल जैन, शांति लाल व. सेठ, राधाकृष्ण बजाज, प० कैलाशचन्दजी शास्त्री, खुशालचन्द्र गोरावाला, कृष्णराज मेहता। तीसरी पंक्ति-प० सुमेरचन्द्र दिवाकर, डा० दरबारीलाल कोठिया, अगरचन्द नाहटा तथा अन्य विद्वान् श्रावक आदि ।
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सभी आम्नायों के प्रमुख जैन आचार्य तथा मुनिगण
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बायें से-ब्र० श्री जिनेन्द्र वर्णीजी, आचार्य श्री धर्मसागरजी उपाध्याय, मुनि श्री विद्यानन्दजी, मुनि श्री सुशीलकुमारजी,
मुनि श्री नथमलजी, आचार्य श्री तुलसीजी, आचार्य श्री विजयसमुद्र सूरिजी तथा अन्य मुनिगण ।
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मुनियों का पत्र विनोबा के नाम
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२१०, दीनदयाल उपाध्याय मार्ग, वीर-निर्वाण तिथि २४-१-२५०१
नयी दिल्ली, दिनांक ७-१२-७४ भद्रररिणामी, धर्मानुरागी श्री आचार्य विनोबाजी,
आपके समभावपूर्ण चिन्तन और सामयिक सुझाव को ध्यान में रखकर 'जैन-धर्म-सार' और उसका नया रूप 'जिणधम्म' की सकलना हुई, उसमें श्री जिनेन्द्रकुमार वर्णीजी और अनेक विद्वानो का योग रहा। सर्व-सेवा-सघ तथा श्री राधाकृष्ण बजाज के अथक परिश्रम और प्रयत्न से सगीति की समायोजना हुई। सर्गति में भाग लेनेवाले सभी आचार्यो मनियो और विद्वानो ने आपके चिन्तन का अनुमोदन किया और ममग्र जैन-समाज सम्मत 'गमणसुत्त' नामक एक ग्रथ की निप्पत्ति हुई, जो भगवान् महावीर के-२५ सौवे निर्वाण-वर्प के अवसर पर एक बडी उपलब्धि के रूप में स्वीकार किया गया। दिनाक २९-३० नवम्बर १९७४ को सगीति हुई. जिसमे यथ का पारायण किया गया। आचार्यो, मुनियो और विद्वानो के परामर्श, समीक्षाएँ और समालोचनात्मक दृष्टिकोण प्राप्त हुए। अन्त में ग्रन्थ के परिशोधन का भार मनियो पर छोड़ा गया और वर्णीजी का योग साथ में रखा गया।
एक सप्ताह की अवधि में मुनियो ने बार-बार बैठकर चिन्तनपूर्वक व्रथ का परिशोधन किया। इसमे हम पूरा सन्तोप हुआ है। अब हम चाहते है कि इस ग्रन्थ का आप गहराई से निरीक्षण करे और धम्मपद की भांति इसके क्रम की योजना करे। और भी जो सुझाव हो, वे आप दे। हम सबको इससे बडी प्रसन्नता होगी।
गीति की विभिन्न बैठको के अध्याग faruननि विद्यानन्दजी
- मुनिश्री मुशीलकुमारजी मुनि जन विजान
(17 - मुनिश्री जनकविजयजी
- मुनिश्री नानजी .
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जिनेन्दृवffजीगन्ध सकलनकता
। हर 12. 1२ 1974 हस्तादार श्री विनोबाजी
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समाधान
( विनोबा )
मेरे जीवन में मुझे अनेक समाधान प्राप्त हुए है । उसमें आखिरी, अन्तिम समाधान, जो शायद सर्वोत्तम समाधान है, इसी साल प्राप्त हुआ । मैने कई दफा जेना से प्रार्थना की थी कि जैसे वैदिक धर्म का सार गीता में सात सौ श्लोको
मिल गया है, बौद्धो का धम्मपद मे मिल गया है, जिसके कारण ढाई हजार माल के बाद भी बुद्ध का धर्म लोगो को मालूम होता है, वैसे जैनो का होना चाहिए। यह जंनो के लिए मुश्किल बात थी, इसलिए कि उनके अनेक पन्थ है और ग्रन्थ भी अनेक है । जैसे बाइबिल हे या कुआन है, कितना भी बड़ा हो, एक ही है। लेकिन जैनो मे श्वेताम्बर, दिगम्बर ये दो है, उसके अलावा तेरापन्थी, स्थानकवासी ऐसे चार मुख्य पन्थ तथा दूसरे भी पन्थ है । और ग्रन्थ तो बीस-पचीस है । मैं बार-बार उनको कहता रहा कि आप सव लोग, मुनिजन, इकट्ठा होकर चर्चा करो और जैनों का एक उत्तम, सर्वमान्य धर्मसार पेश करो । आखिर वर्णोजी नाम का एक 'बेवकूफ' निकला और बाबा की बात उसको जॅच गयी । वे अध्ययनशील है, उन्होने बहुत मेहनत कर जैन - परिभाषा का एक कोश भी लिखा है । उन्होने जैन-धर्म-सार नाम की एक किताब प्रकाशित की, उसकी हजार प्रतियाँ निकाली और जैन समाज में विद्वानो के पास और जैन समाज के बाहर के विद्वानो के पास भी भेज दी । विद्वानो के सुझावो पर से कुछ गाथाएँ हटाना, कुछ जोडना, यह सारा करके ‘जिणधम्म' किताब प्रकाशित की। फिर उस पर चर्चा करने के लिए बाबा के आग्रह से एक सगीति बैठी, उसमे मुनि, आचार्य और दूसरे विद्वान्, श्रावक मिलकर लगभग तीन सौ लोग इकट्ठे हुए। बार-बार चर्चा करके फिर उसका नाम भी बदला, रूप भी बदला, आखिर सर्वानुमति से 'श्रमणसूक्तम्' - जिसे अर्धमागधी मे 'समणसुत्त' कहते है, वना । उसमे ७५६ गाथाएँ है। ७ का ऑकडा जैनों को बहुत प्रिय है । ७ और १०८ को गुणा करो तो ७५६ बनता है । सर्वसम्मति से इतनी गाथाएँ ली । और तय
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आठ
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किया कि चैत्र शुक्ल त्रयोदशी को वर्धमान-जयन्ती आयेगी, जो इस साल २४ अप्रैल को पडती है, उस दिन वह ग्रन्थ अत्यन्त शुद्ध रीति से प्रकाशित किया जायगा । जयन्ती के दिन जैन-धर्म-सार, जिसका नाम 'समण सुत्त है, सारे भारत को मिलेगा । और आग के लिए जब तक जैन धर्म मौजूद है, तब तक सारे जैन लोग और दूसरे धर्म के लोग भी जव तक उनके धर्म वैदिक, बौद्ध इत्यादि जीवित रहेगे तब तक 'जैन-धर्म-सार' पढते रहेगे। एक बहुत वडा कार्य हुआ है, जो हजार, पन्द्रह सौ साल मे हुआ नही था। उसका निमित्तमात्र बाबा बना, लेकिन बाबा को पूरा विश्वास है कि यह भगवान् महावीर की कृपा है।
मै कबल करता हूँ कि मुझ पर गीता का गहरा असर है। उस गीता को छोडकर महावीर से बढकर किसीका असर मेरे चित्त पर नही है । उसका कारण यह है कि महावीर ने जो आज्ञा दी है वह बाबा को पूर्ण मान्य है। आज्ञा यह कि सत्यग्राही बनो। आज जहाँ-जहाँ जो उठा सो सत्याग्रही होता है। बाबा को भी व्यक्तिगत सत्याग्रही के नाते गाधीजी ने पेश किया था, लेकिन बाबा जानता था वह कौन है, वह सत्याग्रही नहीं, सत्यग्राही है। हर मानव के पास सत्य का अश होता है, इसलिए मानव-जन्म सार्थक होता है। तो सब धर्मो मे, सब पन्थो मे, सब मानवों मे सत्य का जो अंश है, उसको ग्रहण करना चाहिए। हमको सत्यग्राही बनना चाहिए, यह जो शिक्षा है महावीर की, बाबा पर गीता के बाद उसीका असर है । गीता के बाद कहा, लेकिन जब देखता हूँ तो मुझे दोनो में फरक हो नही दीखता है ।
ब्रह्म-विद्या मन्दिर, पवनार (वर्धा) २५-१२-७४
हस्तादार श्री विनोबाजी
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भूमि का
'समणमुत्त' नामक इस ग्रन्थ की सरचना या सकलना आचार्य विनोबाजी की प्रेरणा से हुई है। उसी प्रेरणा के फलस्वरूप मगीति या वाचना हुई और उसमे इसके प्रारूप को स्वीकृति प्रदान की गयी। यह एक विशिष्ट ऐतिहासिक घटना है। ___ विश्व के समस्त धर्मो का मूल आधार है---आत्मा और परमात्मा । इन्ही दो तत्त्वरूप स्तम्भो पर धर्म का भव्य भवन खडा हुआ है। विश्व की कुछ धर्म-परम्पराएँ आत्मवादी होने के साथ-साथ ईश्वरवादी है और कुछ अनीश्वरवादी । ईश्वरवादी परम्परा वह है जिसमे सृष्टि का कर्ता-धर्ता या नियामक एक सर्वशक्तिमान् ईश्वर या परमात्मा माना जाता है। सृष्टि का सब-कुछ उसी पर निर्भर है। उसे ब्रह्मा, विधाता, परमपिता आदि कहा जाता है। इस परम्परा की मान्यता के अनुसार भमण्डल पर जब-जब अधर्म बढता है, धर्म का ह्रास होता है, तब-तब भगवान् अवतार लेते है और दुप्टो का दमन करके सृष्टि की रक्षा करते है, उसमे सदाचार का बीज-वपन करते है। अनीश्वरवादी परम्परा __ दूसरी परम्परा आत्मवादी होने के साथ-साथ अनीश्वरवादी है, जो व्यक्ति के स्वतंत्र विकास में विश्वास करती है। प्रत्येक व्यक्ति या जीव अपना सम्पूर्ण विकास कर सकता है । अपने मे राग-द्वेष, विहीनता या वीतरागता का सर्वोच्च विकास करके वह परमपद को प्राप्त करता है। वह स्वयं ही अपना नियामक या संचालक है। वह स्वयं ही अपना मित्र है, शत्रु है। जैनधर्म इमी परम्परा का अनुयायी स्वतन्त्र तथा वैज्ञानिक धर्म है। यह परम्परा सक्षेप म 'श्रमण-सस्कृति' के नाम से पहचानी जाती है। इस आध्यात्मिक परम्परा मे बौद्ध आदि अन्य धर्म भी आते है। ईश्वरवादी भारतीय परम्परा 'ब्राह्मण-संस्कृति' के नाम से जानी जाती है।
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प्राचीनता
किसी धर्म की श्रेष्ठता अथवा उपादेयता उसकी प्राचीनता अथवा अर्वाचीनता पर अवलम्बित नहीं होती, किन्तु यदि कोई धार्मिक परम्परा प्राचीन होने के साथ-साथ सदीर्घकाल तक सजीव, मत्रिय एव प्रगतिशील रही है तथा लोक के उन्नयन, नैतिक विकास तथा सास्कृतिक समृद्धि मे प्रबल प्रेरक एव सहायक सिद्ध हुई है तो उसकी प्राचीनता उस धर्म के स्थायी महत्त्व तथा उसमे निहित सार्वकालिक एव सार्वभौमिक तत्त्वो की सचक ही कही जा सकती है। जैनधर्म की परम्परा आचार और विचार दोनो दृप्टियो से नि मन्देह सदूर अतीत तक जाती है। इतिहासज्ञों ने अब इस तथ्य को पूर्णतया स्वीकार कर लिया है कि तीर्थकर वर्धमान महावीर जैनधर्म के मल सस्थापक नहीं थे। उनसे पूर्व और भी तीर्थकर हो गये है, जिन्होने जिनधर्म की पुनर्स्थापना की और उसकी प्राणधारा को आगे बढाया। यह ठीक है कि इतिहास की पहुँच जैनधर्म के मूल उद्गम तक नही है, किन्तु उपलब्ध पुगतात्त्विक एव साहित्यिक तथ्यो के निष्पक्ष विश्लेपण से अब यह निर्विवाद सिद्ध हो गया है कि जैनधर्म एक अति प्राचीन धर्म है। वातरशना मुनियों, केगियो, व्रात्य-क्षत्रियो के विपय मे ऋग्वेद, श्रीमद्भागवत आदि महत्त्वपूर्ण ग्रन्थो मे प्रचुर उल्लेख उपलब्ध है।
जैन-इतिहास मे तिरसठ शलाका-पुरुषों का वर्णन आता है। अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी नामक प्रत्येक सदीर्घ कालखण्ड मे ये शलाका पुरुष होते है, जो मानव-सभ्यता के विकास में अपने-अपने समय में धर्म-नीति की प्रेरणा देते है । इन शलाका-पुरुषो मे २४ तीर्थकरो का स्थान सर्वोपरि है। वर्तमान अवमर्पिणी कल्प में, उसके चतुर्थ कालखण्ड मे जो २४ तीर्थकर हुए है, उनमे सर्वप्रथम ऋषभदेव है जो राजा नाभि तथा माता मरुदेवी के पुत्र थे। इन्हे आदिनाथ, आदिब्रह्मा, आदीश्वर आदि भी कहा जाता है। सबसे अतिम, २४वे तीर्थकर, महावीर ढाई हजार वर्ष पूर्व हो गये है। तथागत बुद्ध भी इन्हीके समकालीन थे। भगवान् महावीर के २५० वर्ष पूर्व, २३वें तीर्थकर पार्श्वनाथ हो गये है, जो वाराणसी के राजा अश्वसेन के पुत्र थे। बौद्धागम। मे महावीर का उल्लेख तो निगठनातपुत्त के रूप में मिलता ही है, पार्श्व-परम्परा का उल्लेख भी चातुर्याम-धर्म के रूप मे मिलता है।
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महावीर भी पार्थ्य-परम्परा के प्रतिनिधि थे | यो देखा जाय तो काल की अविच्छिन्न धारा में न तो ऋषभदेव प्रथम है और न महावीर जतिस। यह परम्परा तो अनादि-अनन्त है--न जाने कितनी चौबीसियों हो गयी है और आगे होगी ।
सास्कृतिक विकास की दृष्टि से विचार करने पर ज्ञात होता है कि पारमार्थिक अथवा आध्यात्मिक भूमिका की अपेक्षा से वेदिक तथा श्रमण मस्कृतियो मे विशेष अन्तर नही हैं, फिर भी व्यावहारिक क्षेत्र में, दोनो के तत्त्वज्ञान, आचार और दर्शन में अन्तर स्पष्ट है । दोनो सस्कृतियाँ आपस मे काफी प्रभावित रही है, उनमे आदान-प्रदान होता रहा है और सामाजिक परिवेश तो दोनो का लगभग एक ही रहा है । जो अन्तर दिखाई पड़ता है, वह भी ऐसा नही है कि समझ में न आ सके । बल्कि, यह तो मनुष्य-सभ्यता के विकास के स्नरों को समझने में बहुत सहायक है । भारत के समृद्ध प्राचीन साहित्य में दोनों संस्कृतियों या परम्पराओ के पारस्परिक प्रभाव तथा आदान-प्रदान व विपुल दृश्य देखने को मिलते है । एक ही परिवार में विभिन्न विचारो के लोग अपने-अपने ढंग से धर्म-स् - माधना करते थे ।
आत्मवाद
आज जिसे हम जैनधर्म कहते है, प्राचीन काल मे उसका और कोई नाम रहा होगा। यह सत्य है कि 'जैन' शब्द 'जिन' से बना है, फिर भी 'जैन' शब्द अपेक्षाकृत अर्वाचीन है । भगवान् महावीर के समय में इसका बोधक शब्द 'निर्ग्रन्थ' या 'निर्ग्रन्थप्रवचन' था | इसे कही कही 'आर्यधर्म' भी कहा गया है। पार्श्वनाथ के समय मे इसे 'श्रमणधर्म' भी कहा जाता था । पार्श्वनाथ के पूर्ववर्ती २२वे तीर्थकर अरिष्टनेमि के समय मे इसे 'अर्हत्धर्म' भी कहा जाता था । अरिष्टनेमि कर्मयोगी शलाका-पुरुष श्रीकृष्ण के चचेरे भाई थे। श्रीकृष्ण के द्वारा गाय की सेवा तथा गोरम का प्रचार वस्तुत अहिसक समाज-रचना की दिशा में एक मंगल प्रयास था । बिहार प्रदेश मे भी जैनधर्म आर्हत्धर्म के नाम से प्रचलित रहा है । राजर्षि नमि मिथिला के थे, जो राजा जनक के वंशज थे । इनकी आध्यात्मिक वृत्ति का जैनआगम मे सुन्दर चित्रण उपलब्ध है । इतिहास के पर्दे पर समय-समय पर अनेक नामपट बदलते रहे होगे, लेकिन इतना कहा जा सकता है कि इस
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धर्म का, इन परम्पग और सम्मृति का मूल सिद्धान्त वीज-प मे व्ही रहा है जो आज है और वह है आत्मवाद, अनेकान्तवाद । इसी आत्मवाद की उर्वरभमि पर जैन धर्म-परम्पग का कल्पतरु फलता-फलता रहा है। जैनधर्म के माधु आज भी 'श्रमण' कहलाते है। 'श्रमण शब्द श्रम, समता तथा विकार-शमन का परिचायक है। उसम प्रभूत अर्थ निहित है ।
जैनधर्म का अर्थ है जिनोपदिष्ट या जिनप्रवर्तित वल्याण-मार्ग। 'जिन' वे कहलाते है जिन्होने अपने देहगत और आत्मगत अर्थात् बाह्याभ्यन्तर विकारो पर विजय प्राप्त कर ली है। आत्मा के सबसे प्रवल शत्रु है राग-द्वेष मोहादि विकार। इमलिए 'जैन' शब्द अपने मे एक अर्थ रखता है--यह जाति वर्ग का द्योतक नही है। जो भी 'जिन' के मार्ग पर चलता है, आत्मोपलब्धि के पथ का अनुसरण करता है, वह जैन है। वीतराग-विज्ञानता
जैनधर्म का लक्ष्य पूर्ण वीतराग-विज्ञानता की प्राप्ति है। यह वीतरागविज्ञान मगलमय है, मगल करनेवाला है, इसीके आलोक में मनुष्य 'अरहात' पद को प्राप्त करता है । यह वीतरागता सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्ररूपी रत्नत्रय की समन्वित साधना से उपलब्ध होती है। श्रद्धा, ज्ञान और चारित्र का मिला-जुला पथ ही व्यक्ति को मुक्ति या सिद्धि तक ले जाता है। दर्शन, ज्ञान और चारित्र मिलकर ही मनुष्य को पूर्णता प्रदान करते है। जनधर्म की सबसे प्रथम और मूलभूत सिखावन यही है कि श्रद्धापूर्वक विवेक की आँख से ससार को देखकर उसका यथार्थ ज्ञान प्राप्त करो और उसे जीवन मे उतारो। लेकिन सम्पूर्ण आचार-विचार का केन्द्र-विन्दु वीतरागता की उपलब्धि है। वीतरागता के समक्ष बडे से वडा ऐश्वर्य व्यर्थ है। प्रवृत्ति हो या निवृत्ति, गार्हस्थ्य हो या श्रामण्य, दोनो स्थितियो म अन्तरात्मा मे निरन्तः वीतरागता की वद्धि ही श्रेयस्कर मानी गयी है। किन्तु अनेकान्तदप्टि के विना वीतगगता की उपलब्धि का मार्ग नही मिलता। यह अनेकान्तदृष्टि ही है जो प्रवृत्ति में भी निवृत्ति, और निवृत्ति में भी प्रवृत्ति के दर्शन कराकर यथार्थ और निवृत्ति का मार्गदर्शन कराती है।
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MKEJU SE KIEL EF DIEZIR IKE
अहिंसा
जैन - आचार का मूल अहिमा है । उस अहिमा का पालन अनेकान्तदृष्टि के बिना संभव नही है । क्योकि जैन दृष्टि से हिमा न करते हुए भी मनुष्य हिसक हो सकता है और हिंसा करते हुए भी हिसक नही होता । अत' जैनधर्म में हिंसा और अहिसा कर्ता के भावो पर अवलम्बित है, क्रिया पर नही । यदि बात होनेवाली हिमा को ही हिसा माना जाय तब तो कोई अहमक हो नही सकता क्योकि जगत् में सर्वत्र जीव है और उनका घात होता रहता है । इसलिए जो सावधानतापूर्वक प्रवृत्ति करता है उसके भावो मे अहिंसा है, अत वह अहिसक है और जो अपनी प्रवृत्ति में सावधान नही है उसके भावो मे हिमा है, अत: वह हिसा न करने पर भी हिसक होता है । यह सब विश्लेषण अनेकान्त - दृष्टि के बिना संभव नही है । अत. अनेकान्त-दृष्टि-सम्पन्न मनुष्य ही सम्यग्दृष्टि माना गया है और सम्यग्दृष्टि ही सम्यग्ज्ञानी और सम्यवचारित्रशील होता है । जिसकी दृष्टि सम्यक् नही है उसका ज्ञान भी सच्चा नही है और न आचार ही यथार्थ है । इसीस जैन-मार्ग में सम्यक्त्व या सम्यग्दर्शन का विशेष महत्त्व है । वही मोक्षमार्ग की आधारशिला है ।
ससार एक बन्धन है । उस बन्धन मे जीव अनादिकाल से पड़ा है, इससे वह अपने यथार्थ स्वरूप को भूल उस बन्धन को ही अपना स्वरूप मानकर उसमे रम रहा है और उसकी यह भूल ही उसके इस वन्धन का मूल है । अपनी इस भूल पर दृष्टि पडते ही जब उसकी दृष्टि अपने स्वरूप की ओर जाती है कि चैतन्यशक्ति सम्पन्न हूँ और भौतिक ऊर्जा शक्ति से भी विशिष्ट शक्ति मेरा चैतन्य है जो अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख और अनन्तशक्ति का भण्डार है यह श्रद्धा जगते ही उसे सम्यग्दृष्टि प्राप्त होती है और तब वह सम्यक् आचार के द्वारा अपने यथार्थ स्वरूप में स्थिर होने का प्रयत्न करता है । अत: जैनधर्म का आचारमार्ग सम्यग्ज्ञानपूर्वक वीतरागता तक पहुँचने का राजमार्ग है ।
अनेकान्त
वस्तुतः देखा जाय तो इस विशाल लोक में सदेह व्यक्ति का अधिक-सेafa ज्ञान भी सीमित, अपूर्ण और एकागी ही है । वह वस्तु के अनन्त
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चौदह
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गणों का समग्र अनुभव एक साथ कर ही नही पाना, अभिव्यक्ति तो दूर की बात है। भापा की असमर्थता और शब्दार्थ की सीमा जहाँ-तहाँ झगडे और विवाद पैदा करती है। मनाय का अह उसमे और वृद्धि करता है । लेकिन अनेकान्त समन्वय का, विरोध-परिहास का मार्ग प्रदरत करता है। सबके कथन म सत्याग होता है और उन सत्यागो को समझकर विवाद को मरलता से दूर किया जा सकता है। जिसका अपना कोई हट या कवाग्रह नहीं होता, वही अनेकान्त के द्वारा गस्थियो को भलीभाँति सुलझा सकता है । यो प्रत्येक मनु प्य अनेकान्त मे जीता है, परन्तु उसके ध्यान मे नहीं आ रहा है कि वह ज्योति कहाँ है जिससे वह प्रकाशित है । आँखों पर जब तक आग्रह की पट्टी बंधी रहती है, तब तक वस्तुस्वरूप का स्ही दर्शन नही हो सकता। अनेकान्त वस्तु या पदार्थ की स्वतत्र सत्ता का उद्घोष करता है। विचार जगत् मे अहिसा का मर्तरूप अनेकान्त है। जो अहिसक होगा वह अनेकान्ती होगा और जो अनेकान्ती होगा, वह अहिसक होगा।
आज जैनधर्म का जो कुछ स्वरूप उपलब्ध है, वह महावीर की देशना से अनुप्राणित है। आज उन्हीका धर्मशासन चल रहा है। महावीर दर्शन और धर्म के समन्वयकार थे। ज्ञान, दर्शन एवं आचरण का समन्वय ही मनाय को दुख-मक्ति की ओर ले जाता है। ज्ञानहीन कर्म और कर्महीन ज्ञान--दोनो व्यर्थ है। ज्ञात सत्य का आचरण और आचरित सत्य का जान--दोनो एक साथ होकर ही सार्थक होते है । वस्तु स्वभाव धर्म __जैन-दर्शन की यह देन बड़ी महत्त्वपूर्ण है कि वस्तु का स्वभाव ही धर्म है--वत्थु महावो धम्मो। सृष्टि का प्रत्येक पदार्थ अपने स्वभावानुसार प्रवर्तमान है। उसका अस्तित्व उत्पत्ति, स्थिति और विनाश से यवत है। पदार्थ अपने स्वभाव से च्युत नही होता--वह जड हो या चेतन । सत्ता के रूप मे वह सदैव स्थित है, पर्याय की अपेक्षा वह निरन्तर परिवर्तनशील है । इमी त्रिपदी पर सम्पूर्ण जनदर्शन का प्रासाद खड़ा है। इसी त्रिपदी के आधार पर सम्पूर्ण लोक-व्यवस्था का प्रतिपादन जैन-दर्शन की विशेषता है। पद्रव्यो की स्थिति से स्पष्ट है कि यह लोक अनादि अनन्त है, इसका कर्ता-धर्ता या निर्माता कोई व्यक्ति-विशेष या शक्ति-विशेष नही है । देश
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सभी आम्नायों के प्रमुख जैन आचार्य तथा मुनिगण
काल से परे, वस्तुस्वभाव के आधार पर आत्मा की सत्ता स्वीकार करने पर समाज में विषमता, वर्गभेद, वर्णभेद आदि का स्थान ही नही रह जाता। ऐसी स्थिति में, व्यवहार-जगत मे महावीर जमा वीतराग तत्त्वदर्शी यही कह सकता है कि समभाव ही अहिमा है, मन मे ममत्व का भाव न होना ही अपरिग्रह है। मत्य शास्त्र मे नही अनुभव मे है, ब्रह्म मे चर्या करना ही ब्रह्मचर्य है। कर्म से ही मनुष्य ब्राह्माण होता है, कर्म से ही क्षत्रिय, कर्म से ही वैश्य और कर्म से ही शूद्र। चारित्रहीन व्यक्ति को सम्प्रदाय और वेश, धन और बल, सत्ता और ऐश्वर्य, ज्ञान और पोथियाँ त्राण नही देते। देवी-देवताओ या प्रकृति की विभिन्न शक्तियो को प्रसन्न करने के लिए तरह-तरह के कर्मकाडी अनठानो से भी मानव को त्राण नहीं मिल सकता। आत्म-प्रतीति, आत्मज्ञान और आत्म-लीनता--निजानन्द रसलीनता ही मनप्य को मक्ति दिलाती है। निश्चयत यही सम्यवत्व है। महावीर सही अर्थो मे निर्ग्रन्थ थे--ग्रन्थ और ग्रन्थियो को भेदकर ही वे देह मे भी विदेह थे। उन्हीकी निरक्षरी सर्वबोधगम्य पीयूषवर्षिणी वाणी की अनुगूंज वातावरण मे है। श्रावकाचार
साधना शक्त्यनुकल ही हो सकती है। इसीलिए जैन आचार-मार्ग को श्रावकाचार और श्रमणाचार इन दो विभागो मे विभाजित किया गया है। श्रावको का आचार श्रमणो की अपेक्षा सरल होता है, क्योकि वे गह-त्यागी नहीं होते और समार के व्यापारो मे लगे रहते है। किन्तु श्रावक अपने आचार के प्रति निरन्तर सचेत रहता है और उसका लक्ष्य थमणधर्म की ओर बढने का होता है। जब श्रावक की आत्मशक्ति बढ जाती है और रागद्वेषादि विकारो पर, क्रोधादि कषायो पर उसका नियत्रण बढने लगता है, तब वह धीरे-धीरे एक-एक श्रेणी बढकर श्रमण-पथ पर विचरने लगता है। वारह व्रतो का धीरे-धीरे निरतिचार पालन करते हुए और एकादश श्रेणियो को उत्तीर्ण कर श्रावक श्रमणदशा में पहुंचता है। वस्तुत देखा जाय तो श्रावकधर्म श्रमणधर्म का आधार या पूरक है। यह उल्लेखनीय बात है कि जैनधर्म का सम्पूर्ण आचार आत्मलक्षी है, और श्रावक तथा श्रमण के लिए व्यवस्थित, क्रमिक विकासोन्मुख, ऊर्ध्वगामी सहिता उपलब्ध है। केवल नीति-उपदेश
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या पारस्परिक व्यवहार की दृष्टि से आचार - नियमो का प्रतिपादन जैनधर्म मे नही है । शक्ति की मापेक्षता एव विकास की प्रक्रिया में वाह्य क्रियाकाण्ड या गित लोकसूता, देवमूढता या गुरुमूढता को उसमे कतई स्थान नही है । अणुव्रतादि का पालन श्रावक को जहाँ साधक बनने की प्रेरणा देता है, वहाँ वह समाज के सुमचालन मे भी अपूर्व भूमिका निभाता है ।
ग्रन्थ- परिचय
'समणसुत्त' ग्रन्थ मे जैन धर्म-दर्शन की सारभूत वातो का, सक्षेप में, क्रमपूर्वक सकलन किया गया है । ग्रन्थ मे चार खण्ड है और ४४ प्रकरण है । कुल मिलाकर ७५६ गाथाएँ है ।
ग्रंथ की सरचना या सकलना प्राकृत गाथाओ मे की गयी है, जो गेय है तथा पारायण करने योग्य है। जैनाचार्यो ने प्राकृत गाथाओ को सूत्र कहा है । प्राकृत के सुत्त शब्द का अर्थ सूत्र, सूवत तथा श्रुत भी होता है । जैन-परम्परा मे सूत्र शब्द रूढ है । इसीलिए ग्रथ का नाम 'समणसुत्त' ( श्रमणसूत्रम् ) रखा गया है । गाथाओ का चयन प्राय प्राचीन मूल ग्रन्थो से किया गया है। अतः यह समणसुत्त आगमवत् स्वत प्रमाण है ।
प्रथम खण्ड 'ज्योतिर्मुख' है, जिसमे व्यक्ति 'खाओ पीओ मौज उडाओ' की निम्न भौतिक भूमिका या बाह्य जीवन से ऊपर उठकर आभ्यन्तर जीवन के दर्शन करता है। वह विषय-भोगो को असार, दुखमय तथा जन्म जरा नरणरूप संसार का कारण जानकर, इनसे विखत हो जाता है । रागद्वेष को ही अपना सबसे बडा शत्रु समझकर वह हर प्रकार से इनके परिहार का उपाय करने लगता है और क्रोध मान माया व लोभ के स्थान पर क्षमा । मार्दव, सरलता व सन्तोष आदि गुणो का आश्रय लेता है। कपायो का निग्रह करके विषय-गृद्ध इन्द्रियो को सयमित करता है । सभी प्राणियों को आत्मवत् देखता हुआ उनके सुख-दुख का वेदन करने लगता है और दूसरो की आवव्यकताओ का सम्मान करते हुए परिग्रह का यथाशक्ति त्याग करता है । स्वव पर के प्रति सदा जागरूक रहता है तथा यतनाचारपूर्वक मोक्षमार्ग मे निर्भय विचरण करने लगता है ।
द्वितीय खण्ड 'मोक्षमार्ग' है। इसमें पदार्पण करने पर व्यक्ति की समस्त शकाएँ, भययुक्त संवेदनाएँ, आकाक्षाएँ तथा मूढताएँ, श्रद्धा ज्ञान व चारित्र
सत्रह
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अथवा भक्ति ज्ञान कर्म की समन्वित त्रिवेणी में धुल जाती है। इष्टानिष्ट के समस्त द्वन्द्व समाप्त हो जाते है तथा समता व वात्सत्य का झरना फट पड़ता है। सासारिक भोगों के प्रति विरत होकर उसका चित्त प्रशान्त हो जाता है। घर मे रहते हुए भी वह जल मे कमल की भाँति अलिप्त रहता है। व्यापारधन्धा आदि सब कुछ करते हुए भी वह कुछ नहीं करता। श्रावक तथा क्रमश. श्रमण धर्म का अवलम्बन लेकर उसका चित्त सहज ही ज्ञान-वैराग्य तथा ध्यान की विविध श्रेणियों को उत्तीर्ण करते हुए धीरे-धीरे ऊपर उठने लगता है, यहाँ तक कि उसकी समस्त वासनाएँ निर्मूल हो जाती है, ज्ञान-सूर्य पूरी प्रखरता के साथ चमकने लगता है और आनन्द-सागर हिलोरे लेने लगता है। जब तक देह है, तब तक वह अर्हन्त या जीवन्मुक्त दशा में दिव्य उपदेशो के द्वारा जगत् मे कल्याणमार्ग का उपदेश करते हुए विचरण करता है, और जव देह स्थिति या आयु पूर्ण हो जाती है तब सिद्ध या विदेह दशा को प्राप्त कर सदा के लिए आनन्द-सागर में लीन हो जाती है।
ततीय खण्ड 'तत्व-दर्शन' है, जिसमे जीव-अजीव आदि सात तत्त्वों का अथवा पुण्य-पाप आदि नौ पदार्थो का विवेचन है। जीवात्मा पुद्गल-परमाणु आदि षट् द्रव्यों का परिचय देकर उनके सयोग व विभाग द्वारा विश्व सष्टि की अकृत्रिमता तथा अनादि-अनन्तता प्रतिपादित की गयी है।
चतुर्थ खण्ड ‘स्याद्वाद' है। ऊपर अनेकान्त का सक्षिप्त परिचय दिया जा चका है। यही जैनदर्शन का प्रधान न्याय है। इस खण्ड मे प्रमाण, नय, निक्षेप, व सप्तभगी जैसे गढ व गम्भीर विषयो का हृदयग्राही, सरल व सक्षिात परिचय दिया गया है । अन्त मे वीरस्तवन के साथ ग्रन्थ समाप्त होता है।
कहा जा सकता है कि इन चार खण्डों में अथवा ७५६ गाथाओं मे जैनधर्म, तत्त्व-दर्शन तथा आचार-मार्ग का सर्वाङ्गीण सक्षिप्त परिचय आ गया है। यों तो जैन-वाङमय विपुल है और एक-एक शाखा पर अनेक ग्रथ उपलब्ध है। सक्षमतापूर्वक अध्ययन करने के लिए तो निश्चय ही उन ग्रन्थों का सहारा लेना आवश्यक है। किन्तु साम्प्रदायिक अभिनिवेश से परे, मूल रूप मे जैनधर्मसिद्धान्त का, आचार-प्रणाली का, जीवन के क्रमिक-विकास की प्रक्रिया का, सर्वसाधारण को परिचय कराने के लिए यह एक सर्वसम्मत प्रातिनिधिक प्रन्थ है। जैनं जयति शासनम् ।
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१ मङ्गलसूत
२ जिनशासन सूत्र
३ सघसूत्र
४ निरूपणसूत्र
५ ससारचक्रसूत्र
६ कर्मसूत्र
७ मिथ्यात्वसूत्र
८ राग- परिहारसूत्र
२१ साधनासूत्र
२२ द्विविध धर्मसूत्र
२३ श्रावक धर्मसूत्र
२४ श्रमणधर्मसूत्र
२५ व्रतसूत्र
अनुक्रम
प्रथम खण्ड ज्योतिर्मुख
गाथाएँ
१-१६
९ धर्मसूत्र
१७- २८
१० सयमसूत्र
२५-३१
११ अपरिग्रहसूत्र
३२-४८
१२ अहिसा सूत्र
४५-५५
१३ अप्रमादसूत्र
५६-९६ १४ शिक्षासूत्र
६७-७०
१५ आत्मसूत्र
७१-८१
१६ मोक्षमार्ग सूत्र
१९२-२०७
२६ समिति - गुप्तिसूत्र
१७ रत्नत्रयसूत्र
२०८-२१८ २७ आवश्यक सूत्र
१८ सम्यक्त्वसूत्र
२१९-२४४ २८ तपसूत्र
१९ सम्यग्ज्ञानसूत्र
२४५-२६१
२९ ध्यानसूत्र
२० सम्यक्चारित्रसूत्र २६२-२८७
३० अनुप्रेक्षासूत्र
२८८-२९५
३१ लेश्यासूत्र
२९६–३००
३२ आत्मविकाससूत्र
३०१-३३५
( गुणस्थान )
३३६-२६३
३३ सलेखनासूत्र
३६८-३८३
द्वितीय खण्ड मोक्षमार्ग
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उन्नीस
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गाथाए
८२-१२१
१२२-१३९
१४०-१४६
१४७-१५९
१६०-१६९
१७०-१७६
१७७-१९१
३८४-४१६
४१७-४३८
४३९-४८३
४८४-५०४
५०५-५३०
५३१-५४५
५४६-५६६
५६७-५८७
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तृतीय खण्ड : तत्व-दर्शन
गाथाएँ
गाथाएँ ५८८-६२३ ६२४-६५०
३४. तत्त्वसूत्र ३५ द्रव्यसूत्र
३६ सृष्टिसूत्र
चतुर्थ खण्ड : स्याद्वाद
७२२७३६
३७ अनेकान्तसूत्र २८ प्रमाणसूत्र ३९ नयसूत्र
स्याद्वाद व सप्तभङ्गीसूत्र
६६०-६७३ ६७४-६८९ ६९०-७१३
७६७-७४४
४१ समन्वयसून ४२ निक्षेपसूत्र ४३. समापन ४४ वीर-स्तवन
७५०-७५६
७१४-७२१
पृष्ठ
२४५-२५७
परिशिष्ट : १. गाथानुक्रमणिका
२. पारिभाषिक शब्दकोश
२५९-२७६
- बीस -
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समणसुत्तं
प्रथम खण्ड
ज्योतिर्मख
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१. मङ्गलसूत्र १. णमो अरहताणं । णमो सिद्धाणं । णमो आयरियाणं ।
णमो उवज्झायाणं । णमो लोए सव्वसाहूणं ॥१॥ नमः अर्हद्भ्यः । नमः सिद्धेभ्यः । नम. आचार्येभ्यः । नमः उपाध्यायेभ्यः । नमो लोके सर्वसाधुभ्यः ॥१॥
२. एसो पंचणमोक्कारो, सव्वपावप्पणासणो।
मंगलाणं च सन्वेसि, पढमं हवइ मंगलं ॥२॥ एष पंचनमस्कारः, सर्वपापप्रणाशनः ।
मङ्गलेषु च सर्वेषु, प्रथमं भवति मङ्गलम् ॥२॥ ३-५. अरहंता मंगलं । सिद्धा मंगलं । साहू मंगलं।
केवलिपण्णत्तो धम्मो मंगलं ॥३॥ अरहंता लोगुत्तमा। सिद्धा लोगुत्तमा । साहू लोगुत्तमा। केवलिपण्णतो धम्मो लोगुत्तमो ॥४॥ अरहंते सरणं पव्वज्जामि । सिद्धे सरणं पव्वज्जामि। साहू सरणं पव्वज्जामि । केवलिपण्णत्तं धम्म सरणं पव्वज्जामि ॥५॥ अर्हन्त. मङ्गलम् । सिद्धाः मङ्गलम् । साधवः मङ्गलम् । केवलिप्रज्ञप्तः धर्म. मङ्गलम् ॥३॥ अर्हन्तः लोकोत्तमाः । सिद्धा. लोकोत्तमाः । साधवः लोकोत्तमाः । केवलिप्रज्ञप्त: धर्म लोकोत्तमः ॥४॥ अर्हतः शरण प्रपद्ये । सिद्धान् शरण प्रपद्ये । साधून् शरणं प्रपद्ये। केवलिप्रज्ञप्त धर्म शरण प्रपद्ये ॥५॥
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१. मङ्गलसूत्र
१. अर्हतों को नमस्कार । सिद्धों को नमस्कार । आचार्यो को नमस्कार । उपाध्यायों को नमस्कार । लोकवर्ती सर्वसाधुओं को नमस्कार ॥
२. यह पंच नमस्कार मन्त्र सब पापों का विनाश करनेवाला है और समस्त मंगलों में प्रथम मंगल है |
३ - ५. अर्हत् मंगल हैं ।
सिद्ध मंगल है ।
साधु मंगल है ।
केवलि -प्रणीत धर्म मगल है ।
अर्हत लोकोत्तम है ।
सिद्ध लोकोत्तम है ।
साधु लोकोत्तम है ।
केवल प्रणीत धर्म लोकोत्तम है ।
अर्हतों की शरण लेता हूँ । सिद्धों की शरण लेता हूँ साधुओं की शरण लेता हूं । केवलि -प्रणीत धर्म की शरण लेता हूं ।
३
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दे
समणसुतं
६. झायहि पंच वि गुरवे, मंगलचउसरणलोयपरियरिए । आराहणणायगे वीरे ॥६॥
गर- सुर-खेयर - महिए,
ध्यायत पञ्च अपि गुरून्, मङ्गल - चतुः शरण- लोकपरिकरितान् । नरसुरखेचर महितान्, आराधननायकान् वीरान् ।। ६।।
७. घणघाइकम्ममहणा,
अरिहा अणतणाणी, अणुवमसोक्खा
घनघातिकर्म मथना.,
त्रिभुवनवरभव्यकमलमार्तण्डाः ।
अह (अर्हन्त. ) अनन्तज्ञानिन, अनुपमसौस्या जयन्तु जगति ॥ ८. अट्ठविहकम्मवियला, fuट्टियकज्जा पण संसारा । सिद्धा सिद्धि मम दिसंतु ॥८॥ निष्ठितकार्या: सिद्धाः सिद्धि मम दिशन्तु ॥८॥
दिसयलत्थसारा,
प्रणष्टससारा: ।
अष्टविवकर्म विकला, दृष्टसकलार्थसारा,
९. पंचमहव्वयतुंगा,
तक्कालिय- सपरसमय-सुदधारा ।
णाणागुणगणभरिया, आइरिया मम पसीदंतु ॥९॥
पञ्च महाव्रततुङ्गा, नानागुणगणभरिता,
तिहुवणवरभव्व - कमल मत्तंडा ।
१०. अण्णाणघोरतिमिरे, भवियाणुज्जोययरा,
अज्ञानघोरतिमिरे,
आचार्या दुरंततीरम्हि हिंडमाणाणं ।
उवज्झाया
वरर्माद देतु ॥ १०॥ दुरन्ततीरे हिण्डमानानाम् । भव्यानाम् उद्योतकरा, उपाध्याया वरमति ददतु ॥ १०॥ ११. थिरधरियसीलमाला, ववगयराया जसोहपsिहत्था । बहुविणयभूसियंगा, सुहाई साहू पयच्छंतु ॥११॥ स्थिरधृतशीलमाला, व्यपगतरागा यशओघप्रतिहस्ताः वहुविनयभूपिताङ्गा, सुखानि साधव प्रयच्छन्तु ॥ ११॥
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१२. अरिहंता, असरीरा, आयरिया, उवज्झाय मुणिणो । पंचक्खरनिप्पण्णो, ओंकारो पंच परमिट्ठी ॥ १२॥ अर्हन्तः अशरीरा., आचार्या पञ्चाक्षरनिष्पन्न,
ओङ्कार.
तत्कालिकस्वपरसमगश्रुतधाराः ।
जयंतु जए ॥७॥
मम
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प्रसीदन्तु ॥९॥
उपाध्याय मुनयः । परमेष्ठिनः ॥१२॥
पञ्च
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ज्योतिर्मुख
६. मगलम्वरूप, चतु शरणरूप तथा लोकोत्तम, परम आराध्य
एव नर-सुर-विद्याधरो द्वारा पूजित, कर्मशत्रु के विजेता पच गुरुओं (परमेष्ठी) का ध्यान करना चाहिए।
७. सघन घातिकर्मो का आलोडन करनेवाले, तीनो लोकों में विद्यमान भव्यजीवरूपी कमलो को विकसित करनेवाले सूर्य, अनन्तज्ञानी और अनुपम सुखमय अर्हतो की जगत् मे जय हो।
८. अप्टकर्मो से रहित, कृतकृत्य, जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्त तथा
सकल तत्त्वार्थ के द्रप्टा सिद्ध मझे सिद्धि प्रदान करे।
९. पंच महाव्रतों से समुन्नत, तत्कालीन स्वसमय और पर
समय रूप श्रुत के ज्ञाता तथा नाना गुणसमूह से परिपूर्ण आचार्य मुझ पर प्रसन्न हो।
१०. जिसका ओर-छोर पाना कठिन है, उस अज्ञानरूपी घोर अधकार
मे भटकनेवाले भव्य जीवों के लिए ज्ञान का प्रकाश देनेवाले उपाध्याय मुझे उत्तम मति प्रदान करे ।
११. शीलरूपी माला को स्थिरतापूर्वक धारण करनेवाले, राग
रहित, यश.ममूह से परिपूर्ण तथा प्रवर बिनय से अलंकृत शरीरवाले साधु मुझे सुख प्रदान करे।
१२. अर्हत्, अशरीरी (सिद्ध), आचार्य, उपाध्याय तथा मुनि---
इन पाँचों के प्रथम पाँच अक्षरों (अ+अ+आ-+-उ-:-म) को मिलाकर ॐ (ओंकार) बनता है जो पंच-परमेष्ठी का वाचक है--बीजरूप है।
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समणसुत्तं १३. उसहमजियं च वंदे, संभवमभिणंदणं च सुमई च ।
पउमप्पहं सुपासं, जिणं च चंदप्पहं वंदे ॥१३॥ ऋषभमजितं च वन्दे, संभवमभिनन्दनं च सुमति च ।
पद्मप्रभ सपार्श्व, जिनं च चन्द्रप्रभ वन्दे ।।१३।। १४. सुविहिं च पुप्फयंतं, सीयल सेयंस वासुपुज्जं च ।
विमलमणंत-भयवं, धम्म संति च वंदामि ॥१४॥ सुविधि च पुष्पदन्तं, शीतलं श्रेयांसं वासुपूज्यं च ।
विमलम् अनन्तभगवन्तं, धर्म शान्ति च वन्दे ॥१४॥ १५. कुंथं च जिणरिवं, अरं च मल्लि च सुध्वयं च णमि ।
वंदामि रिट्ठणेमि, तह पासं वड्ढमाणं च ॥१५॥ कुन्थु च जिनवरेन्द्रम, अर च मल्लि च सुव्रतं च नमिम ।
वन्दे अरिष्टनेमि, तथा पार्श्व वर्धमानं च ॥१५॥ १६. चंदेहि णिम्मलयरा, 'आइच्चेहि अहियं पयासंता ।
सायरवरगंभीरा, सिद्धा सिद्धि मम दिसंतु ॥१६॥ चन्दैनिर्मलतरा, आदित्यः अधिकं प्रकाशमानाः । सागरवरगम्भीरा., सिद्धाः सिद्धि मम दिशन्तु ॥१६॥
२. जिनशासनसूत्र १७. जमल्लीणा जीवा, तरंति संसारसायरमणतं ।
तं सव्वजीवसरणं, गंददु जिणसासणं सुइरं ॥१॥ यद् आलीना जीवाः, तरन्ति संसारसागरमनन्तम् ।
तत् सर्वजीवशरणं, नन्दतु जिनशासनं सुचिरम् ॥१॥ १८. जिणवयणमोसहमिणं, विसयसुह-विरयणं अमिदभयं ।
जरमरणवाहिहरणं, खयकरणं सव्वदुक्खाणं ॥२॥ जिनवचनमौषधमिद, विषयसुखविरेचनम्-अमृतभूतम् । जरामरणव्याधिहरणं, क्षयकरणं सर्वदुःखानाम् ॥२॥
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ज्योतिर्मुख १३. मै १. ऋषभ, २. अजित, ३. सम्भव, ४. अभिनन्दन, ५. सुमति,
६. पद्मप्रभु, ७. सुपाव तथा ८. चन्द्रप्रभु को वन्दन करता हूँ।
१४. मै ९. सुविधि (पुष्पदन्त), १०. शीतल, ११. श्रेयांस, १२. वासु
पूज्य, १३. विमल, १४. अनन्त, १५. धर्म, १६. शान्ति को वन्दन करता हूँ।
१५. में १७. कुन्थु, १८. अर, १९. मल्लि, २०. मुनिसुव्रत, २१. नमि,
२२. अरिष्टनेमि, २३. पार्व तथा २४. वर्धमान को वन्दन करता हूँ।
१६. चन्द्र से अधिक निर्मल, सूर्य से अधिक प्रकाश करनेवाले, सागर
की भाँति गम्भीर सिद्ध भगवान् मुझे सिद्धि (मुवित) प्रदान करे।
२. जिनशासनसूत्र
१७. जिसमे लीन होकर जीव अनन्त संसार-सागा'। पार कर जाते
है तथा जो समस्त जीवों के लिए शरणभूत वह जिनशासन चिरकाल तक समृद्ध रहे ।
१८. यह जिनवचन विषयसुख का विरेचन, जरा-मरणरूपी व्याधि का
हरण तथा सब दुःखों का क्षय करनेवाला अमृततुत्य औषध है।
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समणसुतं १९. अरहंतभासियत्थं, गणहरदेवेहिं गंथियं सम्म ।
पणमामि भत्तिजुत्तो, सुदणाणमहोहिं सिरसा ॥३॥ अर्हदभाषितार्थ, गणधरदेव. ग्रन्थितं सम्यक् । प्रणमामि भक्तियुक्त , श्रुतज्ञानमहोदधि शिरसा ।।३।।
२०. तस्स मुहुग्गदवयणं, पुच्चावरदोसविरहियं सुद्धं ।
आगममिदि परिकहियं, तेण दु कहिया हवंति तच्चत्या ॥४॥ तस्य मुखोद्गतवचन, पूर्वापरदोषविरहित शुद्धम् । 'आगम' इति परिकथितं, तेन तुकथिता भवन्ति तत्त्वार्थाः ॥४॥
२१. जिणवयणे अणुरत्ता, जिणवयणं जे करेंति भावेण ।
अमला असंकिलिट्ठा, ते होंति परित्तसंसारी ॥५॥ जिनवचनेऽनुरक्ताः , जिनवचन ये करन्ति भावेन । अमला असक्लिष्टाः, ते भवन्ति परीतससारिणः ॥५॥
२२. जय वीयराय ! जयगुरू ! होउ मम तुह पभावओ भयवं !
भवणिव्वेओ मग्गाणुसारिया इट्ठफलसिद्धी ॥६॥ जय वीतराग! जगद्गुरो! भवतु मम तव प्रभावतो भगवन् ! भवनिर्वेद' मार्गानुसारिता इष्टफलसिद्धिः ॥६॥
२३. २ प्य-परसमयविऊ, गंभीरो दित्तिमं सिवो सोमो ।
गु पकलिओ जुत्तो, पवयणसारं परिकहेउं ॥७॥ स्जय-परसमयवित्, गम्भीरः दीप्तिमान् शिवः सोमः । गुतकलित. युक्तः, प्रवचनसारं परिकथयितुम् ॥७॥
२४. जं इच्छसि अप्पणतो, जं च ण इच्छसि अप्पणतो ।
तं इच्छ परस्स वि या, एत्तियगं जिणसासणं ॥८॥ यदिच्छसि आत्मतः, यच्च नेच्छसि आत्मतः । तदिच्छ परस्यापि च, एतावत्कं जिनशासनम् ॥८॥
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ज्योतिर्मुख
१९. जो अर्हत् के द्वारा अर्थरूप मे उपदिष्ट है तथा गणधरों के द्वार सूत्ररूप में सम्यक् चुकित है, उस श्रुतज्ञानरूपी महासिन्धु को मैं भक्तिपूर्वक सिर नवाकर प्रणाम करता हूँ ।
२०. अर्हत् के मुख से आगम कहते है।
उद्भूत, पूर्वापरदोष रहित शुद्ध वचनों को उस आगम में जो कहा गया है वही सत्यार्थ है । ( अर्हत् द्वारा उपदिष्ट तथा गणधर द्वारा संकलित श्रुत आगम है | )
२१. जो जिनवचन में अनुरक्त है तथा जिनवचनों का भावपूर्वक आचरण करते हैं, वे निर्मल और असक्लिष्ट होकर परीतसंसारी (अल्प जन्म-मरणवाले) हो जाते है ।
२२. हे वीतराग ।, हे जगद्गुरु हे भगवन् ! आपके प्रभाव से
,
मुझे ससार से विरक्ति, मोक्षमार्ग का अनुसरण तथा इष्टफल की प्राप्ति होती रहे ।
२३. जो स्वसमय व परसमय का ज्ञाता है, गम्भीर, दीप्तिमान, कल्याणकारी और सौम्य है तथा रोकड़ों गुणों से युक्त है, वही निर्ग्रन्थ प्रवचन के सार को कहने का अधिकारी है ।
२४. जो तुम अपने लिए चाहते हो वही दूसरों के लिए भी चाहो तथा जो तुम अपने लिए नही चाहते वह दूसरो के लिए भी न चाहो । यही जिनशासन है - - तीर्थकर का उपदेश है ।
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३. संघसूत्र २५. संघो गुणसंघाओ, संघो य विमोचओ य कम्माणं ।
दसणणाणचरित्ते, संघायंतो हवे संघो ॥१॥ सघो गुणसंघात., सघश्च विमोचकश्च कर्मणाम् । दर्शनज्ञानचरित्राणि, सघातयन् भवेत् सघः ।।१।। रयणत्तयमेव गणं, गच्छं गमणस्स मोक्खमग्गस्स । संघो गुण संघादो, समयो खलु णिम्मलो अप्पा ॥२॥ रत्नत्रयमेव गणः, गच्छ गमनस्य मोक्षमार्गस्य ।
संघो गणसंघातः, समयः खल निर्मल: आत्मा ॥२।। २७. आसासो वीसासो, सीयघरसमो य होइ मा भाहि ।
अम्मापितिसमाणो, संघो सरणं तु सव्वेसि ॥३॥ आश्वासः विश्वास, शीतगृहसमश्च भवति मा भैषीः । अम्बापितृसमानः, संघः शरणं तु सर्वेषाम् ॥३॥ नाणस्स होइ भागी, थिरयरओ दसणे चरित्ते य । धन्ना गुरुकुलवासं, आवकहाए न मुंचंति ॥४॥ ज्ञानस्य भवति भागी, स्थिरतरको दर्शने चरित्रे च । धन्याः गुरुकुलवास, यावत्कथया न मुञ्चन्ति ॥४॥ जस्स गुरुम्मि न भत्ती, न य बहुमाणो न गउरवं न भयं । न वि लज्जा न वि नेहो, गुरुकुलवासेण किं तस्स? ॥५॥ यस्य गुरौ न भक्तिः , न च बहुमानः न गौरवं न भयम् ।।
नापि लज्जा नापि स्नेहः, गुरुकुलवासेन कि तस्य ? ॥५॥ ३०-३१. कम्मरयजलोहविणिग्गयस्स, सुयरयणदीहनालस्स ।
पंचमहव्वयथिरकण्णियस्स, गुणकेसरालस्स ॥६॥ सावगजणमहुयरपरिवुडस्स, जिणसूरतेयबुद्धस्स । संघपउमस्स भहं, समणगणसहस्सपत्तस्स ॥७॥ कर्मरजजलौघविनिर्गतस्य, श्रुतरत्नदीर्घनालस्य । पञ्चमहाव्रतस्थिरकणिकस्य, गुणकेसरवतः ॥६॥ श्रावकजन-मधुकर-परिवृतस्य, जिनसूर्यतेजोबुद्धस्य । सघपद्मस्य
श्रमणगणसहस्रपत्रस्य ॥७॥
भद्र,
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३. संघसूत्र २५ गुणो का समूह संघ है । सघ कर्मों का विमोचन करनेवाला है।
जो दर्शन, ज्ञान और चारित्र का सघात (रत्नत्रय की समन्विति) करता है, वह सघ है।
२६. रत्नत्रय ही 'गण' है । मोक्षमार्ग मे गमन ही 'गच्छ' है । गुण
का समूह ही 'संघ' है तथा निर्मल आत्मा ही समय है।
२७. सघ भयभीत व्यक्तियों के लिए आश्वासन, निश्छल व्यवहार के
कारण विश्वासभूत, सर्वत्र समता के कारण शीतगृहतुल्य, अविषमदर्शी होने के कारण माता-पितातुल्य तथा सब प्राणियों
के लिए शरणभूत होता है, इसलिए तुम संघ से मत डरो। २८. संघस्थित साधु ज्ञान का भागी (अधिकारी) होता है, दर्शन
व चारित्र में विशेषरूप से स्थिर होता है। वे धन्य है जो जीवन-पर्यन्त गुरुकुलवास नहीं छोड़ते ।
२९ जिसमें गुरु के प्रति न भक्ति है, न बहुमान है, न गौरव है, न
भय (अनुशासन) है, न लज्जा है तथा न स्नेह है, उसका गुरुकुलवास में रहने का क्या अर्थ है ?
३०-३१. संघ कमलवत् है। (क्योंकि) सघ कर्म रजरूपी जलराशि से
कमल की तरह ही ऊपर तथा अलिप्त रहता है। श्रुतरत्न (ज्ञान या आगम) ही उसकी दीर्घनाल है। पच महाव्रत ही उसकी स्थिर कर्णिका है तथा उत्तरगुण ही उसकी मध्यवर्ती केसर है। जिसे श्रावकजनरूपी भ्रमर सदा घेरे रहते है, जो जिनेश्वरदेवरूपी सूर्य के तेज से प्रबुद्ध होता है तथा जिसके श्रमणगणरूपी सहस्रपत्र है, उस संघरूपी कमल का कल्याण हो।
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४. निरूपणसूत्र ३२. जो ण पमागणहि, गिखेवेगं णिरिदादे अत्थं ।
तस्साजुत्तं जुत्तं, जुत्तमजुत्तं च पडिहादि ॥१॥ यो न प्रमाण-नयाभ्याम्, निक्षेपेण निरीक्षत अर्थम् । तस्थायुक्तं युक्तं, युक्तमयुक्त च प्रतिभाति ॥१॥
३३. जाणं होदि पमाणं, ओ वि णादुस्स हिदयभावत्थो ।
णिक्खेओ वि उवाओ, जुत्तीए अत्थपडिगहणं ॥२॥ जानं भवति प्रमाण, नयोऽपि ज्ञातु. हृदयभावार्थः ।। निक्षेपोऽपि उपायः, युक्त्या अर्थप्रतिग्रहणम् ॥२॥
३४. णिच्छयववहारणया, मूलभेया णयाण सव्वाणं ।
णिच्छयसाहणहे, पज्जयदव्वत्थियं मुणह ॥३॥ निश्चयव्यवहारनयौ, मलभेदो नयानां सर्वेषाम् ।। निश्चयसाधनहेतू, पर्यायद्रव्याथिको मन्यध्वम् ॥३॥
३५. जो सिय भेदुवयारं, धम्माणं कुणइ एगवत्थुस्स ।
सो ववहारो भणियो, विवरीओ णिच्छयो होइ ॥४॥ यः स्याद्भेदोपचार, धर्माणां करोति एकवस्तुनः । स व्यवहारो भणित, विपरीतो निश्चयो भवति ॥४॥
३६. ववहारेणुवदिस्सइ, णाणिस्स चरित्तं दंसणं गाणं ।
ण वि णाणं ण चरितं, न दंसणं जाणगो सद्धो ॥५॥ व्यवहारेणोपदिश्यते, ज्ञानिनश्चरित्र दर्शन ज्ञानम् । नापि ज्ञानं न चरित्रं, न दर्शनं ज्ञायकः शुद्धः ॥५॥
३७. एवं ववहारणओ, पडिसिद्धो जाण णिच्छयणयेण ।
णिच्छयणयासिदा पुण, मुणिणो पावंति णिव्वाणं ॥६॥ एव व्यवहारनयं, प्रतिषिद्धं जानीहि निश्चयनयन ।। निश्चयनयाश्रिताः पुनर्मुनयः प्राप्नुवन्ति निर्वाणम् ॥६॥
-१२
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४. निरूपणसूत्र ३२. जो प्रमाण, नय और निक्षेप के द्वारा अर्थ का बोध नहीं
करता, उसे अयुवत युवत तथा युवत अयुवत प्रतीत होता है ।
३३. ज्ञान प्रमाण है। ज्ञाता का हृदयगत अभिप्राय नय है । जानने
के उपायो को निक्षेप कहते है। इस तरह युक्तिपूर्वक अर्थ ग्रहण करना चाहिए।
३४ निश्चय और व्यवहार---ये दो नय ही समस्त नयों के मूल है
तथा द्रव्याथिक व पर्यायाथिक नय निश्चय के साधन मे हेतु है।
३५. जो एक अखण्ड वस्तु के विविध धर्मो मे कथचित् (किसी
अपेक्षा ) भेद का उपचार करता है वह व्यवहारनय है। जो ऐसा नहीं करता, अर्थात् अखण्ड पदार्थ का अनुभव अखण्ड रूप से करता है, वह निश्चय नय है।
३६ व्यवहारनय से यह कहा जाता है कि ज्ञानी के चारित्र होता है,
दर्शन होता है और ज्ञान होता है। किन्तु निश्चयनय से उसके न ज्ञान है, न चारित्र है और न दर्शन है। ज्ञानी तो शुद्ध ज्ञायक है।
३७. इस प्रकार आत्माश्रित निश्चयनय के द्वारा पराश्रित व्यवहार
नय का प्रतिपेध किया जाता है। निश्चयनय का आश्रय लेनेवाले मुनिजन ही निर्वाण प्राप्त करते है ।
-१३ -
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४०.
समणसुत्तं ३८. जहण वि सक्कमणज्जो, अणज्जभासं विणा उगाहेउं ।
तह ववहारेण विणा, परमत्थुवएसणमसक्कं ॥७॥ यथा नापि शक्योऽनार्योऽनार्यभाषां विना तु ग्राहयितुम् ।
तथा व्यवहारेण विना, परमार्थोपदेशनमशक्यम् ॥७॥ ३९. ववहारोऽभूयत्थो, भूयत्थो देसिदो दु सुद्धणओ ।
भूयत्थमस्सिदो खलु, सम्माइट्ठी हवइ जीवो ॥८॥ व्यवहारोऽभूतार्थो, भूतार्थो देशितस्तु शुद्धनय. । भूतार्थमाश्रितः खलु, सम्यग्दृष्टिर्भवति जीव ।।८।। निच्छयमवलंबंता, निच्छयतो निच्छयं अजाणंता । नासंति चरणकरणं, बाहिरकरणालसा केई ॥९॥ निश्चयमवलम्बमाना., निश्चयत. निश्चयम् अजानन्तः ।
नाशयन्ति चरणकरणम्, बाह्यकरणाऽलसाः केचित् ॥९॥ ४१. सुद्धो सुद्धादेसो, णायन्वो परमभावदरिसीहि ।
ववहार देसिदा पुण, जे दु अपरमे द्विदा भावे ॥१०॥ शुद्धः शुद्धादेशो, ज्ञातव्य. परमभावशिभिः ।
व्यवहारदेशिता. पुन-ये त्वपरमे स्थिता भावे ॥१०॥ ४२. निच्छयओ दुण्णेयं, को भावे कम्मि वट्टई समणो ।
ववहारओ य कीरइ, जो पुवठिओ चरित्तम्मि ॥११॥ निश्चयत. दुर्जेय, कः भाव कस्मिन् वर्तते श्रमणः ? ।
व्यवहारतस्तु क्रियते, यः पूर्वस्थितश्चारित्रे ॥११॥ ४३. तम्हा सत्वे वि णया, मिच्छादिट्ठी सपक्खपडिबद्धा ।
अन्नोन्नपिस्सिया उण, हवंति सम्मत्तसन्भावा ॥१२॥ तस्मात् सर्वेऽपि नयाः, मिथ्यादृष्टयः स्वपक्षप्रतिबद्धाः ।
अन्योन्यनिश्रिता पुन , भवन्ति सम्यक्त्वसद्भावाः ॥१२॥ ४४. कज्ज णाणादीयं, उस्सग्गाववायओ भवे सच्चं ।
तं तह समायरंतो, तं सफलं होइ सव्वं पि ॥१३॥ कार्य ज्ञानादिक, उत्सर्गापवादतः भवेत् सत्यम् । तत् तथा समाचरन्, तत् सफलं भवति सर्वमपि ॥१३॥
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ज्योतिर्मुख
३८. (किन्तु ) जैसे अनार्य पुरुष को अनार्य भाषा के बिना समझाना सम्भव नही है, वैसे ही व्यवहार के बिना परमार्थ का उपदेश करना सम्भव नही है ।
३९. व्यवहार अभूतार्थ (असत्यार्थ ) है और निश्चय भूतार्थ ( सत्यार्थ ) है । भूतार्थ का आश्रय लेनेवाला जीव ही सम्यग्दृष्टि होता है ।
१५
४०. निश्चय का अवलम्बन करनेवाले कुछ जीव निश्चय को निश्चय से न जानने के कारण बाह्य आचरण में आलसी या स्वच्छन्द होकर चरण-करण ( आचार - क्रिया) का नाश कर देते है ।
४१. (ऐसे लोगों के लिए आचार्य कहते है कि - ) परमभाव के द्रष्टा जीवों के द्वारा शुद्ध वस्तु का कथन करनेवाला शुद्धनय ( निश्चयनय ) ही ज्ञातव्य है । किन्तु अपरमभाव में स्थित जनों को व्यवहारनय के द्वारा ही उपदेश करना उचित है ।
४२. निश्चय ही यह जानना कठिन है कि कौन श्रमण किस भाव में स्थित है । अतः जो पूर्व-चारित्र में स्थित है, उनका कृतिकर्म ( वन्दना ) व्यवहारनय के द्वारा चलता है ।
४३. अतः (समझना चाहिए कि ) अपने-अपने पक्ष का आग्रह रखनेवाले सभी नय मिथ्या है और परस्पर सापेक्ष होने पर वे ही सम्यक्भाव को प्राप्त हो जाते है ।
४४. ज्ञान आदि कार्य उत्सर्ग ( सामान्य विधि ) एवं अपवाद (विशेष विधि ) से सत्य होते हैं । वे इस तरह किये जायें कि सब कुछ सफल हो ।
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५. संसारचक्रसूत्र
४५. अधुवे
असासयम्मि, संसारम्मि दुक्खपउराए ।
किं नाम होज्ज तं कम्मयं, जेणाऽहं दुग्गइं न गच्छेज्जा ? ॥१॥ अध्रुवेऽशाश्वते, ससारे दुःखप्रचुरके । कि नाम भवेत् तत् कर्मक, येनाह दुर्गत न गच्छेयम् ॥ १॥
४६. खणमित्तसुक्खा बहुकाल दुक्खा, पगामदुक्खा अणिगामसुक्खा | संसारमोक्खस्स विपक्खभूया, खाणी अणत्थाण उ कामभोगा ॥२॥ क्षणमात्रसौख्या बहुकालदु.खा., प्रकामदु खाः अनिकामसौख्याः | संसारमोक्षस्य विपक्षभूताः खानिरनर्थाना तु कामभोगाः ॥२॥
४७. सुट्ठवि मग्गिज्जतो, कत्थ वि केलीइ नत्थि जह सारो । इंदिअविसएस तहा, नत्थि सुहं सुठु वि गविट्ठे ॥३॥ सुप्ठ्वपि मार्ग्य माण, कुत्रापि कदत्यां नारित यथा सारः । इन्द्रियविषयेषु तथा नारित सुखं सुप्ठ्वपि गवेषितम् ||३||
3
४८. नरविवुहेसर सुदखं, दुक्खं परमत्थओ तयं बिति ।
परिणामदारुणमसासयं च जं ता अलं तेण ॥४॥ नरविबुधेश्वरसौख्य, दुख परमार्थतस्तद् ब्रुवते । परिणामदारुण मशाश्वत, च यत् तस्मात् अल तेन ॥४॥
४९. जह कच्छ्रुत्लो कच्छं, कंडयमाणो दुहं मुणइ सुक्खं । मोहाउरा मणुस्सा, तह कामदुहं सुहं बिति ॥५॥ यथा कच्छुरः कच्छु, कण्डूयन् दुखं मनुते सौख्यम् । मोहातुरा मनुष्याः, तथा कामदुख सुख ब्रुवन्ति ॥ ५ ॥
५०. भोगामिसदोसदिसन्ने,
हियनिस्सेय सबुद्धिवोच्चत्थे ।
बाले य मन्दिए मूढे, बज्झई मच्छिया व खेलमि ॥ ६ ॥ भोगामिषदोषदिषण, हितनि. श्रेयसबुद्धिविपर्यस्त । बालश्च मन्दितः मूढ, वध्यते मक्षिकेव श्लेप्मणि ॥ ६ ॥
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५. संसारचक्रसूत्र ४५. अध्रुव, अशाश्वत और दुख-बहुल संसार मे ऐसा कौन-सा
कर्म है, जिससे मैं दुर्गति मे न जाऊँ ।
४६. ये काम-भोग क्षणभर सुख और चिरकाल तक दु.ख देनेवाले
है, बहुत दु ख और थोड़ा सुख देनेवाले है, संसार-मुक्ति के विरोधी और अनर्थो की खान है ।
४७. बहुत खोजने पर भी जैसे केले के पेड़ में कोई सार दिखाई नही
देता, वैसे ही इन्द्रिय-विषयों में भी कोई सुख दिखाई नहीं देता।
४८. नरेन्द्र-सुरेन्द्रादि का सुख परमार्थतः दु ख ही है। वह है तो
क्षणिक, किन्तु उसका परिणाम दारुण होता है । अतः उससे दूर रहना ही उचित है ।
४९. खुजली का रोगी जैसे खुजलाने पर दु ख को भी सुख मानता है,
वैसे ही मोहातुर मनुष्य कामजन्य दु ख को सुख मानता है ।
५०. आत्मा को दूषित करनेवाले भोगामिप (आसवित-जनक
भोग) मे निमग्न, हित और श्रेयस् मे विपरीत बुद्धिवाला, अज्ञानी, मन्द और मूढ जीव उसी तरह (कर्मो से) बँध जाता है, जैसे श्लेष्म मे मक्खी।
-१७
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१८
समणसुत्तं ५१. जाणिज्जइ चिन्तिज्जइ, जम्मजरामरणसंभवं दुक्खं ।
न य विसएसु विरज्जई, अहो सुबद्धो कवडगंठी ॥७॥ जानाति चिन्तयति. जन्मजरामरणसम्भव दुखम् । न च विपयेष विरज्यते, अहो सुबद्ध कपटग्रन्थि ।।७।।
५६--५४. जो खलु संसारत्थो, जीवो तत्तो दु होदि परिणामो ।
परिणामादो कम्म, कम्मादो होदि गदिसु गदी॥८॥ गदिमधिगदस्स देहो, देहादो इंदियाणि जायते । तेहि दु विसयग्गहणं, तत्तो रागो वा दोसो वा ॥९॥ जायदि जीवस्सेवं, भावो ससारचक्कवालम्मि । इदि जिणवरेहिं भणिदो, अणादिणिधणो सणिधणो वा ॥१०॥ य खल समारम्थो, जीवस्ततस्तु भवति परिणाम । परिणामात् कर्म, कर्मत भवति गतिपु गति. ॥८॥ गतिमधिगतम्य देहो. देहादिन्द्रियाणि जायन्ते । नैस्तु विपयग्रहण, ततो रागो वा द्वेपो वा ॥९॥ जायने जीवम्यव, भाव समारचक्रवाले । इति जिनवर भंणितो-ऽनादिनिधन सनिधनो वा ॥१०॥
जम्मं दुक्खं जरा दुक्खं, रोगा य मरणाणि य । अहो दुक्खो हु संसारो, जत्थ कीसन्ति जंतवो॥११॥ जन्म दुख, जरा दुख रोगाश्च मरणानि च । अहो दुग्न खलु ससार , यत्र क्लिश्यन्ति जन्तव. ।।११।।
६. कर्मसूत्र ५६. जो जेण पगारेणं, भावो णियओ तमन्नहा जो तु ।
मन्नति करेति वदति व, विप्परियासो भवे एसो॥१॥ यो येन प्रकारेण, भाव नियतः तम् अन्यथा यस्तु । मन्यते करोति वदति वा, विपर्यासो भवेद् एष ॥१॥
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ज्योतिर्मुख ५१ जीव जन्म, जरा और मरण से होनेवाले दुख को जानता है,
उसका विचार भी करता है, किन्तु विपयो से विरक्त नहीं हो पाता । अहो ! माया (दम्भ) की गाँठ कितनी सदढ होती है।
५२-५४ मसारी जीव के (राग-द्वेपरूप) परिणाम होते है । परिणामो से
कर्म-बध होता है । कर्म-बध के कारण जीव चार गतियो म गमन करता है--जन्म लेता है। जन्म से शरीर और शरीर से इन्द्रियाँ प्राप्त होती है। उनसे जीव विपयो का ग्रहण (सेवन) करता है। उससे फिर राग-द्वेप पैदा होता है । इस प्रकार जीव समारचक्र में परिभ्रमण करता है। उनके परिभ्रमण का हनुभूत परिणाम (मम्यग्दृष्टि उपलब्ध न होने पर) अनादिअनन्त और (सम्यग्दृष्टि के उपलब्ध होने पर) अनादि-मान्त होता है।
'५ जन्म दुख है, बुढ़ापा दु ख है, रोग दु ख है और मृत्य दु ख है।
अहो । समार दु ख ही है, जिसम जीब क्लेग पा रहे है।
६. कर्मसूत्र ५६ जो भाव जिस प्रकार से नियत है, उसे अन्य रूप से मानना,
कहना या करना विपर्यास या विपरात वुद्धि है ।
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समणसुत्तं ५७. जं जं समयं जीवो आविसइ जेण जेण भावेण ।
सो तंरि. तंमि समए, सुहासुहं बंधए कम्मं ॥२॥ य यं समयं जीवः, आविशति येन येन भावेन । स. तस्मिन् समये, शुभाशुभं बध्नाति कर्म ॥२॥ कायसा वयसा मत्ते, वित्ते गिद्ध य इत्थिसु । दुहओ मलं संचिणइ, सिसुणागु व्व मट्टियं ॥३॥ कायेन वचसा मत्तः, वित्ते गृद्धश्च स्त्रीषु ।
द्विधा मलं संचिनोति, शिशुनाग इव मृत्तिकाम् ॥३॥ ५९. न तस्स दुक्खं विभयन्ति नाइओ, न मित्तवग्गा न सुया न बंधवा ।
एक्को सयं पच्चणुहोइ दुक्खं, कत्तारमेव अणुजाइ कम्म ॥४॥ न तस्य विभजन्ते ज्ञातयः, न मित्रवर्गा न सुता न बान्धवाः ।
एक स्वयं प्रत्यनुभवति दु.खं, कर्तारमेवानुयाति कर्म ॥४॥ ६०. कम्मं चिणंति सवसा, तस्सुदयम्मि उ परव्वसा होति ।
रुक्खं दुरुहइ सवसो, विगलइ स परवसो तत्तो ॥५॥ कर्म चिन्वन्ति स्ववशाः, तस्योदये तु परवशा भवन्ति । वृक्षमारोहति स्ववश, विगलति स परवशः ततः ।।५।। कम्मवसा खलु जीवा, जीववसाई कहिंचि कम्माइं । कत्थइ धणिओ बलवं, धारणिओ कत्थई बलवं ॥६॥ कर्मवशाः खलु जीवाः, जीववशानि कुत्रचित् कर्माणि ।
कुत्रचित् धनिकः बलवान्, धारणिकः कुत्रचित् वलवान् ॥६॥ ६२. कम्मत्तणेण एक्कं, दध्वं भावो ति होदि दुविहं तु ।
पोग्गलपिंडो दव्वं, तस्सत्ती भावकम्मं तु ॥७॥ कर्मत्वेन एक, द्रव्य भाव इति भवति द्विविध तु ।
पुद्गलपिण्डो द्रव्य, तच्छक्तिः भावकर्म तु॥७॥ ६३. जो इंदियादिविजई, भवीय उवओगमप्पगं झादि ।
कम्महिं सो ण रंजदि, किह तं पाणा अणुचरंति ॥८॥ य इन्द्रियादिविजयी, भूत्वोपयोगमात्मकं ध्यायति । कर्मभि. स न रज्यते, कस्मात् तं प्राणा अनुचरन्ति ॥८॥
६१.
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ज्योतिर्मुख ५७. जिस समय जीव जैसे भाव करता है, वह उस समय वैसे ही
शुभ-अशुभ कर्मो का बन्ध करता है।
५८. (प्रमत्त मनुष्य) शरीर और वाणी से मत्त होता है तथा धन
और स्त्रियों में गृद्ध होता है । वह राग और द्वेष--दोनों से उसी प्रकार कर्म-मल का संचय करता है, जैसे शिशुनाग (अलस या केचुआ) मुख और शरीर--दोनों से मिट्टी का
सचय करता है । ५९. ज्ञाति, मित्र-वर्ग, पुत्र और बान्धव उसका दुःख नही बँटा सकते।
वह स्वय अकेला दु.ख का अनुभव करता है। क्योकि कर्म कर्ता का अनुगमन करता है ।
६०. जीव कर्मो का बन्ध करने मे स्वतंत्र है, परन्तु उस कर्म का
उदय होने पर भोगने में उसके अधीन हो जाता है। जैसे कोई पुरुष स्वेच्छा से वृक्ष पर तो चढ जाता है, किन्तु प्रमादवश नीचे गिरते समय परवश हो जाता है। कही जीव कर्म के अधीन होते है तो कही कर्म जीव के अधीन होते है। जैसे कही (ऋण देते समय तो) धनी बलवान् होता है तो कही (ऋण लौटाते समय) कर्जदार बलवान होता है।
६२. सामान्य की अपेक्षा कर्म एक है और द्रव्य तथा भाव की अपेक्षा
दो (प्रकार का) है। कर्म-पुद्गलों का पिण्ड द्रव्यकर्म है और उसमे रहनेवाली शक्ति या उनके निमित्त से जीव में होनेवाले
राग-द्वेषरूप दिकार भावकर्म है । ६३. जो इन्द्रिय आदि पर विजय प्राप्त कर उपयोगमय (ज्ञानदर्शन
मय) आत्मा का ध्यान करता है, वह कर्मो से नहीं बँधता । अतः पौद्गलिक प्राण उसका अनुसरण कैस कर सकते है ? (अर्थात् उसे नया जन्म धारण नही करना पड़ता।)
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समणसुतं ६४-६५. नाणरसावरणिज्जं, सणावरणं
तहा। वेयणिज्जं तहा मोहं, आउकम्मं तहेव य॥९॥ नामकम्मं च गोयं च, अंतरायं तहेव य । एवमेयाइं कम्माइं, अठेव उ समासओ ॥१०॥ ज्ञानस्याव गीय, दर्शनावरण तथा । वेदनीय तथा मोहम्, आयु कर्म तथैव च ॥९॥ नामकर्म च गोत्र च, अन्तराय तथैव च ।
एवमेतानि कर्माणि, अप्टैव तु समासत ।।१०।। ६६. पड-पडिहार-सि-मज्ज, हड-चित्त-कुलाल-भंडगारीणं ।
जह एएसि भावा, कम्माण वि जाण तह भावा ॥११॥ पट प्रतिहारासि-मद्य, हडि-चित्र-कुलाल-भाण्डागारिणाम् । यथा एतेषा भावा., कर्मणाम् अपि जानीहि तथा भावान् ॥११॥
७. मिथ्यात्वसूत्र ६७. हा ! जह मोहियमइणा, सुग्गइमग्गं अजाणमाणेणं ।
भीमे भवकतारे, सचिरं भमियं भयकरम्मि ॥१॥ हा । यथा मोहितमतिना, सुगतिमार्गमजानता ।
भीमे भवकान्तारे, सचिर भ्रान्त भयकरे ॥१॥ ६८. मिच्छतं वेदंतो जीवो, विवरीयदंसणो होइ ।
ण य धम्मं रोचेदि हु, महुरं पि रसं जहा चरिदो ॥२॥ मिथ्यात्वं वेदयन् जीवो, विपरीतदर्शनो भवति ।
न च धर्म रोचते हि, मधुर रस यथा ज्वरित. ॥२॥ स्पष्टीकरण : १ जैसे परदा कमरे के भीतर की वस्तु का ज्ञान नही होने देता वैसे ही ज्ञानावरण-कर्म ज्ञान को रोक्ने या अल्पाधिक करने मे निमित्त है। इसके उदय की हीनाधिकता के कारण कोई विशिष्टज्ञानी और कोई अल्पज्ञानी होता है । २ जैसे द्वारपाल दर्शनार्थियो को राजदर्शन आदि से रोकता है, वैसे ही दर्शन का आवरण करनेवाला दर्शनावरण-कर्म है। ३ जैसे तलवार की धार पर लगा मधु चाटने से मधुर स्वाद अवश्य आता है, फिर भी जीभ के कट जाने का असह्य दुख भी होता है, वैसे ही वेदनीय-कम सुख-दु ख का निमित्त है। ४ जैसे मद्यपान से मनुष्य मदहोश हो जाता है--सुध-बुध खो बैठता है, वैसे ही मोहनीय-कर्म के उदय से विवश जीव
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६४-६५ ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय- -ये सक्षेप मे आठ कर्म है ।
ज्योतिर्मुख
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६६. इन कर्मो का स्वभाव परदा, द्वारपाल, तलवार, मद्य, हलि चित्रकार, कुम्भकार तथा भण्डारी के स्वभाव की तरह है।
७. मिथ्यात्वसूत्र
६७ हा ! खेद है कि सुगति का मार्ग न जानने के कारण मै मूढमति भयानक तथा घोर भव-वन मे चिरकाल तक भ्रमण करता रहा ।
६८ जो जीव मिथ्यात्व से ग्रस्त होता है उसकी दृष्टि विपरीत हो जाती है । उसे धर्म भी रुचिकर नहीं लगता, जैसे ज्वरग्रस्त मनुष्य को मीठा रस भी अच्छा नही लगता ।
अपने स्वरूप को भूल जाता है । ५ जैसे हथि (काठ) में पाँव फँसा देने पर मनुष्य रुका रह जाता है, वैसे ही आयु कर्म के उदय में जीव शरीर मे निश्चित समय तक रुका रहता है । ६ जैसे चित्रकार नाना प्रकार के चित्र बनाता है, वैसे ही नाम-कर्म के उदय से जीवो के - नानाविध देहो की रचना होती है । ७ जैसे कुम्भकार छोटे-बडे बर्तन बनाता है, वैसे ही गोवन्दर्भ के उदय से जीव को उच्चकुल या नीचकुल मिलता है । ८ जैसे भण्डारी (जाची ) दाता को देने से आर याचक को लेने से रोकना है, वैसे ही अन्तराय - कर्म के उदय से दान-लाभ आदि में वाधा पटती है। इस तरह य आठ कर्मो के स्वभाव है ।
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समणसुत्तं ६९. मिच्छत्तपरिणदप्पा, तिव्वकसाएण सुठ्ठ आविट्ठो ।
जीवं देहं एक्कं, मण्णंतो होदि बहिरप्पा ॥३॥ मिथ्यात्वपरिणतात्मा, तीव्रकषायण सुष्ठु आविष्टः । जीव देहमेक, मन्यमानः भवति बहिरात्मा ॥३॥
७०. जो जहवायं न कुणइ, मिच्छादिट्ठी तओ हु को अन्ना ।
वडढइ य मिच्छत्तं, परस्स संकं जमाणो॥४॥ यो यथावादं न करोति, मिथ्यादृष्टिः ततः खलु कः अन्यः । वर्धते च मिथ्यात्वं, परस्य शंकां जनयमानः ॥४॥
८. राग-परिहारसूत्र
७१. रागो य दोसो वि य कम्मवीयं, कम्मं च मोहप्पभवं पयंति ।
कम्मं च जाईमरणस्स मुलं, दुक्खं च जाईमरणं वयंति ॥१॥ रागश्च द्वेषो पि च कर्मबीज, कर्म च मोहप्रभव वदन्ति ।
कर्म च जातिमरणस्य मूलम्, दु ख च जातिमरण वदन्ति ॥१॥ ७२. न वि तं कुणइ अमित्तो, सुठ्ठ वि य विराहिओ समत्थो वि ।
जं दो वि अनिग्गहिया, करंति रागो य दोसो य ॥२॥ नैव तत् करोति अमित्र, सुष्ठ्वपि च विराद्ध' समर्थोऽपि ।
यद् द्वावपि अनिगृहीतौ, कुरतो रागश्च द्वेषश्च ॥२॥ ७३. न य संसारम्मि सुहं, जाइजरामरणदुक्खगहियस्स ।
जीवस्स अस्थि जम्हा, तम्हा मुक्खो उवादेओ॥३॥ न च संसारे सुखं, जातिजरामरणदु खगृहीतस्य ।
जीवस्यास्ति यस्मात्, तस्माद् मोक्षः उपादेयः ॥३॥ ७४. तं जइ इच्छसि गंतं, तीरं भवसायरस्स घोरस्स ।
तो तवसंजमभंडं, सुविहिय ! गिण्हाहि तूरंतो ॥४॥ तद् यदीच्छसि गन्तु, तीरं भवसागरस्य घोरस्य । तर्हि तपःसंयमभाण्डं, सुविहित ! गृहाण त्वरमाणः ॥४॥
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ज्योतिर्मुख ६९. मिथ्यादृष्टि जीव तीव्र कपाय से पूरी तरह आविष्ट होकर जीव
और शरीर को एक मानता है । वह बहिरात्मा है ।
७०. जो तत्त्व-विचार के अनुसार नहीं चलता, उससे बड़ा मिथ्या
दप्टि और दूसरा कौन हो सकता है ? वह दूसरों को शंकाशील बनाकर अपने मिथ्यात्व को बढ़ाता रहता है।
८. राग-परिहारसूत्र
७१ गग और द्वेष कर्म के बीज (मूल कारण) है। कर्म मोह से
उत्पन्न होता है। वह जन्म-मरण का मूल है। जन्म-मरण को दुख का मल कहा गया है ।
७२. अत्यन्त तिरस्कृत मप जब भी उनन हानि ही पहुंचाता,
जितनी हानि अनिगृहीत राग आर पहुचाते है ।
७३. इस संसार में जन्म, जरा और मरण के दु.ख से ग्रस्त जीव को
कोई सुख नही है । अतः मोक्ष ही उपादेय है ।
७४. यदि तू घोर भवसागर के पार (तट पर) जाना चाहता है,
तो हे सुविहित ! शीघ्र ही तप-सयमरूपी नौका को ग्रहण कर ।
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समणसुत्तं ७५. बहुभयकर दोसाणं, सम्मतचरित्तगुणविणासाणं ।
न हु वसमागंतव्वं, रागहोसाण पावाणं ॥५॥ बहुभयक रदोषयो सम्यक्त्वचारित्रगणविनाशयो: !
न खलु वशमागन्तव्य, रागद्वेपयो. पापयो ।।५।। ७६. कामाणुगिद्धिप्पभवं खु दुक्खं, सव्वस्स लोगस्स सदेवगस्स ।
जं काइयं माणसियं च किंचि, तस्संतगं गच्छइ वीयरागो॥६॥ कामा नुगृद्धिप्रभव खलु दुख, मर्वम्य लोकम्य सदेवकम्य ।
यत् कायिक मानसिक च किञ्चित् , तस्यान्तक गच्छति वीतरागः । ७७. जेण विरागो जायइ, तं तं सव्वायरेण करणिज्जं ।
मुच्चइ हु ससंवेगी, अणंतवो होइ असंवेगी ॥७॥ येन विरागो जायते, तत्तत् सर्वादरेण करणीयम् ।
मुच्यते एव समवेग, अनन्तक भवति असवेगी ॥७॥ ७८. एवं ससंकप्पविकप्पणासु, संजायई समयमुवट्टियस्स ।
अत्थे य संकप्पयओ तओ से, पहीयए कामगुणेसु तण्हा ॥८॥ एव स्वसव पविकल्पनास, सजायते समतोपस्थितस्य । अर्थाश्च सकल्पयतस्तस्य, प्रहीयते कामगुणेषु तृष्णा ॥८॥ अन्नं इमं सरीरं, अन्नो जीव ति निच्छियमईओ। दुक्खपरीकेसकर, छिद ममत्तं सरीराओ॥९॥ अन्यदिद शरीर, अन्यो जीव इति निश्चयमतिक' । दु खपरिक्लेशकर, छिन्धि ममत्व शरीरात् ।।९।। कम्मासवदाराई, निरंभियव्वाइं इंदियाइं च । हंतव्वा य कसाया, तिविहं-तिविहेण मुक्खत्थं ॥१०॥ कर्मास्रवद्वाराणि, निरोद्धव्यानीन्द्रियाणि च । हन्तव्याञ्च कपायास्त्रिविधत्रिविधेन मोक्षार्थम् ॥१०॥ भावे विरत्तो मणुओ विसोगो, एएण दुक्खोहपरंपरेण । न लिपपई भवमज्झे वि संतो, जलेण वा पोक्खरिणीपलासं ॥११॥ भाव बिग्क्तो मनुजो विशोक , एतया दु खौघपरम्पग्या । न लिप्यते भवमध्येऽपि मन्, जलेनेव पुष्करिणीपलागम् ।।११।।
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ज्योतिर्मुख
२७ ७५ सम्यक्त्व तथा चारित्रादि गुणो के विनाशक, अत्यन्त भयकर
राग-द्वेषरूपी पापो के वश मे नही होना चाहिए।
७६. सब जीवों का, और क्या देवताओं का भी जो कुछ कायिक
और मानसिक दु.ख है, वह काम-भोगो की सतत अभिलाषा से उत्पन्न होता है। वीतरागी उस दु ख का अन्त पा जाता है ।
७७ जिससे विराग उत्पन्न होता है, उसका आदरपूर्वक आचरण
करना चाहिए। विरक्त व्यवित ससार-बन्धन से छूट जाता है और आसक्त व्यक्ति का ससार अनन्त होता जाता है ।
७८. अपने राग-द्वेपात्मक संकल्प-विकल्प ही सब दोषो के मूल है--जो
इस प्रकार के चिन्तन मे उद्यत होता है तथा इन्द्रिय-विषय टोपों के मल नही है---इस प्रकार का सकरप करता है, उसके मन म समता उत्पन्न होती है। उससे उसकी काम-गणो म
- 'नेवाली तृष्णा प्रक्षीण हो जाती है ! ७५ निश्चयदृष्टि के अनसार शरीर भिन्न है और जात्मा भिन्न है।
अत शरीर के प्रति होनेवाले दुखद व क्लेशकर ममत्व का छेदन करो।
८०. मोक्ष की प्राप्ति के लिए कर्म के आगमन द्वारों--आस्रवो का
तथा इन्द्रियों का तीन करण (मनसा, वाचा, कर्मणा) और तीन योग (कृत, कारित, अनुमति) से निरोध करो, और
कषायों का अन्त करो। ८१. भाव से विरक्त मनप्य शोक-मक्त बन जाता है। जैसे कमलिनी
का पत्र जल मे लिप्त नहीं होता, वैसे ही वह समार मे रहकर भी अनेक दु खो की परम्परा से लिप्त नहीं होता।
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९. धर्मसूत्र
८२. धम्मो मंगलमुक्किट्ठ, अहिंसा संजमो देवा वि तं नमसंति जस्स धम्मे सया धर्म' मङ्गलमुत्कृष्ट, अहिसा सयम देवाः अपि त नमस्यन्ति, यस्य धर्मे सदा
८३. धम्मो वत्थुसहावो, खमादिभावो य दसविहो धम्मो । रयणत्तयं च धम्मो, जीवाणं रक्खणं धम्मो ॥२॥ धर्मः वस्तुस्वभाव, क्षमादिभाव. च दशविधः धर्मः । रत्नत्रयं च धर्म:, जीवानां रक्षणं धर्मः ॥२॥
चेव ।
८४. उत्तमखममद्दवज्जव -सच्चसउच्चं च संजमं तवचागमकिंचन्हं, बम्ह इदि दसविहो धम्मो ॥३॥ उत्तमक्ष मामार्दवार्जव - सत्यशौचं च सयमं चैव । तपस्त्याग. आकिञ्चन्य, ब्रह्म इति दशविधः धर्म ॥३॥
८५. कोहेण जो ण तप्पदि, सुर-णर- तिरिएहि कोरमाणे वि । उवसग्गे वि रउद्दे, तस्स खमा जिम्मला होदि ॥४॥ क्रोधेन यः न तप्यते, सुरनरतिर्यग्भिः क्रियमाणेऽपि । उपसर्गे अपि रौद्रे, तस्य क्षमा निर्मला भवति ||४||
८६. खम्मामि सव्वजीवाणं, सव्वे
तवो । मणो ॥ १ ॥
जीवा खमंतु मे । मिती मे सव्वभूदेसु, वेरं मज्झं ण केण वि ॥५॥ क्षमे सर्वजीवान्, सर्वे जीवाः क्षमन्ता मम । मंत्री मे सर्वभूतेपु, वैरं मम न
तप ।
मनः ॥ १ ॥
तद
८७. जइ किंचि पमाएणं, न सुठु भे वट्टियं मए पुव्विं । त मे खामेमि अहं, निस्सल्लो निक्कसाओ अ॥६॥ किञ्चित् प्रमादेन, न सुष्ठु युष्माभिः सह वर्तित मया पूर्वम् । युष्मान् क्षमयाम्यह, नि शल्यो निष्कषायश्च ॥६॥
- २८ -
केनापि ॥५॥
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९. धर्मसूत्र ८२. धर्म उत्कृष्ट मगल है । अहिसा, सयम और ।। उसके लक्षण है।
जिसका मन सदा धर्म में रमा रहता है, उसे मंत्र भी नमस्कार करते है।
८३ वस्तु का स्वभाव धर्म है । क्षमा आदि भावों की अपेक्षा से
वह दस प्रकार का है । रत्नत्रय (सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक चारित्र) तथा जीवो की रक्षा करना धर्म है।
८४. उत्तम क्षमा, उत्तम मार्दव, उत्तम आर्जव, उत्तम सत्य, उत्तम
शौच, उत्तम सयम, उत्तम तप, उत्तम त्याग, उत्तम आकिचन्य तथा उत्तम ब्रह्मचर्य-~ये दस धर्म है।
८५. देव, मनुष्य और तिर्यञ्चो (पशुओ) के द्वारा घोर व भयानक
उपसर्ग पहुँचाने पर भी जो क्रोध से तप्त नही होता, उसके निर्मल क्षमाधर्म होता है ।
८६. मै सब जीवों को क्षमा करता हूँ। सब जीव मुझे क्षमा करे ।
मेरा सब प्राणियो के प्रति मैत्रीभाव है । मेरा किसीसे भी वैर नही है।
८७. अल्पतम प्रमादवश भी यदि मैंने आपके प्रति उचित व्यवहार
नही किया हो तो मै नि.शल्य और कषायरहित होकर आपसे क्षमा-याचना करता है।
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९१.
समणसुत्तं ८८. कुलरूवजादिबुद्धिस, तवसुदसीलेसु गारवं किंचि ।
जो णवि कुवदि समणो, मद्दवधम्म हवे तस्स ॥७॥ कुलरूपजातिवुद्धिषु, तप श्रुतशीलेपु गौरव किञ्चित् । य नैव करोति श्रमण , मार्दवधर्मो भवेत् तस्य ॥७॥ जो अवमाणकरणं, दोसं परिहरइ णिच्चमाउत्तो । मो णाम होदि माणी, ण दु गुणचत्तण माणेण ॥८॥ योऽपमानकरण, दोप परिहरति नित्यमायुक्त ।
सो नाम भवति मनी, न गुणत्यक्तेन मानेन ॥८॥ ९०. से असई उच्चागोए असई नीआगोए, नो हीणे नो अइरित्ते।
नोऽपीहए इति संखाए, के गोयावाई के माणावाई? ॥९॥ स अमकृदुच्चैत्रि अमकृन्नीचर्गोत्र , नो हीन नो अतिरिक्तः । न स्पृह्येत् इति सख्याय, को गोत्रवादी को मानवादी? ॥९॥ जो चितेइ ण वंकं, ण कुणदि वंकं ण जंपदे वंकं । ण य गोवदि णियदोसं, अज्जव-धम्मो हवे तस्स ॥१०॥ य चिन्तयति न वक्र, न करोति वक्र न जल्पति वत्रम् ।
न च गोपयति निजदोपम्, आर्जवधर्म भवेत् तस्य ।।१०।। ९२. परसंतावयकारण-वयणं, मोत्तूण सपरहिदवयणं ।
जो वददि भिक्खु तुरियो, तस्स दु धम्मो हवे सच्च ॥११॥ परमताप राण-वचन. मक्त्वा स्वपर्गहतवचनम् ।
य वर्शत भिक्षु तुरीय , तस्य तु धर्म भवेत् सत्यम ।।११।। ९३. मोसस्स पच्छा य पुरत्थओ य, पओगकाले य दुही दुरंते ।
एवं अदत्ताणि समाययंतो, म्वे अतित्तो दुहिओ अणिस्यो॥१२॥ म पात्राकम्प पश्चाच्च पुरस्ताच्च, प्रयोगकाले च दृ ग्बी दुरन्त ।
पत्र मदनानि समाददान पंतृप्तो दुग्वितोऽनिश्र ॥१॥ ९४. पत्थं हिदयाणिट्ठ पि, भण्णमाणस्स सगणवासिम्स ।
कडगं व ओसहं त, महरविवायं हवइ तस्स ॥१३॥ पथ्य हृदयानिटमपि. भणमानम्य स्वगणवासिनः । क्टुकमिवौपध तत्, मधुरविपाक भवति तस्य ॥१३॥
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ज्योतिर्मुख ८८. जो श्रमण कुल, रूप, जाति, ज्ञान, तप, श्रत और शील का
तनिक भी गर्व नहीं करता, उसके मादवधर्म होता है । ८५ जो दूसरे को अपमानित करने के दोष का सदा सावधानीपूर्वक
परिहार करता है, वही यथार्थ मे मानी है । गुणशून्य अभिमान
करने में कोई मानी नही होता । ९०. यह पुरुष अनेक बार उच्चगोत्र और अनेक वार नीचगोत्र का
अनुभव कर चुका है । अत न कोई हीन है और न कोई अतिरिक्त , (इसलिए वह उच्च गोत्र की) स्पृहा न करे । [यह पुरुप अनेक बार उच्चगोत्र और नीत्रगोत्र का अनभव कर चुका है---] यह जान लेने पर कौन गोरबादी होगा ?
कौन मानवादी होगा ? ९१. जो कुटिल विचार नहीं करता, कुटिल कार्य नहीं करता,
कुटिल वचन नही बोलता और अपने दोपो को नहीं छिपाता,
उसके आजव-धर्म होता है । ९० जो भिक्ष (श्रमण) दुमरों को मन्ताप पहचानेवाले वचनो का
त्याग करके स्व-पर-हितकारी बचन बोलता है, उसके चौथा
मत्यधर्म होता है। ९३ असत्य भाषण के पश्चात् मनुष्य यह सोचकर दुखी होता है कि
वह झूठ बोलकर भी सफल नही हो सका। असत्य भाषण से पूर्व इसलिए व्याकुल रहता है कि वह दूसरे को ठगने का सकल्प करता है। वह इसलिए भी दुखी रहता है कि कही कोई उसके असत्य को जान न ले। इस प्रकार असत्य-व्यवहार का अन्त दुखदायी ही होता है। इसी तरह विषयो म अतात
होकर वह चोरी करता हुआ दु.खी और आश्रयहीन हो जाता है । ९४ अपने गणवासी (साथी) द्वारा कही हुई हितकर बात, भले
ही वह मन को प्रिय न लगे, कटक औपध की भॉति परिणाम मे मधुर ही होती है।
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समणसुत्तं
९५. विस्ससणिज्जो माया व, होइ पुज्जो गुरु व्व लोअस्स ।
सयणु व्व सच्चवाई, पुरिसो सवस्स होइ पिओ ॥१४॥ विश्वसनीयो मातेव, भवति पूज्यो गुरुरिव लोकस्य ।
स्वजन इव सत्यवादी, पुरुषः सर्वस्य भवति प्रिय. ।।१४।। ९६. सच्चम्मि वसदि तवो, सच्चम्मि संजमो तह वसे सेसा वि गणा ।
सच्च णिबंधणं हि य, गुणाणमुदधीव मच्छाणं ॥१५॥ सत्ये वसति तप., सत्ये सयम तथा वसन्ति शेपा अपि गुणा: ।
सत्य निबन्धन हि च, गुणानामुदधिरिव मत्स्यानाम् ॥१५॥ ९७. जहा लाहो तहा लोहो, लाहा लोहो पवड्ढई ।
दोमासकयं कज्ज, कोडीए वि न निट्टियं ॥१६॥ यथा लाभरतथा लोभ., लाभाल्लोभः प्रवर्धते ।
द्विमाषकृतं कार्य, कोटयाऽपि न निष्ठितम् ।।१६।। ९८. सुवण्णरुप्पस्स उपव्वया भवे, सिया हु केलाससमा असंखया ।
नरस्स लुद्धस्स न तेहि किचि, इच्छा हु आगाससमा अणन्तिया ।१७। स्वर्णरूप्यस्य च पर्वता भवेय. स्यात् खल कैलाससमा असख्यकाः ।
नरस्य लुब्धस्य न त किञ्चित्, इच्छा खलु आकाशसमा अनन्तिका।। ९९. जहा य अंडप्पभवा बलागा, अंडं बलागप्पभवं जहा य ।
एमेव मोहाययणं खु तण्हा, मोहं च तण्हाययणं वयंति ॥१८॥ यथा च अण्डप्रभवा वलाका, अण्डं बलाकाप्रभवं यथा च ।
एवमेव मोहायतनं खलु तृष्णा, मोहं च तृष्णायतन बदन्ति ॥१८॥ १००. समसंतोसजलेणं, जो धोवदि तिव्व-लोहमल-पुंज ।
भोयण-गिद्धि-विहीणो, तस्स सउच्चं हवे विमलं ॥१९॥ समसन्तोषजलेन, यः धोवति तीव्रलोभमलपुञ्जम् ।
भोजनगृद्धिविहीनः, तस्य शौच भवेत् विमलम् ।।१९।। १०१. वय-समिदि-कसायाणं, दंडाणं तह इंदियाण पंचण्हं ।
धारण-पालण-णिग्गह-चाय-जओ संजमो भणिओ॥२०॥ व्रतसमितिकषायाणा, दण्डाना तथा इन्द्रियाणा पञ्चानाम् । धारण-पालन-निग्रह-त्यागजय सयमो भणित. ॥२०॥
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ज्योतिर्मुख
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९५. सत्यवादी मनुष्य माता की तरह विश्वसनीय, जनता के लिए गुरु की तरह पूज्य और स्वजन की भाँति होता है ।
सबको प्रिय
९६. सत्य मे तप, संयम और शेष समस्त गुणो का जैसे समुद्र मत्स्यो का कारण उत्पत्तिस्थान है, समस्त गुणो का कारण है ।
९७. जैसे-जैसे लाभ होता है, वैसे-वैसे लोभ होता है । लाभ से लोभ बढ़ता जाता है । दो माशा सोने से निप्पन्न ( पूरा ) होनेवाला कार्य करोड़ो स्वर्ण मुद्राओं से भी पूरा नही होता । ( यह निष्कर्ष कपिल नामक व्यक्ति की तृष्णा के उतार-चढ़ाव के परिणाम को सूचित करता है | )
९८. कदाचित् सोने और चाँदी के कैलास के समान असंख्य पर्वत हो जायें, तो भी लोभी पुरुष को उनसे कुछ भी नही होता (तृप्ति नही होती ), क्योंकि इच्छा आकाश के समान अनन्त है ।
९९. जैसे बलाका अण्डे से उत्पन्न होती है और अण्डा बलाका से उत्पन्न होता है, उसी प्रकार तृष्णा मोह से उत्पन्न होती है और मोह तृष्णा से उत्पन्न होता है ।
वास होता है । वैसे ही सत्य
१००. ( अत. ) जो समता व सन्तोषरूपी जल से तीव्र लोभरूपी मलसमूह को धोता है और जिसमे भोजन की लिप्सा नही है, उसके विमल शौचधर्म होता है ।
१०१. व्रत धारण, समिति पालन, कषाय- निग्रह, मन-वचन-काया की प्रवृत्तिरूप दण्डों का त्याग, पंचेन्द्रिय-जय -- इन सबको सयम कहा जाता है ।
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३४
१०५.
समणसुत्तं १७५. विसयकसाय-विणिग्गहभावं, काऊण झाणसज्झाए ।
जो भावह अप्पाणं, तस्स तवं होदि णियमेण ॥२१॥ विषयकषाय-विनिग्रहभावं, कृत्वा ध्यानस्वाध्यायान् ।
यः भावयति आत्मानं, तस्य तपः भवति नियमेन ॥२१॥ १०३. णिव्वेदतियं भावइ, मोहं चइऊण सव्वदन्वेसु ।
जो तस्स हवे चागो, इदि भणिदं जिणवरिंदेहिं ॥२२॥ निर्वेदत्रिक भावयति, मोह त्यक्त्वा सर्वद्रव्येषु ।
यः तस्य भवति त्याग., इति भणित जिनवरेन्द्र. ॥२२॥ १०४. जे य कंते पिए भोए, लद्धे विपिट्ठिकुन्वइ ।
साहीणे चयइ भोए, से हु चाइ ति वुच्चई ॥२३॥ यः च कान्तान् प्रियान् भोगान्, लब्धान् विपृष्ठीकरोति । स्वाधीनान् त्यजति भोगान्, स हि त्यागी इति उच्यते ॥२३॥ होऊण य णिस्संगो, णियभावं णिग्गहित्तु सुहदुहदं । णिइंदेण दु वट्टदि, अणयारो तस्साऽऽकिचण्णं ॥२४॥ भूत्वा च निस्संग , निजभाव निगृह्य सुखदुःखदम् ।
निर्द्वन्द्वेन तु वर्तते, अनगारः तस्याऽऽकिञ्चन्यम् ॥२४॥ १०६. अहमिक्को खलु सुद्धो, दसणणाणमइओ सदाऽरूवी ।
ण वि अस्थि मज्झ किचि वि, अण्णं परमाणुमित्तं पि ॥२५॥ अहमेकः खलु शुद्धो, दर्शनज्ञानमयः सदाऽरूपी ।
नाप्यस्ति मम किञ्चिदप्यन्यत् परमाणुमात्रमपि ।।२५।। १०७-१०८. सुहं वसामो जीवामो, जेसि णो नत्थि किंचण ।
मिहिलाए डज्झमाणीए, न मे डज्झइ किंचण ॥२६॥ चत्तपुत्तकलत्तस्स, निव्वावारस्स भिक्खणो । पियं न विज्जई किंचि, अप्पियं पि न विज्जए ॥२७॥ सुखं वसामो जीवाम , येषाम् अस्माकं नास्ति किञ्चन । मिथिलायां दह्यमानाया, न म दह्यते किञ्चन ॥२६॥ त्यक्तपुत्रकल त्रस्य, निर्व्यापारस्य भिक्षोः । प्रियं न विद्यते किञ्चित्, अप्रियमपि न विद्यते ॥२७॥
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ज्योतिर्मुख
३५ १०२. इन्द्रिय-विषयों तथा कषायों का निग्रह कर ध्यान और स्वाध्याय
के द्वारा जो आत्मा को भावित करता है उसीके तपधर्म होता है।
१०३. सब द्रव्यो मे होनेवाले मोह को त्यागकर जो त्रिविध निर्वेद
(संसार देह तथा भोगों के प्रति बैराग्य) से अपनी आत्मा को भावित करता है, उसके त्यागधर्म होता है, ऐसा जिनेन्द्र
देव ने कहा है। १०४. त्यागी वही कहलाता है, जो कान्त और प्रिय भोग उपलब्ध
होने पर उनकी ओर से पीठ फेर लेता है और स्वाधीनतापूर्वक भोगों का त्याग करता है।
१०५. जो मुनि सब प्रकार के परिग्रह का त्याग कर निःसंग हो जाता है,
अपने सुखद व दुखद भावों का निग्रह करके निर्द्वन्द्व विचरता है, उसके आकिचन्य धर्म होता है ।
१०६. में एक, शुद्ध, दर्शन-ज्ञानमय, नित्य और अरूपी हूँ। इसके
अतिरिक्त अन्य परमाणुमात्र भी वस्तु मेरी नहीं है। (यह आकिचन्यधर्म है।)
१०७-१०८. हम लोग, जिनके पास अपना कुछ भी नही है, सुखपूर्वक रहते
और सुख से जीते हैं। मिथिला जल रही है उसमें मेरा कुछ भी नही जल रहा है, क्योंकि पुत्र और स्त्रियों से मुक्त तथा व्यवसाय से निवृत्त भिक्षु के लिए कोई वस्तु प्रिय भी नहीं होती और अप्रिय भी नहीं होती। (यह बात राज्य त्यागकर साधु हो जानेवाले राजर्षि नमि के दृढ वैराग्य से सम्बद्ध है।)
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समणसुतं १०९. जहा पोम्मं जले जायं, नोवलिप्पइ वारिणा ।
एवं अलितं काहिं, तं वयं बूम माहणं ॥२८॥ यथा पद्म जले जातं, नोपलिप्यते वारिणा ।
एवमलिप्तं काम , तं वय ब्रूमो ब्राह्मणम् ॥२८॥ ११०. दुक्खं हयं जस्स न होइ मोहो, मोहो हो जस्स न होइ तण्हा।
तण्हा हया जस्स न होइ लोहो, लोहो हओ जस्स न किंचणाई॥२९॥ दुःखं हतं यस्य न भवति मोहः, मोहो हतो यस्य न भवति तृष्णा ।
तृष्णाहता यस्य न भवति लोभ, लोभो हतो यस्य न किञ्चन ।।२९।। १११. जीवो बंभ जीवम्मि, चेव चरिया हविज्ज जा जदिणो ।
तं जाण बंभचेरं, विमुक्कपरदेहतित्तिस्स ॥३०॥ जीवो ब्रह्म जीवे, चैव चर्या भवेत् या यते: ।
तद् जानीहि ब्रह्मचर्य, विमुक्त-परदेहतृप्तेः ॥३०॥ ११२. सव्वंगं पेच्छंतो, इत्थीणं तासु मुयदि दुब्भावं ।
सो बम्हचरभावं, सुक्कदि खलु दुद्धरं धरदि ॥३१॥ सर्वाङ्गं प्रेक्षमाणः स्त्रीणा तासु मुञ्चति दुर्भावम् ।
स ब्रचर्यभाव, सुकृती खलु दुर्धर धरति ।।३१।। ११३. जउकुंभे जोइउवगूढे, आसुभितत्ते नासमुदयाइ ।
एवित्थियाहि अणगारा, संवासेण नासमवयंति ॥३२॥ जतुकुम्भे ज्योतिरुपगूढ. आश्वभितप्तो नाशमुपयाति ।
एवं स्त्रीभिरनगाराः, सवासेन नाशमुपयान्ति ॥३२॥ ११४. एए य संगे समइक्कमित्ता, सुदुत्तरा चेव भवंति सेसा ।
जहा महासागरमुत्तरित्ता, नई भवे अवि गंगासमाणा ॥३३॥ एताश्च संगान् समतिक्रम्य, सुदुस्तराश्चैव भवन्ति शेषाः ।
यथा महासागरमुत्तीर्य, नदी भवेदपि गङ्गासमाना ॥३३॥ ११५. जह सोलरक्खयाणं, पुरिसाणं णिदिदाओ महिलाओ ।
तह सीलरक्खयाणं, महिलाणं णिदिदा पुरिसा ॥३४॥ यथा शीलरक्षकाणां, पुरुषाणा निन्दिता भवन्ति महिलाः । तथा शील रक्षकाणां, महिलानां निन्दिता भवन्ति पुरुषाः ॥३४॥
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ज्योतिर्मुख १०९. जिस प्रकार जल मे उत्पन्न हुआ कमल जल से लिप्त नहीं होता,
इसी प्रकार काम-भोग के वातावरण मे उत्पन्न हुआ जो मनुष्य उसमे लिप्त नहीं होता, उसे हम ब्राह्मण कहते है ।
११०. जिसके मोह नही है, उसने दु ख का नाश कर दिया। जिसके
तृष्णा नही है, उसने मोह का नाश कर दिया। जिसके लोभ नही है, उसने तप्णा का नाश कर दिया (और) जिसके पास
कुछ नही है, उसने लोभ का (ही) नाश कर दिया । १११. जीव ही बल्म है। देहामक्ति से मक्त मुनि की ब्रह्मा (आत्मा) के
लिए जो चर्या है, वही ब्रह्मचर्य है ।
११२. स्त्रियो के सर्वाङ्गों को देखते हुए भी जो इनमे दुर्भाव नही
करता---विकार को प्राप्त नहीं होता, वही वास्तव मे दुर्द्धर ब्र चर्यभाव को धारण करता है ।
११३. जैसे लाख का घडा अग्नि से तप्त होने पर शीघ्र ही नष्ट हो
जाता है, वैस ही स्त्री-महवास से अनगार (मुनि) नष्ट हो जाता है।
११४. जो मनुष्य इन स्त्री-विपयक आसक्तियो का पार पा जाता है,
उसके लिए शेष सारी आसक्तियाँ वैसे ही सुतर (सुख से पार पाने योग्य) हो जाती है, जैसे महासागर का पार पानेवाले के
लिए गंगा जैसी बड़ी नदी। ११५. जैसे शील-रक्षक पुरुपों के लिए स्त्रियाँ निन्दनीय है, वैसे ही
शीलरक्षिका स्त्रियों के लिए पुरुप निन्दनीय है । (दोनों को एक-दूसरे से बचना चाहिए।)
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३८
समणसुत्तं ११६. किं पुण गुणसहिदाओ, इत्थीओ अस्थि वित्थडजसाओ ।
णरलोगदेवदाओ, देवेहिं वि वंदणिज्जाओ ॥३५॥ कि पुन ? गुणसहिताः, स्त्रिय. सन्ति विस्तृतयशसः । नरलोकदेवता.
देवैरपि वन्दनीयाः ॥३५॥ ११७. तेल्लोक्काडदिउहणो, कामगी विसयरुक्खपज्जलिओ।
जोव्वणतणिल्लचारी, जं ण डहइ सो हवइ धण्णो ॥३६॥ त्रैलोक्याटविदहन , कामाग्निविषयवृक्षप्रज्वलितः ।
यौवनतृणसंचरणचतुर., यं न दहति स भवति धन्यः ॥३६॥ ११८. जा जा वज्जई रयणी, न सा पडिनियत्तई ।
अहम्मं कुणमाणस्स, अफला जन्ति राइओ॥३७॥ या या व्रजति रजनी, न सा प्रतिनिवर्तते ।
अधर्म कुर्वाणस्य, अफला: यान्ति रात्रयः ॥३७॥ ११९-१२०. जहा य तिणि वणिया, मूलं घेत्तूण निग्गया ।
एगोऽत्थ लहई लाहं, एगो मूलेण आगओ॥३८॥ एगो मूलं पि हारित्ता, आगओ तत्थ वाणिओ। ववहारे उवमा एसा, एवं धम्मे वियाणह ॥३९॥ यथा च त्रयो वणिज., मूल गृहीत्वा निर्गताः । एकोऽत्र लभते लाभम्, एको मूलेन आगतः ॥३८॥ एकः मूलम् अपि हारयित्वा, आगतस्तत्र वाणिजः ।
व्यवहारे उपमा एषा, एव धर्मे विजानीत् ॥३९॥ १२१. अप्पा जाणइ अप्पा, जहट्ठिओ अप्पसक्खिओ धम्मो ।
अप्पा करेंइ तं तह, जह अप्पसुहावओ होइ ॥४०॥ आत्मानं जानाति आत्मा, यथास्थितो आत्मसाक्षिको धर्म. । आत्मा करोति त तथा, यथा आत्मसुखापको भवति ॥४०॥
१०. संयमसूत्र १२२. अप्पा नई " वेयरणी, अप्पा मे कूडसामली ।
अप्पा कामदुहा घेणू, अप्पा मे नंदणं वणं ॥१॥ आत्मा नदी वैतरणी, आत्मा मे कूटशाल्मली । आत्मा' कामदुघा धेनुः, आत्मा मे नन्दनं वनम् ॥१॥
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ज्योतिर्मुख ११६. किन्तु ऐसी भी शीलगुणसम्पन्न स्त्रियाँ है, जिनका यश सर्वत्र
व्याप्त है । वे मनुष्य-लोक की देवता है और देवो के द्वारा वन्दनीय है।
११७. विषयरूपी वृक्षों से प्रज्वलित कामाग्नि तीनों लोकरूपी
अटवी को जला देती है। यौवनरूपी तृण पर संचरण करने मे कुशल कामाग्नि जिस महात्मा को नही जलाती वह
धन्य है। ११८. जो-जो रात बीत रही है वह लौटकर नही आती। अधर्म
करनेवाले की रात्रियाँ निष्फल चली जाती है।
११९-१२०. जैसे तीन वणिक् मूल पूंजी को लेकर निकले। उनमें से एक
लाभ उठाता है, एक मूल लेकर लौटता है, और एक मूल को भी गॅवाकर वापस आता है। यह व्यापार की उपमा है। इसी प्रकार धर्म के विषय में जानना चाहिए।
१२१. आत्मा ही यथास्थित (निजस्वरूप मे स्थित) आत्मा को
जानता है । अतएव स्वभावरूप धर्म भी आत्मसाक्षिक होता है। इस धर्म का पालन (अनुभवन) आत्मा उसी विधि से करता है, जिससे कि वह अपने लिए सुखकारी हो।
१०. संयमसूत्र १२२. (मेरी) आत्मा ही वैतरणी नदी है। आत्मा ही कूटशाल्मली
वृक्ष है। आत्मा ही कामदुहा धेनु है और आत्मा ही नन्दवन है।
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४०
समणसुत्तं
१२३. अप्पा कत्ता विकत्ता य, दुहाण य सुहाण य ।
अप्पा मित्तममित्तं च, दुप्पट्ठिय सुप्पट्टिओ॥२॥ आत्मा कर्ता विकर्ता च, दुखाना च सुखाना च ।
आत्मा मित्रममित्रम् च, दुष्प्रस्थितः सुप्रस्थितः ॥२॥ १२४. एगप्पा अजिए सत्तू, कसाया इन्दियाणि य ।।
ते जिणित्तु जहानायं, विहरामि अहं मुणी ! ॥३॥ एक आत्माऽजितः शत्रः, कषाया इन्द्रियाणि च ।
तान् जित्वा यथान्यायं, विहराम्यहं मुने ! ॥३॥ १२५. जो सहस्सं सहस्साणं, संगामे दुज्जए । जिणे ।
एगं जिणेज्ज अप्पाणं, एस से परमो जओ ॥४॥ यः सहस्र सहस्राणां, सङग्रामे दुर्जये जयेत् ।
एकं जयेदात्मानम्, एष तस्य परमो जयः ॥४॥ १२६. अप्पाणमेव जुज्झाहि, कि ते जुज्झेण बज्झओ।
अप्पाणमेव अप्पाणं, जइत्ता सुहमेहए ॥५॥ आत्मानमेव योधयस्व, कि ते युद्धेन बाह्यतः ।
आत्मानमेव आत्मानं, जित्वा सुखमेधते ॥५॥ १२७. अप्पा चेव दमेयत्वो, अप्पा हु खलु दुद्दमो ।
अप्पा दंतो सुही होइ, अस्सि लोए परत्थ य॥६॥ आत्मा चैव दमितव्य, आत्मा एव खलु दुर्दमः ।।
आत्मा दान्त सुखी भवति, अस्मिल्लोके परत्र च ॥६॥ १२८. वरं मे अप्पा दंतो, संजमेण तवेण य ।
माऽहं परेहि दम्मंतो, बंधणेहि वहेहि य ॥७॥ वर मयात्मा दान्तः, संयमेन तपसा च । माह परैर्दम्यमानः, बन्धनर्वधश्च ॥७॥ एगओ विरई कुज्जा, एगओ य पवत्तणं । असंजमे निर्यात्त च, संजमे य पवत्तणं ॥८॥ एकतो विरति कुर्यात्, एकतश्च प्रवर्तनम् । असंयमानिवृत्ति च, संयमे च प्रवर्तनम् ॥८॥
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४१
ज्योतिर्मुख १२३. आत्मा ही सुख-दु.ख का कर्ता है और विकर्ता (भोक्ता) है।
सत्प्रवृत्ति मे स्थित आत्मा ही अपना मित्र है और दुष्प्रवृत्ति में स्थित आत्मा ही अपना शत्रु है ।
१२४. अविजित एक अपना आत्मा ही शत्रु है। अविजित कषाय और
इन्द्रियाँ ही शत्रु है। हे मुने ! मै उन्हे जीतकर यथान्याय (धर्मानुसार) विचरण करता है।
१२५. जो दुर्जेय संग्राम में हजारों-हजार योद्धाओं को जीतता है,
उसकी अपेक्षा जो एक अपने को जीतता है उसकी विजय ही परमविजय है।
१२६. बाहरी युद्धों से क्या ? स्वयं अपने से ही युद्ध करो। अपने से
अपने को जीतकर ही सच्चा सुख प्राप्त होता है ।
१२७. स्वय पर ही विजय प्राप्त करना चाहिए। अपने पर विजय
प्राप्त करना ही कठिन है। आत्म-विजेता ही इस लोक और परलोक म सुखी होता है ।
१२८. उचित यही है कि मै स्वयं ही सयम और तप के द्वारा अपने
पर विजय प्राप्त करूं। बन्धन और वध के द्वारा दूसरों से मैं दमित (प्रताड़ित) किया जाऊँ, यह ठीक नहीं है ।
१२९. एक ओर से निवृत्ति और दूसरी ओर से प्रवृत्ति करना चाहिए
असंयम से निवृत्ति और संयम मे प्रवृत्ति ।
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समणसुत्तं १३०. रागे दोसे य दो पावे, पावकम्म पवतणे ।
जे भिक्खू रुंभई निच्चं, से न अच्छइ नंडले ॥९॥ रागो द्वेष. च द्वौ पापौ, पापकर्मप्रवर्तकौ ।
यो भिक्ष. रुणद्धि नित्य, स न आस्ते मण्डले ॥९॥ १३१. नाणेण य झाणेण य, तवोबलेण य बला निरुभंति ।
इंदियविसयकसाया, धरिया तुरगा व रज्जूंहिं ॥१०॥ ज्ञानेन च ध्यानेन च, तपोबलेन च बलान्निरुध्यन्ते ।
इन्द्रियविषयकषाया, धृतास्तुरगा इव रज्जूभिः ॥१०॥ १३२. उवसामं पुवणीता, गुणमहता जिणचरित्तसरिसं पि ।
पडिवातेति कसाया, कि पुण सेसे सरागत्थे ॥११॥ उपशमम् अप्यपनीतं, गुणमहान्त जिनचरित्रसदशमपि ।
प्रतिपातयन्ति कषाया, कि पुनः शेषान् सरागस्थान् ॥११॥ १३३. इह उवसंतकसाओ, लहइ अणंतं पुणो वि पडिवायं ।
न हु भे वीससियत्वं, थेवे वि कसायसेसम्मि ॥१२॥ इह उपशान्तकषायो, लभतेऽनन्त पुनरपि प्रतिपातम् ।
न हि युष्माभिविश्वसितव्यं स्तोकेऽपि कषायशेषे ॥१२॥ १३४. अणथोवं वणथोवं, अग्गीथोवं कसायथोवं च ।
न हु भे वीससियत्वं, थोवं पि हु तं बहु होइ ॥१३॥ ऋणस्तोकं व्रणस्तोकम्, अग्निस्तोकं कषायस्तोकं च ।
न हि भवद्भिविश्वसितव्यं, स्तोकमपि खलु तद् बहु भवति॥१३॥ १३५. कोहो पोइं पणासेइ, माणो विणयनासणो ।
माया मित्ताणि नासेइ, लोहो सव्वविणासणो॥१४॥ क्रोधः प्रीति प्रणाशयति, मानो विनयनाशनः ।
माया मित्राणि नाशयति, लोभ. सर्वविनाशनः ॥१४॥ १३६. उवसमेण हणे कोहं, माणं मद्दवया जिणे ।
मायं चऽज्जवभावेण, लोभं संतोसओ जिणे ॥१५॥ उपगमेन हन्यात् क्रोध, मान मार्दवेन जयेत् । मायां च आर्जवभावेन, लोभं सन्तोषतो जयेत् ॥१५॥
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४३
ज्योतिर्मुख १३० पापकर्म के प्रवर्तक राग और द्वेष ये दो पाप है। जो भिक्षु
इनका सदा निरोध करता है वह मडल (ससार) मे नही रुकतामुक्त हो जाता है।
१३१. ज्ञान, ध्यान और तपोबल से इन्द्रिय-विषयो और कषायों को
बलपूर्वक रोकना चाहिए, जैसे कि लगाम के द्वारा घोड़ों को बलपूर्वक रोका जाता है।
१३२. महागुणी मुनि के द्वारा उपशान्त किये हुए कषाय जिनेश्वर
देव के समान चरित्रवाले उस (उपशमक वीतराग) मुनि को भी गिरा देते है, तब सराग मुनियों का तो कहना ही क्या ?
१३३. जब कि कषायों को उपशान्त करनेवाला पुरुष भी अनन्त
प्रतिपात (विशुद्ध अध्यवसाय की अनन्तहीनता) को प्राप्त हो जाता है, तब अवशिष्ट थोड़ी-सी कषाय पर कैसे विश्वास किया
जा । कता है ? उस पर विश्वास नही करना चाहिए। १३४. ऋण को थोड़ा, घाव को छोटा, आग को तनिक और कषाय को
अल्प मान, विश्वस्त होकर नहीं बैठ जाना चाहिए। क्योकि ये थोड़े भी वढकर बहुत हो जाते है ।
१३५. क्रोध प्रीति को नष्ट करता है, मान विनय को नष्ट करता है,
माया मंत्री को नष्ट करती है और लोभ सब कुछ नष्ट करता है।
१३६. क्षमा से क्रोध का हनन करें, मार्दव से मान को जीतें, आर्जव से
माया को और सन्तोष से लोभ को जीते ।
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४४
समणसुतं
कुम्मे सअंगाई, सए देहे मेहावी,
पावाई
अज्झपेण
स्वके देहे
यथा कूर्म स्वअङ्गानि, पापानि मेधावी,
एव
अध्यात्मना
१३७. जहा एवं
.
१३८. से जाणमजाणं वा,
कट्टु आहम्मिअं पयं । बीयं तं न समायरे ॥१७॥
संवरे खिप्पमप्पाणं,
स जानन् अजानन् वा कृत्वा आधार्मिक पदम् । संवरेत् क्षिप्रमात्मानं, द्वितीयं तत् न समाचरेत् ॥ १७॥
धम्मारामरए
१३९. धम्मारामे चरे भिक्खू, धिइमं धम्मसारही । दंते, बम्भचेरसमाहिए ॥१८॥ धर्मारामे चरेद् भिक्षु, धृतिमान् धर्मसारथि । धर्मारामरतो दान्त, ब्रह्मचर्य समाहित ॥ १८॥
समाहरे ।
समाहरे ॥१६॥
समाहरेत् । समाहरेत् ॥१६॥
११. अपरिग्रहसूत्र
१४०. संगनिमित्तं मारइ, भणइ अलीअं करेइ चोरिक्कं । सेवइ मेहुण मुच्छं, अप्परिमाणं कुणइ जीवो ॥ १ ॥ संगनिमित्त मारयति, भणत्यलीक करोति चोरिकाम् । सेवते मैथुन मूर्च्छामपरिमाणां करोति जीव ॥ १॥
१४१. चित्तमंतमचित्तं वा, परिगिज्झ
किसामवि ।
मुच्चई ॥ २ ॥
कृशमपि ।
अनं वा अणुजाणाइ, एवं दुक्खा ण चित्तवन्तमचित्तं वा, परिगृह्य अन्यं वा अनुजानाति, एव दुःखात् न
१४२. जे ममाइय मतिं जहाति से जहाति ममाइयं ।
से हु दिट्ठपहे मुणी, जस्स नत्थि यो ममायितमति जहाति स त्यजति स खलु दृष्टपथः मुनिः, यस्य नास्ति
मुच्यते ॥२॥
ममाइयं ॥ ३॥
ममायितम् । ममायितम् ॥३॥
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ज्योतिर्मुख १३७. जैसे कछुआ अपने अगों को अपने शरीर में समेट लेता है, वैसे
ही मेधावी (ज्ञानी) पुरुष पापों को अध्यात्म के द्वारा समेट लेता है।
१३८. जान या अजान मे कोई अधर्म कार्य हो जाय तो अपनी आत्मा
को उससे तुरन्त हटा लेना चाहिए, फिर दूसरी बार वह कार्य न किया जाय।
१३९. धैर्यवान्, धर्म के रथ को चलानेवाला, धर्म के आराम में रत,
दान्त और ब्रह्मचर्य मे चित्त का समाधान पानेवाला भिक्षु धर्म के आराम मे विचरण करे ।
११. अपरिग्रहसूत्र १४०. जीव परिग्रह के निमित्त हिसा करता है, असत्य बेलता है,
चोरी करता है, मैथुन का सेवन करता है और अत्यधिक मूर्छा करता है। (इस प्रकार परिग्रह पाँचो पापो की जड़ है।)
१४१. सजीव या मिर्जी व स्वल्प वस्तु का भी जो परिग्रह रखता है अथवा
दूसरे को उसकी अनुज्ञा देता है, वह दु.ख से मुक्त नहीं होता।
१४२. जो परिग्रह की बुद्धि का त्याग करता है, वही परिग्रह को त्याग
सकता है। जिसके पास परिग्रह नही है, उसी मुनि ने पथ को देखा है।
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समणसुत्तं १४३-१४४. मिच्छत्तवेदरागा, तहेव हासादिया य छद्दोसा ।
चत्तारि तह कसाया, चउदस अभंतरा गंथा ॥४॥ बाहिरसंगा खेत्तं, वत्थु धणधनकुप्पभांडाणि । दुपयचउप्पय जाणाणि, केव सयणासणे य तहा ॥५॥ मिथ्यात्ववेदरागाः, तथैव हासादिका. च पड्दोषाः । चत्वारस्तथा कषायाः, चतुर्दश अभ्यन्तरा ग्रन्था. ॥४॥ बाह्यसंगा: क्षेत्र, वास्तुधनधान्यकुप्यभाण्डानि । द्विपदचतुष्पदानि यानानि, चैव शयनासनानि च तथा ॥५॥
१४५. सव्वगंथविमुक्को, सीईभूओ पसंतचित्तो अ।
जं पावइ मुत्तिसुहं, न चक्कवट्टी वि तं लहइ ॥६॥ सर्वग्रन्थविमुवत., शीतीभूतः प्रशान्तचित्तश्च । यत्प्राप्नोति मुवितसुख, न चक्रवर्त्यपि तल्लभते ।।६।।
१४६. गंथच्चाओ इंदिय-णिवारणे अंकुसो व हथिस्स ।
णयरस्स खाइया वि य, इंदियगुत्ती असंगत्तं ॥७॥ ग्रन्थत्याग. इन्द्रिय-निवारणे अंकुश इव हस्तिनः । नगरस्य खातिका इव च, इन्द्रियगुप्ति. असगत्वम् ॥७॥
१२. अहिंसासूत्र १४७. एयं खु नाणिणो सारं, जं न हिसइ कंचण ।
अहिंसासमयं चेव, एतावंते वियाणिया ॥१॥ एतत् खलु ज्ञानिन. सार, यत् न हिनस्ति कञ्चन । अहिसा समता चैव, एतावती विजानीयात् ॥१॥
१४८. सव्वे जीवा वि इच्छंति, जीविउ न मरिज्जिलं ।
तम्हा पाणवहं घोरं, निग्गंथा वज्जयंति णं ॥२॥ सर्वे जीवाः अपि इच्छन्ति, जीवितुं न मर्तुम् । तस्मात्प्राणवधं घोरं, निर्ग्रन्थाः वर्जयन्ति तम् ॥२॥
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ज्योतिर्मुख
१४३-१४४. परिग्रह दो प्रकार का है--आभ्यन्तर और बाह्य । आभ्यन्तर परिग्रह चौदह प्रकार का है :
४७
१. मिथ्यात्व २ स्त्रीवेद, ३ पुरुषवेद, ४ नपुंसकवेद, ५. हास्य, ६. रति, ७ अरति शोक ९. भय, १० जुगुप्सा, ११. क्रोध, १२. मान, १३. माया, १४. लोभ ।
बाह्य परिग्रह दस प्रकार का है :
१. खेत, २. मकान, ३ धन-धान्य, ४. वस्त्र, ५. भाण्ड, ६. दासदासी, ७. पशु, ८. यान ९ शय्या, १०. आसन ।
१४५. सम्पूर्ण ग्रन्थ (परिग्रह) से मुक्त, शीतीभूत, प्रसन्नचित्त श्रमण जैसा मुक्तिसुख पाता है वैसा सुख चक्रवर्ती को भी नही मिलता ।
१४६. जैसे हाथी को वश में रखने के लिए अकुश होता है और नगर की रक्षा के लिए खाई होती है, वैसे ही इन्द्रिय-निवारण के लिए परिग्रह का त्याग ( कहा गया ) है । असगत्व ( परिग्रह - त्याग ) से इन्द्रियाँ वश में होती है ।
१२. अहिंसासूत्र
१४७. ज्ञानी होने का सार यही है कि ( वह) किसी भी प्राणी की हिसा न करे । इतना जानना ही पर्याप्त है कि अहिंसामूलक समता ही धर्म है अथवा यही अहिसा का विज्ञान है ।
१४८. सभी जीव जीना चाहते हैं, मरना नही । इसलिए प्राणवध को भयानक जानकर निर्ग्रन्थ उसका वर्जन करते है ।
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४८
समणसुत्तं
थावरा ।
१४९. जावंति लोए पाणा, तसा अदुव ते जाणमजाणं वा, ण हणे णो वि घायए ॥३॥ यावन्तो लोके प्राणा-स्त्रसा
अथवा
स्थावराः ।
तान् जानन्नजानन्वा, न हन्यात् नोऽपि घातयेत् ॥ ३॥ १५०. जह ते न पिअं दुक्खं, जाणिअ एमेव सव्वजीवाणं । अत्तोवम्मेण कुणसु दयं ॥४॥ सर्वजीवानाम् ।
कुरु दयाम् ॥४॥
सव्बायरमुवउत्तो, यथा ते न प्रियं दुख, ज्ञात्वैवमेव सर्वादरमुपयुक्त, आत्मौपम्येन १५१. जीववहो अप्पवहो, जीवदया अप्पणो दया होइ । ता सव्वजीवहिंसा, परिचत्ता अत्ताहं ॥५॥ जीववध आत्मवधो, जीवदयाऽऽत्मनो दया भवति । तस्मात् सर्वजीवहिसा, परित्यक्ताऽऽत्मकामैः : 11411 १५२. तुमं सि नाम स चेव, जं हंतव्वं ति मन्नसि ।
तुमं सि नाम स चेव, जं अज्जावेयव्वं ति मन्नसि ॥६॥ त्वम् असि नाम स एव य हन्तव्यमिति मन्यसे । त्वम् असि नाम स एव यमाज्ञापयितव्यमिति मन्यसे ॥ ६ ॥ १५३. रागादीणमणुप्पाओ, अहिंसकत्तं त्ति देसियं समए ।
तेसि चे उप्पत्ती, हिंसेत्ति जिणेहि णिद्दिट्ठा ॥७॥ रागादीनामनुत्पादः, अहिंसकत्वमिति देशित समये । तेषां चेद् उत्पत्ति, 'हिसा' इति जिनैर्निर्दिष्टा ॥७॥ १५४. अज्झवसिएण बंधो, सत्ते मारेज्ज मा थ मारेज्ज । एसो बंधसमासो, जीवाणं च्छियणस्स ॥८॥ अध्यवसितेन बन्ध., सत्त्वान् मारयेद् मा अथ मारयेत् । एष बन्धसमासो, जीवानां निश्चयनयस्य ॥८॥ १५५. हिंसादो अविरमणं, वहपरिणामो य होइ हिंसा हु । तम्हा पमत्तजोगो, पाणव्वव रोवओ हिसातोऽविरमण, वधपरिणाम च भवति हिसा हि । तस्मात् प्रमत्तयोगो, प्राणव्यपरोपको नित्यम् ||९||
णिच्चं ॥ ९ ॥
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४९
ज्योतिर्मुख १४९. लोक में जितने भी त्रस और स्थावर प्राणी है, निर्ग्रन्थ जान या
अजान मे उनका हनन न करे और न कराये।
१५०. जैसे तुम्हे दु.ख प्रिय नही है, वैसे ही सब जीवों को दुख प्रिय
नही है--ऐसा जानकर, पूर्ण आदर और सावधानीपूर्वक, आत्मौपम्य की दृष्टि से सब पर दया करो।
१५१. जीव का वध अपना ही वध है। जीव की दया अपनी ही दया है।
अतः आत्महितैषी (आत्मकाम) पुरुषों ने सभी तरह की जीव-हिसा का परित्याग किया है।
१५२. जिसे तू हननयोग्य मानता है, वह तू ही है। जिसे तू आज्ञा में
रखने योग्य मानता है, वह तू ही है ।
१५३. जिनेश्वरदेव ने कहा है--राग आदि की अनुत्पत्ति अहिसा है
और उनकी उत्पत्ति हिसा है।
१५४. हिसा करने के अध्यवसाय से ही कर्म का बंध होता है, फिर
कोई जीव मरे या न मरे। निश्चयनय के अनुसार सक्षेप में जीवों के कर्म-बंध का यही स्वरूप है।
१५५. हिंसा से विरत न होना और हिसा का परिणाम रखना हिसा ही
है। इसलिए प्रमाद का योग नित्य-प्राणघातक है।
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समणसुत्तं १५६. पाणी कम्मस्स खयत्थ-मुट्टिदो गोट्टिदो य हिंसाए
अददि असढं अहिंसत्थं, अप्पमत्तो अवधगो सो॥१०॥ ज्ञानी कर्मण क्षयार्थ-मत्थितो नोत्थित च हिसायै । यति अशठम् .अहिसार्थम् अप्रमत्त अवधक. स ॥१०॥
१५७. अत्ता चेव अहिंसा, अत्ता हिसति णिच्छओ समए ।
जो होदि अप्पमत्तो, अहिंसगो हिंसगो इदरो ॥११॥ आत्मैवाहिसाऽऽत्मा, हिसेति निश्चय समये । यो भवति अप्रमत्तोऽहिसक , हिसक इतर ।।११।।
१५८. तुंगं न मंदराओ, आगासाओ विसालयं नत्थि ।
जह तह जयंमि जाणसु, धम्ममहिंसासमं नत्थि ॥१२॥ तुझं न मन्दरात्, आकाशाद्विशालक नास्ति । यथा तथा जगति जानीहि, धर्मोऽहिसासमो नास्ति ॥१२॥
१५९. अभयं पत्थिवा ! तुभं, अभयदाया भवाहि य ।
अणिच्चे जीवलोगम्मि, कि हिंसाए पसज्जसि ॥१३॥ अभय पार्थिव । तुभ्यम् अभयदाता भव च । अनित्ये जीवलोके, कि हिसाया प्रसज्जसि ॥१३॥
१३. अप्रमादसूत्र १६०. इमं च मे अस्थि इमं च नत्थि, इमं च मे किच्चं इमं अकिच्चं ।
तं एवमेवं लालप्पमाणं, हरा हरंति त्ति कहं पमाए ? ॥१॥ इद च मेऽस्ति इद च नास्ति, इद च मे कृत्यमिदमकृत्यम् । तमवमेव लालप्यमान, हरा हरन्तीति कथ प्रमाद. ? ॥१॥
१६१. सीतंति सुवंताणं, अत्था पुरिसाण लोगसारत्था ।
तम्हा जागरमाणा, विधुणध पोराणयं कम्मं ॥२॥ मीदन्ति स्वपताम्, अर्था पुरुषाणां लोकसारार्थाः । तस्माज्जागरमाणा, विधूनयत पुराणकं कर्म ॥२॥
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ज्योतिर्मुख
१५६ ज्ञानी कर्म-क्षय के लिए उद्यत हुआ है, हिसा के वह निश्छलभाव से अहिसा के लिए प्रयत्नशील वह अप्रमत्त मुनि अहिसक होता है ।
५१
१५७. आत्मा ही अहिसा है और आत्मा ही हिसा है--यह सिद्धान्त का निश्चय है । जो अप्रमत्त है वह अहिसक है और जो प्रमत्त है वह हिंसक है ।
लिए नही । रहता है ।
१५८. जैसे जगत् में मेरु पर्वत से ऊँचा और आकाश से विशाल और कुछ नही है, वैसे ही अहिसा के समान कोई धर्म नही है ।
१५९. मुनि ने कहा: 'पार्थिव । तुझे अभय है और तू भी अभयदाता वन । इस अनित्य जीव-लोक मे तू क्यो हिसा मे आसक्त हो | रहा है ?"
१३. अप्रमादसूत्र
१६०. यह मेरे पास है और यह नही है, यह मुझे करना है और यह नही करना है -- इस प्रकार वृथा बकवास करते हुए पुरुष को उठानेवाला (काल) उठा लेता है । इस स्थिति मे प्रमाद कैसे किया जाय ?
१६१. जो पुरुष सोते है उनके जगत् में सारभूत अर्थ नष्ट हो जाते है । अतः सतत जागते रहकर पूर्वार्जित कर्मों को नष्ट करो ।
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समणसुतं
१६२. जागरिया धम्मोणं, अहम्मोणं च सुत्तया सेया । वच्छाविभगिणीए, अर्काहिंसु जिणो जयंतीए ॥३॥ जागरिका धर्मिणाम्, अर्धामणां च सुप्तता श्रेयसी । वत्साधिपभगिन्या, कथितवान् जिनः जयन्त्याः ||३||
१६३. सत्तेसु यावी पडिबुद्धजीवी, न वीससे पण्डिए आसुपणे । घोरा मुहुत्ता अबलं सरीरं, भारंड-पक्खी व चरेऽप्पमतो ॥४॥ सुप्तेषु चापि प्रतिबुद्धजीवी, न विश्वसेत् पण्डित आशुप्रज्ञः । घोराः मुहूर्त्ता अबलं शरीरम्, भारण्डपक्षीव चरेद् अप्रमत्तः ॥४॥
१६४. पमायं कम्ममाहंसु, अप्पमायं तहाडवरं । तभावादेसओ वावि, बालं पंडियमेव वा ॥५॥ प्रमादं कर्म आहु-रप्रमाद तद्भावादेशतो
तथाऽपरम् ।
वापि, बालं पण्डितमेव वा ॥५॥
१६५. न कम्मुणा कम्म खवेंति वाला, अकम्मुणा कम्म खवेंति धीरा । मेधाविणो लोभमया वतीता, संतोसिणो नो पकरेंति पावं ॥६॥ न कर्मणा कर्म क्षपयन्ति बाला, अकर्मणा कर्म क्षपयन्ति धीराः । मेधाविनो लोभमदाद् व्यतीताः, सन्तोषिणो नो प्रकुर्वन्ति पापम् ॥
१६६. सव्वओ पमत्तस्स भयं, सव्वओ अप्यमत्तस्स नत्थि भयं ॥७॥ सर्वतः प्रमत्तस्य भयं सर्वतोऽप्रमत्तस्य नास्ति भयम् ||७|| १६७. नाऽऽलस्सेण समं सुक्खं, न विज्जा सह निद्दया । न वेरग्गं ममत्तेणं, नारंभेण नाऽऽलस्येन समं सौख्यं न विद्या न वैराग्यं ममत्वेन, नारम्भेण
१६८. जागरह नरा ! णिच्चं, जागरमाणस्स वड्ढते बुद्धी । जो सुवति ण सो धन्नो, जो जग्गति सो सया धन्नो ॥ ९ ॥ जागृत नरा ! नित्य, जागरमाणस्य वर्द्धते बुद्धिः । यः स्वपिति न सो धन्यः, यः जागति स सदा
धन्यः ॥ ९ ॥
दयालुया ॥८॥ सह निद्रया । दयालुता ||८||
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ज्योतिर्मुख
५३
१६२. 'धार्मिकों का जागना श्रेयस्कर है और अधार्मिकों का सोना श्रेयस्कर है -- ऐसा भगवान् महावीर ने वत्सदेश के राजा शतानीक की बहन जयन्ती से कहा था ।
१६३. आशुप्रज्ञ पंडित सोये हुए व्यक्तियों के बीच भी जागृत रहे । प्रमाद मे विश्वास न करे । मुहूर्त बडे घोर (निर्दयी ) होते है । शरीर दुर्बल है, इसलिए वह भारण्ड पक्षी की भाँति अप्रमत्त होकर विचरण करे ।
१६४. प्रमाद को कर्म (आस्रव) और अप्रमाद को अकर्म ( सवर ) कहा है । प्रमाद के होने से मनुष्य बाल ( अज्ञानी ) होता है । प्रमाद के न होने से मनुष्य पडित ( ज्ञानी ) होता है ।
१६५. ( अज्ञानी साधक कर्म-प्रवृत्ति के द्वारा कर्म का क्षय होना मानते है किन्तु ) वे कर्म के द्वारा कर्म का क्षय नही कर सकते । धीर पुरुष अकर्म ( संवर या निवृत्ति) के द्वारा कर्म का क्षय करते है । मेधावी पुरुष लोभ और मद से अतीत तथा सन्तोषी होकर पाप नही करते ।
१६६. प्रमत्त को सब ओर से भय होता है । अप्रमत्त को कोई भय नही होता ।
१६७. आलसी सुखी नही हो सकता, निद्रालु विद्याभ्यासी नही हो सकता, ममत्व रखनेवाला वैराग्यवान नही हो सकता, और हिसक दयालु नही हो सकता !
सतत जागृत रहो। जो जागता है उसकी बुद्धि बढती है । जो सोता है वह धन्य नही है, धन्य वह है, जो सदा
जागता है ।
१६८. मनुष्यो !
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समणसुतं
१६९. आदाणे freखेवे, वोसिरणे ठगमणसणे । सव्वत्थ अप्पमत्तो, दयावरो होहु हु अहिंसओ ॥१०॥ आदाने निक्षेपे, व्यत्सर्जने स्थानगमनशयनेषु । सर्वत्राऽप्रमतो, दयापरो भवति खल्वह्सिक. ॥१०॥
१४. शिक्षासूत्र
१७०. विवत्ती अविणीअस्स, संपत्ती जस्सेयं दुहओ नायं, सिक्खं से विपत्तिरविनीतस्य, सपत्तिविनीतस्य यस्यैतद् द्विधा ज्ञात, शिक्षा स.
विणोअस्स य ।
१७१. अह पंचहि ठाणेह, जेहि सिक्खा न लब्भई । थम्भा कोहा पसाएणं, रोगेणाऽलस्सएण य ॥२॥ अथ पञ्चभिः स्थानै', यैः शिक्षा न लभ्यते । स्तम्भात् क्रोधात् प्रमादेन, रोगेणालस्यकेन च ॥ २ ॥
अभिगच्छइ ॥१॥
दंते
न य
१७२-१७३. अह अट्ठहि ठाणेहि, सिक्खासीले ति बुच्चई | अहस्सिरे सया मम्ममुदाहरे ॥३॥ नासीले न विसीले, न सिया अइलोलुए । अकोहणे सच्चरए, सिक्खासीले त्ति वुच्चई ॥४॥ अथाष्टभिः स्थान, शिक्षाशील इत्युच्यते । अहसनशीलः सदा दान्तः, न च मर्म उदाहरेत् ॥ ३ ॥ नाशीलो न विशील, न स्यादतिलोलुपः । अक्रोधनः सत्यरतः, शिक्षाशील इत्युच्यते ॥४॥
च
च ।
अधिगच्छति || १ |
१७४. नाणमेगग्गचित्तो अ, ठिओ अ ठावयई परं । सुआणि अ अहिज्जित्ता, रओ ज्ञानमेकाग्रचित्तश्च स्थित च
सुअसमाहिए ॥५॥ स्थापयति परम्
श्रुतानि
अधीत्य,
रत.
श्रुतसमाधौ ॥५॥
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ज्योतिर्मुख
५५
१६९ वस्तुओं को उठाने धरने में, मल-मूत्र का त्याग करने में, बैटने तथा चलने-फिरने में, और शयन करने से जो दयालु पुरुष सदा अप्रमादी रहता है, वह निश्चय ही अहिसक है ।
१७०
१७१. इन पाँच स्थानो या कारणो से रिक्षा प्राप्त नही होती . १ अभिमान, २ क्रोध, ३ प्रसाद. ४. रोग ओर
आलस्य ।
१४. शिक्षासूत्र
अविनयी के ज्ञान आदि गुण नष्ट हो जाते है, यह उसकी विपत्ति है और विनयी को ज्ञान आदि गुणो की सम्प्राप्ति होती है, ( यह उसकी सम्पत्ति है । इन दोनो बातो को जाननेवाला ही ग्रहण और आसेवन रूप ) सच्ची शिक्षा प्राप्त करता है ।
१७२-१७३. इन आठ स्थितियो या कारणो से मनुष्य शिक्ष शील कहा जाता है १ हँसी-मजाक नहीं करना, २ सदा इन्द्रिय और मन का दमन करना, ३ किसीका रहस्योद्घाटन न करना, ४. अशील ( ( सर्वथा आचारविहीन ) न होना, ५ विशील ( दोषों से कलकित ) न होना, ६ अति रसलोलुप न होना, ७. अक्रोधी रहना तथा ८ सत्यरत होना ।
१७४
अध्ययन के द्वारा व्यक्ति को ज्ञान और चित्त की एकाग्रता प्राप्त होती है । वह स्वयं धर्म मे स्थित होता है और दूसरो को दी स्थिर करता है तथा अनेक प्रकार के श्रुत का अध्ययन करव श्रुतसमाधि में रत हो जाता है ।
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समणसुत्तं १७५. वसे गुरुकुले निच्चं, जोगवं उवहाणवं ।
पियंकरे पियवाई, से सिक्खं लद्धमरिहई ॥६॥ वसेद गरुकुले नित्य, योगवानुपधानवान् । प्रियकरः प्रियंवादी, स शिक्षा लब्धुमर्हति ॥६॥
जह दीवा दीवसयं, पइप्पए सो य दिप्पए दीवो । दीवसमा आयरिया, दिप्पंति परं च दीवेति ॥७॥ यथा दीपात् दीपशतं, प्रदीप्यते स च दीप्यते दीपः । दीपसमा आचार्याः, दीप्यन्ते परं च दीपयन्ति ॥७॥
१५. आत्मसूत्र १७७. उत्तमगुणाण धामं, सव्वदव्वाण उत्तमं दव्वं ।
तच्चाण परं तच्चं, जीवं जाणेह णिच्छयदो ॥१॥ उत्तमगुणानां धाम, सर्वद्रव्याणां उत्तम द्रव्यम् । तत्त्वाना परं तत्त्व, जीवं जानीत निश्चयत. ॥१॥
१७८. जीवा हवंति तिविहा, बहिरप्पा तह य अंतरप्पा य ।
परमप्पा वि य दुविहा, अरहंता तह य सिद्धा य ॥२॥ जीवाः भवन्ति त्रिविधाः, बहिरात्मा तथा च अन्तरात्मा च । परमात्मानः अपि च द्विविधाः, अर्हन्तः तथा च सिद्धाः च ॥२॥
१७९. अक्खाणि बहिरप्पा, अंतरप्पा ह अप्पसंकप्पो ।
कम्मकलंक-विमुक्को, परमप्पा भण्णए देवो ॥३॥ अक्षाणि बहिरात्मा, अन्तरात्मा खलु आत्मसंकल्पः । कर्मकलकविमुक्तः, परमात्मा भण्यते देवः ॥३॥
१८०. ससरीरा अरहंता, केवलणाणेण मुणिय-सयलत्था ।
णाणसरीरा सिद्धा, सन्वत्तम-सुक्ख-संपत्ता ॥४॥ सशरीराः अर्हन्तः, केवलज्ञानेन ज्ञातसकलार्थाः । ज्ञानशरीराः सिद्धाः, सर्वोत्तमसौख्यसंप्राप्ताः ॥४॥
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ज्योतिर्मुख १७५. जो सदा गुरुकुल मे वास करता है, जो समाधियुक्त होता है,
जो उपधान (श्रुत-अध्ययन के समय) तप करता है, जो प्रिय करता है, जो प्रिय बोलता है, वह शिक्षा प्राप्त कर सकता है।
१७६. जैसे एक दीप से मैकड़ों दीप जल उठते है और वह स्वय भी
दीप्त रहता है, वैसे ही आचार्य दीपक के समान होते है। वे स्वयं प्रकाशवान् रहते है, और दूसरों को भी प्रकाशित करते है।
१५. आत्मसूत्र १७७. तुम निश्चयपूर्वक यह जानो कि जीव उत्तम गुणों का आश्रय,
सब द्रव्यो मे उत्तम द्रव्य और सब तत्त्वों में परम तत्त्व है।
१७८ जाव (आत्मा) तीन प्रकार का है बहिरात्मा, अन्तरात्मा
और परमात्मा। परमात्मा के दो प्रकार है : अर्हत् और सिद्ध ।
१७९. इन्द्रिय-समूह को आत्मा के रूप में स्वीकार करनेवाला बहि
रात्मा है। आत्म-सकल्प--देह से भिन्न आत्मा को स्वीकार करनेवाला अन्तरात्मा है ! कर्म-कलक से विमुक्त आत्मा परमात्मा है।
१८०.
केवलज्ञान से समस्त पदार्थो को जाननेवाले स-शरीरी जीव अर्हत् है तथा सर्वोत्तम सुख (मोक्ष) को सप्राप्त ज्ञान-शरीरी जीव सिद्ध कहलाते हैं।
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समणसुत्तं १८१. आरुहवि अंतरप्पा, बहिरप्पो छडिऊण तिविहेण ।
झाइज्जइ परमप्पा, उवइलैं जिणवरिहि ॥५॥ आर ह्य अन्तरात्मान, बहिरात्मान त्यवत्वा त्रिविधेन ।
ध्यायते परमात्मा, उपदिष्ट जिनवरेन्द्र ॥५॥ १८२. चउगइभवसंभमणं, जाइजरामरण-रोयसोका य ।
कुलजोणिजीवमग्गण-ठाणा जीवस्स णो संति ॥६॥ चतुर्गतिभवसभ्रमणं, जातिजरामरण-रोगशोकाश्च ।
कुलयोनिजीवमार्गणा-स्थानानि जीवस्य नो सन्ति ॥६॥ १८३. वण्णरसगंधफासा, थोपुंसणवंसयादि-पज्जाया ।
संठाणा संहणणा, सत्वे जीवस्स णो संति ॥७॥ वर्णरसगन्धस्पर्शा., स्त्रीपुंनपुंसकादि-पर्याया. ।
सस्थानानि सहननानि, सर्वे जीवस्य नो सन्ति ।।७।। १८४. एदे सत्वे भावा, ववहारणयं पडुच्च भणिदा हु ।
सव्वे सिद्धसहावा, सुद्धणया संसिदी जीवा ॥८॥ एते सर्वे भावा व्यवहारनय प्रतीत्य भणिता खलु ।
सर्वे सिद्धस्वभावाः, शुद्धनयात् संसृतौ जीवा ॥८॥ १८५. अरसमरूवमगधं, अव्वत्तं चेदणागुणमसइं ।
जाण अलिंगग्गहणं, जीवमणिद्दिट्ठसंठाणं ॥९॥ अरसमरूपमगन्धम् अव्यवत चेतनागुणमशब्दम् ।
जानीलिगग्रहण, जीवमनिर्दिष्टसस्थानम् ॥९॥ १८६. णिइंडो णिहंदो, णिम्ममो णिक्कलो णिरालंबो ।
णीरागो णिद्दोसो, णिम्मूढो णिन्भयो अप्पा ॥१०॥ निर्दण्ड. निर्द्वन्द्व , निर्मम निष्कल. निरालम्ब. ।
नीरागः निपः, निर्मूढ. निर्भयः आत्मा ॥१०॥ १८७. णिगंथो णीरागो, णिस्सल्लो सयलदोसणिम्मुक्को ।
णिक्कामो णिक्कोहो, णिम्माणो हिम्मदो अप्पा ॥११॥ निर्ग्रन्थो नीरागो, नि शल्य सकलदोषनिर्मुक्त. । निष्कामो निष्क्रोधो, निर्मानो निर्मदः आत्मा ॥११॥
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ज्योतिर्मुख
१८१ जिनेश्वरदेव का यह कथन है कि तुम मन, वचन और काया से
वहिरात्मा को छोडकर, अन्तरात्मा मे आरोहण कर परमात्मा का ध्यान करो।
१८२ शुद्ध आत्मा में चतुर्गतिरूप भद-भ्रमण, जन्म, जरा, मरण,
रोग, शोक तथा कुल, योनि, जीवस्थान और मार्गणास्थान नहीं होते।
१८३. शुद्ध आत्मा मे वर्ण, रस, गन्ध, स्पर्श तथा स्त्री, पुरुष, नपुसक
आदि पर्याये, तथा सस्थान और सहनन नही होते ।
१८४. ये सव भाव व्यवहारनय की अपेक्षा से कहे गये है। शुद्धनय
(निश्चयन य) की अपेक्षा से संसारी जीव भी सिद्धस्वरूप है।
१८५. शद्ध आत्मा वास्तव में अरस, अरूप, अगध, अव्यक्त, चैतन्य
गुणवाला, अशब्द, अलिङ्गग्राह्य (अनुमान का अविषय) और संस्थान रहित है।
१८६ आत्मा मन, वचन और कायरूप त्रिदड से रहित, निर्द्वन्द्व--
अकेला, निर्मम--ममत्वरहित, निष्कल--शरीररहित, निरालम्ब---परद्रव्यालम्बन स रहित, वीतराग, निर्दोष, मोह
रहित तथा निर्भय है। १८७. वह (आत्मा) निर्ग्रन्थ (ग्रन्थि रहित) है, नीराग है. नि शत्य
(निदान, माया और मिथ्यादर्शनशल्य से रहित) है, सर्वदोषो से निर्मुक्त है, निष्काम (कामनारहित) है और निःक्रोध, निर्मान तथा निर्मद है ।
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६०
समणसुत्त १८८. वि होदि अप्पमत्तो, ण पमत्तो जाणओ दु जो भावो ।
एवं भणंति सुद्धं, गाओ जो सो उ सो चेव ॥१२॥ नापि भवत्यप्रमत्तो, न प्रमत्तो ज्ञायकस्तु यो भाव. । एवं भणन्ति शुद्धं, ज्ञातो य. स तु स चैव ॥१२॥
१८९. णाहं देहो ण मणो, ण चेव वाणी ण कारणं तेसि ।
कत्ता ण ण कारयिदा, अणुमंता व कत्तीणं ॥१३॥ नाहं देहो न मनो, न चैव वाणी न कारणं तेषाम् । कर्ता न न कारयिता, अनुमन्ता नैव कर्तणाम् ॥१३॥
१९०. को णाम भणिज्ज बुहो, गाउं सवे पराइए भावे ।
मज्झमिणं ति य वयणं, जाणंतो अप्पयं सुद्धं ॥१४॥ को नाम भणेद् बुधः, ज्ञात्वा सर्वान् परकीयान् भावान् । ममेदमिति च वचनं, जानन्नात्मकं शुद्धम् ।।१४।।
१९१. अहमिक्को खल सद्धो, जिम्ममओ णाणदंसणसमग्गो ।
तम्हि ठिओ तच्चित्तो, सत्वे एए खयं गेमि ॥१५॥ अहमेक. खलु शुद्धः, निर्ममतः ज्ञानदर्शनसमग्र. । तस्मिन् स्थितस्तच्चित्त., सर्वानेतान् क्षयं नयामि ॥१५॥
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ज्योतिर्मुख १८८. आत्मा ज्ञायक है । जो ज्ञायक होता है, वह न अप्रमत्त होता है
और न प्रमत्त। जो अप्रमत्त और प्रमत्त नही होता वह शुद्ध होता है। आत्मा ज्ञायकरूप में ही ज्ञात है और वह शुद्ध अर्थ मे ज्ञायक ही है। उसमे ज्ञेयकृत अशुद्धता नही है ।*
१८९
मै (आत्मा) न शरीर हूँ, न मन हूँ, न वाणी हूँ और न उनका कारण हूँ। मै न कर्ता हूँ, न करानेवाला हूँ और न कर्ता का अनुमोदक ही हूँ।
१९०. आत्मा के शुद्ध स्वरूप को जाननेवाला तथा परकीय (आत्म
व्यतिरिक्त) भावों को जाननेवाला ऐसा कौन ज्ञानी होगा, जो यह कहेगा कि 'यह मेरा है।
१९१. मै एक हूँ, शुद्ध हूँ, ममतारहित हूँ तथा ज्ञानदर्शन से परिपूर्ण हूँ।
अपने इस शुद्ध स्वभाव में स्थित और तन्मय होकर मै इन सब (परकीय भावों) का क्षय करता हूँ।
* गुणस्थानो की दृष्टि से जीव को छठे गुणस्थान तक प्रमत्त और सातवे से अप्रमत्त कहा जाता है। ये दोनो दशाएँ शुद्ध जीव की नही है ।
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समणसुत्तं
द्वितीय खण्ड
मोक्ष मार्ग
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१९४.
१६. मोक्षमार्गसूत्र १९२. मग्गो मग्गफलं ति य, दुविहं जिणसासणे समक्खादं ।
मग्गो खल सम्मत्तं मग्गफलं होइ णिव्वाणं ॥१॥ मार्ग मार्गफलम् इति च द्विविधं जिनशासने सभाख्यातम् ।
मार्गः खलु सम्यवत्वं मार्गफल भवति निर्वाणम् ॥१॥ १९३. दसणणाणचरित्ताणि, मोक्खमग्गो त्ति सेविदव्वाणि ।
साधूहि इदं भणिदं, तेहि दु बंधो व मोक्खो वा ॥२॥ दर्शनज्ञानचारित्राणि, मोक्षमार्ग इति सेवितव्यानि । साधुभिरिद भणित, तैस्तु बन्धो वा मोक्षो वा ॥२॥ अण्णाणादो णाणी, जदि मण्णदि सुद्धसंपओगादो । हवदि त्ति दुक्खमोक्खं, परसमयरदो हवदि जीवो ॥३॥ अज्ञानात् ज्ञानी, यदि मन्यते शुद्धसम्प्रयोगात् ।
भवतीति दुःखमोक्षः, परसमयरतो भवति जीवः ॥३॥ १९५. वदसमिदीगुत्तीओ, सोलतवं जिणवरेहि पण्णत्तं ।
कुटवंतो वि अभवो, अण्णाणी मिच्छदिट्ठी दु ॥४॥ व्रतसमितिगुप्ती. शीलतप. जिनवरः प्रजप्तम् । कुर्वन् अपि अभव्य. अज्ञानी मिथ्यादृष्टिस्तु ॥४॥ णिच्छयववहारसरूवं, जो रयणत्तयं ण जाणइ सो । जे कीरइ तं मिच्छा-रूवं सव्वं जिणुद्दिढें ॥५॥ निश्चयव्यवहारस्वरूप, यो रत्नत्रयं न जानाति सः ।
यत् करोति तन्मिथ्या-रूप सर्व जिनोद्दिष्टम् ॥५॥ १९७. सद्दहदि य पत्तेदि य, रोचेदि य तह पुणो य फासेदि ।
धम्म भोगणिमित्तं, ण दु सो कम्मक्खयणिमित्तं ॥६॥ श्रद्दधाति च प्रत्येति च, रोचयति च तथा पुनश्च स्पृशति । धर्म भोगनिमित्तं, न तु स कर्मक्षयनिमित्तम् ॥६॥
१९६.
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१६. मोक्षमार्गसूत्र १९२. जिनशासन मे ‘मार्ग' तथा 'मार्गफल' इन दो प्रकारो से कथन
किया गया है । 'मार्ग' 'मोक्ष' का उपाय है। उसका 'फल' 'निर्वाण' या 'मोक्ष' है।
१९३ जिनेन्द्रदेव ने कहा है कि ( सम्यक् ) दर्शन, ज्ञान, चारित्र
मोक्ष का मार्ग है । साधुओं को इनका आचरण करना चाहिए । यदि वे श्वाश्रित होते है तो इनसे मोक्ष होता
है और पराश्रित होने से वन्ध होता है । १९४. अज्ञानवश यदि ज्ञानी भी ऐसा मानने लगे कि शुद्ध सम्प्रयोग
अर्थात् भक्ति आदि शुभभाव से दु.ख-मुक्ति होती है, तो वह भी राग का अंश होने से पर-समयरत होता है।
१९५. जिनेन्द्रदेव द्वारा प्ररूपित व्रत, समिति, गुप्ति, शील और तप
का आचरण करते हुए भी अभव्य जीव अज्ञानी और मिथ्यादृष्टि ही है।
१९६. जो निश्चय और व्यवहारस्वरूप रत्नत्रय (दर्शन, ज्ञान, चारित्र)
को नहीं जानता, उसका सब-कुछ करना मिथ्यारूप है, यह जिनदेव का उपदेश है ।
१९७. अभव्य जीव यद्यपि धर्म में श्रद्धा रखता है, उसकी प्रतीति
करता है, उसमें रुचि रखता है, उसका पालन भी करता है, किन्तु यह सब वह धर्म को भोग का निमित्त समझकर करता है, कर्मक्षय का कारण समझकर नही करता।
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६
समणसुतं १०८. सहपरिणामो पुण्णं, असुहो पाव त्ति भणियमन्नेसु ।
परिणामो गनगदो, दुक्खक्खयकारणं समये ॥७॥ शुभपरिणामः पुण्य अशुभः पापमिति भणितमन्येषु ।
परिणामो नान्यगतो, दु.खक्षयकारणं समये ॥७॥ १९९. पुण्णं पि जो समिच्छदि, संसारो तेण ईहिदो होदि ।
पुण्णं सुगईहे,, पुण्णखएणेव णिव्वाणं ॥८॥ पुण्यमपि यः समिच्छति, संसारः तेन ईहित भवति ।
पुण्यं सुगतिहेतुः, पुण्यक्षयेण एव निर्वाणम् ॥८॥ २००. कम्ममसुहं कुसोलं, सुहकम्मं चावि जाण व सुसीलं ।
कह तं होदि सुसीलं, जं संसारं पवेसेदि ॥९॥ कर्म अशुभं कुशील, शुभकर्म चापि जानीहि वा सुशीलम् ।
कथं तद् भवति सुशीलं, यत् संसारं प्रवेशयति ॥९॥ २०१. सोवणियं पि णियलं, बंधदि कालायसं पि जह पुरिसं ।
बंधदि एवं जीवं, सुहमसुहं वा कदं कम्भं ॥१०॥ सौवणिकमपि निगल, बध्नाति कालायसमपि यथा पुरुषम् ।
बध्नात्येव जीवं, शुभमशुभं वा कृतं कर्म ॥१०॥ २०२. तम्हा दु कुसीलेहि य, रायं मा कुणह मा व संसग्गं ।
साहीणो हि विणासो, कुसीलसंसग्गरायेण ॥११॥ तस्मात्तु कुशीलश्च, रागं मा कुरुत मा वा संसर्गम् ।
स्वाधीनो हि विनाशः कुशीलससर्गरागेण ॥११॥ २०३. वरं वयतवेहि सग्गो, मा दुक्खं होउ णिरइ इयरहिं ।
छायातवट्ठियाणं, पडिवालंताण गुरुभेयं ॥१२॥ वर व्रततपोभिः स्वर्गः, मा दुःखं भवतु निरये इतरः ।
छायाऽऽतपस्थितानां, प्रतिपालयतां गुरुभेदः ॥१२॥ २०४. खयरामरमणुय-करंजलि-मालाहिं च संथुया विउला ।
चक्कहररायलच्छी, लब्भई बोही ण भव्वणुआ ॥१३॥ च रामरमनुज-कराञ्जलि-मालाभिश्च सस्तुता विपुला । चक्रधरराजलक्ष्मी:, लभ्यते बोधिः न भव्यनुता ॥१३॥
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मोक्ष-मार्ग
१९.८ (वह नहीं जानता कि-) परद्रव्य मे प्रवृत्त शुभ-परिणाम पुण्य
है और अशुभ-परिणाम पाप है। (धर्म) अनन्यगत अर्थात् स्व-द्रव्य मे प्रवृत्त परिणाम है जो यथासमय दुखों के क्षय का
कारण होता है। १९९. जो पुण्य की इच्छा करता है, वह संसार की ही इच्छा करता
है । पुण्य सुगति का हेतु (अवश्य) है, किन्तु निर्वाण तो पुण्य के क्षय से ही होता है।
२००. अशुभ-कर्म को कुशील और शुभ-कर्म को सुशील जानो।
किन्तु उसे सुशील कैसे कहा जा सकता है जो ससार में प्रविष्ट कराता है ?
२०१. बेडी सोने की हो चाहे लोहे की, पुरुष को दोनों ही बेड़ियाँ
बाँधती है। इसी प्रकार जीव को उसके शुभ-अशुभ कर्म बाँधते है।
२०२ अत (परमार्थत ) दोनों ही प्रकार के कर्मो को कुशील जानकर
उनके साथ न राग करना चाहिए और न उनका ससर्ग। क्योकि कुशील (को) के प्रति राग और संसर्ग करने से
स्वाधीनता नष्ट होती है । २०३ (तथापि-) व्रत व तपादि के द्वारा स्वर्ग की प्राप्ति उत्तम है ।
इनके न करने पर नरकादि के दु.ख उठाना ठीक नहीं है। क्योकि कष्ट सहते हुए धूप मे खड़े रहने की अपेक्षा छाया मे खड़े रहना कही अच्छा है। (इसी न्याय से लोक मे पुण्य की
सर्वथा उपेक्षा उचित नही।) २०४. (इसमे सन्देह नही कि) शुभभाव से विद्याधरों, देवों तथा
मनुष्यों की करांजलि-बद्ध स्तुतियों से स्तुत्य चक्रवर्ती सम्राट की विपुल राज्यलक्ष्मी (तक) उपलब्ध हो सकती है, किन्तु भव्य जीवों के द्वारा आदरणीय सम्यक्-सम्बोधि प्राप्त नहीं होती।
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समणसुत्तं २०५. तत्थ ठिच्चा जहाठाणं, जक्खा आउक्खए चुया ।
उर्वन्ति माणुसं जोणि, सेदुसंगेऽभिजायए ॥१४॥ तत्र स्थित्वा यथास्थानं, यक्षा आयु.क्षये च्युता ।
उपयान्ति मानुपी योनिम्, स दशाङ्गोऽभिजायते ॥१४॥ २०६-२०७. भोच्चा माणुस्सए भोए, अप्पडिरूवे अहाउयं ।
पुव्वं विसुद्धसद्धम्मे, केवलं बोहि बुज्झिया ॥१५॥ चउरंग* दुल्लहं मत्ता, संजमं पडिवज्जिया । तवसा धुयकम्मसे, सिद्धे हवइ सासए ॥१६॥ भुक्त्वा मानुप्कान् भोगान्, अप्रतिरूपान् यथायुप्कम् । पूर्व विशुद्धसद्धर्मा, केवला बोधि बुद्ध्वा ॥१५।। चतुरङ्ग दुर्लभ ज्ञात्वा, संयम प्रतिपद्य । तपसा घूतकर्माशः, सिद्धो भवति शाश्वतः ॥१६॥
१७. रत्नत्रयसूत्र (अ) व्यवहार-रत्नत्रय २०८. धम्मादीसहहणं,
सम्मत्तं णाणमंगपुव्वगदं । चिट्ठा तवंसि चरिया, ववहारो मोक्खमग्गो त्ति ॥१॥ धर्मादिश्रद्धान, सम्यक्त्व ज्ञानमङ्गपूर्वगतम् ।
चेप्टा तपसि चर्या, व्यवहारो मोक्षमार्ग इति ॥१॥ २०९. नाणेण जाणई भावे, दंसणेण य सद्दहे ।
चरित्तेण निगिण्हाइ, तवेण परिसुज्झई ॥२॥ ज्ञानेन जानाति भावान्, दर्शनेन च श्रद्धत्ते ।
चारित्रेण निगृहणाति, तपसा परिशुध्यति ॥२॥ २१०. नाणं चरित्तहीणं, लिंगग्गहणं च दंसणविहीणं ।
संजमहीणं च तवं, जो चरइ निरत्थयं तस्स ॥३॥ ज्ञानं चरित्रहीनं, लिङ्गग्रहण च दर्शनविहीनम् ।
संयमविहीन च तप, यः चरति निरर्थक तस्य ॥३॥ * मनुष्यत्व, श्रुति, श्रद्धा, वीर्य ।
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मोक्ष-मार्ग २०५ (पुण्य के प्रताप से) देवलोक मे यथास्थान रहकर आयुक्षय
होने पर देवगण वहाँ से लौटकर मनुप्य-योनि में जन्म लेते हैं। वहाँ वे दशाग भोग-मामग्री से युक्त होते है।
२०६-२०७. जीवनपर्यन्त अनुपम मानवीय भोगो को भोगकर पूर्वजन्म
मे विशुद्ध समीचीन धर्माराधन के कारण निर्मल बोधि का अनुभव करते है और चार अगो (मनुष्यत्व, श्रति, थद्धा तथा वीर्य) को दुर्लभ जानकर वे सयम-धर्म स्वीकार करते है और फिर तपश्चर्या से कर्मो का नाश करके शाश्वत सिद्धपद को प्राप्त होते है।
१७. रत्नत्रयसूत्र (अ) व्यवहार-रत्नत्रय २०८. धर्म आदि (छह द्रव्य) तथा तत्त्वार्थ आदि का श्रद्धान करना
सम्यग्दर्शन है । अगों और पूर्वो का ज्ञान सम्यग्ज्ञान है। तप मे प्रयत्नशीलता सम्यकचारित्र है। यह व्यवहार मोक्ष
मार्ग है। २०९. (मनुष्य) ज्ञान से जीवादि पदार्थो को जानता है, दर्शन से
उनका श्रद्धान करता है, चारित्र से (कर्मास्रव का) निरोध करता है और तप से विशुद्ध होता है ।
२१०. (तीनों एक-दूसरे के पूरक हैं इसीलिए कहा है कि) चारित्र
के विना ज्ञान, सम्यग्दर्शन के बिना मुनिलिग का ग्रहण और सयमविहीन तप का आचरण करना निरर्थक है ।
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समणसुत्तं २११. नादंसणिस्स नाणं, नाणेण विणा न हुंति चरणगुणा ।
अगणिस्स नत्थि मोक्खो, नत्थि अमोक्खस्स निव्वाणं ॥४॥ नादर्शनिनो ज्ञान, ज्ञानेन विना न भवन्ति चरणगुणा । अगुणिनो नास्ति मोक्ष , नास्त्यमोक्षस्य निर्वाणम् ॥४॥
२१२. हयं नाणं कियाहीणं, हया अण्णाणओ किया ।
पासंतो पंगलो दड्ढो, धावमाणो य अंधओ ॥५॥ हत ज्ञान क्रियाहीन, हताऽज्ञानत क्रिया ।। पश्यन् पङगुल: दग्धो, धावमानश्च अन्धकः ॥५॥
२१३. संजोअसिद्धीइ फलं वयंति, न हु एगचक्केण रहो पयाइ ।
अंधो य पंग य वणे समिच्चा, ते संपउत्ता नगरं पविट्ठा ॥६॥ संयोगसिद्धौ फल वदन्ति, न खल्वेकचक्रेण रथः प्रयाति । अन्धश्च पड गुश्च वने समेत्य, तौ सप्रयुक्तौ नगर प्रविष्टौ ॥६॥
(आ) निश्चय-रत्नत्रय २१४. सम्मइंसणणाणं, एसो लहदि ति णवरि ववदेसं ।
सव्वणयपक्खरहिदो, भणिदो जो सो समयसारो॥७॥ सम्यग्दर्शनज्ञानमेष लभते इति केवल व्यपदेशम् । सर्वनयपक्षरहितो, भणितो य स समयसार ॥७॥
२१५. दंसणणाणचरित्ताणि, सेविदव्वाणि साहुणा णिच्चं ।
ताणि पुण जाण तिण्णि वि, अप्पाणं चेव णिच्छयदो ॥८॥ दर्शनज्ञानचारित्राणि, सेवितव्यानि साधुना नित्यम् ।। तानि पुनर्जानीहि, त्रीण्यप्यात्मानं चैव निश्चयतः ॥८॥
२१६. णिच्छयणयेण भणिदो, तिहि तेहिं समाहिदो हु जो अप्पा ।
ण कुणदि किचि वि अन्नं, ण मुयदि सो मोक्खमग्गो ति ॥९॥ निश्चयनयेन भणित-स्त्रिभिस्तै, समाहितः खलु य. आत्मा । न करोति किंचिदप्यन्यं, न मुञ्चति स मोक्षमार्ग इति ॥९॥
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मोक्ष-मार्ग
२११. सम्यग्दर्शन के विना ज्ञान नहीं होता। ज्ञान के बिना चारित्र ।
नही होता। चारित्रगुण के बिना मोक्ष (कर्मक्षय) नही हो', और मोक्ष के बिना निर्वाण (अनतआनद) नही होता ।
२१२. क्रियाविहीन ज्ञान व्यर्थ है और अज्ञानियों की क्रिया व्यर्थ है।
जैसे पंग व्यक्ति वन में लगी आग को देखते हुए भी भागने में असमर्थ होने से जल मरता है और अन्धा व्यक्ति दौडते हा भी देखने में असमर्थ होने से जल मरता है।
२१३. कहा जाता है कि ज्ञान और क्रिया के सयोग से ही फल :
प्राप्ति होती है, जैसे कि वन मे पग और अन्धे के मिलने पारस्परिक सम्प्रयोग से (वन से निकलकर) दोनों नगर म प्रविष्ट हो जाते है। एक पहिये से रथ नही चलता ।
(आ) निश्चय-रत्नत्रय २१४. जो सब नय-पक्षों से रहित है वही समयसार है, उन्ग
सम्यग्दर्शन तथा सम्यग्ज्ञान की संज्ञा प्राप्त होती है।
२१५. साधु को नित्य दर्शन, ज्ञान और चारित्र का पालन कर
चाहिए। निश्चयनय से इन तीनों को आत्मा ही समझना चाहिए । ये तीनों आत्मस्वरूप ही है। अत: निश्चय .. आत्मा का सेवन ही उचित है।
२१६. जो आत्मा इन तीनों से समाहित हो जाता है और अतर '
नहीं करता है और न कुछ छोडता है, उसीको निश्च.. मोक्षमार्ग कहा गया है।
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समणसुत्तं
२१७. अप्पा अप्पम रओ, सम्माइट्ठी हवेइ फुडु जीवो । जाणइ तं सण्णाणं, चरदिह चारित्तभग्गु ति ॥१०॥ आत्मा आत्मनिरत, सम्यग्दृष्टि भवति स्फुटं जीवः । जानाति सज्ञान, चरतीह चारित्रमार्ग इति ॥ १० ॥ दंसणे चरिते य । जोगे ॥११॥
आत्मा खलु मम ज्ञानं, आत्मा में दर्शनं चरित्र च । आत्मा प्रत्याख्यान, आत्मा मे सयमो योगः ॥ ११ ॥
२१८. आया हु महं नाणे, आया मे
आया पच्चक्खाणे, आया में संजमे
१८. सम्यग्दर्शनसूत्र
( अ ) व्यवहार - सम्यक्त्व : निश्चय - सम्यक्त्व
२१९. सम्मत्तरयणसारं,
तं
मोक्ख महारुक्खमूलमिदि भणियं । णिच्छ्रय-ववहारसरूव दोभेयं ॥ १ ॥ मोक्ष महावृक्षमूलमिति भणितम् । निश्चय व्यवहारस्वरूपद्विभेदम् ॥ १॥
जाणिज्जइ सम्यक्त्वरत्नसारं, तज्ज्ञायते
२२०. जीवादी सद्दहणं, सम्मत्तं
जिणवरेहिं पण्णत्तं ।
सम्मत्तं ॥२॥
ववहारा णिच्छयदो, अप्पा णं हवइ जीवादीनां श्रद्धान, सम्यक्त्वं जिनवरैः व्यवहारात् निश्चयत, आत्मा ण भवति सम्यक्त्वम् ||२||
प्रज्ञप्तम् ।
२२१. जं मोणं तं सम्मं, जं सम्मं तमिह होइ मोणं ति । निच्छयओ इयरस्स उ, सम्म सम्मत्तहेऊ वि ॥३॥ यन् मौनं तत् सम्यक्, यत् सम्यक् तदिह भवति मौनं इति । निश्चयत. इतरस्य तु सम्यक्त्वं सम्यक्त्वहेतुरपि ॥३॥ २२२. सम्मत्तविरहिया णं, सुठु वि उग्गं तवं चरंता णं । ण लहंति वोहिलाहं, अवि वाससहस्सकोडीह ॥४॥ सम्यक्त्वविरहिता ण, सुष्ठु अपि उग्रं तपः चरन्तः णं । न लभन्ते बोधिलाभ, वर्षसहस्रकोटिभिः ॥ ४ ॥
अपि
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मोक्ष-मार्ग
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२१७. (इम दृष्टि से) आत्मा मे लीन आत्मा ही सम्यग्दृष्टि होता
है । जो आत्मा को यथार्थरूप में जानता है वही सम्यग्ज्ञान है, और उसमे स्थित रहना ही सम्यक्चारित्र है।
२१८. आत्मा ही मेरा ज्ञान है। आत्मा ही दर्शन और चारित्र है।
आत्मा ही प्रत्याख्यान है और आत्मा ही संयम और योग है। अर्थात् ये सव आत्मरूप ही हैं।
१८. सम्यग्दर्शनसूत्र (अ) व्यवहार-सम्यक्त्व : निश्चय-सम्यक्त्व २१९. रत्नत्रय में सम्यग्दर्शन ही श्रेष्ठ है और इसीको मोक्षरूपी
महावृक्ष का मूल कहा गया है। यह निश्चय और व्यवहार के रूप में दो प्रकार का है।
२२०. व्यवहारनय से जीवादि तत्वों के श्रद्धान को जिनदेव ने
सम्यक्त्व कहा है। निश्चय से तो आत्मा ही सम्यग्दर्शन है।
२२१. (अथवा) निश्चय से जो मौन है वही सम्यग्दर्शन है और जो
सम्यग्दर्शन है वही मौन है। व्यवहार से जो निश्चय-सम्यग्दर्शन के हेतु है, वे भी सम्यग्दर्शन है।
२२२. सम्यक्त्वविहीन व्यक्ति हजारों-करोड़ वर्षों तक भलीभांति
उग्र तप करने पर भी बोधिलाभ प्राप्त नहीं करता ।
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७४
समणसुत्तं २२३. दंसणभट्ठा भट्ठा, दंसणभट्ठस्स पत्थि णिवाणं ।
सिझंति चरियभट्टा, दसणभट्टा ण सिज्झंति ॥५॥ दर्शनभ्रष्टाः भ्रष्टाः, दर्शनभ्रष्टस्य नास्ति निर्वाणम् ।
सिध्यन्ति चरितभ्रष्टा , दर्शनभ्रष्टाः न सिध्यन्ति ॥५॥ २२४. सणसुद्धो सुद्धो दसणसुद्धो लहेइ णिव्वाणं ।
दसणविहीण पुरिसो, न लहइ तं इच्छियं लाहं ॥६॥ दर्शनशुद्धः शुद्धः, दर्शनशुद्धः लभते निर्वाणम् ।
दर्शनविहीनः पुरुष., न लभते तम् इच्छितं लाभम् ॥६॥ २२५. सम्मत्तस्स य लंभो, तेलोक्कस्स य हवेज्ज जो लंभो ।
सम्मइंसणलंभो, वरं खु तेलोक्कलंभादो ॥७॥ सम्यक्त्वस्य च लाभ-स्त्रलोकस्य च भवेत् यो लाभः ।
सम्यग्दर्शनलाभो, वरं खलु त्रैलोक्यलाभात् ॥७॥ २२६. किं बहुणा भणिएणं, जे सिद्धा परवरा गए काले ।
सिज्झिहिंति जे वि भविया, तं जाणइ सम्ममाहप्पं ॥८॥ कि बहुना भणितेन, ये सिद्धाः नरवराः गते काले ।
सेत्स्यन्ति येऽपि भव्याः, तद् जानीत सम्यक्त्वमाहात्म्यम् ॥८॥ २२७. जह सलिलेण ण लिप्पइ, कमलिणिपत्तं सहावपयडीए ।
तह भावेण ण लिप्पइ, कसायविसएहिं सप्पुरिसो॥९॥ यथा सलिलेन न लिप्यते, कमलिनीपत्रं स्वभावप्रकृत्या ।
तथा भावेन न लिप्यते, कषायविषयः सत्पुरुषः ॥९॥ २२८. उवभोगमिदियहि, दवाणमचेदणाणमिदराणं ।
जं कुणदि सम्मदिट्ठी, तं सव्वं णिज्जरणिमित्तं ॥१०॥ उपभोगमिन्द्रियः, द्रव्याणामचेतनानामितरेषाम् । यत् करोति सम्यग्दृष्टिः, तत् सर्व निर्जरानिमित्तम् ॥१०॥ सेवंतो वि ण सेवइ, असेवमाणो वि सेवगो कोई । पगरणचेट्ठा कस्स वि, ण य पायरणो त्ति सो होई ॥११॥ सेवमानोपि न सेवते, असेवमानोऽपि सेवक. कश्चित् । प्रकरणचेष्टा कस्यापि, न च प्राकरण इति स भवति ॥११॥
२२९.
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मोक्ष-मार्ग
७५ २२३ जो सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट है वही भ्रप्ट है । दर्शन-भ्रप्ट को कभी
निर्वाण-प्राप्ति नहीं होती। चारित्रविहीन सम्यग्दृष्टि तो (चारित्र धारण करके) सिद्धि प्राप्त कर लेते है । किन्तु
सम्यग्दर्शन से रहित सिद्धि प्राप्त नही कर सकते । २२४ (वास्तव में) जो सम्यग्दर्शन से शुद्ध है वही निर्वाण प्राप्त
करता है । सम्यग्दर्शन-विहीन पुरुप इच्छित लाभ नही कर पाता।
२२५. एक ओर सम्यक्त्व का लाभ और दूसरी ओर त्रैलोक्य का
लाभ होता हो तो त्रैलोक्य के लाभ से सम्यग्दर्शन का लाभ श्रेष्ठ है।
२२६ अधिक क्या कहे ? अतीतकाल में जो श्रेष्ठजन सिद्ध हुए
है और जो आगे सिद्ध होंगे, वह सम्यक्त्व का ही माहात्म्य है ।
२२७. जैसे कमलिनी का पत्र स्वभाव से ही जल से लिप्त नहीं होता,
वैसे ही सत्पुरुष सम्यक्त्व के प्रभाव से कषाय और विषयों से लिप्त नहीं होता।
२२८. सम्यग्दृष्टि मनुप्य अपनी इन्द्रियों के द्वारा चेतन तथा अचेतन
द्रव्यों का जो भी उपभोग करता है, वह सब कर्मो की निर्जरा मे सहायक होता है।
२२९. कोई तो विषयों का सेवन करते हुए भी सेवन नहीं करता और
कोई सेवन न करते हुए भी विषयों का सेवन करता है। जैसे अतिथिरूप से आया कोई पुरुप विवाहादि कार्य मे लगा रहने पर भी उस कार्य का स्वामी न होने से कर्ता नहीं होता।
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७६
समणसुत्तं
२३०. न कामभोगा समयं उवेति, न यावि भोगा विगई उवेति । जे तप्पओसी य परिग्गही य, सो तेसु मोहा विगई उवेइ ॥१२॥ न कामभोगाः समतामुपयन्ति, न चापि भोगा विकृतिमुपयन्ति । यस्तत्प्रद्वेषी च परिग्रही च स तेषु मोहाद् विकृतिमुपैति ॥ १२॥
( आ ) सम्यग्दर्शन - अंग
२३१. निस्संकिय निक्कंखिय निव्वितिगिच्छा अमूढदिट्ठी य । उवबूह थिरीकरणे, वच्छल्ल पभावणे अट्ठ ॥१३॥ निःशंकितं निःकाङ्क्षितं निर्विचिकित्सा अमूढदृष्टिश्च । उपबृंहा स्थिरीकरणे, वात्सल्य प्रभावेनाऽष्टौ ॥ १३॥ २३२. सम्मदिट्ठी जीवा, णिस्संका होंति णिब्भया तेण । सत्तभयविप्यमुक्का जम्हा तम्हा दु णिस्संका ॥ १४ ॥ सम्यग्दृष्टयो जीवा निरशङ्का भवन्ति निर्भयास्तेन । सप्तभयविप्रमुक्ता, यस्मात् तस्मात् तु निश्शङ्का ॥ १४ ॥
"
स
२३३. जो दुण करेदि कंखं, कम्मफलेसु तह सव्वधमेसु । सो णिक्कंखो चेदा, सम्मादिट्ठी मुणेयव्वो ॥ १५ ॥ यस्तु न करोति काङक्षाम्, कर्मफलेषु तथा सर्वधर्मेषु । निष्काङक्षश्चेतयिता, सम्यग्दृष्टिर्ज्ञातव्यः ॥ १५ ॥ २३४. नो सक्कियमिच्छई न पूयं, नो वि य वन्दणगं कुओ पसंसं ? । से संजए सुब्वए तवस्सी, सहिए आयगवेसए स भिक्खू ॥ १६ ॥ न सत्कृतिमिच्छति न पूजां, नोऽपि च वन्दनकं कुतः प्रशंसाम् । स संयतः सुव्रतस्तपस्वी, सहित आत्मगवेषकः स भिक्षुः || १६ || २३५. खाई - पूया - लाहं, सक्काराइं किमिच्छ से जोई | इच्छसि जइ परलोयं, तेहि किं तुज्झ ख्याति-पूजा - लाभं सत्कारादि किमिच्छसि इच्छसि यदि परलोकं तैः किं तव परलोके ? ॥ १७॥
परलोये ॥१७॥
योगिन् !
|
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मोक्ष-मार्म
२३०. (इसी तरह-) कामभोग न समभाव उत्पन्न करते है और न
विकृति (विषमता)। जो उनके प्रति द्वेप और ममत्व रखता है वह उनमे विकृति को प्राप्त होता है ।
(आ) सम्यग्दर्शन-अंग २३१. सम्यग्दर्शन के ये आठ अंग है : निःशंका, निष्कांक्षा, निर्वि
चिकित्सा, अमूढदृष्टि, उपगृहन, स्थिरीकरण, वात्सल्य और
प्रभावना।
२३२. सम्यग्दृष्टि जीव निःशंक होते है और इसी कारण निर्भय भी
होते हैं । वे सात प्रकार के भयों--इस लोक का भय, परलोकभय, अरक्षा-भय, अगुप्ति-भय, मृत्यु-भय, वेदना-भय और अकस्मात्-भय--से रहित होते है, इसीलिए नि.शंक होते हैं। (अर्थात् निःशंकता और निर्भयता दोनों एक साथ
रहनेवाले गुण है।) २३३. जो समस्त कर्मफलों में और सम्पूर्ण वस्तु-धर्मो मे किसी भी
प्रकार की आकाक्षा नहीं रखता, उसीको निरकांक्ष सम्यग्दृष्टि समझना चाहिए।
२३४. जो सत्कार, पूजा और वन्दना तक नहीं चाहता, वह किसीसे
प्रशंसा की अपेक्षा कैसे करेगा? (वारतव मे) जो संयत है, सुव्रती है, तपस्वी है और आत्मगवेषी है, वही भिक्षु है।
२३५. हे योगी ! यदि तू परलोक चाहता है तो ख्याति, लाभ, पूजा
और सत्कार आदि क्यों चाहता है ? क्या इनसे तुझे परलोक का सुख मिलेगा ?
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समणसुत्तं २३६. जो ण करेदि जगुप्पं, चेदा सवेसिमेव धम्माणं ।
सो खलु गिविदिगिच्छो, सम्मादिट्ठी मुणेयवो ॥१८॥ यो न करोति जुगुप्सा, चेतयिता सर्वेषामेव धर्माणाम् ।
स खलु निर्विचिकित्स , सम्यग्दृष्टितिव्य. ॥१८॥ २३७. जो हवइ असम्मूढो, चेदा सद्दिट्ठी सव्वभावसु ।
सो खल अमढदिट्ठी, सम्मादिट्ठी मणेयत्वो ॥१९॥ यो भवति असंमूढः, चेतयिता सद्वृष्टिः सर्वभावेषु ।
स खलु अमूढदृष्टिः, सम्यग्दृष्टितिव्य. ॥१९॥ २३८. नाणेणं दंसणेणं च, चरित्तेणं तहेव य ।
खन्तीए मुत्तीए, वड्ढमाणो भवाहि य॥२०॥ ज्ञानेन दर्शनेन च, चारित्रेण तथैव च ।
क्षान्त्या मुक्त्या , वर्धमानो भव च ॥२०॥ .३९. णो छादए णोऽवि य लूसएज्जा, माणं ण सेवेज्ज पगासणं च ।
ण यावि पण्णे परिहास कुज्जा, याऽऽसियावाद वियागरेज्जा। नो छादयेन्नापि च लषयेद. मान न सेवेत प्रकाशन च । न चापि प्राज्ञ परिहाम कुर्यात्, न चाप्याशीर्वाद व्यागृणीयात् ॥
२४०. जत्थेव पासे कइ दुप्पउत्तं, काएण वाया अदु माणसेणं ।
तत्थेव धीरोपडिसाहरेज्जा, आइन्नओ खिप्पमिवक्खलीणं ॥२२॥ यत्रैव पश्यत् क्वचित् दुप्प्रयुक्त, कायेन वाचा अथ मानसेन ।
तत्रैव धीर प्रतिसंहरेत् ,आजानेय (जात्यश्व.) क्षिप्रमिव खलीनम्॥ २४१. तिण्णो हु सि अण्णवं महं, कि पुण चिट्ठसि तीरमागओ ।
अभितुर पारं गमित्तए, समयं गोयम ! मा पमायए ॥२३॥ तीर्ण खलु असि अर्णव महान्त, कि पुनस्तिष्ठसि तीरमागतः ।
अभित्वरस्व पार गन्त, समय गौतम । मा प्रमादी. ।।२३।। २४२. जो धम्मिएस भत्तो, अणुचरणं कुणदि परससद्धाए ।
पियवयणं जपतो, वच्छल्लं तस्स भव्वस्स ॥२४॥ य धार्मिकेषु भक्त , अनुचरण करोति परमश्रद्धया ।। प्रियवचनं जल्पन्, वात्सल्य तस्य भव्यस्य ॥२४॥
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मोक्ष-मार्ग
२३६ जो समस्त धर्मो (वस्तु-गत स्वभाव) के प्रति ग्लानि नही
करता, उसीको निविचिकित्सा गुण का धारक सम्यग्दृष्टि समझना चाहिए।
२३७. जो समस्त भावों के प्रति विमूढ़ नही है--जागरूक है, निर्धान्त
है, दृष्टिसम्पन्न है, वह अमूढ़दृष्टि ही सम्यग्दृष्टि है।
२३८. ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, शान्ति (क्षमा) एवं मुक्ति
(निर्लोभता) के द्वारा आगे बढ़ना चाहिए--जीवन को वर्धमान बनाना चाहिए।
२३९. (अमूढदृष्टि या विवेकी) किसीके प्रश्न का उत्तर देते समय
न तो शास्त्र के अर्थ को छिपाये और न अपसिद्धान्त के द्वारा शास्त्र की विराधना करे। न मान करे और न अपने बड़प्पन का प्रदर्शन करे । न किसी विद्वान् का परिहास करे
और न किसीको आशीर्वाद दे ।। २४०. जब कभी अपने मे दुष्प्रयोग की प्रवृत्ति दिखायी दे, उसे तत्काल
ही मन, वचन, काय से धीर (सम्यग्दृष्टि) समेट ले, जैसे कि जातिवंत घोड़ा रास के द्वारा शीघ्र ही सीधे रास्ते पर आ
जाता है। २४१. तू महासागर को तो पार कर गया है, अब तट के निकट पहुंचकर
क्यों खड़ा है ? उसे पार करने में शीघ्रता कर । हे गौतम ! सणभर का भी प्रमाद मत कर।
२४२. जो धार्मिकजनों में भक्ति (अनुराग) रखता है, परम
श्रद्धापूर्वक उनका अनुसरण करता है तथा प्रिय वचन बोलता है, उस भव्य सम्यग्दृष्टि के वात्सल्य होता है ।
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समणसुत्तं २४३. धम्मकहाकहणेण य, बाहिरजोगेहिं चावि अणवज्जे ।
धम्मो पहाविदवो, जीवेसु दयाणुकंपाए ॥२५॥ धर्मकथाकथनेन च, बाह्ययोगैश्चाप्यनवद्यै. ।। धर्मः प्रभावयितव्यो, जीवेषु दयानुकम्पया ।।२५।।
२४४. पावयणी धम्मकही, वाई नेमित्तिओ तवस्सी य ।
विज्जा सिद्धो य कवी, अद्वैव पभावगा भणिया ॥२६॥ प्रावचनी धर्मकथी, वादी नैमित्तिकः तपस्वी च । विद्यावान् सिद्धः च कवि., अप्टौ प्रभावका. कथिताः ॥२६॥
१९. सम्यग्ज्ञानसूत्र २४५. सोच्चा जाणइ कल्लाणं, सोच्चा जाणइ पावगं ।
उभयं पि जाणए सोच्चा, जं छेयं तं समायरे ॥१॥ श्रुत्वा जानाति कल्याण, श्रुत्वा जानाति पापकम् ।
उभयमपि जानाति श्रुत्वा, यत् छेकं तत् समाचरेत् ॥१॥ २४६. गाणाऽऽणत्तीए पुणो, दसणतवनियमसंजमे ठिच्चा ।
विहरइ विसुज्झमाणो, जावज्जीवं पि निक्कंपो ॥२॥ ज्ञानाऽऽज्ञप्त्या पुन , दर्शनतपोनियमसयमे स्थित्वा । विहरति विशध्यमानः, यावज्जीवमपि निष्कम्पः ।।२।।
२४७. जह जह सयभोगाइ, अइसयरसपसरसंजयमपुत्वं ।
लह तह पल्हाइ मुणी, नवनवसंवेगसद्धाओ॥३॥ यथा यथा श्रुतमवगाहते, अतिशयरसप्रसरसंयुतमपूर्वम् । तथा तथा प्रह्लादते मुनि, नवनवसंवेगश्रद्धाक ॥३॥
२४८. सूई जहा ससुत्ता, न नस्सई कयवरम्मि पडिआ वि ।
जीवो वि तह ससुत्तो, न नस्सइ गओ वि संसारे ॥४॥ सूची यथा ससूत्रा, न नश्यति कचवरे पतिताऽपि । जीवोऽपि तथा ससूत्रो, न नश्यति गतोऽपि ससारे ॥४॥
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मोक्ष-भार्ग
२४३. धर्मकथा के कथन द्वारा और निर्दोप वाह्य-योग (ग्रीष्म ऋतु
में पर्वत पर खड़े होकर, वर्षा ऋतु मे वृक्ष के नीचे, शीत ऋतु मे नदी के किनारे ध्यान) द्वारा तथा जीवों पर दया व अनुकम्पा के द्वारा धर्म की प्रभावना करनी चाहिए।
२४४. प्रवचन-कुशल, धर्मकथा करनेवाला, वादी, निमित्तशास्त्र का
ज्ञाता, तपस्वी, विद्यासिद्ध तथा ऋद्धि-सिद्धियो का स्वामी और कवि (क्रांतदर्शी) ये आठ पुरुष धर्म-प्रभावक कहे गये हैं।
१९. सम्यग्ज्ञानसूत्र २४५. (साधक) सुनकर ही कल्याण या आत्महित का मार्ग जान
सकता है। सनकर ही पाप या अहित का मार्ग जाना जा सकता है। अत: सुनकर ही हित और अहित दोनों का मार्ग जानकर जो श्रेयस्कर हो उसका आचरण करना चाहिए।
२४६. (और फिर) ज्ञान के आदेश द्वारा सम्यग्दर्शन-मूलक तप,
नियम, संयम मे स्थित होकर कर्म-मल से विशुद्ध (संयमी साधक) जीवनपर्यन्त निष्कम्प (स्थिरचित्त) होकर विहार करता है।
२४७. जैसे-जैसे मुनि अतिशयरस के अतिरेक से युक्त अपूर्वश्रुत का
अवगाहन करता है, वैसे-वैसे नित-नूतन वैराग्ययुक्त श्रद्धा से आह्लादित होता है।
२४८. जैसे धागा पिरोयी हुई सुई कचरे में गिर जाने पर भी खोती
नही है, वैसे ही ससूत्र अर्थात् शास्त्रज्ञानयुक्त जीव संसार मे पड़कर भी नष्ट नही होता।
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समणसुत्तं २४९ सम्मत्तरयणभट्ठा, जाणंता बहुविहाई सत्थाई ।
आराहणाविरहिया, भमंति तत्थेव तत्थेव ॥५॥ सम्यक्त्वरत्न भ्रप्टा, जानन्तो वहविधानि शास्त्राणि ।
आराधनाविरहिता, भ्रमन्ति तत्रैव तत्रैव ।।५।। २५०-२५१. परमाणुमित्तयं पि हु, रायादोणं तु विज्जदे जस्स ।
ण वि सो जाणदि अप्पाणयं तु सव्वागमधरो वि ॥६॥ अप्पाणमयाणंतो, अणप्पयं चावि सो अयाणंतो । कह होदि सम्मदिट्ठी, जीवाजीवे अयाणंतो॥७॥ परमाणुमात्रमपि खलु, रागादीना तु विद्यते यस्य । नापि स जानात्यात्मान, तु सर्वागमधरोऽपि ॥६॥ आत्मानमजानन्, अनात्मान चापि सोऽजानन् ।
कथ भवति सम्यग्दृष्टि-र्जीवाजीवान् अजानन् ॥७॥ २५२. जेण तच्चं विबुझेज्ज, जेण चित्तं णिरुज्झदि ।
जेण अत्ता विसज्झज्ज, तं गाणं जिणसासणे ॥८॥ येन तत्त्व विबुध्यते, येन चित्त निरुध्यते ।
येन आत्मा विशुध्यते, तज् ज्ञान जिनगासने ॥८॥ २५३. जेण रागा विरज्जेज्ज, जेण सेएसु रज्जदि ।
जेण मिती पभावेज्ज, तं णाणं जिणसासणे ॥९॥ येन रागाद्विरज्यते, येन श्रेयस्सु रज्यते ।।
येन मंत्री प्रभाव्यत, तज् ज्ञान जिनशासने ॥९॥ २५४. जो पस्सदि अप्पाणं, अबद्धपुट्ठ अणण्णमविसेसं ।
अपदेससुत्तममं, पस्सदि जिणसासणं सव्वं ॥१०॥ य. पश्यति आत्मान-मबद्धस्पृष्टमनन्यमविशेषम् ।
अपदेशसूत्रमध्यं, पश्यति जिनशासन सर्वम् ॥१०॥ २५५. जो अप्पाणं जाणदि, असुइ-सरीरादु तच्चदो भिन्नं ।
जाणग-रूव-सरूवं, सो सत्थं जाणदे सव्वं ॥११॥ य आत्मान जानाति, अशुचिशरीरात् तत्त्वतः भिन्नम् । ज्ञायकरूपस्वरूप, स शास्त्र जानाति सर्वम् ॥११॥
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मोक्ष-मार्ग
२४९ (किन्तु) सम्यक्त्वरूपी रत्न से शून्य अनेक प्रकार के शास्त्रों
के ज्ञाता व्यक्ति भी आराधनाविहीन होने से ससार में अर्थात् नरकादिक गतियों में भ्रमण करते रहते है।
२५०-२५१ जिस व्यक्ति मे परमाणुभर भी रागादि भाव विद्यमान है,
वह समस्त आगम का ज्ञाता होते हुए भी आत्मा को नही जानता। आत्मा को न जानने से अनात्मा को भी नही जानता। इस तरह जब वह जीव-अजीव तत्त्व को नही जानता, तब वह सम्यग्दृष्टि कैसे हो सकता है ?
२५२. जिससे तत्त्व का ज्ञान होता है, चित्त का निरोध होता है तथा
आत्मा विशुद्ध होती है, उसीको जिनशासन मे ज्ञान कहा गया है।
२५३ जिससे जीव राग-विमुख होता है, श्रेय मे अनुरक्त होता है
और जिससे मैत्रीभाव प्रभावित होता (बढता) है, उसीको जिनशासन मे ज्ञान कहा गया है ।
२५४. जो आत्मा को अबद्धस्पृष्ट (देहकर्मातीत) अनन्य (अन्य से
रहित), अविशेष (विशेष से रहित) तथा आदि-मध्य और अन्तविहीन (निर्विकल्प) देखता है, वही समग्र जिनशासन
को देखता है। २५५. जो आत्मा को इस अपवित्र शरीर से तत्त्वत भिन्न तथा ज्ञायक
भावरूप जानता है, वही समस्त शास्त्रों को जानता है ।
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समणसुत्तं २५६. सुद्धं तु वियाणंतो, सुद्धं चैवप्पयं लहइ जीवो ।
जाणतो दु असुद्धं, असुद्धमेवप्पयं लहइ ॥१२॥ शुद्ध तु विजानन्, शुद्धं चैवात्मानं लभते जीवः । जानंस्त्वशुद्ध-मशुद्धमेवात्मानं
लभते ॥१२॥
२५७. जे अज्झत्थं जाणइ, से बहिया जाणइ ।
जे बहिया जाणइ, से अज्झत्थं जाणइ ॥१३॥ योऽध्यात्म जानाति, स बहिर्जानाति । यो बहिर्जानाति, सोऽध्यात्म जानाति ॥१३॥
२५८. जे एगं जाणइ, से सव्वं जाणइ ।
जे सम्वं जाणइ, से एगं जाणइ ॥१४॥ यः एक जानाति, स सर्व जानाति । यः सर्व जानाति, स एकं जानाति ॥१४॥
२५९. एदम्हि रदो णिच्चं, संतुट्ठो होहि णिच्चमेदम्हि ।
एदेण होहि तित्तो, होहिदि तुह उत्तमं सोक्खं ॥१५॥ एतस्मिन रतो नित्यं, सन्तुष्टो भव नित्यमेतस्मिन । एतेन भव तृप्तो, भविष्यति तवोत्तमं सौख्यम् ॥१५॥
२६०. जो जाणदि अरहंतं, दव्वत्तगुणतपज्जयत्तेहिं ।
सो जाणादि अप्पाणं, मोहो खलु जादि तस्स लयं ॥१६॥ यो जानात्यहन्तं,
द्रव्यत्वगुणत्वपर्ययत्वः । स जानात्यात्मान, मोहः खलु याति तस्य लयम् ॥१६॥
२६१. लणं निहिं एक्को, तस्स फलं अणहवेइ सजणत्ते ।
तह गाणी गाणणिहि, भुंजेइ चइत्तु परतत्ति ॥१७॥ लब्ध्वा निधिमेकस्तस्य फलमनुभवति सुजनत्वेन । तथा ज्ञानी ज्ञाननिधि, भुङक्ते त्यक्त्वा परतृप्तिम् ॥१७॥
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मोक्ष-मार्ग
८५
५५६. जो जीव आत्मा को शुद्ध जानता है वही शुद्ध आत्मा को प्राप्त
करता है और जो आत्मा को अशुद्ध अर्थात् देहादियुक्त जानता है वह अशुद्ध आत्मा को ही प्राप्त होता है ।
२५७. जो अध्यात्म को जानता है वह वाह्य (भौतिक) को जानता है ।
जो वाह्य को जानता है वह अध्यात्म को जानता है। (इस प्रकार वा ह्याभ्यन्तर एक-दूसरे के सहवर्ती है ।)
२५८. जो एक (आत्मा) को जानता है वह सब (जगत् ) को जानता है ।
जो सबको जानता है, वह एक को जानता है ।
२५९. (अतः हे भव्ध ! ) तू इस ज्ञान मे सदा लीन रह । इसीमे
सदा संतुष्ट रह । इसीमे तृप्त हो । इनोगे तुझे उत्तमसुख (परमसुख) प्राप्त होगा।
२६०. जो अर्हन्त भगवान् को द्रव्य-गण-पर्याय की अपेक्षा से (पूर्ण
रूपेण) जानता है, वही आत्मा को जानता है । उसका भोह निश्चय ही विलीन हो जाता है ।
२६१. जैसे कोई व्यक्ति निधि प्राप्त होने पर उसका उपभोग स्वजनो के
बीच करता है, वैसे ही ज्ञानीजन प्राप्त ज्ञान-निधि का उपभाग पर-द्रव्यों से विलग होकर अपने मे ही करता है ।
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२०. सम्यकचारित्रसूत्र (अ) व्यवहारचारित्र २६२. ववहारणयचरित्ते, ववहारणयस्स होदि तवचरणं ।
णिच्छयणयचारित्ते, तवचरणं होदि णिच्छयदो॥१॥ व्यवहारथचरित्रे, व्यवहारनयस्य भवति तपश्चरणम् ।
निश्चयनयचारित्रे, तपश्चरण भवति निश्चयत. ॥१॥ २६३. असहादो विणिवित्ती, सहे पवित्ती य जाण चारित्तं ।
वदसमिदिगुत्तिरूवं, ववहारणया दु जिणभणियं ॥२॥ अशुभाद्विनिवृत्ति , शुभे प्रवृत्तिश्च जानीहि चारित्रम् ।
व्रतसमितिगुप्तिरूप, व्यवहारनयात् तु जिनभणितम् ।।२।। २६४. सुयनाणम्मि वि जीवो, वट्टतो सो न पाउणति मोक्खं ।
जो तवसंजममइए, जोगे न चएइ वोढुं जे ॥३॥ श्रुतज्ञानेऽपि जीवो, वर्तमान स न प्राप्नोति मोक्षम् ।
यस्तपः सयममयान्, योगान् न शक्नोति वोढुम् ॥३॥ २६५. सक्किरियाविरहातो, इच्छितसंपावयं ण नाणं ति ।
मग्गण्णू वाऽचेट्ठो, वातविहीणोऽधवा पोतो॥४॥ सत्क्रियाविरहात् ईप्सित संप्रापकं न ज्ञानमिति ।
मार्गज्ञो वाऽचेप्टो, वातविहीनोऽथवा पोत ॥४॥ २६६. सुबहुं पि सुयमहीयं कि काहिइ चरणविप्पहीणस्स ।
अंधस्स जह पलिता, दीवसयसहस्सकोडी वि॥५॥ सुबह्वपि श्रुतमधीत, कि करिष्यति चरणविप्रहीणस्य ।
अन्धस्य यथा प्रदीप्ता, दीपशतसहस्रकोटिरपि ॥५॥ २६७. थोवम्मि सिक्खिदे जिणइ, बहुसुदं जो चरित्तसंपुण्णो ।
जो पुण चरित्तहीणो, किं तस्स सुदेण बहुएण ॥६॥ स्तोके शिक्षिते जयति, बहुश्रुतं यश्चारित्रसम्पूर्णः । यः पुनश्चारित्रहीन', कि तस्य श्रुतेन बहुकेन ॥६॥
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२०. सम्यक्चारित्रसूत्र (अ) व्यवहारचारित्र २६२ व्यवहारनय के चारित्र मे व्यवहारनय का तपश्चरण होता है।
निश्चयनय के चारित्र मे निश्चयरूप तपश्चरण होता है ।
२६३. अशुभ से निवृत्ति और शुभ मे प्रवृत्ति ही व्यवहारचारित्र है,
जो पाँच व्रत, पाँच समिति व तीन गुप्ति के रूप में जिनदेव द्वारा प्ररूपित है। [इस तेरह प्रकार के चारित्र का कथन
आगे यथास्थान किया गया है ।] २६४ श्रतज्ञान में निमग्न जीव भी यदि तप-सयमरूप योग को धारण
करने में असमर्थ हो तो मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकता।
२६५ (शास्त्र द्वारा मोक्षमार्ग को जान लेने पर भी) सत्क्रिया से
रहित ज्ञान इप्ट लक्ष्य प्राप्त नहीं करा सकता। जैसे मार्ग का जानकार पुरुष इच्छित देश की प्राप्ति के लिए समुचित प्रयत्न न करे तो वह गन्तव्य तक नही पहुँच सकता अथवा अनुकल वायु की प्रेरणा के अभाव में जलयान इच्छित स्थान तक नही
पहुँच सकता। २६६ चारित्रशून्य पुरुष का विपुल शास्त्राध्ययन भी व्यर्थ ही है,
जैसे कि अन्धे के आगे लाखो-करोड़ो दीपक जलाना व्यर्थ है।
२६७. चारित्रसम्पन्न का अल्पतम ज्ञान भी बहुत है और चारित्र
विहीन का बहुत श्रुतज्ञान भी निष्फल है ।
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समणसुत्तं
(आ) निश्चयचारित्र २६८. णिच्छयणयस्स एवं, अप्पा अप्पम्मि अप्पणे सुरदो।
सो होदि ह सुचरित्तो, जोई सो लहइ णिव्वाणं ॥७॥ निश्चयनय.4 एव, आत्मा आत्मनि आत्मने सुरतः । स. भवति खल सुचरित्र., योगी सः लभते निर्वाणम् ॥७॥
२६९. जं जाणिऊण जोई, परिहारं कुणइ पुण्णपावाणं
तं चारित्तं भणियं, अवियप्पं कम्मरहिएहि ॥८॥ यद् ज्ञात्वा योगी, परिहारं करोति पुण्यपापानाम् । तत् चारित्र भणितम्, अविकल्पं कर्म रहितः ।।८।।
२७०. जो परदव्वम्मि सहं, असहं रागेण कुणदि जदि भावं ।
सो सगचरित्तभट्ठो, परचरियचरो हवदि जीवो ॥९॥ यः परद्रव्ये शुभमशुभं, रागण करोति यदि भावम् । स स्वकचरित्रभ्रष्टः, परचरितचरो भवति जीवः ॥९॥
२७१. जो सव्वसंगमुक्कोऽणण्णमणो अप्पणं सहावेण ।
जाणदि पस्सदि णियद, सो सगचरियं चरदि जीवो ॥१०॥ य. सर्वसगमुक्त , अनन्यमना. आत्मानं स्वभावेन । जानाति पश्यति नियतं, स. स्वकचरितं चरति जीवः ॥१०॥
२७२. परमम्हि दु अठिदो, जो कुणदि तवं वदं च धारेई ।
तं सव्वं बालतवं, बालवदं बिति सव्वण्ह ॥११॥ परमार्थे त्वस्थितः, यः करोति तपो व्रत च धारयति । तत् सर्व बालतपो, बालव्रतं ब्रुवन्ति सर्वज्ञाः ॥११॥
२७३. मासे मासे तु जो बालो, कुसग्गेणं तु भुंजए ।
न सो सुक्खायधम्मस्स, कलं अग्घइ सोलसि ॥१२॥ मासे मासे तु यो बाल:, कुशाग्रेण तु भुक्ते । न स स्वाख्यातधर्मस्य, कलामति षोडशीम् ॥१२॥
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मोक्ष-मार्ग
(आ) निश्चय चारित्र २६८. नियनय के अभिप्रायानुसार आत्मा का आत्मा में आत्मा के
लिए तन्मय होना ही (निश्चय-) सम्यक्चारित्र है। ऐसे चारियशील योगी को ही निर्वाण की प्राप्ति होती है ।
२६१. जिसे जानकर योगी पाप व पुण्य दोनों का परिहार कर देता है,
उसे ही कर्मरहित निर्विकल्प चारित्र कहा गया है ।
२७०. जो राम के वशीभूत होकर पर-द्रव्यों में शुभाशुभ भाव करता है
वह जीव स्वकीय चारित्र से भ्रष्ट परचरिताचारी होता है।
२७१. जो परिग्रह-मुक्त तथा अनन्य मन होकर आत्मा को ज्ञानदर्शन
मय स्वभावरूप जानता-देखता है, वह जीव स्वकीयचरिताचारी है।
२७२. जो (इस प्रकार के) परमार्थ में स्थित नही है, उसके तपश्चरण
या व्रताचरण आदि सबको सर्वज्ञदेव ने वालपन और बालवत कहा है।
२७३. जो बाल (परमार्थशून्य अज्ञानी) महीने-महीने के तप करता है
और (पारणा मे) कुश के अग्रभाव जितना (नाममात्र का) भोजन करता है, वह सुआख्यात धर्म की सोलहवी कला को भी नही पा सकता।
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समणसुतं
२७४. चारितं खलु धम्मो, धम्मो जो सो समोति णिद्दिट्ठो । मोहक्खहविहोणो, परिणामो अप्पणो हु समो ॥ १३॥ चारित्र खलु धर्मो, धर्मो य. स सम इति निर्दिष्ट । मोक्षोभविहीनः परिणाम आत्मनो हि सम. ॥१३॥ २७५. समदा तह मज्झत्थं, सुद्धो भावो य वीयरायतं । तह चारितं धम्मो, सहावआराहणा भणिया ॥ १४ ॥ समता तथा माध्यस्थ्य, शुद्धो भावश्च वीतरागत्वम् । तथा चारित्र धर्म, स्वभावाराधना भणिता ॥ १४ ॥
श्रमण
समसुख दुखो, भणित'
२७६. सुविदिदपयत्थसुत्तो, संजमतवसंजुदो विगदरागो । समणो समसुहदुक्खो, भणिदो सुद्धोवओओ ति ॥ १५ ॥ सुविदितपदार्थसूत्र, समता मयुतो विगतराग । शुद्धोपयोग इति ॥ १५ ॥ २७७. सुद्धस्स य सामण्णं, भणियं सुद्धस्स दंसणं णाणं । सुद्धस्स य णिव्वाणं, सो च्चिय सिद्धो णमो तस्स ॥ १६ ॥ शुद्धस्स च श्रामण्य, भणित शुद्धस्य दर्शन ज्ञानम् । शुद्धस्य च निर्वाण, स एव सिद्धो नमस्तस्मै ॥ १६ ॥ २७८. अइसयमादसमुत्थं, विसयातीदं अणोवमतं । अवच्छिन्नं च सहं, सुद्धुवओगप्पसिद्धाणं ॥ १७ ॥ अतिशय मात्मसमुत्थं, विषयातीतमनुपममनन्तम् । अव्युच्छिन्न
च सुख, शुद्धोपयोगप्रसिद्धानाम् ॥ १७ ॥ २७९. जस्स ण विज्जदि रागो, दोसो मोहो व सव्वदव्वेसु णाssसवदि सुहं असुहं, समसुहदुक्खस्स भिक्खुस्स ॥१८॥ यस्य न विद्यते रागो, द्वेषो मोहो वा सर्वद्रव्येषु । नाऽऽस्रवति शुभमशुभं, समसुखदुःखस्य भिक्षोः ॥ १८ ॥
(इ) समन्वय
२८०. णिच्छय सज्झसरूवं, सराय तस्सेव साहणं चरणं । तम्हा दो वि य कमसो, पडिच्छमाणं पबुज्झेह ॥ १९ ॥ निश्चयः साध्यस्वरूप, सरागं तस्यैव साधनं चरणम् । तस्मात् द्वे अपि च क्रमश, प्रतीष्यमाणं प्रबुध्यध्वम् ।। १९ ॥
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मोक्ष-मार्ग
२७४ वास्तव मे चारित्र ही धर्म है। इस धर्म को शमरूप कहा गया
है। मोह व क्षोभ मे रहित आत्मा का निर्मल परिणाम ही शम या समतारूप है।
२७५. समता, माध्यस्थभाव, शुद्धभाव, वोतरागता, चारित्र, धर्म
और स्व-भाव-आराधना--ये सव दाब्द एकार्थक है ।
२७६ जिसने (स्व-द्रव्य व पर-द्रव्य के भेदज्ञान के श्रद्धान तथा
आचरण द्वारा) पदार्थों तथा सूत्रो को भलीभाँति जान लिया है, जो संयन और तप से युक्त है, विगतराग है, सुख-दुःख मे
समभाव रखता है, उसी श्रमण को शुद्धोपयोगी कहा जाता है। २७७ (ऐसे) शुद्धोपयोग को ही श्रामण्य कहा गया है। उसीका
दर्शन और ज्ञान कहा गया है। उसीका निर्वाण होता है। वही सिद्धपद प्राप्त करता है। उसे मै नमन करता हूँ।
२७८ शुद्धोपयोग से सिद्ध होनेवाली आत्माओ को अतिशय, आत्मो
त्पन्न, विषयातीत अर्थात् अतीन्द्रिय, अनुपम, अनन्त और अविनाशी सुख (प्राप्त) है ।
२७९ जिसका समस्त द्रव्यो के प्रति राग, द्वेष और मोह नही है तथा
जो सुख-दुख मे समभाव रखता है, उस भिक्षु के शुभाशुभ कर्मो का आस्रव नही होता ।
(इ) समन्वय २८०. निश्चयचारित्र तो साध्य-रूप है तथा सराग (व्यवहार)
चारित्र उसका साधन है । साधन तथा साध्यस्वरूप दोनों चारित्र को क्रमपूर्वक धारण करने पर जीव प्रबोध को प्राप्त होता है ।
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समणसुतं २८१. अभंतरसोधीए, बाहिरसोधी वि होदि गियमेण ।
अभंतर-दोसेण हु, कुदि णरो बाहिर दोसे ॥२०॥ अभ्यन्तरशुद्ध्या. बाह्यशुद्धिरपि भवति नियमेन ।
अभ्यन्तरदोपेण हि, करोति नर. बाह्यान् दोषान् ॥२०॥ २८२ मदमाणमायलोह-विवज्जियभावो दु भावसुद्धि त्ति ।
परिकहियं भव्वाणं, लोयालोयप्पदरिसीहिं ॥२॥ मदमानमायालोभ-विवजितभावस्तु भावशुद्धिरिति ।
परिकथितं भव्यानां, लोकालोकप्रशिभिः ॥२१॥ २८३. चत्ता पावारंभ, समुट्टिदो वा सुहम्मि चरियम्हि ।
ण जहदि जदि मोहादी, ण लहदि सो अप्पगं सुद्धं ॥२२॥ त्यक्त्वा पापारम्भं, रामस्थितो वा शुभे चरिते ।
न जहाति यदि मोहादीन् न लभते स आत्मक शुद्धम् ॥२२॥ २८४. जह व णिरुद्धं असुहं, सुहेण सुहमवि तहेव सुद्धेण ।
तम्हा एण कमेण य, जोई झाएउ णियआदं ॥२३॥ यथैव निरुद्धम् अशुभ, शुभेन शुभमपि तथैव शुद्धेन ।
तस्मादनेन क्रमेण च, योगी ध्यायतु निजात्मानम् ॥२३॥ २८५० निच्छयनयस्स चरणाय-विघाए नाणदंसणवहोऽवि ।
ववहारस्म उ चरणे, हयम्मि भयणा हु सेसाणं ॥२४॥ निश्च यनयस्य चरणात्म-विधाते ज्ञानदर्शनवधोऽपि ।
व्यवहारस्य तु चरणे, हते भजना खलु शेषयोः ॥२४॥ २८६-२८७. सद्धं नगरं किच्चा, तवसंवरमग्गलं ।
न्ति निउणपागारं, तिगुत्तं दुप्पघंसयं ॥२५॥ तवनारायजुत्तेण, भित्तूणं कम्मकंचुयं । मुणी विगयसंगामो, भवाओ परिमुच्चए ॥२६॥ श्रद्धां नगर कृत्वा, तप.संवरमर्गलाम् ।
आन्ति निपुणप्राकार, त्रिगुप्त दुष्प्रधर्षकम् ।।२५।। लपोनारान्तयुक्तेन, भित्वा कर्मकञ्चकम् । मुनिर्विगतसग्रामः, भवात् परिमुच्यते ॥२६॥
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मोक्ष-मार्ग
२८१. आभ्यन्तर-शुद्धि होने पर बाह्य-शुद्धि भी नियमतः होती ही है ।
आभ्यन्तर-दोप से ही मनुष्य बाह्य दोष करता है ।
२८२. मद. मान, माया आर लोभ से रहित भाव ही भावशुद्धि है,
ऐसा लोकालोक के ज्ञाता-द्रप्टा सर्वज्ञदेव का भव्यजीवों के लिए उपदेश है।
२८३. पाप-आरम्भ (प्रवृत्ति) को त्यागकर शुभ अर्थात् व्यवहार
चारित्र मे आरूढ रहने पर भी यदि जीव मोहादि भावों से मुक्त नही होता है तो वह शुद्ध आत्मा को प्राप्त नही करता।
२८४. (इसीलिए कहा गया है कि) जैसे शुभ चारित्र के द्वारा अशुभ
(प्रवृत्ति) का निरोध किया जाता है, वैसे ही शुद्ध (-उपयोग) के द्वारा शुभ (प्रवृत्ति) का निरोध किया जाता है। अतएव इसी क्रम से--व्यवहार और निश्चय के पूर्वापर क्रम से-- योगी आत्मा का ध्यान करे।
निश्चयनय के अनुसार चारित्र (भावशुद्धि) का घात होने पर ज्ञान-दर्शन का भी धात हो जाता है, परन्तु व्यवहारनय के अनुसार चारित्र का घात होने पर ज्ञान-दर्शन का घात हो भी सकता है, नही भी हो सकता । (वस्तुतः ज्ञान-दर्शन की व्याप्ति भावशुद्धि के साथ है, बाह्य-क्रिया के साथ नही।)
२८६-२८७. श्रद्धा को नगर, तप और संवर को अर्गला, क्षमा को (बुर्ज,
खाई और शतघ्नीस्वरूप) त्रिगुप्ति (मन-वचन-काय) से सुरक्षित तथा अजेय सुदृढ प्राकार बनाकर तपरूप वाणी से यक्त धनुष से कर्म-कवच को भेदकर (आंतरिक) संग्राम का विजेता मुनि संसार से मुक्त होता है।
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२१. साधनासूत्र
२८८. आहारासण- णिद्दाजयं, च काऊण णियअप्पा, णाऊणं
झायव्वो
निजात्मा,
२८९. नाणस्स सव्वस्स पगासणाए, अण्णाणमोहस्स विवज्जणाए । रागस्स दोसस्स य संखएणं, एगंतसोक्खं समुवेइ मोक्खं ॥ २ ॥ ज्ञानस्य सर्वस्य प्रकाशनया, अज्ञानमोहस्य विवर्जनया । रागस्य द्वेषस्य च नक्षयेण, एकान्तसौख्य समुपैति मोक्षम् ॥२॥
आहारासन-निद्राजय,
ध्यातव्य
च
कृत्वा
ज्ञात्वा
९४
२९०. तस्सेस मग्गो गुरुविद्धसेवा, विवज्जणा बालजणस्स द्वरा ।
सज्झायएगंतनिवेसणा य, सुत्तत्थ संचितणया धिई य ॥३॥ तस्यैष मार्गो गुरुवृद्धसेवा, विवर्जना बालजनस्य दूरात् । स्वाध्यायैकान्तनिवेशना च, मूत्रार्थसचिन्तनता धृतिश्च ॥ ३ ॥
जिणवरमण |
२९१. आहारमिच्छे मियमेसणिज्जं, सहायमिच्छे निउणत्थबुद्धि । निकेयमिच्छेज्ज विवेगजोगं समाहिकामे समणे तवस्सी ॥४॥ आहारमिच्छेद् मितमेषणीय, मखायमिच्छेद् निपुणार्थबुद्धिम् । निकेतमिच्छेद् विवेकयोग्य, समाधिकाम श्रमणस्तपस्वी ॥४॥
गुरुपसाएण ॥ १ ॥ जिनवर मतेन }
गुरुप्रसादेन ॥१॥
नरा 1
२९२. हियाहारा मियाहारा, अप्पाहारा य जे नरा । न ते विज्जा तिगिच्छंति, अप्पाणं ते तिमिच्छ्गा ॥ ५ ॥ हिताहारा मिताहारा अल्पाहारा च ये न तान् वैद्या: चिकित्सन्ति आत्मान ते चिकित्सका. ॥५॥ २९३. रसा पगामं न निसेवियव्वा, पायं रसा दित्तिकरा नराणं । दित्तं च कामा समभिद्दवंति, दुमं जहा साउफलं व पक्खी ॥६॥ रसा प्रकाम न निषेवितव्या, प्रायो रसा दीप्तिकरा नराणाम् । दीप्त च कामाः समभिद्रवन्ति, द्रुमं यथा स्वादुफलमिव पक्षिणः ॥ ६ ॥
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२१. साधनासूत्र २८८. जिनदेव के मतानुसार आहार, आसन तथा निद्रा पर विजय
प्राप्त करके गुरुप्रसाद से ज्ञान प्राप्त कर निजात्मा का ध्यान करना चाहिए।
२८१ सम्पूर्णज्ञान के प्रकाशन से, अज्ञान और मोह के परिहार से तथा
राग-द्वेष के पूर्णक्षय से जीव एकान्त सुख अर्थात् मोक्ष प्राप्त करता है।
२९०. गुरु तथा वृद्ध-जनों की सेवा करना, अज्ञानी लोगों के सम्पर्क से
दूर रहना, स्वाध्याय करना, एकान्तवास करना, सूत्र और अर्थ का सम्यक् चिन्तन करना तथा धैर्य रखना--ये (दु.खों से
मुक्ति के) उपाय है। २९१. समाधि का अभिलापी तपस्वी श्रमण परिमित तथा एषणीय
आहार की ही इच्छा करे, तत्त्वार्थ में निपुण (प्राज्ञ) साथी को ही चाहे तथा विवेकयुक्त अर्थात् विविक्त (एकान्त) स्थान में ही निवास करे।
२९२ जो मनुष्य हित-मित तथा अल्प आहार करते है, उन्हे कभी
वैद्य से चिकित्सा कराने की आवश्यकता ही नहीं पड़ती। वे तो स्वय अपने चिकित्सक होते है। अपनी अन्तशुद्धि में लगे रहते है।
२९३. रसो का अत्यधिक सेवन नही करना चाहिए। रम प्रायः
उन्मादवर्धक होते हैं--पुष्टिवर्धक होते है। मदाविष्ट सा विषयासक्त मनुष्य को काम वैसे ही सताता या उत्पीडित करता है जैसे स्वादिष्ट फलवाले वृक्ष को पक्षी ।
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समणसुत्तं २९४. विवित्तसेज्जाऽऽसणजंतियाणं, ओमाऽसणाणं दमिइंदियाणं ।
न रागसत्तू धरिसेइ चित्तं, पराइओ वाहिरिवोसहेहिं ॥७॥ विविक्तशय्याऽसनयन्त्रितानाम्, अवमोशनाना दमितेन्द्रियाणाम् ।
न रागशत्रुर्धर्षयति चित्तं, पराजितो व्याधिरिवौषधैः ।।७।। २९५ जरा जाव न पीलेइ, वाही जाव न बढई ।
जाविदिया न हायंति, ताव धम्म समायरे ॥८॥ जरा यावत् न पीडयति, व्याधिः यावत् न वर्द्धते । यावदिन्द्रियाणि न हीयन्ते, तावत् धर्म समाचरेत् ॥८॥
२२. द्विविध धर्मसूत्र २९६. दो चेव जिणवरेहि, जाइजरामरणविप्पमुहि ।
लोगम्मि पहा भणिया, सुस्समण सुसावगो वा वि ॥१॥ द्वौ चैव जिनवरेन्द्र, जातिजरामरण विप्रमवतैः ।
लोके पथौ भणितो, सुश्रमण सुश्रावकः चापि ॥१॥ २९७. दाणं पूया मुक्खं, सावयधम्म ण सावया तेण विणा ।
झाणाज्झयणं मुक्खं, जइधम्म तं विणा तहा सो वि॥२॥ दान पूजा मुख्यः, श्रावकधर्म न श्रावका तेन विना ।।
ध्यानाध्ययन मुस्यो, यतिधर्मे त बिना तथा सोऽपि ।।२।। २९८. सन्ति एगेहिं भिक्खूहि. गारत्था संजमुत्तरा ।
गारत्थेहि य सवेहि, साहवो संजमुत्तरा ॥३॥ सन्त्यकेश्यो भिक्षुभ्य , अगारस्था सयमोत्तरा. । अगारस्थेभ्यश्च सर्वेभ्य , साधव. सयमोत्तराः ।।३।। नो खलु अहं तहा, संचाएमि मुंडे जाव पव्वइत्तए । अहं णं देवाणुप्पियाणं, अंतिए पंचाणुबइयं सत्तसिक्खावइय दुवालसविहं गिहिधम्म पडिवज्जिस्सामि ॥४॥ नो खल्वहं तथा संशक्नोमि मुण्डो यावत् प्रवजितुम् । अहं खलु देवानुप्रियाणाम् अन्तिके पञ्चानुवतिकम् सप्तशिक्षावतिक द्वादश विधम् गृहिधर्म प्रतिपत्स्य ।।४।।
२९९.
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मोक्ष-मार्ग
२९४. जो विविवत ( स्त्री आदि से रहित ) शय्यासन से नियंत्रित ( युक्त ) है, अल्प - आहारी है और दमितेन्द्रिय है, उसके चित्त को राग-द्वेषरूपी विकार पराजित नही कर सकते, जैसे औषधि से पराजित या विनष्ट व्याधि पुन. नहीं सताती ।
२९५. जब तक बुढापा नही सताता, जब तक व्याधियाँ (रोगादि ) नही बढती और इन्द्रियाँ अशक्त ( अक्षम ) नही हो जाती, तब तक ( यथाशक्ति ) धर्माचरण कर लेना चाहिए । ( क्योंकि बाद मे अशक्त एवं असमर्थ देहेन्द्रियों से धर्माचरण नही हो सकेगा 1 )
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२२. द्विविध धर्मसूत्र
२९६. जन्म-जरा-मरण से मुक्त जिनेन्द्रदेव ने इस लोक मे दो ही मार्ग बतलाये है- - एक है उत्तम श्रमणों का और दूसरा है उत्तम श्रावकों का ।
―――
२९७. श्रावक-धर्म मे दान और पूजा मुख्य है जिनके बिना श्रावक नही होता तथा श्रमण-धर्म मे ध्यान व अध्ययन मुख्य है, जिनके बिना श्रमण नही होता ।
२९८. यद्यपि शुद्धाचारी साधुजन सभी गृहस्थों से संयम मे श्रेष्ठ होते है, तथापि कुछ ( शिथिलाचारी ) भिक्षुओं की अपेक्षा गृहस्थ सयम मे श्रेष्ठ होते है ।
२९९. जो व्यक्ति मुण्डित ( प्रव्रजित ) होकर अनगारधर्म स्वीकार करने में असमर्थ होता है, वह जिनेन्द्रदेव द्वारा प्ररूपित श्रावकधर्म को अगीकार करता है ।
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समणसुत्तं ३००. पंच य अणुव्वयाई, सत्त उ सिक्खा उ देसजइधम्मो ।
सव्वेण व देसेण व, तेण जुओ होइ देसजई ॥५॥ पञ्च च अणुव्रतानि, सप्त तु शिक्षाः देशयतिधर्मः । सर्वण वा देशेन वा, तेन युतो भवति देशयति ।।५।।
२३. श्रावकधर्मसूत्र ३०१. संपत्तदसणाई, पइदियह जइजणा सुणेई य ।
सामायारि परमं जो, खलु तं सावगं बिति ॥१॥ संप्राप्तदर्शनादिः, प्रतिदिवसं यतिजनाच्छृणोति च । सामाचारी परमा य, खलु त श्रावकं ब्रुवते ॥१॥
३०२. पंचुंवरसहियाई, सत्त वि विसणाई जो विवज्जेइ ।
सम्मत्तविसुद्धमई, सो सणसावओ भणिओ ॥२॥ पञ्चोदुम्बरसहितानि सप्त अपि व्यसनानि य. विवर्जयति । सम्यक्त्वविशुद्धमतिः स दर्शनश्रावक भणितः ॥२॥
३०३. इत्थी जूयं मज्जं, मिगव्व वयणे तहा फरुसया य ।
दंडफरुसत्तमत्थस्स दूसणं सत्त वसणाई ॥३॥ स्त्री द्यूत मद्य, मृगया वचने तथा परुषता च । दण्डपरुषत्वम् अर्थस्य दूषण सप्त व्यसनानि ॥३॥
३०४. मांसासणेण वड्ढइ दप्पो दप्पेण मज्जमहिलसइ ।
जूयं पि रमइ तो तं, पि वण्णिए पाउणइ दोसे ॥४॥ मासाशनेन वर्धते दर्प. दर्पण मद्यम् अभिलपति ।। द्यूतम् अपि रमते तत. तद् अपि वर्णितान् प्राप्नोति दोषान् ॥४॥
३०५. लोइयसत्थम्मि वि, वण्णियं जहा गयणगामिणो विप्पा ।
भुवि मंसासणेण पडिया, तम्हा ण पउंजए मंसं ॥५॥ लौकिकशास्त्रे अपि वर्णितम् यथा गगनगामिन. विप्राः । भुवि मासाशनेन पतिताः तस्माद् न प्रयोजयेद् मासम् ॥५॥
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मोक्ष-मार्ग
३००. श्रावकधर्म या श्रावकाचार में पाँच व्रत तथा सात शिक्षाव्रत
होते है। जो व्यक्ति इन सबका या इनम से कुछ का आचरण करता है, वह श्रावक कहलाता है।
२३. श्रावकधर्मसूत्र ३०१. जो सम्यग्दृ प्टि व्यक्ति प्रतिदिन यतिजनों से परम सामाचारी
(आचार-विपयक उपदेश) श्रवण करता है, उसे श्रावक कहते है ।
३०२ जिसकी मति सम्यग्दर्शन से विशुद्ध हो गयी है वह व्यक्ति
पाँच उदुम्बर फल (उमर, कठूमर, गूलर, पीपल तथा बड़) के साथ-साथ सात व्यसनों का त्याग करने से दार्शनिक श्रावक कहा जाता है ।
३०३. परस्त्री का सहवास, द्यूत-क्रीडा, मद्य, शिकार, वचन-परुषता,
कठोर दण्ड तथा अर्थ-दूपण (चोरी आदि) ये सात व्यसन हैं।
३०४ मासाहार से दर्प बढता है। दर्प से मनुष्य मे मद्यपान की अभि
लाषा जागती है और तब वह जुआ भी खेलता है। इस प्रकार (एक मासाहार से ही) मनुष्य उक्त वणित सर्व दोषों को प्राप्त हो जाता है।
३०५. लौकिक शास्त्र में भी यह उल्लेख मिलता है कि मांस खाने से
आकाश मे विहार करनेवाला विप्र भूमि पर गिर पड़ा, अर्थात् पतित हो गया। अतएव मांस का सेवन (कदापि) नही करना चाहिए।
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समणसुत्तं ३०६. मज्जेण गरो अवसो, कुणेइ कम्माणि णिदणिज्जाई ।
इहलोए परलोए, अणुहवइ अणंतयं दुवखं ॥६॥ मंद्येन नरः अवश. करोति कर्माणि निन्दनीयानि ।
इहलोके परलोके अनुभवति अनन्तकं दुखम् ॥६॥ ३०७. संवेगजणिदकरणा, णिस्सल्ला मंदरो व्व णिवकंपा ।
जस्स दढा जिणभत्ती, तस्म भयं णस्थि संसारे ॥७॥ संवेगजनितकरणा, नि.शल्या मन्दर इव निकम्पा ।
यस्य दृढा जिनभवित, तस्य भयं नास्ति संसारे ॥७॥ ३०८. सत्त वि मित्तभावं, जम्हा उवयाइ विणयसीलस्स ।
विणओ तिविहेण तओ, कायवो देसविरएण ॥८॥ शत्र अपि मित्रभावम् यस्माद् उपयाति विनयशीलस्य ।
विनयः त्रिविधेन ततः कर्त्तव्यः देशविरतेन ॥८॥ ३०९. पाणिवहमुसावाए, अदत्तपरदारनियमणेहिं च ।
अपरिमिइच्छाओऽवि य, अणुव्वयाई विरमणाई ॥९॥ प्राणिवधमृषावादा-दत्तपरदारनियमनैश्च
अपरिमितेच्छातोऽपि च, अणुव्रतानि विरमणानि ॥९॥ ३१०. बंधवहच्छविच्छेए, अइभारे भत्तपाणवुच्छेए ।
कोहाइसियमणो, गोमणुयाईण नो कुज्जा ॥१०॥ बन्धवधछविच्छेदान्, अतिभारान् भवतपानव्युच्छेदान् ।
क्रोधादिदूषितमनाः, गोमनुष्यादीना न कुर्यात् ॥१०॥ ३११. थूलमुसावायस्स उ, विरई दुच्चं, स पंचहा होइ ।
कन्नागोभु आल्लिय - नासहरण - कूडसक्खिज्जे ॥११॥ स्थूलमृषावादस्य तु, विरति. द्वितीय स पचधा भवति ।
कन्यागोभूअलीक - न्यासहरण - कूटसाक्ष्याणि ॥११॥ ३१२. सहसा अब्भवखाणं, रहसा य सदारमंतभेयं च ।
मोसोवएसयं, कूडलेहकरणं च वज्जिज्जा ॥१२|| सहसाभ्याख्यानं, रहसा च स्वदारमन्त्रभेदं च । मृषोपदेशं कूटलेखकरण च वर्जयेत् ॥१२॥
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१०१
है।
मोक्ष-मार्ग २०६ (माम की तरह) मद्यपान से भी मनुप्य मदहोश होकर निन्द
नीय कर्म करता है और फलस्वरूप उग लोक लथा परलोक में
अनन्त दुखो का अनुभव करता है । २०. जिसके हृदय में पसार प्रति वैराग्य उत्पन्न करने वाली, शल्य
रहित तथा मेम्बत् निाकमा और दृढ जिन-भक्ति है, उसे ससार
म किसी तरह का भग नहीं है। ३०८ शत्रु भी विनयशील आक्ति का भित्र वन जाता है। इसलिए
देशविग्न या अणुवती श्रावक को मन-वचन-काय मे सम्यक्त्वादि
गुणो की तथा गणीजनो नी धिनय करना चाहिए। ३०९ प्राणि-बध (हिमा), मृपाबाद (अमत्य चन), बिना दी हुई
वस्तु का गहण (चोरी), परस्त्री-गेवन (कुगील) तथा अपरिमित कामना (परिग्रह) इन पाचो पापो से बिरति
अणुव्रत है। ३१० प्राणिवध से विरत श्रावक को-क्रोधादि कपायों से मन को दूषित
करके पशु व मनुप्य आदि का बन्धन, डडे आदि से ताडन-पीड़न, नाक आदि का छेदन, शक्ति से अधिक भार लादना तथा खानपान रोकना आदि कर्म नहीं करने चाहिए। (क्योंकि ये कर्म भी
हिसा जैसे ही है। इनका त्याग स्थूल हिसा-विरति है।) ३११ स्थूल (मोटे तौर पर) असत्य-विरति दूसरा अणुव्रत है।
(हिसा की तरह) इनके भी पाँच भेद है--कन्या-अलीक, गो-अलीक व भू-अलोक अर्थात् कन्या, गो (पश) तथा भूमि के विषय मे झूठ बोलना, किसीकी धरोहर को दवा लेना और
झूठी गवाही देना। (इनका त्याग स्थूल असत्य-विरति है।) ३१२. (साथ ही साथ) सत्य-अणुव्रती बिना सोचे-समझे सहमा न
तो कोई बात करता है, न किसीका रहस्योद्घाटन करता है, न अपनी पत्नी की कोई गुप्त बात मित्रों आदि में प्रकट करता है, न मिथ्या (अहितकारी) उपदेश करता है और न कूटलेखक्रिया (जाली हस्ताक्षर या जाली दस्तावेज आदि) करता है।
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१०२
समणसुत्तं ३१३. वज्जिज्जा तेनाहड - तक्करजोगं विरुद्धरज्जं च ।
कूडतुलकूडमाणं, तप्पडिरूवं च ववहारं ॥१३॥ वर्जयेत् स्तेनाहृत, तस्करयोग विरुद्ध राज्य च ।
कूटतुलाकूट माने, तत्प्रतिरूप च व्यवहारम् ॥१३॥ ३१४. इत्तरियपरिग्गहिया-ऽपरिगहियागमणा-णंगकीडं च ।
परविवाहक्करणं,* कामे तिव्वाभिलासं च ॥१४॥ इत्वरपरिगृहीता-परिगृहीतागमना-नङ्गक्रीडा च ।
पर (द्वितीय) विवाहकरणं, काम तीव्राभिलाष च ।।१४।। ३१५-३१६. विरया परिग्गहाओ, अपरिमिआओ अणंततण्हाओ । बहुदोससंकुलाओ,
नरयगइगमणपंथाओ॥१५॥ खित्ताइ हिरण्णाई धणाइ दुपयाइ - कुवियगस्स तहा । सम्मं विसुद्धचित्तो, न पमाणाइक्कम कुज्जा ॥१६॥ विरताः परिग्रहात्-अपरिमिताद्-अनन्ततृष्णात् । वहुदोषसकुलात्,
नरकगतिगमनपथात् ॥१५॥ क्षेत्रादे. हिरण्यादे. धनादे द्विपदादे. कुप्यकस्य तथा
सम्यविशुद्धचित्तो, न प्रमाणातिक्रम कुर्यात् ॥१६॥ ३१७. भाविज्ज य संतोस, गहियमियाणिं अजाणमाणेणं ।
थोवं पुणो नं एवं, गिहिणस्सामो त्ति चितिज्जा ॥१७॥ भावयेच्च सन्तोष, गृहीतमिदानीमजानानेन ।
स्तोकं पुनः न एव, ग्रहीप्याम इति चिन्तयेत् ॥१७॥ ३१८. जं च दिसावेरमणं, अणत्थदंडाउ जं च वेरमणं ।
देसावगासियं पि य, गुणव्वयाइं भवे ताई ॥१८॥ यच्च दिग्विरमण, अनर्थदण्डात् यच्च विरमणम् । देशावकाशिकमपि च, गुणव्रतानि भवेयुस्तानि ॥१८॥
*परो अन्नो जो विवाहो अप्पणो चेव स पर विवाहो । कि भणिय होइ ? भण्णइ. विसिट्ठसतोसाभावाओ अप्पणा अन्नाओ कन्नओ परिणेइ ति । पुण अइयार सदारसतुट्ठस्स होइ ॥-सावयधम्म पचासक चूर्णि, ७६ ।
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१०३
मोक्ष-मार्ग ३१३ अचौर्याण व्रती श्रावक को न चोरी का माल खरीदना चाहिए
न चोरी में प्रेरक बनना चाहिए। न ही राज्य-विरुद्ध अर्थात् कर आदि की चोरी व नियम-विरुद्ध कोई कार्य करना चाहिए। वस्तुओ में मिलावट आदि नही करना चाहिए। जाली मित्रके
या नोट आदि नही चलाना चाहिए। ३१४ स्व-स्त्री मे सन्तुष्ट ब्रह्मचर्याणुव्रती श्रावक को विवाहित या
अविवाहित स्त्रियो से सर्वथा दूर रहना चाहिए । अनग-क्रीडा नही करनी चाहिए। अपनी सन्तान के अतिरिवत दूसरो के विवाह आदि कराने में दिलचस्पी नही लेनी चाहिए। काम
सेवन की तीव्र लालसा का त्याग करना चाहिए। ३१५-६ १६. अपरिमित परिग्रह अनन्ततृष्णा का कारण है, वह वहृत
दोषयक्त है तथा नरकगति का माग है। अत. परिग्रह-परिमाणाणुव्रती विशुद्धचित्त श्रावक को क्षेत्र-मकान, सोना-चाँदी, धन-धान्य, द्विपद-चतुप्पद तथा भण्डार (संग्रह) आदि परिग्रह के अगीकृत परिमाण का अतिक्रमण नही करना चाहिए।
३१७ उसे सन्तोष रखना चाहिए। उसे ऐसा विचार नही करना
चाहिए कि 'इस समय मैने विना जाने थोडा परिमाण किया. आगे आवश्यक होने पर पुन अधिक ग्रहण कर लूंगा।
३१८. श्रावक के सात शील व्रतो मे ये तीन गुणवत होते है--दिशा
विरति, अनर्थदण्डविरति तथा देशावकाशिक ।
अपना ही दूसरा विवाह करना पर-विवाह है। इसका यह आशय है कि विशिष्ट सन्तोष न होने से अन्य कन्या के साथ अपना विवाह करता है। यह स्वदार सन्तोषव्रत का अतिचार है ।
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१०४
समणसुत्तं ३१९. उड्ढमहे तिरियं पि य, दिसासु परिमाणकरणमिह पढमं ।
भणियं गुणवयं खल, सावगधम्मम्मि वीरेण ॥१९॥ ऊर्ध्वमधस्तिर्यगपि च, दिक्षु परिमाणक रणमिह प्रथमम् । भणित गवत खलु, श्रावकधर्म वीरेण ।।१९।। वयभंगकारणं होइ, जम्मि देसम्मि तत्थ णियमेण । कीरइ गमणणियत्ती, तं जाण गणव्वयं विदियं ॥२०॥ बतभङ्गकारणं भवति, यस्मिन् देशे तत्र नियमेन ।
क्रियते गमननिवृत्ति., तद् जानीहि गुणव्रत द्वितीयम् ।।२०।। ३२१. विरई अणत्थदंडे, तच्चं, स चउदिवहो अवज्झाणो ।
पमायायरिय हिंसप्पयाण पावोवएसे य ॥२१॥ विरतिरनर्थदण्डे, तृतीय, स चतुर्विध अपध्यानम् ।
प्रमादाचरितम् हिसाप्रदानम् पापोपदेशश्च ॥२१॥ ३२२. अद्वैण तं न बंधइ, जमणठेणं तु थोवबहुभावा ।
अठे कालाईया, नियामगा न उ अणट्ठाए ॥२२॥ अर्थेन तत् न बध्नाति, यदनर्थन स्तोकबहुभावात् ।
अर्थे कालादिकाः, नियामका. न त्वनर्थक ॥२२॥ ३२३. कंदप्पं कुक्कुइयं, मोहरियं संजुयाहिगरणं च ।
उवभोगपरीभोगा-इरेयगयं चित्थ वज्जइ ॥२३॥ कान्दर्यम् कौत्कुच्य, मौखर्य संयुक्ताधिकरण च ।
उपभोगपरिभोगा-तिरेकगत चात्र वर्जयेत् ॥२३॥ ३२४. भोगाणं परिसंखा, सामाइय - अतिहिसंविभागो य ।
पोसहविही य सव्वो, चउरो सिक्खाउ वुत्ताओ ॥२४॥ भोगानां परिसंख्या, सामायिकम् अतिथिसंविभागश्च । पौषधविधिश्च सर्वः, चतस्रः शिक्षा उक्ताः ॥२४॥ वज्जणमणंतगुंबरि, अच्चंगाणं च भोगओ माणं । कम्मयओ खरकम्मा-इयाण अवरं इमं भणियं ॥२५॥ वर्जनमनन्तकमुदम्बरि-अत्यङ्गानां च भोगतो मानम् । कर्मकतः खरकर्मादिकानां अपरम् इदं भणितम् ॥२५॥
३२५.
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मोक्ष-मार्ग
१०५ ३१९ (व्यापार आदि के क्षेत्र को परिमित करने के अभिप्राय से)
ऊपर, नीचे तथा तिर्यक दिगाओ मे गमनागमन या सम्पर्क आदि की सीमा बाँधना दिग्वत नामक प्रथम गुणवत है । जिस देश में जाने से (किसी भी) ब्रत का भग होता हो या उसमे दोप लगता हो, उस देश में जाने की नियमपूर्वक निवृत्ति
देशावकाधिक नामक दूसरा गुणवत है । ३२१ प्रयोजन-विहीन कार्य करना या किसीको सताना अनर्थदण्ड
कहलाता है । इसके चार भेद है---अपध्यान, प्रमादपूर्णचर्या, हिमा के उपकरण आदि देना और पाप का उपदेश । इन चारों
का माग अनर्थदण्ड-विरति नामक तीसरा गुण व्रत है । ३२२ प्रयोजनवा कार्य करने से अल्प कर्मबन्ध होता है और बिना
प्रयोजन कार्य करने से अधिक कर्मबन्ध होता है। क्योकि यप्रयोजन कार्य में तो देश-काल आदि परिस्थितियो की सापेक्षता रहती है, लेकिन निप्प्रयोजन प्रवृत्ति तो सदा ही
( . पर्यादितरूप से) की जा सकती है। ३२३ जनर्थदण्ड-विरत श्रावक को कन्दर्प (हास्यपूर्ण अशिष्ट वचन
प्रयोग), कौत्कुच्य (शारीरिक कुचेष्टा), मौखर्य (व्यर्थ बकवास), हिसा के अधिकरणों का सयोजन तथा उपभोग
परिभोग की मर्यादा का अतिरेक नही करना चाहिए। ३२४ चार शिक्षाव्रत इस प्रकार है--भोगो का परिमाण, सामायिक,
अतिथि-स विभाग और प्रोषधोपवास।
३२५. भोगोपभोग-परिमाणवत दो प्रकार का है---भोजनरूप तथा
कार्य या व्यापाररूप । कन्दमूल आदि अनन्तकायिक वनस्पति, उदुम्बर फल तथा मद्यमांसादि का त्याग या परिमाण भोजनविषयक भोगोपभोगपरिमाण व्रत है, और खरकर्म अर्थात् हिसापरक आजीविका आदि का त्याग व्यापार-विषयक भोगोपभोगपरिमाण व्रत है।
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समणसुत्तं ३२६. सावज्जजोगपरिरक्खणट्टा, सामाइयं केवलियं पसत्थं ।
गिहत्थधम्मा परमति नच्चा, कुज्जा बुहो आयहियं परत्था ॥२६॥ मावद्ययोगपरिरक्षणार्थ, सामायिक केवलिक प्रशस्तम् ।
गृहस्थधर्मात् परममिति ज्ञात्वा, कुर्याद् बुध आत्महित पत्र ॥२६॥ ३२७. सामाइयम्मि उ कए, समणो इव सावओ हवइ जम्हा ।
एएण कारणेणं, बहुसो सामाइयं कुज्जा ॥२७॥ सामायिके तु कृते, श्रमण श्व श्रावको भवति यस्मात् ।
एतेन कारणेन, बहुश. मामायिक कुर्यात् ॥२७॥ ३२८. सामाइयं ति काउं, परचितं जो उ चितई सड्ढो ।
अवसट्टोवगओ, निरत्थयं तस्स सामाइयं ॥२८॥ सामायिकमिति कृत्वा, परचिन्तां यस्तु चिन्तयति श्राद्धः ।।
आर्तवशार्तोपगतः, निरर्थक तस्य सामायिकम् ॥२८॥ ३२९. आहारदेहसक्कार-बंभाऽवावारपोसहो य णं ।
देसे सव्वे य इम, चरमे सामाइयं णियमा ॥२९॥ आहारदेहसत्कार-ब्रह्मचर्यमव्यापारपोषधः च ।
देशे सर्वस्मिन् च इदं, चरमे सामायिक नियमात् ॥२९॥ ३३०. अन्नाईणं सुद्धाणं, कप्पणिज्जाण देसकालजुत्तं ।
दाणं जईणमुचियं, गिहीण सिक्खावयं भणियं ॥३०॥ अन्नादीना शुद्धाना, कल्पनीयाना देशकालयतम् ।
दानं यतिभ्यः उचित, गृहिणां शिक्षाव्रत भणितम् ॥३०॥ ३३१. आहारोसह-सत्थाभय-भेओ जं चउविहं दाणं ।
तं वुच्चइ दायव्वं, णिद्दिमुवासयज्झयणे ॥३१॥ आहारौषध-शास्त्रानुभयभेदात् यत् चतुर्विधम् दानम् ।
तद् उच्यते दातव्यं निर्दिष्टम् उपासक-अध्ययने ॥३१॥ ३३२. दाणं भोयणमेतं, दिज्जइ धन्नो हवेइ सायारो ।
पत्तापत्तविसेसं, संदसणे किं वियारेण ॥३२॥ दानं भोजनमात्र, दीयते धन्यो भवति सागार । पात्रापात्रविशेषसदर्शने कि विचारेण ॥३२॥
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मोक्ष-मार्ग
३२६. सावद्ययोग अर्थात् हिसारम्भ से वचने के लिए केवल सामायिक ही प्रशस्त है । उसे श्रेष्ठ गृहस्थधर्म जानकर विद्वान् को आत्महित तथा मोक्ष प्राप्ति के लिए सामायिक करनी चाहिए ।
३२७. सामायिक करने से
श्रमण
(सामायिक-काल मे ) श्रावक के समान ( सर्व मावद्ययोग से रहित एव समताभावयुक्त ) हो जाता है । अतएव अनेक प्रकार से सामायिक करनी चाहिए ।
१०७
३२८ सामायिक करते समय जो श्रावक पर - चिन्ता करता है, वह आर्त्त ध्यान को प्राप्त होता है। उसकी सामायिक निरर्थक है । ३२९ आहार, शरीर-सस्कार, अब्रह्म तथा आरम्भत्याग ये चार बाते प्रोषधोपवास नामक शिक्षा-व्रत मे आती है । इन चारो का त्याग एकदेश भी होता है और सर्वदेश भी । जो सम्पूर्णत प्रोषध करता है, उसे नियमत सामायिक करनी चाहिए ।
३३०. उद्गम आदि दोषो से रहित देशकालानुकूल, शुद्ध अन्नादिक का उचित रीति से ( मुनि आदि सयमियों को ) दान देना गृहस्थों का अतिथिसंविभाग शिक्षाव्रत है । ( इसका यह भी अर्थ है कि जो व्रती त्यागी बिना किसी पूर्वसूचना के अतिथि रूप मे आते है उनको अपने भोजन मे सविभागी बनाना चाहिए । )
३३१. आहार, औषध, शास्त्र और अभय के रूप में दान चार प्रकार का कहा गया है । उपासकाध्ययन (श्रावकाचार ) मे उसे देने योग्य कहा गया है ।
३३२. भोजनमात्र का दान करने से भी गृहस्थ धन्य होता है । इसमे पात्र और अपात्र का विचार करने से क्या लाभ ?
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समणसुत्तं ३३३. साहूणं कप्पणिज्ज, जं न वि दिण्णं कहि पि किंचि तहिं ।
धीरा जहुत्तकारी, सुसावया तं न मुंजंति ॥३३॥ साधूना कल्पनीय, यद् नापि दत्त कुत्रापि निमित् तत्र ।
धीरा यथोक्तकारिण , सुश्रावका तद् न भुञ्जते ।।३।। ३३४. जो मुणिभुत्तविसेसं, भुंजइ सो भुंजए जिणुवदिळं ।
संसारसारसोक्खें, कमसो णिव्वाणवरसोक्खं ॥३४॥ यो मुनिभुक्तविशेप, भडवते स भुङवते जिनोपदिष्टम् ।
समारसारसौख्य, क्रमशो निर्वाणकरसौग्व्यम् ।।३४।। ३३५. जं कोरइ परिरक्खा, णिच्चं मरण-भयभीरु-जीवाणं ।
तं जाण अभयदाणं, सिहामणि सव्वदागाणं ॥३५॥ यत् क्रियते परिपक्षा, नित्य मरणभयभीरुजीवानाम् । तद् जानीहि अभयदानम्, शिखामणि सर्वदानानाम् ॥३५॥
२४. श्रमणधर्मसूत्र (अ) समता ३३६. समणोत्ति संजदो त्ति य, रिसि मुणि साधु त्ति वीदरागोत्ति।
णामाणि सुविहिदाणं, अणगार भदंत दंतो त्ति ॥१॥ श्रमण इति सयत इति च, ऋषिमुनिः साधु इति वीतराग इति ।
नामानि सुविहितानाम्, अनगारो भदन्त दान्त इति ॥१॥ ३३७. सीह-गय-वसह-मिय-पस, मारुद-सरूवहि-मंदरिद-मणी।।
खिदि-उरगंवरसरिसा, परम-पय-विमग्गया साहू ॥२॥ सिह-गज-वृषभ-मग-पशु, मारुत-सूर्योदधि-मन्दरेन्दु-मणयः । क्षिति-उरगाम्बरसदृशा , परमपद-विमार्गकाः साधवः ।।२।।
३३८. बहवे इमे असाहू, लोए वुच्चंति साहुणो ।
न लवे असाहुं साहु त्ति, साहुं साहु त्ति आलवे ॥३॥ वहव इमे असाधव , लोके उच्यन्ते साधवः । न लपेदसाधु साधु इति साधु साधु इति आलपेत् ॥३॥
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मोक्ष-मार्ग
३३३. जिस घर म साधुओं को कल्पनीय (उनके अनुकूल) किचित्
भी दान नही दिया जाता, उस घर मे शास्त्रोक्त आचरण करनेवाले धीर और त्यागी सुधावक भोजन नही करते ।
३३४. जो गृहस्थ मुनि को भोजन कराने के पश्चात् बचा हुआ भोजन
करता है, वारतव मे उसीका भोजन करना सार्थक है। वह जिनोपदिष्ट ससार का सारभूत सुख तथा क्रमशः मोक्ष का
उत्तम सुख प्राप्त करता है । ३३५. मृत्यु-भय से भयभीत जीवो की रक्षा करना ही अभय-दान है।
यह अभय-दान सब दानों का शिरोमणि है।
२४. श्रमणधर्मसूत्र (अ) समता ३३६. श्रमण, सयत, ऋषि, पुनि, साधु, वीतराग, अनगार, भदन्त,
दान्त-ये सब शास्त्र-विहित आचरण करनेवालों के नाम है।
३३७. परमपद की खोज में निरत साधु सिह के समान पराक्रमी,
हाथी के समान स्वाभिमानी, वृषभ के समान भद्र, मृग के समान सरल, पशु के समान निरीह, वायु के समान निस्संग, सूर्य के समान तेजस्वी, सागर के समान गम्भीर, मेरु के समान निश्चल, चन्द्रमा के समान शीतल, मणि के समान कातिमान, पृथ्वी के समान सहिष्णु, सर्प के समान अनियत-आश्रयी तथा आकाश के समान निरवलम्ब होते है। (साधु की ये चौदह
उपमाएँ है।) ३३८. (परन्तु) ऐसे भी बहुत से असाधु है जिन्हें संसार मे साधु कहा
जाता है। (लेकिन) असाधु को साधु नही कहना चाहिए, साधु को ही साधु कहना चाहिए।
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समणसुत्तं ३३९. नाणदंसणसंपण्णं, संजमे य तवे रयं ।
एवंगुणसमाउत्तं, संजय साहुमालवे ॥४॥ ज्ञानदर्शनसम्पन्न, सयमे च तपसि रतम् ।
एवगुणसमायुवत, सयत साधुमालपेत् ॥४॥ ३४०. न वि मुण्डिएण समणो, न ओंकारेण बंभणो ।
न मुणी रण्णवासेणं, कुसचीरेण न तावसो ॥५॥ नाऽपि मुण्डितेन श्रमण, न ओकारेण ब्राह्मण ।
न मुनिररण्यवासेन, कुशचीरेण न तापस ॥५॥ ३४१. समयाए समणो होइ, बंभचरेण बंभणो ।
नाणेण य मुणी होइ, तवेण होइ तावसो ॥६॥ ममतया श्रमणो भवति, ब्रह्मचर्येण ब्राह्मण. ।
ज्ञानेन च मनिर्भवति, तपसा भवति तापस. ॥६।' ३४२. गुणेहि साहू अगुणेहिऽसाहू, गिण्हाहि साहूगुण मुंचऽसाहू ।
वियाणिया अप्पगमप्पएणं, जो रागदोसेहिं समोस पुज्जो ॥७॥ गुण साधुरगुणै रसाधु , गृहाण साधुगुणान् मञ्चाऽसाधु (गुणान् ।
विजानीयात् आत्मानमात्मना, य रागद्वेषयो समः स पूज्य ॥७॥ ३४३. देहादिसु अणुरत्ता, विसयासत्ता कसायसंजुत्ता ।
अप्पसहावे सुत्ता, ते साहू सम्मपरिचत्ता ॥८॥ देहादिपु अनुग्वता, विषयासवताः कषायसयुक्ताः ।
आत्मस्वभावे साता, ते साधव सम्यवत्वपरित्यवता ॥८॥ ३४४. बहुं सुणेइ कणेहिं, बहुं अच्छीहि पेच्छइ ।
न य दिळं सुयं सत्वं, भिक्खू अक्खाउमरिहइ ॥९॥ वहु शृणोति कर्णाश्या, बहु अक्षिभ्या प्रेक्षते ।
न च दृष्ट श्रुत सर्व, भिक्षुराख्यातुमर्हति ॥९॥ ३४५. सज्झायज्झाणजुत्ता, रत्ति ण सुयंति ते पयामं तु ।
सुत्तत्थं चितंता, णिद्दाय वसं ण गच्छंति ॥१०॥ स्वाध्यायध्यानयुवता, रात्रौ न स्वपन्ति ते प्रकाम तु । सूत्रार्थ चिन्तयन्तो, निद्राया वश न गच्छन्ति ॥१०॥
TERMINI
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मोक्ष-मार्ग
१११ ३:१. ज्ञान और दर्शन में सम्पन्न सयम और तप में लीन तथा इसी
प्रकार के गुणो से युवत सयमी को ही साधु कहना चाहिए।
६४० केवल सिर मॅडाने से कोई श्रमण नही होता, ओम् का जप करने
से कोई ब्राह्मण नही होता, अरण्य में रहने से कोई मुनि नहीं होता, कुश-चीवर धारण करने से कोई तपस्वी नहीं होता।
३४१. (प्रत्युत) वह समता से श्रमण होता है, ब्रह्मचर्य से ब्राह्मण
होता है, ज्ञान से मुनि होता है और तप से तपस्वी होता है ।
३४२. (कोई भी) गुणों से साधु होता है और अगुणों से असाधु ।
अतः साधु के गुणों को ग्रहण करो और असाधुता का त्याग करो। आत्मा को आत्मा के द्वारा जानते हुए जो राग-द्वेष मे समभाव
रखता है, वही पूज्य है। ३४३ देहादि मे अनुरक्त, विषयासक्त, कषायसयुक्त तथा आत्मस्वभाव
मे सुप्त साधु सम्यक्त्व से शून्य होते है ।
३४४ गोचरी अर्थात् भिक्षा के लिए निकला हुआ साधु कानों से
वहुत-सी अच्छी-बुरी वाते सुनता है और आँखो से वहुत-सी अच्छी-बुरी वस्तुएँ देखता है, किन्तु सब-कुछ देख-मुनकर भी
वह किसीसे कुछ कहता नहीं है। अर्थात् उदासीन रहता है। ३४५ स्वाध्याय और ध्यान मे लीन साधु रात में बहुत नही सोते है ।
सूत्र और अर्थ का चिन्तन करते रहने के कारण वे निद्रा के नश नहीं होते।
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११२
समणसुत्तं
३४६. निम्ममो निरहंकारो, निरसंगो चत्तगारवो ।
समो य सव्वभूएसु, तसेसु थावरेसु अ॥११॥ निर्ममो निरहकार , नि सगस्त्यक्तगौरव. ।
समश्च सर्वभूतेषु, असेषु स्थावरेषु च ॥११।। ३४७. लाभालाभे सुहे दुवखे, जीविए मरणे तहा ।
समो निन्दापसंसासु, तहा माणावमाणओ॥१२॥ लाभालाभे सखे दुखे, जीविते मरणे तथा ।।
समो निन्दाप्रशंसयो, तथा मानापमानयोः ॥१२॥ ३४८. गारवेसु कसाएसु, दंडसल्लभएसु य ।
नियत्तो हाससोगाओ, अनियाणो अबन्धणो ॥१३॥ गौरवेभ्यः कषायेभ्य , दण्डशल्यभयेभ्यश्च ।
निवृत्तो हासशोकात्, अनिदानो अबन्धनः ॥१३॥ ३४९. अणिस्सिओ इहं लोए, परलोए अणिस्सिओ।
वासीचन्दणकप्पो य, असणे अणसणे तहा ॥१४॥ अनिश्रित इहलोके, परलोकेऽनिश्रितः ।
वासीचन्दनकल्पश्च, अशनेऽनशने तथा ॥१४॥ ३५०. अप्पसत्थेहि दाहिं, सवओ पिहियासवो । अज्झप्पज्झाणजोगेहि,
पसत्थदमसासणे ॥१५॥ अप्रशस्तेभ्यो द्वारेभ्यः, सर्वतः पिहितास्रवः । अध्यात्मध्यानयोग,
प्रशस्तदमशासनः ॥१५॥ ३५१. खुहं पिवासं दुस्सेज्जं, सीउण्हं अरईं भयं ।
अहियासे अव्वहिओ, देहे दुवखं महाफलं ॥१६॥ क्षुध पिपासां दु शय्यां, शीतोष्ण अरति भयम् ।
अतिसहेत अव्यथित: देहदु.खं महाफलम् ।।१६।। ३५२. अहो निच्चं तवोकम्म, सव्वबुद्धेहिं वणियं ।
जाय लज्जासमा वित्ती, एगभत्तं च भोयणं ॥१७॥ अहो नित्यं तप.कर्म, सर्वबुद्धर्वणितम् । यावल्लज्जासमा वृत्ति., एक भवतं च भोजनम् ॥१७॥
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मोक्ष-मार्ग
११३
३४६. साधु ममत्वरहित, निरहकारी, निस्सग, गौरव का त्यागी तथा
त्रम और स्थावर जीवो के प्रति समदृष्टि रखता है।
३४७ वह लाभ और अलाभ मे, सुख और दु ख मे, जीवन और मरण
म, निदा और प्रासा में तथा मान और अपमान में समभाव रखता है।
३४८. वह गौरव, कपाय, दण्ड, दाल्य, भय, हास्य और शोक से निवत्त
अनिदानी और बन्धन से रहित होता है ।
३४९ वह इस लोक व परलोक मे अनासक्त, बसूले से छीलने या
चन्दन का लेप करने पर तथा आहार के मिलने या न मिलने पर भी सम रहता है--हर्ष-विषाद नहीं करता ।
३५० ऐसा श्रमण अप्रशस्त द्वारों (हेतुओं) से आनेवाले आस्रवों का
सर्वतोभावेन निरोध कर अध्यात्म-सम्बन्धी ध्यान-योगो से प्रशस्त सयम-शासन में लीन हो जाता है ।
३५१ भूख, प्यास, दु शय्या (ऊँची-नीची पथरीली भूमि) ठंढ, गर्मी,
अरति, भय आदि को बिना दुखी हुए सहन करना चाहिए । क्योकि दैहिक दुखो को समभावपूर्वक सहन करना महा
फलदायी होता है । ६५२. अहो, सभी ज्ञानियो ने ऐसे तप-अनुष्ठान का उपदेश किया है
जिसमे सयमानुकूल वर्तन के साथ-साथ दिन में केवल एक बार भोजन विहित है।
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समणसुत्तं ३५३. कि काहदि वणवासो, कायकलेसो विचित्त उववासो ।
अज्झयणमोणपहुदी, समदारहियस्स समणस्स ॥१८॥ कि करिष्यति वनवास , कायक्लेशो विचित्रोपवास. ।।
अध्ययनमौनप्रभृतय , समता रहितस्य श्रमणस्य ॥१८॥ ३५४. बुद्ध परिनिव्वुडे चरे, गाम गए नगरे व संजए ।
संतिमग्गं च बूहए, समयं गोयम ! मा पमायए ॥१९॥ बद्ध परिनिर्वतश्चरे , ग्रामे गतो नगरे वा सयत. ।।
शान्तिमार्ग च वृहये, समय गौतम ! मा प्रमादी. ॥१९॥ ३५५. न हु जिणे अज्ज दिस्सई, बहमए दिस्सई मग्गदेसिए । __ संपइ नेयाउए पहे, समयं गोयम ! मा पमायए ॥२०॥
न खल जिनोऽद्य दश्यते, वह मतो दश्यते मार्गदर्शित ।
सम्प्रति नैयायिके पथि, समयं गौतम ! मा प्रमादी ॥२०॥ (आ) वेश-लिग ३५६. वेसो वि अप्पमाणो, असंजमपएसु वट्टमाणस्स ।
कि परियत्तियवेसं, विसं न मारेइ खजंतं ॥२१॥ वेपोऽपि अप्रमाणः, असंयमपदेषु वर्तमानस्य ।
कि परिवर्तितवेप, विप न मारयति खादन्तम् ॥२१॥ ३५७. पच्चयत्थं च लोगस्स, नाणाविहविगप्पणं ।
जत्तत्थं गहणत्थं च, लोगे लिगपओयणं ॥२२॥ प्रत्ययार्थ च लोकस्य, नानाविधविकल्पनम् ।
यात्रार्थ ग्रहणार्थ च, लोके लिङ्गप्रयोजनम् ।।२२।। ३५८. पासंडीलिंगाणि व, गिहिलिंगाणि व बहुप्पयाराणि ।
घितुं वदंति मूढा, लिंगमिणं मोक्खमग्गो त्ति ॥२३॥ पापडिलिङ्गानि वा, गृहिलिङ्गानि वा वहुप्रकाराणि ।
गृहीत्वा वदन्ति मूढा, लिङ्गमिदं मोक्षमार्ग इति ॥२३॥ ३५९. पुल्लेव मुट्ठी जह से असारे, अयन्तिए कूडकहावणे वा ।
राढामणी वेरुलियप्पगासे, अमहग्घए होइ य जाणएसु ॥२४॥ शुपिरा इव मुष्टिर्यथा स असार , अयन्त्रितः कूटकापिणो वा । राढामणिर्वैडूर्यप्रकाशः, अमहार्घको भवति च ज्ञायकेपु ज्ञेषु ॥२४॥
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मोक्ष-मार्ग
११५
३१.३. समतारहित श्रमण का वनवास, कायक्लेग, विचित्र उपवास,
अध्ययन और मौन व्यर्थ है ।
५४ प्रबुद्ध और उपशान्त होकर सयतभाव से ग्राम और नगर मे
विचरण कर । शान्ति का मार्ग वढा । हे गौतम ! क्षणमात्र भी प्रमाद मत कर।
३५५ भविष्य में लोग कहेगे, आज 'जिन' दिखाई नहीं देते और जो
मार्गदर्शक है वे भी एकमत के नहीं है । किन्तु आज तुझे न्यायपूर्ण मार्ग उपलब्ध है। अत. गौतम ! क्षणमात्र भी प्रमाद
मत कर। (आ) वेश-लिंग ३५६ (संयममार्ग मे) वेश प्रमाण नहीं है, क्योंकि वह असंयमी
जनों में भी पाया जाता है। क्या वेश बदलने वाले व्यक्ति को खाया हुआ विप नहीं मारता ?
३५७. (फिर भी) लोक-प्रतीति के लिए नाना तरह के विकल्पो की
वेश आदि की परिकल्पना की गयी है । सयम-यात्रा के निर्वाह के लिए और 'मै साधु हूँ' इसका बोध रहने के लिए ही लोक मे
लिग का प्रयोजन है। ३५८. लोक मे साधुओ तथा गृहस्थों के तरह-तरह के लिग प्रचलित है
जिन्हे धारण करके मूढजन ऐसा कहते है कि अमुक लिग (चिह्न) मोक्ष का कारण है ।
३५९. जो पोली मुट्ठी की तरह निस्सार है, खोटे सिक्के की तरह
अप्रमाणित है, वैडूर्य की तरह चमकनेवाली काँचमणि है उसका जानकारों की दृष्टि में कोई मूल्य नहीं ।
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ममणसुत्तं ३६०. भावो हि पढमलिंगं, ण दलिगं च जाण परमत्थं ।
भावो कारणभूदो, गुणदोसाणं जिणा बिति ॥२५॥ भावो हि प्रथमलिग, न द्रव्यलिङ्ग च जानीहि परमार्थम् । भाव कागणभूतः, गुणदोपाणा जिना त्रुवन्ति ॥२५॥
३६१. भावविसद्धिणिमित्तं, बाहिरगंथरस कीरए चाओ।
बाहिरचाओं विहलो, अभंतरगंथजुत्तस्स ॥२६॥ भावविशुद्धिनिमित्त, बाह्य ग्रन्थस्य क्रियते त्याग । बा ह्यत्यागः विफलः, अभ्यन्तरग्रन्थयुवतस्य ॥२६॥
३६२. परिणामम्मि असुद्धे, गंथे मुंचेइ बाहिरे य जई ।
बाहिरगंथच्चाओ, भावविहूणस्स किं कुणइ ? ॥२७॥ परिणाम अशद्धे, ग्रन्थान् मुञ्चति बाह्यान् च यति । वाह्यग्रन्थत्यागः, भावविहीनस्य कि करोति ? ॥२७॥
३६३. देहादिसंगरहिओ, माणकसाएहि सयलपरिचत्तो ।
अप्पा अप्पम्मि रओ, स भालिंगी हवे साहू ॥२८॥ देहादिसगरहित , मानकषायै सकलपरित्यवत ।। आत्मा आत्मनि रतः, स भावलिङ्गी भवेत् साधुः ॥२८॥
२५. व्रतसूत्र
३६४. अहिंसा सच्चं च अतेणगं च, तत्तो य बंभं अपरिग्गहं च ।
पडिवज्जिया पंच महव्वयाणि, चरिज्ज धम्मं जिणदेसियं विऊ ॥१॥ अहिसा सत्य चास्तेनक च, ततश्चाब्रह्मापरिग्रह च । प्रतिपद्य पञ्चमहाव्रतानि, चरति धर्म जिनदेशित विद. ॥१॥
३६५. णिस्सल्लस्सव पुणो, महत्वदाइं हवंति सव्वाइं ।
वदमुवहम्मदि तीहिं दु, णिदाणमिच्छत्तमायाहिं ॥२॥ नि शल्यस्यैव पुन, महाव्रतानि भवन्ति सर्वाणि । व्रतमुपहन्यते तिसृभिस्तु, निदान-मिथ्यात्व-मायाभिः ॥२॥
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मोक्ष-मार्ग
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३६० (वास्तव मे) भाव ही प्रथम या मुख्य लिग है। द्रव्य लिग
परमार्थ नहीं है, क्योकि भाव को ही जिनदेव गुण-दोपो का कारण कहते है।
३६१ भावो की विशुद्धि के लिए ही वाह्य परिग्रह का त्याग किया
जाता है। जिसके भीतर परिग्रह की वासना है उसका वाद्य त्याग निष्फल है।
३६२ अशुद्ध परिणामो के रहते हुए भी यदि वाह्य परिग्रह का त्याग
करता है तो आत्म-भावना से शुन्य उसका बाह्य त्याग क्या हित कर सकता है ?
३६३. जो देह आदि की ममता से रहित है, मान आदि कपायो से
पूरी तरह मुक्त है तथा जो अपनी आत्मा में ही लीन है, वहीं साधु भालिगी है।
२५. व्रतसूत्र ३६४. अहिसा, सत्य, अस्तेय, ब्रहचर्य और अपरिग्रह इन पाँच महा
व्रतो को स्वीकार करके विद्वान् मुनि जिनोपदिष्ट धर्म का आचरण कर।
३६५. नि शल्य व्रती के ही ये सब महावत होते है। क्योकि निदान,
मिथ्यात्व और माया--इन तीन शल्यो से ब्रतों का घात होता है।
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समणसुत्तं ३६६. अगणिअ जो मुक्खसुहं, कुणइ निआणं असारसुहहेउं ।
सो कायमणिकएणं, वेरुलियमणि पणासेइ ॥३॥ अगणयित्वा यो मोक्षसुख, करोति निदानममा रमुखहेतोः ।
न कानमणिकृते, वेर्यमणि प्रणाशयति ॥३॥ ३६७. कुलजोणिजीवमग्गण-ठाणाइसु जाणिऊण जीवाणं ।
तस्सारंभणियत्तण, परिणामो होइ पढमवदं ॥४॥ कुलयोनिजीवमार्गणा-स्थानादिपु ज्ञात्वा जीवानाम् ।
तस्यारम्भनिवर्तनपरिणामो भवति प्रथमत्रतम् ॥४॥ ३६८. सन्वेसिमासमाणं, हिदयं गन्भो व सव्वसत्थाणं ।
सर्वेसि वदगुणाणं, पिंडो सारो अहिंसा हु॥५॥ सर्वेपामाश्रमाणां, हृदयं गर्भो वा सर्वशास्त्राणाम् ।
सर्वेपां व्रतगुणानां, पिण्डः सारः अहिसा हि ॥५॥ ३६९. अप्पणट्ठा परट्ठा वा, कोहा वा जइ वा भया ।
हिंसगं न मुसं बया, नो वि अन्नं वयावए ॥६॥ आत्मार्थ परार्थ वा, क्रोधाद्वा यदि वा भयात् ।
हिसकं न मृपा यात्, नाप्यन्यं वदापयेत् ॥६॥ ३७०. गामे वा णयरे वा, रणे वा पेच्छिऊण परमत्थं ।
जो मुंचदि गहणभावं, तिदियवदं होदि तस्सेव ॥७॥ ग्रामे वा नगरे वा-ऽरण्ये वा प्रेक्षित्वा परमार्थम् ।।
यो मुञ्चति ग्रहणभावं, तृतीयव्रतं भवति तस्यैव ॥७॥ ३७१. चित्तमंतमचित्तं वा, अप्पं वा जइ वा बहुं ।
दंतसोहणमेत्तं पि, ओग्गहंसि अजाइया ॥८॥ चित्तवदचित्तवद्वा, अल्पं वा यदि वा बहु (मूल्यत ) ।
दन्तशोधनमात्रमपि, अवग्रहे अयाचित्वा (न गृह्णान्ति) ॥८॥ ३७२. अइभूमि न गच्छेज्जा, गोयरग्गगओ मुणी ।
कुलस्स भूमि जाणित्ता, मियं भूमि परक्कमे ॥९॥ अतिभूमि न गच्छेद्, गोचराग्रगतो मुनिः । कुलस्य भूमि ज्ञात्वा, मितां भूमि पराक्रमेत् ।।९।।
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मोक्ष-मार्ग
३६६. जो व्रती मोक्ष-मुख की उपेक्षा या अवगणन करके (परभव में)
अमार सख की प्राप्ति के लिए निदान या अभिलापा करता है वह काँच के टुकडे के लिए वैडूर्यमणि को गवाता है ।
३६७. कुल, योनि, जीवस्थान, मार्गणास्थान आदि म जीवो को जानकर
उनमे सम्बन्धित आरम्भ से निवृत्तिरूप (आभ्यन्तर) परिणाम प्रथम अहिमाबत है।
३६८. अहिमा सव आश्रमों का हृदय, मब नास्त्रो का रहय तथा सत्र
व्रतो और गुणों का पिण्डभूत सार है।
३६९. स्वयं अपने लिए या दूसरो के लिए क्रोधादि या भय आदि के
वा होकर हिसात्मक असत्यवचन न तो स्वय बोलना चाहिए और न दूसरो से बुलवाना चाहिए। यह दूमग सत्यव्रत है।
३७०. ग्राम, नगर अथवा अरण्य मे दूसरे की वस्तु को देखकर उसे
ग्रहण करने का भाव त्याग देनेवाले साधु के तीसरा अचौर्यव्रत होता है।
३७१. सचेतन अथवा अचेतन, अल्प अथवा बहुत, यहाँ तक कि दाँत
साफ करने की मीक तक भी माधु बिना दिये ग्रहण नहीं करते ।
३७२. गोचरी के लिए जानेवाले मुनि को वजित भूमि में प्रवेश नही
करना चाहिए। कुल की भूमि को जानकर मितभूमि तक ही जाना चाहिए।
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समणसुतं
३७३. मूलमेअमहम्मस्स,
महादोससमुस्सयं । तम्हा मेहुणसंसरिंग, निग्गंथा वज्जयंति णं ॥१०॥ मूलम् एतद् अधर्मस्य, महादोषसमुच्छ्य म् ।
तस्मात् नै संसर्ग, निर्ग्रन्था. वर्जयन्ति णम् ॥१०॥ ३७४. मादुसुदाभगिणी विय, दलृणित्थित्तियं य पडिरूवं ।
इत्थिकहादिणियत्ती, तिलोयपुज्जं हवे बंभं ॥११॥ मातृसुलाभगिनीमिव च, दृष्ट्वा स्त्रीत्रिक च प्रतिरूपम् ।
स्त्रीकथादिनिवृत्ति-स्त्रिलोकपूज्य भवेद् ब्रह्म ॥११॥ ३७५. सव्वेसि गंथाणं, तागो हिरवेक्खभावणापुवं ।
पंचमवदमिदि भणिदं, चारित्तभरं वहंतस्स ॥१२॥ सर्वेपा ग्रन्थाना, त्यागो निरपेक्षभावनापूर्वम् ।
पचमव्रतमिति भणित, चारित्रभर वहत ॥१२॥ ३७६. कि किंचणत्ति तक्कं, अपुणब्भवकामिणोध देहे वि ।
संग ति जिणरिदा, हिप्पडिकम्मत्तमुद्दिट्ठा ॥१३॥ कि किचनमिति तर्कः, अपुनर्भवकामिनोऽथ देहेऽपि ।।
मंग इति जिनवरेन्द्रा, निष्प्रतिकर्मत्वमुद्दिष्टवन्तः ॥१३॥ ३७७. अप्पडिकुठें उवधि, अपत्थणिज्जं असंजदजणेहिं ।
मच्छादिजणणरहिदं, गेहदु समणो जदि वि अप्पं ॥१४॥ अप्रतिप्टमपधि-मप्रार्थनीयमसयतजनै ।
मूर्छादिजननरहित, गृह णातु श्रमणो यद्ययल्पम् ॥१४॥ ३७८. आहारे व विहारे, देसं कालं समं खमं उधि ।
जाणित्ता ते समणो, वट्टदि जदि अप्पलेवी सो॥१५॥ आहारे वा विहारे, देशं कालं श्रम क्षमम् उपधिम् ।
ज्ञात्वा तान् श्रमण , वर्तते यदि अल्पलेपी स. ॥१५।। ३७९. न सो परिग्गहो वुत्तो, नायपुत्तेण ताइणा ।
मुच्छा परिगहो वुत्तो, इइ वुत्तं महेसिणा ॥१६॥ न स. परिग्रह उक्तो, ज्ञातपुत्रेण तायिना । मूर्छा परिग्रह उक्तः, इति उक्त महर्षिणा ॥१६॥
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मोक्ष-मार्ग
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३७३ मैथुन-ससर्ग अधर्म का मूल है. महान् दोपो का समूह है।
इसलिए ब्रह्मचर्य-व्रती निर्ग्रन्थ साधु मैथुन-सेवन का सर्वथा त्याग करते है ।
३७४. वृद्धा, वालिका और युवती स्त्री के इन तीन प्रतिरूपों को देखकर
उन्हे माता, पुत्री और बहन के समान मानना तथा स्त्री-कथा से निवृत्त होना चौथा ब्रह्मचर्य-व्रत है। यह ब्रह्मचर्य तीनों लोकों
मे पूज्य है। ३७५ निरपेक्षभावनापूर्वक चारित्र का भार वहन करनेवाले साधु का
वा ह्याभ्यन्तर, सम्पूर्ण परिग्रह का त्याग करना. पाँचवाँ परिग्रह-त्याग नामक महाव्रत कहा जाता है।
३७६ जब भगवान् अरहतदेव ने मोक्षाभिलापी को 'शरीर भी परि
ग्रह है' कहकर देह की उपेक्षा करने का उपदेश दिया है, तब अन्य परिग्रह की तो बात ही क्या है।
३७७. (फिर भी) जो अनिवार्य है, असयमी जनों द्वारा अप्रार्थनीय है,
ममत्व आदि पैदा करनेवाली नहीं है ऐसी वस्तु ही साधु के लिए उपादेय है। इससे विपरीत अल्पतम परिग्रह भी उसके लिए
ग्राह्य नही है। ३७८. आहार अथवा विहार मे देश, काल, श्रम, अपनी सामर्थ्य तथा
उपाधि को जानकर श्रमण यदि बरतता है तो वह अल्पलेपी होता है, अर्थात् उसे अल्प ही वन्ध होता है ।
३७९. ज्ञातपुत्र भगवान् महावीर ने (वस्तुगत) परिग्रह को परिग्रह
नही कहा है । उन महर्षि ने मूर्छा को ही परिग्रह कहा है ।
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समणसुत्तं ३८०. सन्निहि च न कुवेज्जा, लेवमायाए संजए ।
पक्खी पत्तं समादाय, निरवेवखो परिव्वए ॥१७॥ सन्निधि च न कुर्वीत, लेपमात्रया सयत ।
पक्षी पत्र समादाय, निरपेक्ष. परिव्रजेत् ।।१७।। ३८१. संथारसेज्जासणभत्तपाणे, अप्पिच्छया अइलाभे विसंते ।
एवप्मपाणभितोसएज्जा, संतोसपाहन्नरए स पुज्जो ॥१८॥ सम्तारकाय्यामनभवतपानानि, अत्पेच्छता अतिलाभेऽपि सति।
एवमात्मानमभितोषयति, सन्तोपप्राधान्यरत स पूज्य ॥१८॥ ३८२. अत्थंगयम्मि आइच्चे, पुरत्था अ अणुग्गए ।
आहारमाइयं सव्वं, मणसा वि ण पत्थए ॥१९॥ अस्तगते आदित्ये, पुरस्ताच्चानुद्गते ।
आहारमादिकं सर्व, मनसापि न प्रार्थयेत् ॥१९॥ ३८३. संतिमे सुहमा पाणा, तसा अदुव थावरा ।
जाइं राओ अपासंतो, कहमेसणियं चरे? ॥२०॥ सन्ति इमे सूक्ष्मा प्राणिनः, वसा अथवा स्थावराः ।। यान् रात्रावपश्यन्, कथम् एपणीयं चरेत् ? ॥२०॥
२६. समिति-गुप्तिसूत्र (अ) अष्ट प्रवचन-माता ३८४. इरियाभासेसणाऽऽदाणे, उच्चारे समिई इय ।
मणगत्ती वयगत्ती, कायगत्ती य अट्रमा ॥१॥ ईर्याभापैषणाऽऽदाने-उच्चारे समितय । इति ।
मनोगुप्तिबचोगुप्ति, कायगुप्तिश्चाप्टमी ॥१॥ ३८५. एदाओ अट्ठ पवयणमादाओ णाणदंसणचरितं ।
रक्खंति सदा मुणिणो, मादा पुत्तं व पयदाओ ॥२॥ एता अप्ट प्रवचन-मातरः ज्ञानदर्शनचारित्राणि । रक्षन्ति सदा मुनीन्, मातरः पुत्रमिव प्रयताः ॥२॥
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मोक्ष-मार्ग
१२३ ३८०. साधु लेशमात्र भी सग्रह न करे। पक्षी की तरह सग्रह से
निरपेक्ष रहते हुए केवल सयमोपकरण के साथ विचरण करे ।
३८१. सस्तारक, शय्या, आसन और आहार का अतिलाभ होने पर भी
जो अल्प इच्छा रखते हुए अल्प से अपने को सतुष्ट रखता है, अधिक ग्रहण नहीं करता, वह सतोष मे ही प्रधान रूप से
अनुरक्त रहनेवाला साधु पूज्य है । ३८२. सम्पूर्ण परिग्रह से रहित, समरसी साधु को सूर्यास्त के पश्चात्
और सूर्योदय के पूर्व किसी भी प्रकार के आहार आदि की इच्छा मन मे नही लानी चाहिए।
३८३. इस धरती पर ऐसे त्रस और स्थावर सूक्ष्म जीव सदैव व्याप्त
रहते है जो रात्रि के अन्धकार में दिखाई नही पड़ते । अतः ऐसे समय मे साधु के द्वारा आहार की शुद्ध गवेषणा कैसे हो सकती है ?
२६. समिति-गुप्तिसूत्र (अ) अष्ट प्रवचन-माता ३८४. ईर्या, भापा, एपणा, आदान-निक्षेपण और उच्चार (मलमूत्रादि
विसर्जन)--ये पाँच समितियाँ है। मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति--ये तीन गुप्तियाँ है ।
३८५. ये आठ प्रवचन-माताएँ हैं। जैसे सावधान माता पुत्र का रक्षण
करती है, वैसे ही सावधानीपूर्वक पालन की गयी ये आठों माताएँ मुनि के सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्र का रक्षण करती हैं।
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समणसुत्तं
३८६. एयाओ पंच समिईओ, चरणस्स य पवत्तणे ।
गुत्ती नियत्तणे वृत्ता, असुभत्थेसु सवसो॥३॥ एता पञ्च समितय , चरणस्य च प्रवर्तने । गुप्तयो निवर्तने उवता, अशभार्थभ्य सर्वदा ॥३॥
३८७. जह गुत्तस्सिरियाई, न होंति दोसा तहेव समियस्स ।
गुत्तीट्टिय प्पमायं, रंभइ समिई सचेटस्स ॥४॥ यधा गुप्तस्य र्यादि (जन्या) न भवन्ति दोपा , तथैव समितस् । गुप्तिस्थितो प्रमाद, रुणद्धि समिति (स्थित ) सचेष्टस्य ॥४॥
३८८. मरदु व जियदु व जीवो, अयदाचारस्स णिच्छिदा हिंसा ।
पयदस्स पत्थि बंधो, हिंसामेत्तेण समिदोसु ॥५॥ म्रियता वा जीवतु वा जीव , अयताचा रस्य निश्चिता हिमा। प्रयतस्य नास्ति वन्धो, हिसामात्रेण समितिषु ॥५॥
३८९-३९०.
आहच्च हिंसा समितस्स जानू, सा दवतोहोति ण भावतो उ । भावेण हिंसा तु असंजतस्सा, जे वा वि सत्ते ण सदा वधेति ॥६॥ संपत्ति तस्सेव जदा भविज्जा, सा दहिंसा खलु भावतोय । अज्झत्थसद्धस्स जदा ण होज्जा, वधेण जोगो दुहतो वऽहिंसा ॥७॥ आहत्य हिसा समितस्य या तु, सा द्रव्यतो भवति न भावत तु । भावेन हिसा तु असयतस्य. यान् वा अपि सत्त्वान् न मदा हन्ति।६। सम्प्राप्तिर्तस्येव यदा भवति, सा द्रव्याहसा खल भावतो च । अध्यात्मशुद्धस्य यदा न भवति, वधेन योग द्विधाऽपि च अहिसा ।७।
३९१-३९२. उच्चालियम्मि पाए, इरियासमियस्स पिगमणट्टाए ।
आबाधेज्ज लिगी, मरिज्ज तं जोगमासज्ज ॥८॥ ण हि तग्घादणिमित्तो, बंधो सुहुमो वि देसिओ समए । मुच्छा परिग्गहो त्ति य, अज्झप्प पमाणदो भणिदो ॥९॥
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मोक्ष-मार्ग
१२५ १८६ ये पाँच समितियाँ चारित्र की प्रवृत्ति के लिए है । और तीन
गुप्तियाँ सभी अशुभ विपयो से निवृत्ति के लिए है।
३८७ जैसे गप्ति का पालन करनेवाले को अनचित गमनागमनमूलक
दोप नहीं लगते, वैसे ही समिति का पालन करनेवाले को भी नही लगते। इसका कारण यह है कि मनि जव मनोगप्ति आदि म स्थित होता है तब वह अगुप्तिमूलक प्रमाद को रोकता है, जो दोपो का कारण है। जब वह समिति में स्थित होता है, तव
चेप्टा करते समय होनेवाले प्रमाद को रोकता है। ३८८ जीव मरे या जीये, अयतन'चारी को हिमा का दोष अवश्य लगता
है। किन्तु जो ममितियो मे प्रयत्नशील है उसमे बा हा हिसा हो जाने पर भी उसे कर्मबन्ध नहीं होता।
३८९-३९०. (इसका कारण यह है कि) समिति का पालन करते हए साधु से
जो आकस्मिक हिसा हो जाती है, वह केवल द्रव्य-हिसा है, भावहिसा नही। भावहिसा तो असयमी या अयतनाचारी से होती है--ये जिन जीवों को कभी मारते नही, उनकी हिसा का दोष भी इन्हें लगता है। किसी प्राणी का घात हो जाने पर जैसे अयतनाचारी सयत या असयत व्यक्ति को द्रव्य तथा भाव दोनो प्रकार की हिसा का दोष लगता है, वैसे ही चित्त-शुद्धि से युक्त समितिपरायण साधु द्वारा (मन पूर्वक) किसीका घात न होने के कारण उसके द्रव्य तथा भाव दोनों प्रकार की अहिमा होती है ।
३९१-३९२ ईर्या-समितिपूर्वक चलनेवाले साधु के पैर के नीचे अचानक
कोई छोटा-सा जीव आ जावे और कुचलकर मर जाये तो आगम कहता है कि इससे साधु को सूक्ष्म मात्र भी बन्ध नहीं होता।
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समणसुत्तं उच्चालिते पादे, ईर्यासमितस्य निर्गमनार्थाय । अवाधे कुलिङ्गी, नियेत त योगमामाद्य ॥८॥ न हि तदघातनिमित्तो, वन्धो सक्ष्मोऽपि देशित. समये ।
मूर्छा परिग्रहो इति च, अध्यात्मप्रमाणतो भणित ॥९॥ ३९३. पउमिणिपत्तं व जहा, उदयेण ण लिप्पदि सिणेहगुणजुत्त ।
तह समिदीहि ण लिप्पइ, साधु काएसु इरियंतो॥१०॥ पद्मिनीपत्र वा यथा, उदकेन न लिप्यते स्नेहगुणयुवतम् ।
तथा समितिभिर्न लिप्यते, साधुः कायपु ईर्यन् ॥१०॥ ३९४. जयणा उ धम्मजणणी, जयणा धम्मस्स पालणी चेव ।
तव्वुड्ढीकरी जयणा, एगंतसुहावहा जयणा ॥११॥ यतना तु धर्मजननी, यतना धर्मस्य पालनी चैव ।
तद्वद्धिकरी यतना, एकान्तसुखावहा यतना ॥११॥ ३९५. जयं चरे जयं चिट्ठ, जयमासे जयं सए ।
जयं भंजंतो भासंतो, पावं कम्मं न बंधइ ॥१२॥ यत चरेत् यत तिष्ठेन्, यतमासीत यत शयीत ।
यत भुजान. भापमाण., पाप कर्म न बध्नाति ।।१२।। (आ) समिति ३९६. फासुयमग्गेण दिवा, जुगंतरप्पेहिणा सकज्जेण ।
जंतुण परिहरंते-णिरियासमिदी हवे गमणं ॥१३॥ प्रागुकमार्गेण दिवा, युगान्तरप्रेक्षिणा सकार्येण ।
जन्तुन् परिहरता, ईर्यासमितिः भवेद् गमनम् ॥१६।। ३९७. इन्दियत्थे विवज्जित्ता, सज्झायं चेव पंचहा ।
तम्मुत्ती तप्पुरक्कारे, उवउत्ते इरियं रिए ॥१४॥ इन्द्रियार्थान् विवर्ण्य, स्वाध्यायं चैव पञ्चधा ।
तन्मूर्ति. (सन् ) तत्पुरस्कार, उपयुक्त र्या रीयेत ।।१४।। ३९८. तहेवुच्चावया पाणा, भत्तट्ठाए समागया ।
तं उज्जुअं न गच्छिज्जा, जयमेव परक्कमे ॥१५॥ तथैवुच्चावचाः प्राणिनः, भक्तार्थ समागताः । तदृजुकं न गच्छेत्, यतमेव पराक्रामेत् ॥१५॥
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मोक्ष-मार्ग
१२७ जैसे अध्यात्म (शास्त्र) में मूर्छा को ही परिग्रह कहा गया है, वैसे ही उसमे प्रमाद को हिगा कहा गया है ।
३९३. जमे स्नेहगुण से युक्त कमलिनी का पत्र जल से लिप्त नही
होता, वैसे ही समितिपूर्वक जीवों के बीच विचरण करनेवाला साधु पाप (कर्मवन्ध ) से लिप्त नहीं होता ।
३९४. यतनाचारिता धर्म की जननी है । यतनाचारिता धर्म की पालन
हार है। यतनाचारिता धर्म को बढ़ाती है। यतनाचारिता एकान्त सुखावह है।
३९५. यतनाचार (विवेक या उपयोग) पूर्वक चलने, यतनाचारपूर्वक
रहने, यतनाचारपूर्वक बैठने, यतनाचारपूर्वक सोने, यतनाचारपूर्वक खाने और यतनाचारपूर्वक बोलने से साधु को पाप-कर्म का
बध नहीं होता। (आ) समिति ३९६. कार्यवश दिन मे प्रासुकमार्ग से (जिस मार्ग पर पहले से आवा
गमन शुरू हो चुका हो), चार हाथ भूमि को आगे देखते हुए, जीवों की विराधना बचाते हुए गमन करना ईर्या-समिति है।
३९७. इन्द्रियों के विषय तथा पाँच प्रकार के स्वाध्याय का कार्य छोड़कर
केवल गमन-क्रिया मे ही तन्मय हो, उसीको प्रमुख महत्त्व देकर उपयोगपूर्वक (जागृतिपूर्वक) चलना चाहिए।
३९८. गमन करते समय इस बात की भी पूरी सावधानी रखनी चाहिए
कि नाना प्रकार के जीव-जन्तु, पशु-पक्षी आदि इधर-उधर से चारे-दाने के लिए मार्ग मे इकट्ठा हो गये हों तो उनके सामने भी नहीं जाना चाहिए. ताकि वे भयग्रस्त न हो।
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समणसुतं
३९९. न लवेज्ज पुट्ठो सावज्जं, न निरट्ठे न मम्मयं । अप्पणट्ठा परट्ठा वा, उभयस्सन्तरेण वा ॥ १६॥ न लपेत् पृष्ट. सावद्य, न निरर्थ न आत्मार्थ परार्थ वा,
मर्मंगम् । उभयस्यान्तरेण वा ॥१६॥
४००. तहेव
फरुसा
भासा,
गुरुभूओवघाइणी ।
सच्चा-वि सा न वत्तव्वा, जओ पावस्स आगमो ॥१७॥ तथैव परुपा सत्यापि सा न वक्तव्या, यतो पापस्य आगम ॥ १७ ॥
भाषा,
गुरुभूतोपघातिनी ।
४०१. तहेव काणं काणे त्ति, पंडगं पंडगे त्ति वा । दाहियं वा वि रोगि त्ति, तेणं चोरे त्ति नो वए ॥१८॥ तथैव काण कोण इति, पण्डक पण्डक इति वा । व्याधित वाऽपि रोगी इति, स्तेन चौर इति नो वदेत् ॥ १८॥
४०२. पेसुष्णहासकक्कस परणिदाप्पप्प संसा विहादी | वज्जित्ता सपरहियं, भासासमिदी हवे कहणं ॥ १९॥ पैशुन्यहामकर्कश - परनिन्दात्मप्रशसा विकथादीन् । वर्जयित्वा स्वपरहित, भाषासमिति भवेत् कथनम् ॥१९॥
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४०३. दिट्ठ मियं असंदिद्धं, पडिपुण्णं अयं परमणविग्गं, भासं
वियंजियं ।
निसिर अत्तवं ॥२०॥ दृष्टा मिताम् असन्दिग्धा, प्रतिपूर्णां व्यवताम् । अजल्पनशीला अनुद्विग्ना, भाषा निसृज आत्मवान् ||२०||
४०४. दुलहा उ मुहादाई, मुहाजीवी वि दुल्लहा । मुहादाई मुहाजीवी, दोवि गच्छंति सोग्गइं ॥२१॥ दुर्लभा तु मुधादायिन मुधाजीविनोऽपि दुर्लभाः । मुधादायिनः मुधाजीविन, द्वाब्रपि गच्छतः सुगतिम् ॥ २१॥
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मोक्ष-मार्ग
१२९ ३९९ (भापा-समिति-परायण साधु) किसीके पूछने पर भी अपने
लिए, अन्य के लिए अथवा दोनो के लिए न तो सावध अर्थात् पाप-वचन बोले, न निरर्थक वचन बोले और न मर्मभेदी वचन का प्रयोग करे।
४०० तथा कठोर और प्राणियो का उपघात करनेवाली, चोट
पहचाने वाली भापा भी न बोले। ऐसा सत्य-वचन भी न बोले जिससे पाप का बन्ध होता हो ।
४०१. इसी प्रकार काने को काना, नपुंसक को नपुंसक, व्याधिग्रस्त
को रोगी और चोर को चोर भी न कहे।
४०२ पैशुन्य, हास्य, कर्कश-वचन, परनिन्दा, आत्मप्रशंसा, विकथा
(स्त्री, राज आदि की रसवर्धक या विकारवर्धक कथा) का त्याग करके स्व-पर हितकारी वचन बोलना ही भाषा-समिति है।
४०३ आत्मवान् मुनि ऐसी भाषा बोले जो आँखो देखी बात को कहती
हो, मित (सक्षिात) हो, सन्देहास्पद न हो, स्वर-व्यजन आदि से पूर्ण हो, व्यक्त हो, बोलने पर भी न बोली गयी जैसी अर्थात् सहज हो और उद्वेगरहित हो ।
४०४. मुधादायी-निष्प्रयोजन देनेवाले---दुर्लभ है और मुधाजीवी--
भिक्षा पर जीवन यापन करनेवाले--भी दुर्लभ है। मुधादायी
और मुधाजीवी दोनों ही साक्षात् या परम्परा से सुगति या मोक्ष प्राप्त करते है।
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१३०
समणसुतं
४०५. उग्गम-उप्पादण-एसपेहि, पिंडं च उवधि सज्जं वा । सोधंतस्स य मुणिणो, परिसुज्झइ एसणा समिदी ||२२|| उदगमोत्पादनेपणै, पिण्ड च उपथि शय्या वा । शोधयतन्त्र मुने, परिषद्धयति एपणा समिति. ॥२२॥ ४०६. ण वजाउनाउ जट्ठ, ण सरीरस्सुवच्यट्टु तेजट्ठं । णाण ठसंजमट्ठे, झाट्ठ चेव भुंजेज्जा ॥२३॥ न बलाय् स्वादार्थ, न शरीरस्योपचयार्थ तेजोऽर्थम् । ज्ञानार्थ सनमार्थ, ध्यानार्थ चैत्र भुञ्जीत ||२३|| आवियइ रसं । पीणेइ अप्पयं ॥२४॥ संति साहुणो । दाणभत्तेसणेरया ॥ २५॥ आपिवति रसम् । प्रीणात्यात्मानम् ||२४||
लोए
४०७-४०८. जहा दुमस्स पुप्फेस, भमरो ण य पुष्कं किलामेइ, सो य एमए समणा मुत्ता, जे विहंगमा व पुप्फेस, यथा द्रुमस्य पुष्पेषु, भ्रमर न च पुप्प क्लामयति, स च एवमेते श्रमणा मुक्ता, ये लोके सन्ति साधव I विहगमा इव पुष्पेषु, दानभक्तेपणारता. ॥२५॥
सुद्धं
सया ॥२७॥
४०९. आहाकम्म-परिणओ, फासुयभोई वि बंधओ होई । गवेसमाणो, आहाकम्मे विसो सुद्धो ॥२६॥ आधाकर्मपरिणत, प्राकभोजी अपि वन्धको भवति । शुद्ध गवेषयन्, आधाकर्मण्यपि स शुद्ध. ॥२६॥ ४१०. चक्खुसा पडिलेहिता, पमज्जेज्ज जयं जई । आइए निक्खिवेज्जा वा, दुहओवि समिए चक्षपा प्रतिलिख्य, प्रमार्जयेत् यतिः । आददीत निक्षिपेद् वा, द्विधाऽपि समित सदा ||२७|| ४११. एगंते अच्चिते दूरे, गूढे विसालमविरोहे | उच्चारादिच्चाआ, पदिठावणिया हवे समिदी ॥ २८ ॥ एकान्ते अचित्ते दूरे, गूढे विशाले उच्चारादित्यागः, प्रतिष्ठापनिका भवेत्
यत
अविरोधे | समितिः ॥२८॥
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मोक्ष-मार्ग
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४०५. उद्गम-दोप, . उत्पादन-दोप और अशन-दोपो से रहित भोजन,
उपधि और शय्या-बसलिका आदि की शुद्धि करनेवाले मुनि के एपणा ममिति शुद्ध होती है।
४०६ मुनिजन न तो बल या आय बढाने के लिए आदार करते है,
न स्वाद के लिए करते हे और न शरीर के उपचय या तेज के लिए करते है । वे ज्ञान, मयम और ध्यान की सिद्धि के लिए
ही आहार करते है। ४०७-४०८ जैसे भ्रमर पुष्यो को तनिक भी पीडा पहुँचाये बिना रम ग्रहण
करता है और अपने को तृप्त करता है, वैसे ही लोक मे विचरण करनेवाले बाह्याभ्यन्तर परिग्रह से रहित श्रमण दाता को किसी भी प्रकार का कष्ट दिये बिना उसके द्वारा दिया गया प्रासुक आहार ग्रहण करते है। यही उनकी एपणा समिति है। यदि प्रासुक-भोजी साधु आधाकर्म से युक्त एवं अपने उद्देश्य से बनाया गया भोजन करता है तो वह दोष का भागी हो जाता है। किन्नु यदि वह उद्गमादि दोपो से रहित शद्ध भोजन की गवेषणापूर्वक कदाचित् आधाकर्म से युक्त भोजन भी कर लेता है तो भावों
से शुद्ध होने के कारण वह शुद्ध है। ४१० यतना (विवेक-) पूर्वक प्रवृत्ति करनेवाला मुनि अपने दोनों प्रकार
के उपकरणो को ऑखो से देखकर तथा प्रमार्जन करके उठाये
और रखे । यही आदान-निक्षेपण समिति है। ४११. माधु को मल-मूत्र का विमर्जन ऐसे स्थान पर करना चाहिए जहाँ
एकान्त हो, हरित (गीली) वनस्पति तथा त्रस जीवो से रहित हो, गाँव आदि से दूर हो, जहाँ कोई देख न सके, विशाल-विस्तीर्ण हो, कोई विरोध न करता हो। यह उच्चारादि त्यागरूप प्रतिष्ठापना या उत्सर्ग समिति है।
• आहार बनाते समय होनेवाले दोपो को उद्गमदोष कहते है । आहार-ग्रहण करने
मे होनेवाले दोपो को अशनदोष कहते है । उत्पादन विषयक दोषो को उत्पादनदोष कहते है। | अधिक आरम्भ तथा हिसा द्वारा तैयार किया गया भोजन ।
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समणसुत्तं
(इ) गुप्ति ४१२. संरंभसमारंभे, आरंभे य तहेव य।
मणं पवत्तमाणं तु, नियत्तेज्ज जयं जई ॥२९॥ संरम्भे समारम्भे, आरम्भे, च तथैव च।। मनः प्रवर्तमान तु. निवर्तयेद् यतं यतिः ॥२९॥
४१३. संरंभसमारंभे, आरभे य तहेव य।
वयं पवत्तमाणं तु, नियत्तेज्ज जयं जई ॥३०॥ सरभ्भे समारम्भे, आरम्भे च तथैव च।।
वचः प्रवर्तमानं तु, निवर्तयेद् यतं यतिः ॥३०॥ ४१४. सरंभसमारभे, आरंभम्मि तहेव य।
कायं पवत्तमाणं तु, नियत्तेज्ज जयं जई ॥३१॥ सरम्भे समारम्भे, आरम्भे तथैव च। कायं प्रवर्तमानं तु, निवर्तयेद् यतं यतिः ॥३१॥
४१५. खेत्तस्स वई गयरस्स, खाइया अहव होइ पायारो।
तह पावस्स णिरोहो, ताओ गुत्तीओ साहुस्स ॥३२॥ क्षेत्रस्य वृत्तिनगरस्य, खातिकाऽथवा भवति प्राकारः । तथा पापस्य निरोधः, ताः गुप्तयः साधोः ॥३२॥
४१६. एया पवयणमाया, जे सम्मं आयरे मुणी।
से खिप्पं सव्वसंसारा, विप्पमुच्चइ पडिए ॥३३॥ एताः प्रवचनमाः , यः सम्यगाचरेन्मनिः ।। स क्षिप्रं सर्वसंसारात्, विप्रमुच्यते पण्डितः ॥३३॥
२७. आवश्यक सूत्र ४१७. परिचत्ता परभावं, अप्पाणं झादि णिम्मलसहावं ।
अप्पवसो सो होदि हु, तस्स दु कम्म भणंति आवासं ॥१॥ परित्यक्त्वा परभावं, आत्मानं ध्यायति निर्मलस्वभावम् । आत्मवशः स भवति खलु, तस्य तु कर्म भणन्ति आवश्यकम् ॥१॥
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मोक्ष मार्ग
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(इ) गुप्ति ४१२. यतनामम्पन्न (जागरूक) यति म रम्भ, समारम्भ व आरम्भ में
प्रवर्त्तमान मन को रोके-उसका गोपन करे ।
४१३. यतनासम्पन्न यति संरम्भ, समारम्य व आरम्भ मे प्रवर्तमान वचन
को रोके-उसका गोपन करे ।
८१८. यतनासम्पन्न यति मरम्भ, समारम्भ व आरम्भ मे प्रवर्तमान
काया को रोके--उसका गोरनारे ।
४१५. जैसे खेत की रक्षा बाड़ और नगर की रक्षा खाई या प्राकार
करते है, वैसे ही पान-निरोधक मियाँ माधु के मयम की रक्षा करती है।
४१६. जो मुनि इन आठ प्रवचन माना यो का सम्यक आचरण करता है,
वह ज्ञानी शीघ्र समार से मुक्त हो जाता है।
२७. आवश्यकसूत्र
४१७. पर-भाव का त्याग करके निर्मल-स्वभावी आत्मा का ध्याता
आत्मवशी होता है । उसके कर्म को 'आवश्यक' कहा जाता है।
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समणसुत्त
४१८. आदासएण हीणो, पब्भट्ठो होदि चरणदो समणो।
पुयुत्तकमेण पुणो, तम्हा आवासयं कुज्जा ॥२॥ आवश्यकेन हीन. प्रभ्रष्टो भवति चरणतः श्रमणः ।
पूर्वोनक्रमेग पूना, तस्मादावश्यकं कुर्यात् ॥२॥ ४१९. पडिकमणपहदिकिरियं, कुव्वतो णिच्छयस्स चारित्तं ।
लेण दु विरागचरिए, समणो अब्भुट्टिदो होदि ॥३॥ प्रतिक्रमणप्रभृतिक्रिया, कुर्वन् निश्चयस्य चारित्रम् ।
तेन तु विराग बरिते, श्रमणोऽभ्युत्थितो भवति ॥३॥ ४२०. वयणमचं पडिकमणं, वयणमयं पच्चखाण नियमं च ।
आलोयण वयणमय, तं सव्वं जाण सज्झाउँ ॥४॥ वचनमय प्रतिक्रमण, वचनमय प्रत्याख्यान नियमश्च ।
आलोचन वचनमय, तत्सर्व जानीहि स्वाध्यायम् ॥४॥ ४२१. जदि सक्कदि कादुजे, पडिकमणादि करेज्ज झाणमयं ।
सत्तिविहीणो जा जइ, सद्दहण चेव कायव्वं ॥५॥ यदि शक्यते कर्त्तम् प्रतिक्रमण दिक वृर्याद् ध्यानमयम् ।
याक्तिविहीनो यावद्यदि, श्रद्धानं चैव कर्तव्यम् ॥५॥ ४२२. सामाइयं
चउवीसत्थओ वंदणयं । पडिक्कमणं काउस्सग्गो
पच्चक्खाणं ॥६॥ सामायिकम् चतुविशतिस्तवः वन्दनकम् ।
प्रतिक्रमणम्, कायोत्सर्गः प्रत्याख्यानम् ॥६॥ ४२३. समभावो सामइयं, तणकंचण-सत्तुमित्तविसओ ति।
निरभिस्संगं चित्तं, उचियपवित्तिप्पहाणं च ॥७॥ समभावो सामायिकं, तृणकाञ्चनशत्रु मित्रविषयः इति ।।
निरभिष्वङ्ग चित्तं, उचितप्रवृत्तिप्रधानं च ॥७॥ ४२४. वयणोच्चारणकिरियं, परिचत्ता वीयरायभावेण ।
जो झायर्याद अप्पाणं, परमसमाही हवे तस्स ॥८॥ वचनोच्चारण क्रिया, परित्यक्त्वा बीतरागभावेन । यो ध्यायत्यात्मा, परमसमाधिर्भवेत् तस्य ॥८॥
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मोक्ष मार्ग
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४१८ जो श्रमण आवश्यक कर्म नहीं करता, वह चारित्र से भ्रष्ट है .. अनः पूर्वोक्त क्रम से आवश्यक अवश्य करना चाहिए ।
४१९, जो निश्चयचारित्रस्वरूप प्रतिक्रमण आदि क्रियाएँ करता है, वह श्रमण वीतराग चारित्र में समुत्थित या आड होता है ।
४२० ( परन्तु ) वचनमय प्रतिक्रमण, वचनमय प्रत्याख्यान वचनमय नियम और वचनमय आलोचना - ये सब तो केवल स्वाध्याय है ( चारित्र नहीं है) ।
४२१. ( अतएव ) यदि करने की शक्ति और सम्भावना हो तो ध्यानमय प्रतिक्रमण आदि कर। इस समय यदि शक्ति नहीं है तो उनकी श्रद्धा करना ही कर्तव्य है- श्रेयस्कर है |
४२२. सामायिक, चतुर्विगति जिन स्तव, वन्दना, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग और प्रत्याख्यान - ये छह आवश्यक है ।
४२३. तिनके और सोने में, शत्रु और मित्र मे समभाव रखना ही सामायिक है । अर्थात् रागद्वेषरूप अभिष्वगरहित 1 ध्यान या अध्ययन रूप ) उचित प्रवृत्तिप्रधान चित्त को सामायिक कहते है ।
४२४. जो वचन-उच्चारण की क्रिया का परित्याग करके वीतरागभाव से आत्मा का ध्यान करता है, उसके परमममाथि या सामायिक होती है ।
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समणमुत्तं
४२५. विरदो सव्वसावज्जे, तिगुत्तो पिहिदिदिओ।
तस्स सामाइगं ठाई, इदि केलिसासणे ॥९॥ विरतः सर्वमावचे, त्रिगुप्तः पिहितेन्द्रियः ।।
तम्य सामायिक स्थायि, इति केवलिशासने ॥९॥ ४२६. जो समो सव्वभूदेसु थावरेसु तसेसु वा ।
तस्स सामायिगंठाई, इदि केवलिसासणे ॥१०॥ यः समः सर्वभूतेप, स्थावरेप त्रसेप वा।
तम्य मामायिक स्थायि, इति केवलिशासने ॥१०॥ ४२७. उसहादिजिणवराणं, णामणिति गुणाणकित्ति च ।
काऊण अच्चिदूण य, तिसुद्धिपणामो थवो ओ॥११॥ ऋप भादिजिनवराणा, नामनिरुक्ति गुणानुकीति च । कृत्वा अचिन्वा च, त्रिशुद्धिप्रणामः स्तवो नेयः ।।११।
४२८. दवे खेत्ते काले, भावे य कयावराहमोहणयं ।
णिदणगर हणजुत्तो, मणवचकायेण पडिक्कमणं ॥१२॥ द्रव्ये क्षेत्रे काले, भावे च कृतापराधशोधनम् । निन्दनगह णयुक्तो, मनोवच कायेन प्रतिक्रमणम् ॥१२॥
४२९. आलोचणणिदणगरह-णाहिं अब्भुट्टिओ अकरणाए।
तं भावपडिक्कमणं सेस पुण दव्वदो भणिअ ॥१३॥ आलोचन निन्दनगर्हणाभि, अभ्युत्थितश्चाउकरणाय । तद् भावप्रतिक्रमण, पं पुनद्रव्यतो भणितम् ॥१३॥
४३०. इच्छाय अणुण्णवणा; अब्बावाहं यजत्त अवणाय ।
अवराह-सामणा वि, व छट्ठाणा हुति वदण ए॥१४॥ इच्छाच अनुज्ञापना, अव्यावाधश्च यात्रा यापना च।।
अपराध-क्षामण अपि, च पट् स्थानानि भवन्ति बंदन के ॥१४॥ ४३१. विणओवयार माणस्स-मंजणा, पूजणा गुरुजणस्स ।
तित्थयराणय आणा-सुयधम्मा राहणा किरिया ॥१५॥ विनयोपकारः मानस्य-भंजनं, पूजनं गुरुजनस्य । तीर्थकराणाच आज्ञा-श्रुतधर्म आराधना अक्रिया ॥१५॥
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मोक्ष-मार्ग
४२५. जो सर्व-मावद्य (आरम्भ) से विरत है, विगलियुक्त है तथा जितेन्द्रिय है, उसके सामायिक स्थायी होती है. ऐसा केवल शासन मे कहा गया है ।
४२६ जो सर्वभूत स्थावर व श्रम जीवो) के प्रति समभाव रखना है, उसके सामायिक स्थायी होती है ऐना केव मासन में कहा गया है ।
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४२७. ऋम आदि चौवीस तीर्थकरों के नामों की निमत्ति तथा उनके गुणो का कीर्तन करना, गध-पुष्प-अक्षतादि से पूजा-अर्चा करके, मन वचन काय की शुद्धिपूर्वक प्रणाम करना चतुविशतिस्तव नामक दूसरा आवश्यक है ।
४२८. निन्दा तथा ग से युक्त साधु का मन वचन काय के द्वारा, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के व्रताचरणविषयक दोषों या अपराधों की आचार्य के समक्ष आलोचनापूर्वक शुद्धि करना प्रतिक्रमण कहलाता है ।
४२९ आलोचना, निन्दा तथा गी के द्वारा प्रतिक्रमण करने में तथा पुनः दोष न करने मे उद्यन साधु के भाव प्रतिक्रमण होता है । शेष सब तो ( प्रतिक्रमण-पाठ आदि करना द्रव्य-प्रतिक्रमण है ।
४३०. वन्दना के छह स्थान होते है- वदन की इच्छा प्रकट करना, गुरु के मर्यादित स्थान मे जाने की अनुज्ञा लेना, निर्विघ्न धर्म-साधना की इच्छा करना, सयम-यात्रा ओर इद्रिय-जय का अनुमोदन करना तथा प्रमादवश हुए जाचरणों के लिए क्षमा-याचना करना ।
४३१. वंदना करना उपचार नाम का विनय है। उनमे अभिमान का विलय होता है, गुरुजनों की पूजा होती है. तीर्थकरो की आज्ञा और श्रुतधर्म की आराधना होती है तथा उसका पारम्परिक फल परम ध्यान (अक्रिया) होता है ।
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समणमुत्त
४३२. मीत्तण बधण रयणं, रागादीमाबजारण किच्चा ।
अप्पाण सो झायदि, सस्स टु होदि ति डिकम्तण ॥१६॥ सब बचन र चला गादिभावारण कृत्वा । आजान यो ध्यायति, नस्य तु भवन ति प्रतिक्रणम् ॥१६॥
४३३. झाली हो साहु, परिचाग कुणइ सव्वदोसाण ।
तम्हा दु झाणमेव हि, सव्वऽदिचारस्स पडिक्कमण ।।१७॥ ध्याननिलीन मात्रः. परित्याग करोति सर्वदोपाणाम् ।
तस्मात् तु ध्यानमेव हि सर्वातिचारम्य प्रतिक्रमणम् ।। १७॥ ४३४. देवस्सियणियमादिसु, जहत्तमाणेण उत्तकालम्हि ।
जिण गुर्णाचतमजुत्तो, काउसग्गो तणुविसगो ॥१८॥ देवसिकनियमादिषु यथोक्तमानेन उनकाले। जिन गुणचिन्तनयुक्तः
कायोत्सर्गस्तनुविमर्गः ॥१८॥ ४३५. जे के उबसग्गा, देवमाणस-तिरिक्खऽचेदनिया।
ते सव्ये अधिआसे, काउसग्गेठिदो सतो ॥१९॥ ये केननोपसर्गा, देवमानुप-तिर्यगचेतनिका ।
तान्यनिध्याम, कायोत्सर्गे स्थितः मन् ॥१९॥ ४३६. मोत्तण सयल जप्प-मणागयसुहमसुहवारणं किच्चा।
अप्पाणं जो झायदि, पच्चक्खाण हवे तस्स ॥२०॥ पुक्वा सकलजल्य-मनागनशुभा भनिवारणं कृत्वा । आत्मान या ध्यायति, प्रत्याख्यानं भवेत् तस्य ॥२०॥
४३७. णियभावं ण वि मुच्चइ, परभावं व गेहए केइं।
जाणदि पस्सदि सव्व, सोऽहं इदि चितए णाणी ॥२१॥ निजभावं नापि मुञ्चति, परभाव नैव गृह्णाति कमपि ।
जानाति पश्यति सर्व, सोऽहम् इति चिन्तयेद् ज्ञानी ॥२१॥ ४३८. जं किंचि मे दुच्चरितं, सव्वं तिविहेण वोसिरे।
सामाइयं तु तिविहं, करेमि सव्वं णिरायारं ॥२२॥ यत्किचित् मे दुश्चरित्रं, सर्व विविधेन विमृजामि । सामायिकं तु त्रिविधं, करोमि सर्व निराकारम् ॥२२॥
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मोक्ष-मार्ग
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४३२. वचन- रचना मात्र को त्यागकर जो माधु रागादि भावों को दूर कर आत्मा को ध्याता है, उसीके ( पारमार्थिक ) प्रतिक्रमण होता है ।
४३३. ध्यान मे लीन साधु सब दोषों का परित्याग करता है । इसलिए ध्यान ही समस्त अतिचारों (दोषों) का प्रतिक्रमण है ।
४३४. दिन, रात, पक्ष, मास, चतुर्मास आदि में किये जानेवाले प्रतिक्रमण आदि शास्त्रोक्त नियमों के अनुसार सत्ताईस श्वासो - च्छ्वास तक अथवा उपयुक्त काल तक जिनेन्द्रभगवान् के गुणों का चितवन करते हुए शरीर का ममत्व त्याग देना कायोत्सर्ग नामक आवश्यक है ।
४३५. कायोत्सर्ग मे स्थित साधु देवकृत, मनुष्यकृत, तिर्यञ्चकृत तथा अचेतनकृत ( प्राकृतिक, आकस्मिक) होनेवाले समस्त उपसर्गों ( बाधाओं, आपत्तियों) को समभावपूर्वक सहन करता है ।
४३६. समस्त वाचनिक विकल्पों का त्याग करके तथा अनागत शुभाशुभ का निवारण करके जो साधु आत्मा को ध्याता है, उसके प्रत्याख्यान नामक आवश्यक होता है ।
४३७. जो निज-भाव को नही छोड़ता और किसी भी पर-भाव को ग्रहण नही करता तथा जो सबका ज्ञाता - द्रष्टा है, वह (परमतत्त्व) 'मैं' ही हूँ । आत्मध्यान मे लीन ज्ञानी ऐसा चिन्तन करता है ।
४३८. ( वह ऐसा भी विचार करता है कि - ) जो कुछ भी मेरा दुश्चरित्र है, उस सबको मैं मन वचन कायपूर्वक तजता हूँ और निर्विकल्प होकर त्रिविध सामायिक करता हूँ ।
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२८. तपसूत्र (अ) बाह्यतप ४३९. जत्थ कसायणिरोहो, बंभं जिणपूर्ण अणसणं च ।
सो सवो चेव तवो, विसेसओ मुद्धलोयंमि ॥१॥ यत्र कपायनिरोधो, ब्रह्म जिनपूजनम् अनशन च ।
तत् सर्व चैव तपो, विशेपत मुग्धलोके ।।१।। ४४०. सो तवो दुविहो वृत्तो, बाहिरब्भतरो तहा ।
बाहिरो छव्विहो वुत्तो, एवमब्भतरो तवो ॥२॥ तत् तपो द्विविधं उक्त, वाह्यमाभ्यन्तर तथा ।
वाह्यं पड्विधं उक्तं, एवमाभ्यन्तर तर ॥२॥ ४४१. अणसणमूणोयरिया, भिक्खायरिया य रसपरिच्चाओ।
कायकिलेसो संलोणया य, बज्झो तवो होइ ॥३॥ अनशनमूनोदरिका, भिक्षाचर्या च रसपरित्याग. ।
कायक्लेगः सलीनता च, बाह्य तपो भवति ॥३॥ ४४२. कम्माण णिज्जरलैं, आहारं परिहरेइ लीलाए ।
एगदिणादिपमाणं, तस्स तवं अणसणं होदि ॥४॥ कर्मणां निर्जरार्थम्, आहारं परिहरति लीलया ।
एकदिनादिप्रमाण, तस्य तपः अनशनं भवति ॥४॥ ४४३. जे पयणुभत्तपाणा, सुयहेऊ ते तवस्सिणो समए ।
जो अ तवो सुयहीणो, बाहिरयो सो छुहाहारो॥५॥ ये प्रतनुभक्तपाना., श्रुतहेतोस्ते तपस्विनः समये ।
यच्च तपः श्रुतहीनं, बाह्यः स क्षुदाधारः ।।५।। ४४४. सो नाम अणसणतवो, जेण मणोऽमंगुलं न चितेइ ।
जेण न इंदियहाणी, जेण य जोगा न हायंति ॥६॥ तद् नाम अनशनतपो, येन मनोऽमङ्गलं न चिन्तयति । यन नेन्द्रियहानि-र्येन च योगा न हीयन्ते ॥६॥
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२८. तपसूत्र (अ) बाह्यतप ४३० जहाँ कपायों का निरोध, ब्रह्मचर्य का पालन, जिनपूजन तथा
अनगन (आत्मलाभ के लिए) विया जाता है, वह मब तप है । विशेषकर मा अर्थात् भवतजन यही तप करते है।
४४०. तप दो प्रकार का है--वाह्य और आभ्यन्तर। बाह्य तप छह
प्रकार का है । इसी तरह आभ्यन्तर तप भी छह प्रकार का कहा गया है ।
४४१. अनशन, अवमोदर्य (ऊनोद रिका), भिक्षाचर्या, ग्म-परित्याग,
कायक्लेश और सलीनता-इस तरह बाह्यतप छह प्रकार का है।
४४२. जो कर्मो की निर्जरा के लिए एक-दो दिन आदिका (यथाात्रित)
प्रमाण तय करके आहार का त्याग करता है, उसके अनशन तप होता है ।
४४३. जो शास्त्राभ्यास (स्वाध्याय) के लिए अल्प-आहार करते है
वे ही आगम में तपस्वी माने गये है। श्रुतविहीन अनशन तप तो केवल भूख का आहार करना है--भूखे मरना है ।
४४४. द स्तव में वही अनशन-तप है जिससे मन मे अमंगल की चिन्ता
उत्पन्न न हो, इन्द्रियों की हानि (शिथिलता) न हो तथा मन वचन कायस्प योगो की हानि (गिरावट) न हो।
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समणसुत्तं ४४५. बलं थामं च पहाए, सद्धामारोग्गमप्पणो ।
खेत्तं कालं च विनाय, तहप्पाणं निजुंजए ॥७॥ बल स्थाम च प्रेक्ष्य श्रद्धाम् आरोग्यम् आत्मनः ।
क्षेत्र काल च विज्ञाय तथा आत्मान नियुञ्जीत ।।७।। ४४६. उवसमणो अक्खाणं, उववासो वण्णिदो सभासेण ।
तम्हा भुंजंता वि य, जिदिदिया होंति उववासा ॥८॥ उपशमनम् अक्षाणाम्, उपवास. वर्णित: समासेन ।
तस्मात् भुजाना: अपि च, जितेन्द्रिया: भवन्ति उपवासाः ॥८॥ ४४७. छट्टट्ठमदसमदुवालसेंहिं, अबहुसुयस्स जा सोही ।
तत्तो बहुतरगुणिया, हविज्ज जिमियस्स नाणिस्स ॥९॥ षष्ठाप्ट मदशमद्वादशै-रबहुश्रुतस्य या शुद्धिः ।
ततो बहुतरगुणिता, भवेत् जिमितस्य ज्ञानिनः ॥९॥ ४४८. जो जस्स उ आहारो, तत्तो ओमं तु जो करे ।
जहन्नणेगसिस्थाई, एवं दवेण ऊ भवे ॥१०॥ यो यस्य त्वाहारः, ततोऽवमं तु यः कुर्यात् ।
घन्येनै कसिक्थादि, एवं द्रव्येण तु भवेत् ।।१०।। ४४९. गोयरपमाणदायग-भायणणाणाविधाण जं गहणं ।
तह एसणस्स गहणं, विविधस्स य वुत्तिपरिसंखा ॥११॥ गोचरप्रमाण दायक-भाजननानाविधान यद् ग्रहणम् ।
तथा एपणीयस्य ग्रहण, विविधस्य च वृत्तिपरिसख्या ।।११।। ४५०. खीरदहिसप्पिमाई, पणीयं पाणभोयणं ।
परिवज्जणं रसाणं तु, भणियं रसविवज्जणं ॥१२॥ क्षीरदधिसपिरादि, प्रणीतं पानभोजनम् ।
परिवर्जनं रसानां तु, भणितं रसविवर्जनम् ।।१२।। ४५१. एगंतमणावाए, इत्थीपसुविवज्जिए ।
सयणासणसेवणया, विवित्तसयणासणं ॥१३॥ एकान्तेऽनापाते, स्त्रीपशुविवजिते । शयनासनसेवनता, विविक्तशयनासनम् ॥१३॥
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मोक्ष-मार्ग
१४३ ४४५. अपने बल, तेज, श्रद्धा तथा आरोग्य का निरीक्षण करके तथा
क्षेत्र और काल को जानकर अपने को उपवास में नियुक्त करना चाहिए । (क्योंकि शक्ति में अधिक उपवास करने से हानि
होती है।) ४४६. सक्षेप गे इन्द्रियों के उपशमन को ही उपवास कहा गया है ।
अत. जितेन्द्रिय साधु भोजन करते हुए भी उपवासी ही होते है ।
४४७. अबहुश्रुत अर्थात् अज्ञानी तपस्वी की जितनी विशुद्धि दो-चार
दिनो के उपवास से होती है, उससे बहुत अधिक विशुद्धि नित्य भोजन करने वाले ज्ञानी की होती है।
४४८. जो जितना भोजन कर सकता है, उसमे से कम से कम एक
सिक्थ अर्थात् एक कण अथवा एक ग्रास आदि के रूप में कम भोजन करना द्रव्यरूपेण ऊनोदरी तप है।
४४९. आहार के लिए निकलनेवाले साधु का, वह वृत्तिपरिसख्यान
नामक तप है, जिसमे वह ग्रहण का प्रमाण करता है कि आज भिक्षा के लिए इतने घरों मे जाऊँगा, अमुक प्रकार के दाता द्वारा दिया गया अथवा अमुक प्रकार के बर्तन में रखा गया आहार ग्रहण करूँगा, अमुक प्रकार का जैसे मॉड, सत्तू आदि का भोजन मिलेगा तो करूँगा आदि-आदि ।
४५०. दूध, दही, घी आदि पौष्टिक भोजन-पान आदि के रसों के त्याग
को रस-परित्याग नामक तप कहा गया है ।
४५१. एकान्त, अनापात (जहाँ कोई आता-जाता न हो) तथा स्त्री
पुरुपादि से रहित स्थान मे शयन एव आसन ग्रहण करना, विधिवत-शयनासन (प्रतिसली.ता) नामक तप है ।
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समणसुतं
४५२. ठाणा
उग्गा
वीरासणाईया, जीवस्स उ सुहावहा । जहा धरिज्जंति, कायकिलेस तमाहियं ॥ १४ ॥ स्थानानि वीरासनादोनि, जीवस्य तु सुखावहानि । उग्राणि यथा धार्यन्ते, कायक्लेश स आख्यात. ॥१४॥ ४५३. सुहेण भाविदं णाणं, दुहे जादे विणस्सदि । तम्हा जहाबलं जोई, अप्पा दुक्खेहि भावए ॥१५॥ सुखेन भावितं ज्ञानं, दुखे जाते विनश्यति । तस्मात् यथाबल योगी, आत्मानं दुखै भावयेत् ॥१५॥
तिगिच्छिति ।
४५४-४५५. ण दुक्खं ण सुखं वा वि, जहा हेतु तिमिच्छिए सुजुत्तस्स, दुक्खं वा जइ वा सुहं ॥१६॥ मोहक्खए उ जुत्तस्स, दुक्खं वा जइ वा सुहं । मोहक्खए जहाहेउ, न दुक्खं न वि वा सुहं ॥१७॥ न दुख न सुख वाऽपि यथाहेतु चिकित्सति । चिकित्सते सुयुक्तस्य दुख वा यदि वा सुखम् ॥ १६॥ मोहक्षये तु युक्तस्य, दुख वा यदि वा सुखम् । मोहक्षये यथाहेतु, न दुखं नाऽपि वा सुखम् ॥१७॥
( आ ) आभ्यन्तरतप
४५६. पायच्छित्तं विणओ, वेयावच्चं तहेव सज्झावो । झाणं च विउस्सग्गो, एसो अभितरो तवो ॥१८॥ प्रायश्चित्तं विनय, वैयावृत्यं तथैव स्वाध्याय. । ध्यानं च व्युत्सर्ग, एतदाभ्यन्तर तप ।।१८।। ४५७. वद-समिदि - सील-संजम परिणामो करणणिग्गहो भावो । सो हवदि पायच्छित्तं, अणवरयं चैव कायव्वो ॥ १९ ॥ व्रत-समिति - शील-सयम- परिणाम. करणनिग्रहो भाव. । स भवति प्रायश्चित्तम्, अनवरत चैव कर्तव्यः ॥ १९॥ ४५८. कोहादि - सगब्भाव-क्खयपहुदि-भावणाए णिग्गहणं । पायच्छित्तं भणिदं णियगुणचिता य णिच्छयदो ॥ २०॥ क्रोधादि-स्वकीयभाव-क्षयप्रभृति - भावनाया निग्रहणम् । प्रायश्चित्तं भणितं निजगुणचिन्ता च निश्चयत ॥२०॥
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मोक्ष-मार्ग
१४५ ४५२ गिरा, कन्दरा आदि भय कर स्थानो मे, आत्मा के लिए
सुखावह, वीरासन आदि उग्र आसनो का अभ्यास करना या धारण करना कायक्लेश नामक तप है ।
४५३ सखपूर्वक प्राप्त किया हआ ज्ञान दु ख के आने पर नष्ट हो जाता
है । अत. योगी को अपनी शक्ति के अनुसार दु.खो के द्वारा अर्थात् कायक्लेशपूर्वक आत्म-चिन्तन करना चाहिए।
४५४-४५५. रोग की चिकित्सा मे रोगी का न सुख ही हेतु होता है, न दुःख
ही । चिकित्सा कराने पर रोगी को दुख भी हो सकता है और सख भी। इसी तरह मोह के क्षय मे सुख और दु.ख दोनों हेतु नहीं होते । मोह के क्षय मे प्रवृत्त होने पर साधक को सुख भी हो सकता है और दुख भी। (कायक्लेश तप में साधक को शरीरगत दु ख या बाह्य व्याधियो को सहन करना पड़ता है। लेकिन वह मोहक्षय की साधना का अंग होने से अनिष्टकारी
नही होता ।) (आ) आभ्यन्तरतप ४५६ प्रायश्चित्त, विनया, वैयावत्य, स्वाध्याय, ध्यान और व्युत्सर्ग
(कायोत्सर्ग)--इस तरह छह प्रकार का आभ्यन्तर तप है।
४५७. व्रत, समिति, शील, सयम-परिणाम तथा इन्द्रियनिग्रह का भाव
ये सब प्रायश्चित्त तप है जो निरन्तर कर्तव्य-नित्य करणीय है।
४५८ क्रोध आदि स्वकीय भावों के क्षय वा उपशम आदि की भावना
करना तथा निजगुणों का चिन्तन करना निश्चय से प्रायश्चित्त तप है।
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समणसुत्तं ४५९. शंताणंतभदेण, समज्जिअ-सुहअसुहकम्मसंदोहो ।
तवचरणेण विणस्सदि, पायच्छित्तं तवं तम्हा ॥२१॥ अनन्तानन्तभवेन, समर्जित-शुभाशुभकर्मसन्दोहः ।
तपश्चरणेन विनश्यति, प्रायश्चित्तं तपस्तस्मात् ॥२१॥ ४६०. आलोयण पडिकमणं, उभयविवेगो तहा विउस्सरगो ।
तव छेदो मूलं वि य, परिहारो चेव सद्दहणा ॥२२॥ आलोचना प्रतिक्रमण, उभयविवेक' तथा व्युत्सर्ग ।
तप छेदो मूलमपि च, परिहार. चैव श्रद्धान ।।२२। ४६१. अणाभोगकिदं कम्म, जं कि पि मणसा कदं ।
तं सत्वं आलोचेज्ज ह, अव्वाखित्तेण चेदसा ॥२३॥ अनाभोगकृत व.र्म, यत्किमपि मनसा दृतम् ।
तत्सर्वमालोचयेत् खलु अव्याक्षिप्तेन चेतसा ॥२३॥ ४६२. जह बालो जंपन्तो, कज्जमकज्जं च उज्जुयं भणइ ।
तं तह आलोइज्जा, मायामयविप्पमुक्को वि ॥२४॥ यथा बालो जल्पन्, कार्यमकार्य च ऋजुक भणति ।
तत् तथाऽऽलोचयेन्मायामदविषमुक्त एव ॥२४॥ ४६३-४६४. जह कंटएण विद्धो, सवंगे वेयणहिओ होइ ।
तह चेव उद्धियम्मि उ, निस्सल्लो निव्वुओ होइ ॥२५॥ एवमणुद्धियदोसो, माइल्लो तेणं दुक्खिओ होइ । सो चेव चत्तदोसो, सुविसुद्धो निव्वुओ होइ ॥२६॥ यथा कण्टकेन विद्धः, सर्वाङ्गे वेदनादितो भवति । तथैव उद्धृते तु निश्शल्यो निर्वृतो भवति ॥२५॥ एवमनुद्धृतदोषो, मायावी तेन दुखितो भवति ।
स एव त्यक्तदोष , सविशुद्धो निवृतो भवति ॥२६॥ ४६५. जो पस्सदि अप्पाणं, समभावे संठवित्तु परिणाम ।
आलोयणमिदि जाणह, परमजिणंदस्स उवएसं ॥२७॥ यः परसत्यात्मानं, नमभावे सस्थाप्य परिणामम् । आलोचनमिति जानीत, परमजिनेन्द्रस्योपदेशम् ॥२७॥
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मोक्ष-मार्ग
१४७ ४५९. अनन्तानन्त भवो मे उपार्जित शुभाशुभ कर्मो के समूह का नाश
तपश्चरण से होता है। अत: तपश्चरण करना प्रायश्चित्त है ।
४६०. प्रायश्चित्त दस प्रकार का है-आलोचना, प्रतिक्रमण, उभय,
विवेक, व्युत्सर्ग, तप, छेद, मूल, परिहार तथा श्रद्धान ।
४६१. मन-वचन-काय द्वारा किये जानेवाले शुभाशुभ कर्म दो प्रकार के
होते है-आभोगकृत और अनाभोगकृत । दूसरो द्वारा जाने गये कर्म आभोगकृत है और दूसरों द्वारा न जाने गये कर्म अनाभोगकृत है। दोनों प्रकार के कर्मो की तथा उनमे लगे दोषों की आलोचना गुरु या आचार्य के समक्ष निराकुल चित्त से करनी
चाहिए । ४६२. जैसे बालक अपने कार्य-अकार्य को सरलतापूर्वक माँ के समक्ष
व्यक्त कर देता है, वैसे ही साध को भी अपने समस्त दोषो की
आलोचना माया-मद (छल-छद्म) त्यागकर करनी चाहिए । ४६३-४६४. जैसे कॉटा चुभने पर सारे शरीर मे वेदना या पीड़ा होती है और
कॉटे के निकल जाने पर शरीर निःशल्य अर्थात् सर्वाग सुखी हो जाता है, वैसे ही अपने दोषो को प्रकट न करनेवाला मायावी दु.खी या व्याकुल रहता है और उनको गुरु के समक्ष प्रकट कर देने पर सुविशुद्ध होकर सुखी हो जाता है-मन में कोई शल्य नही रह जाता।
४६५. अपने परिणामों को समभाव में स्थापित करके आत्मा को देखना
ही आलोचना है। ऐसा जिनेन्द्रदेव का उपदेश है ।
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१४८
समणसुत्तं ४६६. अन्भुट्ठाणं अंजलिकरणं, तहेवासणदायणं ।
गुरुभत्तिभावसुस्सूसा, विणओ एस वियाहिओ ॥२८॥ अभ्युत्थान मञ्जलिकरणं,
तथैवासनदानम् । गुरुभक्तिभावशुश्रूषा, विनय एप व्याख्यात. ॥२८॥ ४६७. दंसणणाणे विणओ, चरित्ततव-ओवचारिओ विणओ।
पंचविहो खलु विणओ, पंचमगइणाइगो भणिओ॥२९॥ दर्शनज्ञाने विनय-श्चारित्रतप-औपचारिको विनय ।
पञ्चविध. खलु विनयः, पञ्चमगतिनायको भणित ॥२९॥ ४६८. एकम्मि होलियम्मि, हीलिया हुंति ते सव्वे ।
एकम्मि पूइयम्मि, पूइया हुंति सव्वे ॥३०॥ एकस्मिन् हीलिते, हीलिता भवन्ति सर्वे ।
एकस्मिन् पूजिते, पूजिता भवन्ति सर्वे ॥३०॥ ४६९. विणओ सासणे मूलं, विणीओ संजओ भवे ।
विणयाओ विष्पमुक्कस्स, कओ धम्मो को तवो? ॥३१॥ विनय. शासने मल, विनीतः सयत. भवेत् ।
विनयात् विप्रमुक्तस्य, कुतो धर्मः कुतः तपः ? ॥३१॥ ४७०. विणओ मोक्खद्दारं, विणयादो संजमो तवो णाणं ।
विणएणाराहिज्जदि, आइरिओ सव्वसंघो य ॥३२॥ विनयो मोक्षद्वारं, विनयात् संयमस्तपो ज्ञानम् ।
विनयेनाराध्यते, आचार्यः सर्वसंघश्च ॥३२॥ ४७१. विणयाहीया विज्जा, देंति फलं इह परे य लोगम्मि ।
न फलंति विणयहोणा, सस्साणि व तोयहीणाई ॥३३॥ विनयाधीताः विद्याः, ददति फलम् इह परत्र च लोके ।
न फलन्ति विनयहीना, सस्यानीव तोयहीनानि ॥३॥ ४७२. तम्हा सव्वपयत्ते, विणीयत्तं मा कदाइ छंडेज्जा ।
अप्पसुदो वि य पुरिसो, खवेदि कम्माणि विणएण ॥३४॥ तस्मात् सर्वप्रयत्ने, विनीतत्वं मा कदाचित् छर्दयेत् । अल्पश्रुतोऽपि च पुरुषः, क्षपयति कर्माणि विनयेन ।।३।।
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१४९
मोक्ष-मार्ग '४६६. गुरु नथा वृद्धजनो के समक्ष आने पर खडे होना, हाथ जोड़ना,
उन्हे उच्च आसन देना, गुरुजनो की भावपूर्वक भवित तथा सेवा करना विनय तप है ।
का समय आने पर माके होगा, हम गोवा
४६७. दर्शनविनय, ज्ञानविनय, चारित्रविनय, तपविनय और औप
चारिकविनय----ये विनय तप के पाँच भेद कहे गये है. जो पचमगति अर्थात् मोक्ष में ले जाते है ।
४६८. एक के तिरस्कार में सबका तिरस्कार होता है और एक की
पूजा मे मवकी पूजा होती है। (इसलिए जहाँ कही कोई पूज्य या वृद्धजन दिखाई दे, उनका विनय करना चाहिए।)
४६९ विनय जिनशासन का मूल है। सयम तथा तप से विनीत
बनना चाहिए। जो विनय से रहित है, उसका कैसा धर्म और कैसा तप ?
४७०. विनय मोक्ष का द्वार है। विनय से संयम, तप तथा ज्ञान प्राप्त
होता है। विनय से आचार्य तथा सर्वसघ की आराधना होती है।
४७१. विनयपूर्वक प्राप्त की गयी विद्या इस लोक तथा परलोक में
फलदायिनी होती है और विनयविहीन विद्या फलप्रद नहीं होती, जैसे बिना जल के धान्य नही उपजता ।
४७२. इसलिए सब प्रकार का प्रयत्न करके विनय को कभी नहीं
छोडना चाहिए । अल्पश्रुत का अभ्यामी पुरुष भी विनय के द्वारा कर्मो का नाश करता है ।
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१५०
समणसुत्तं ४७३. सेज्जोगासणिज्जो , तहोवहिपडिलेहणाहि उवग्गहिदे ।
आहारोसहवायण-विकिंचणं वंदणादीहि ॥३५॥ राय्यावकाशनिपद्या, तथा उपधिप्रतिलेखनाभिः उपगृहीते । आहारौषधवाचना-विकिचन
वन्दनादिभिः ।।३५॥ ४७४. अद्धाणतेणसावद-रायणदीरोधणासिवे ओमे ।
वेज्जावच्चं उत्तं, संगहसारक्खणोवेदं ॥३६॥ अध्वस्तेनश्वापद-राजनदीरोधनाशिवे अवमे । वैयावृत्यमुक्त,
सग्रहसरक्षणोपेतम् ।।३६।। ४७५. परियट्टणा य वायणा, पडिच्छणाणुवेहणा य धम्मकहा ।
थुदिमंगलसंजुत्तो, पंचविहो होइ सज्झाओ॥३७॥ परिवर्तना च वाचना, पृच्छनाऽनुप्रेक्षणा च धर्मकथा ।
स्तुतिमङ्गलसयुक्त., पञ्चविधो भवति स्वाध्यायः ॥३७॥ ४७६. पूयादिसु णिरवेक्खो, जिण-सत्थं जो पढेइ भत्तीए ।
कम्ममल-सोहणळं, सुयलाहो सुहयरो तस्स ॥३८॥ पूजादिषु निरपेक्षः, जिनशास्त्रं यः पठति भक्त्या ।
कर्ममलशोधनार्थ, श्रुतलाभः सुखकरः तस्य ॥३८॥ ४७७. सज्झायं जाणंतो, पंचिदियसंवुडो तिगुत्तो य ।
होइ य एकग्गमणो, विणएण समाहिओ साहू ॥३९॥ स्वाध्यायं जानानः, पञ्चेन्द्रियसंवत. त्रिगुप्तः च ।।
भवति च एकाग्र मना , विनयेन समाहित साधु ॥३९॥ ४७८. णाणेण ज्झाणसिज्झी, झाणादो सव्वकम्मणिज्जरणं ।
णिज्जरणफलं मोक्खं, णाणब्भासं तदो कुज्जा ॥४०॥ ज्ञानेन ध्यानसिद्धिः ध्यानात् सर्वकर्मनिर्जरणम् ।
निर्जरणफल मोक्षः ज्ञानाभ्यास ततः कुर्यात् ॥४०॥ ४७९. बारसविहम्मि वि तवे, अभितरबाहिरे कुसलदिठे ।
न वि अत्थि न वि य होही, सज्झायसमं तवोकम्मं ॥४॥ द्वादशविधेऽपि तपसि, साभ्यन्तरबाह्ये कुशलदृष्टे । नापि अस्ति नापि च भविष्यति, स्वाध्यायसमं तप.कर्म ॥४१॥
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मोक्ष-मार्ग
१५१ ४३ जरया. वमति, आसन तथा प्रतिलेखन से उपकृत साधजनो
की आहार, औषधि, वाचना, मल-मल-विसर्जन तथा बन्दना आदि से सेवा-सुथपा करना वयावृत्य तप है।
४.७४. जो मार्ग में चलने से थक गये है, चोर, स्वापद (हिमपा)
राजा द्वारा व्यथित, नदी की रुकावट, मरी (प्लेग) आदि रोग तथा दुभिक्ष से पीडित है, उनकी सार-सम्हाल तथा रक्षा
करना वैयावृत्य है। ४७५. परिवर्तना, वाचना, पृच्छना, अनुप्रेक्षा और स्तुति-मगलपूर्वक
धर्मकथा करना-यह पाँच प्रकार का स्वाध्याय तप है ।
४७६. आधोने के लिए मुखकारी
४७६. आदर-सत्कार की अपेक्षा से रहित होकर जो वार्मम्पी मल
को धोने के लिए भक्तिपूर्वक जिनशास्त्रो को पड़ता है, उनका श्रुतलाभ स्व-पर मुखकारी होता है ।
४७७. स्वाध्यायी अर्थात् शास्त्रो का ज्ञाता माधु पाँचों इन्द्रियों से
संवत, तीन गुप्तियों से युक्त, विनय में समाहित तथा एकाग्रमन होता है।
४७८. ज्ञान मे ध्यान की सिद्धि होती है। ध्यान से सब कर्मो की
निर्जरा होती है। निर्जरा का फल मोक्ष है । अतः सतत ज्ञानाभ्यास करना चाहिए ।
४७९. बाह्याभ्यन्तर बारह तपों में स्वाध्याय के समान तप न तो है,
न हुआ है, न होगा।
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१५२
४८०. सयणासणठाणे
समणसुतं
वा, जे भिक्खू न वावरे | परिकित्तिओ ॥४२॥ व्याप्रियते । परिकीर्तितः ॥४२॥
कायस्स विउस्सग्गो, छट्ठो सो शयनासनस्थाने वा यस्तु भिक्षुर्न कायस्य व्युत्सर्ग, षष्ठः
स
सुहदुक्खतितिक्खया अणुप्पेहा | एगग्गो काउसग्गम्मि ॥४३॥
४८१. देहमइजड्डसुद्धी, झायइ य सुहं झाणं, देहमति जाड्यशुद्धिः सुखदुःख तितिक्षता अनुप्रेक्षा । ध्यायति च शुभ ध्यानम् एकाग्र :
कायोत्सर्गे ॥४३॥
४८२. तेसि तु तवो ण सुद्धो, निक्खंता जे
महाकुला ।
जं नेवन्ने वियाणंति, न सिलोगं पवेज्जइ ॥ ४४ ॥ तेषामपि तपो न शुद्ध, निष्क्रान्ताः ये महाकुलाः । यद् नैवाऽन्ये विजानन्ति, न इलोक प्रवेदयेत् ॥४४॥ ४८३. नाणमयवायसहिओ, सीलुज्जलिओ तवो मओ अग्गी ।
संसारकरणबीयं, दहइ दग्गी व तणरासि ॥४५॥ ज्ञानमयवातसहितं, शीलोज्ज्वलितं तपो मतोऽग्निः । ससारकरणबीज, दहति दवाग्निरिव तृणराशिम् ॥४५॥
४८४. सीसं जहा
२९. ध्यानसूत्र
सरीरस्स, जहा मूलं सव्वस्स साधुधम्मस्स, तहा झाणं
दुमस्स य । विधीयते ॥ १॥
शीर्ष यथा शरीरस्य यथा मूल द्रुमस्य च । सर्वस्य साधुधर्मस्य तथा ध्यान विधीयते ॥ १ ॥
४८५. जं थिरमज्झवसाणं, तं झाणं जं चलंतयं चित्तं । तं होज्ज भावणा वा अणुपेहा वा अहव चिंता ॥२॥ यत् स्थिरमध्यवसान, तद् ध्यानं यत् चलत्कं चित्तम् । तद् भवेद् भावना वा, अनुप्रेक्षा वाऽथवा चिन्ता ॥ २ ॥
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होती
मोक्ष-मार्ग
१५३ ४८०. भिक्षु का शयन, आसन और खड़े होने में व्यर्थ का कायिक
व्यापार न करना, काष्ठवत् रहना, छठा कायोत्सर्ग तप है । ४८१ कायोत्सर्ग करने से ये लाभ प्राप्त होते है---- १. देह्जाइयशुद्धि--ठलेप्म आदि दोपों के क्षीण होने से देह
की जडता नष्ट होती है। २. मतिजाड्यशुद्धि-जागरूकता के कारण बुद्धि की जड़ता
नष्ट होती है। ३. सुख-दु ख तितिक्षा-सुख-दुःख को सहने की शक्ति का
विकास होता है। ४. अनुप्रेक्षा-भावनाओ के लिए समुचित अवसर का लाभ
होता है। ५. एकाग्रता-शुभध्यान के लिए चित्त की एकाग्रता प्राप्त
होती है। ४८२. उन महाकुलवालों का तप भी शुद्ध नही है, जो प्रव्रज्या
धारणकर पूजा-सत्कार के लिए तप करते है। इसलिए कल्याणार्थी को इस तरह तप करना चाहिए कि दूसरे लोगों को पा तक न चले। अपने तप की किसीके समक्ष प्रशंसा भी
नही करनी चाहिए। ४८३. ज्ञानमयी वायुसहित तथा शील द्वारा प्रज्वलित तपोमयी अग्नि
ससार के कारणभत कर्म-बीज को वैसे ही जला डालती है, जैसे वन में लगी प्रचण्ड आग तृण-राशि को।
२९. ध्यानसूत्र ४८४. जैसे मनुष्य-गरीर मे सिर और वृक्ष मे उसकी जड उत्कृष्ट
या मुख्य है, वैसे ही साधु के समस्त धर्मो का मूल ध्यान है। ४८५. स्थिर अध्यवसान अर्थात् मानसिक एकाग्रता ही ध्यान है।
और जो चित्त की चंचलता है उसके तीन रूप है--भावना, अनुप्रेक्षा और चिन्ता ।
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१५४
समणसुतं ४८६. लवण व्व सलिलजोए, झाणे चित्तं विलीयए जस्स ।
तस्स सुहासुहडहणो, अप्पाअणलो पयामेइ ॥३॥ लवणमिव सलिलयोगे, ध्याने चित्त बिलीयते यस्य ।
तस्य शुभाशुभदहनो, आत्मानल: प्रकाशयति ।।३।। ४८७. जस्स न विज्जदि रागो, दोसो मोहो व जोगपरिकम्मो ।
तस्स सुहासुहडहणो, झाणमओ जायए अन्गी ॥४॥ यस्य न विद्यते रागो, द्वषो मोहो वा योगपरिकर्म ।
तस्य शुभाशुभदहनो, ध्यानमयो जायते अग्नि: ॥४॥ ४८८. पुवाभिमुहो उत्तरमहो व, होऊण सुइ-समायारो ।
झाया समाहिजुत्तो, सहासणत्थो सुइसरीरो॥५॥ पूर्वाभिमुखः उत्तरमुखो वा भूत्वा शुचिसमाचारः ।
ध्याता समाधियुक्तः सुखासनस्थः शुचिशरीरः ।।५।। ४८९. पलियंकं बंधेलं, निसिद्धमण-वयणकायवावारो।
नासग्गनिमियनयणो, मंदीकयसासनीसासो॥६॥ पल्यङकं बवा निषिद्ध मनोवचनकायव्यापारः ।।
न्यासाग्रनिमित्तनयनः मन्दीकृतश्वासनि.श्वास. ॥६॥ ४९०. गरहियनियदुच्चरिओ, खामियसत्तो नियत्तियपमाओ ।
निच्चलचित्तो ता झाहि, जाव पुरओव्व पडिहाइ ॥७॥ गहितनिजदुश्चरित क्षमितसत्त्वः निवर्तितप्रमादः ।
निश्चलचित्तः तावद् ध्याय यावत् पुरतः इव प्रतिभाति ॥७॥ ४९१. थिरकयजोगाणं पुण, मुणीण झाणे सुनिच्चलमणाणं ।
गामम्मि जणाइण्णे, सुण्णे रणे व ण विसेसो ॥८॥ स्थिरकृतयोगाना पुनः, मुनीना ध्याने सुनिश्चलमनसाम् ।
ग्रामे जनाकीर्णे, शून्येऽरण्ये वा न विशेषः ॥८॥ ४९२. जे इंदियाणं दिसया मणुण्णा, न तेसु भावं निसिरे कयाइ ।
न थाऽमणुण्णेसु मणं पि कुज्जा, समाहिकामे समणे तवस्सी ॥९॥ य इन्द्रियाणां विषया मनोज्ञाः, न तेषु भावं निसृजेत् कदापि । न चामनोज्ञेषु मनोऽपि कुर्यात्, समाधिकामः श्रमणस्तपस्वी ॥९॥
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मोक्ष-मार्ग
१५५ ४८६. जैसे पानी का योग पाकर नमक विलीन हो जाता है, वैसे ही
जिमका चित्त निर्विकल्प समाधि मे लीन हो जाता है, उसकी चिर सचित शुभाशुभ कर्मो को भस्म करनेवाली, आत्मरूप
अग्नि प्रकट होती है। ४८७. जिसके राग-द्वेष और मोह नही है तथा मन-वचन-कायरूप
योगो का व्यापार नही रह गया है, उसमे समस्त शुभाशुभ कर्मो को जलानेवाली ध्यानाग्नि प्रकट होती है।
४८८. पूर्व या उत्तर दिशाभिमुख होकर बैठनेवाला शुद्ध आचार तथा
पवित्र शरीरवाला ध्याता सुखासन से स्थित हो समाधि मे लीन होता है ।
४८९. वह ध्याता पल्यकासन बाँधकर और मन-वचन-काय के व्यापार
को रोककर दृष्टि को नासिकान पर स्थिर करके मन्द-मन्द श्वासोच्छ्वास ले ।
४९०. वह अपने पूर्वकृत बुरे आचरण की गर्दा करे, सब प्राणियों से
क्षमाभाव चाहे, प्रमाद को दूर करे और चित्त को निश्चल करके तब तक ध्यान करे जब तक पूर्वबद्ध कर्म नष्ट न हो जायें ।
४९१. जिन्होंने अपने योग अर्थात् मन-वचन-काय को स्थिर कर लिया
है और जिनका ध्यान में चित्त पूरी तरह निश्चल हो गया है, उन मुनियों के ध्यान के लिए घनी आबादी के ग्राम अथवा शून्य
अरण्य मे कोई अन्तर नहीं रह जाता। ४९२. समाधि की भावनावाला तपस्वी श्रमण इन्द्रियों के अनुकूल
विषयों (शब्द-रूपादि) में कभी रागभाव न करे और प्रतिकूल विषयों मे मन से भी द्वेषभाव न करे।
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१५६
समणसुत्तं ४९३. सुविदियजगरसभावो, निस्संगो निभओ निरासो य ।
वेरग्गभावियमणो, झाणंमि सुनिच्चलो होइ ॥१०॥ सुविदितजगत्स्वभाव , निस्सग निर्भय निगाठच ।
वैराग्यभावितमना', ध्याने मुनिश्चलो भवति ॥१०॥ ४९४. पुरीसायारो अप्पा, जोई वरणाणदंसणसमग्गो ।
जो झायदि सो जोई, पावहरो हवदि णिइंदो ॥११॥ पुरुषाकार आत्मा, योगी वरज्ञानदर्शनसमग्रः ।
य ध्यायति स योगी, पापहर भवति निर्द्वन्द्वः ।।११।। ४९५. देहविवित्तं पेच्छइ, अप्पाणं तह य सव्वसंजोगे ।
देहोवहिवोसग्गं निस्संगो सव्वहा कुणइ ॥१२॥ देहविविक्त प्रेक्षते आत्मानं तथा च सर्वसंयोगान् ।
देहोपधिव्युत्सर्ग, निस्सगः सर्वथा करोति ॥१२॥ ४९६. णाहं होमि परेसि, ण मे परे संति गाणमहमेक्को ।
इदि जो झायदि झाणे, सो अप्पाणं हवदि झादा ॥१३॥ नाहं भवामि परेषा, न मे परे सन्ति ज्ञानमहमेकः ।
इति यो ध्यायति ध्याने, स आत्मा भवति ध्याता ॥१३॥ ४९७. झाणट्ठिओ हु जोई जइणो संवेय णिययअप्पाणं ।
तो ण लहइ तं सुद्धं भग्गविहीणो जहा रयणं ॥१४॥ ध्यानस्थितो खल योगी यदि नो संवेत्ति निजात्मानम् ।
तो न लभते तं शुद्धं भाग्यविहीनो यथा रत्नम् ॥१४॥ ४९८. भावेज्ज अवत्थतियं, पिंडत्थ-पयत्थ-रूवरहियत्तं ।
छउमत्थ-केवलितं, सिद्धत्तं चेव तस्सत्थो ॥१५॥ भावयेत् अवस्थात्रिकं पिण्डस्थ-पदस्थ-रूपरहितत्वम् ।
छद्मस्थ-केवलित्व सिद्धत्वं चैव तस्यार्थः ॥१५॥ ४९९. अवि झाइ से महावीरे, आसणत्थे अकुक्कुए झाणं ।
उड्ढमहे तिरियं च, पेहमाणे समाहिमपडिण्णे ॥१६॥ अपि ध्यायति सः महावीरः, आसनस्थः अकौत्कुचः ध्यानम् । ऊर्ध्वमधस्तिर्यक् च, प्रेक्षमाण. समाधिम् अप्रतिज्ञः ॥१६॥
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मोक्ष-मार्ग
१५७
निर्भय तथा
४९३. जो संसार के स्वरूप से सुपरिचित है, निसग, आगारहित है तथा जिसका मन वैराग्यभावना से युक्त है, वही ध्यान मे सुनिश्चल -- भलीभाँति स्थित होता है ।
४९४ जो योगी पुरुषाकार तथा केवलज्ञान व केवलदर्शन से पूर्ण आत्मा का ध्यान करता है, वह कर्मबन्धन को नष्ट करके निर्द्वन्द्व हो जाता है ।
४९५ ध्यान-योगी अपने आत्मा को शरीर तथा समस्त बाह्य सयोगों विविक्त ( भिन्न) देखता है अर्थात् देह तथा उपधि का सर्वथा त्याग करके निसग हो जाता है ।
४९६ वही श्रमण आत्मा का ध्याता है जो ध्यान मे चिन्तवन करता है कि "मैं न 'पर' का हूँ, न 'पर' ( पदार्थ या भाव) मेरे है, मैं तो एक (शुद्ध - बुद्ध) ज्ञानमय ( चैतन्य ) हूँ ।"
४९७
ध्यान में स्थित योगी यदि अपनी आत्मा का सवेदन नही करता तो वह शुद्ध आत्मा को प्राप्त नही कर सकता; जैसे कि भाग्यहीन व्यक्ति रत्न प्राप्त नही कर सकता ।
४९८. ध्यान करनेवाला साधक पिडस्थ, पदस्थ और रूपातीत -- इन तीनों अवस्थाओं की भावना करे । पिडस्थध्यान का विषय है— छद्मस्थत्व — देह - विपश्यत्व । पदस्थध्यान का विषय है केवलित्व - - केवली द्वारा प्रतिपादित अर्थ का अनुचितन और रूपातीतध्यान का विषय है सिद्धत्व -- शुद्ध आत्मा । ४९९. भगवान् उकडूं आदि आसनों में स्थित और स्थिर होकर ध्यान करते थे। वे ऊँचे-नीचे और तिरछे लोक मे होनेवाले पदार्थों को ध्येय बनाते थे । उनकी दृष्टि आत्म-समाधि पर टिकी हुई थी। वे संकल्प-मुक्त थे ।
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१५८
समणसुत्तं
५००. णातीतमट्ठ ण य आगमिस्सं, अट्ठं नियच्छति तहागया उ । विधूतकप्पे एयाणुपस्सी, णिज्झोसइत्ता खवगे महेसी ॥१७॥ नातीतमर्थ न च आगमिष्यन्तम् अर्थ निगच्छन्ति तथागतास्तु विधूतकल्पः एतदनुदर्शी निश्शोषयिता क्षपक महर्षि ||१७|| ५०१ मा चिट्ठह मा जंपह, मा चिन्तह किं वि जेण होइ थिरो ।
न
अप्पा अपम्मि रओ, इणमेव परं हवे झाणं ॥ १८ ॥ मा चेष्टध्वम् मा जल्पत, मा चिन्तयत किमपि येन भवति स्थिरः । आत्मा आत्मनि रतः, इदमेव परं भवेद् ध्यानम् ॥१८॥ ५०२. न कसायसमुत्थेहि य, वहिज्जइ माणसेहि दुबखेहि । ईसा विसाय- सोगा - इएहि, झाणोवगयचित्तो ॥ १९॥ कषायसमुत्थैश्च, बाध्यते मानसैर्दुःखैः । ईर्ष्या - विपाद-शोका-दिभि ध्यानोपगतचित्तः ॥ १९॥ ५०३. चालिज्जइ बोभेइ य, धीरो न परीसहोवसहं । सुहुमेसु न संमुच्छइ, भावेसु न देवमायासु ॥ २०॥ चाल्यते विभेति च, धीरः न परीषहोपसर्गैः । सूक्ष्मेषु न संमुह्यति, भावेषु न देवमायासु ॥ २०॥ ५०४. जह चिरसंचिर्यामधण-मनलो पवणसहिओ दुयं दहइ । तह कम्र्मेधणममियं, खणेण झाणानलो इ ॥२१॥ यथा चिरसंचितमिन्धन-मनल पवनसहित द्रुतं दहति । तथा कर्मेन्धनममितं, क्षणेन ध्यानानल: दहति ॥२१॥ ३०. अनुप्रेक्षासूत्र
५०५. झाणोवरमेऽवि मुणो, णिच्चमणिच्चाइभावणापरमो ।
होइ सुभावियचित्तो, धम्मज्झाणेण जो पुव्वि ॥ १॥
नित्यमनित्यादिभावनापरमः । धर्मध्यानेन यः पूर्वम् ॥ १॥
ध्यानोपरमेऽपि मुनिः, भवति सुभावितचित्तः,
५०६. अद्भुवमसरणमेगत्त-मन्नत्तसंसारलोयमसुइत्तं । आसवसंवरणिज्जर, धम्मं बोधि च चितिज्ज ॥२॥ अध्रुवमशरणमेकत्व-मन्यत्वसंसार - लोक मशुचित्व आस्रवसंवरनिर्जर, धर्म बोधि च
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चिन्तयेत् ||२||
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मोक्ष-मार्ग
१५९ ५००. तथागत अतीत और भविष्य के अर्थ को नहीं देखते । कल्पना
मुक्त महर्षि वर्तमान का अनुपश्यी हो, (कर्म-शरीर) का शोषण कर उसे क्षीण कर डालता है।
५०१. हे ध्याना ! तू न तो शरीर से कोई चेष्टा कर, न वाणी से
कुछ बोल और न मन से कुछ चिन्तन कर, इस प्रकार त्रियोग का निरोध करने से तू स्थिर हो जायगा--तेरी आत्मा आत्मरत
हो जायगी। यही परम ध्यान है। ५०२. जिसका चित्त इस प्रकार के ध्यान में लीन है, वह आत्मध्यानी
पुरुष कषाय से उत्पन्न ईर्ष्या, विषाद, शोक आदि मानसिक दुखों से बाधित (ग्रस्त या पीड़ित) नहीं होता ।
५०३. वह धीर पुरुष न तो परीषह, न उपसर्ग आदि से विचलित और
भयभीत होता है तथा न हो सूक्ष्म भावों व देवनिर्मित मायाजाल मे मुग्ध होता है।
५०४. जैसे चिरसचित ईधन को वायु से उद्दीप्त आग तत्काल जला
डालती है, वैसे ही ध्यानरूपी अग्नि अपरिमित कर्म-ईधन को क्षणभर मे भस्म कर डालती है ।
३०. अनुप्रेक्षासूत्र ५०५. मोक्षार्थी मुनि सर्वप्रथम धर्म-ध्यान द्वारा अपने चित्त को सुभावित
करे। बाद में धर्म-ध्यान से उपरत होने पर भी सदा अनित्यअशरण आदि भावनाओं के चिन्तवन में लीन रहे।
५०६. अनित्य, अशरण, एकत्व, अन्यत्व, ससार, लोक, अशुचि,
आस्रव, संवर, निर्जरा, धर्म और बोधि--इन बारह भावनाओं का चिन्तवन करना चाहिए।
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समणसुत्तं ५०७. जम्मं मरणेण सम, संपज्जइ जोवणं जरासहियं ।
लच्छी विणास-सहिया, इय सव्वं भंगुर मुणह ॥३॥ जन्म मरणेन सम, सम्पद्यते यौवन जरासहितम् ।
लक्ष्मी विनाशसहिता, इति सर्व भङगुरं जानीत ॥३॥ ५०८. चइऊण महामोहं, विसए मुणिऊण भंगुरे सव्वे ।
णिविसयं कुणह मणं, जेण सुहं उत्तमं लहह ॥४॥ त्यक्त्वा महामोह, विषयान् ज्ञात्वा भडगुरान् सर्वान् ।
निर्विपय कुरुत मनः, येन सुखमुत्तमं लभध्वम् ।।४।। ५०९. वित्तं पसवो य णाइओ, तं बाले सरणं ति मण्णइ ।
एए मम तेसि वा अहं, णो ताणं सरणं ण विज्जई ॥५॥ वित्त पगवश्च ज्ञातय , तद् वाल: शरणमिति मन्यते ।
एते मम तेष्वप्यहं, नो त्राण शरण न विद्यते ॥५॥ ५१०. संगं परिजाणामि, सल्लं पि य उद्धरामि तिविहणं ।।
गत्तीओ समिईओ, मज्झं ताणं च सरणं च ॥६॥ सगं परिजानामि, शल्यमपि चोद्धरामि त्रिविधेन ।
गुप्तयः समितयः, मम त्राण च शरणं च ॥६॥ ५११. धी संसारो जहियं, जुवाणओ परमरूवगवियओ।
मरिऊण जायइ, किमी तत्थेव कलेवरे नियए ॥७॥ धिक समारं यत्र, यवा परमरूपवितकः ।
मृत्वा जायते, कृमिस्तत्रैव कलेवरे निजके ॥७॥ ५१२. सो नत्थि इहोगासो, लोए वालग्गकोडिमित्तोऽवि ।
जम्मणमरणाबाहा, अणेगसो जत्थ न य पत्ता ॥८॥ स नास्तीहावकाशो, लोके बालाग्रकोटिमात्रोऽपि ।
जन्ममरणाबाधा, अनेकशो यत्र न च प्राप्ता. ॥८॥ ५१३. बाहिजरमरणमयरो, निरंतरुप्पत्तिनीरनिकुरुबो ।
परिणामदारुणदुहो, अहो दुरंतो भवसमुद्दो ॥९॥ व्याधिजरामरणमकरो, निरन्तरोत्पत्ति-नीरनिकुरुम्बः । परिणामदारुणदुःखः, अहो ! दुरन्तो भवसमुद्रः ॥९॥
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मोक्ष-मार्ग
५०७. जन्म मरण के साथ जुड़ा हुआ है और यौवन वृद्वावस्था के साथ ।
लक्ष्मी च चला है । इस प्रकार (मपार मे) सब-कुछ क्षण-भंगुर है-अनित्य है।
५०८. महामोह को तजकर तथा सब इन्द्रिय-विपयो को क्षण-भंगुर
जानकर मन को निर्विषय बनाओ, ताकि उत्तम सुख प्राप्त हो।
५०९. अज्ञानी जीव धन, पशु तया ज्ञातिवर्ग को अपना रक्षक या शरण
मानता है कि ये मेरे है और मै इनका हूँ। किन्तु वास्तव मे ये सब न तो रक्षक है और न शरण ।
५१०. मै परिग्रह को समझ-बूझकर तजता हूँ और माया, मिथ्यात्व व
निदान इन तीन शल्यों को भी मन-वचन-काय से दूर करता हूँ। तीन गुप्तियाँ और पाँच समितियाँ ही मेरे लिए रक्षक और शरण है।
५११. इस संसार को धिक्कार है, जहाँ परम रूप-गर्वित युवक मृत्यु के
बाद अपने उसी त्यक्त ( मृत ) शरीर मे कृमि के रूप में उत्पन्न हो जाता है।
५१२. इस संसार मे बाल की नोक जितना भी स्थान ऐसा नहीं है जहाँ
इस जीव ने अनेक बार जन्म-मरण का कष्ट न भोगा हो।
५१३ अहो । यह भवसमुद्र दुरन्त है -इमका अन्त बड़े कष्ट से होता
है । इसमे व्याधि तथा जरा-मरणरूपी अनेक मगरमच्छ है, निरन्तर उत्पत्ति या जन्म ही जलराशि है । इसका परिणाम दारुण दुःख है।
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समणमुत्तं ५१४. रयणत्तय-संजुत्तो, जीवो वि हवेह उत्तमं तित्थं ।
संसारं तरइ जदो, रयणतय-दिव्व-णावाए ॥१०॥ रत्नत्रयसंयुक्त: जीवः अपि भवति उत्तम तार्थम् । समारं तरति यतः, रत्नत्रयदिव्यनावा ॥१०॥
५१५. पत्तेयं पत्तेयं नियगं, कम्मफलमणुहवंताणं ।
को कस्स जए सयणो ? को कस्स व परजणो भणिओ? ॥११॥ प्रत्येक प्रत्येक निजक, कर्मफलमनुभवताम् । कः कस्य जगति स्वजनः ? कः कस्य वा परजनो भणितः ।।११।।
५१६. एगो मे सासओ अप्पा, नाणदंसणसंजुओ।
सेसा मे बाहिरा भावा, सव्वे संजोगलक्खणा ॥१२॥ एको मे शाश्वत आत्मा, ज्ञानदर्शनसंयुतः । शेषा मे बाह्या भावाः, सर्वे संयोगलक्षणाः ॥१२॥
५१७. संजोगमूला जीवेणं, पत्ता दुक्खपरंपरा।
तम्हा संजोगसंबंध सम्वभावेण वोसिरे ॥१३॥ सयोगमूला जीवेन, प्राधा दुःखपरम्परा।
तस्मात्संयोगसम्बन्धं, सर्वभावेन व्युत्सृजामि ॥१३॥ ५१८. अणुसोअइ अन्नजणं, अन्नभवंतरगयं तु बालजणो।
नवि सोयइ अप्पाणं, किलिस्समाणं भवसमुद्दे ॥१४॥ अनुशोचत्यन्यजन-मन्यभावान्तरगतं तु बालजनः ।
नैव शोचत्यात्मानं, विलश्यमान भवसमुद्रे ॥१४॥ ५१९. जो जाणिऊण देहं, जीवसरूवादु तच्चदो भिन्नं ।
अप्पाणं पि य सेवदि, कज्जकरं तस्स अण्णत्तं ॥१५॥ यः ज्ञात्वा देहं, जीवस्वरूपात् तत्त्वतः भिन्नम् । आत्मानमपि च सेवते, कार्यकरं तस्य अन्यत्वम् ॥१५॥
५२०. मंसट्टियसंघाए, मुत्तपुरीसभरिए नवच्छिद्दे ।
असुइं परिस्सर्वते, सुहं सरीरम्मि कि अस्थि ? ॥१६॥ मासास्थिकसंघाते, मूत्रपुरीपभूते नवच्छिद्रे । अशुचि परिस्रवति, शुभ शरीरे किमस्ति ? ॥१६॥
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मोक्ष-मार्ग
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५१४. (वास्तव में.) रत्नत्रय से सम्पन्न जीव ही उत्तम तीर्थ (तट) है,
क्योकि वह रत्नत्रयरूपी दिव्य नौका द्वारा संसार-सागर से पार करता है।
५१५. यहाँ प्रत्येक जीव अपने-अपने कर्मफल को अकेला ही भोगता है।
ऐसी स्थिति मे यहाँ कौन किसका स्वजन है और कोन किसका परजन ?
५१६. ज्ञान और दर्शन से संयुक्त मेरी एक आत्मा ही शाश्वत है । शेष
सब अर्थात् देह तथा रागादि भाव तो संयोगलक्षणवाले है-उनके साथ मेरा संयोगसम्बन्ध मात्र है । वे मुझसे अन्य ही है।
५१७. इस संयोग के कारण ही जीव दुःखों की परम्परा को प्राप्त
हुआ है। अतः सम्पूर्णभाव से मै इस संयोग-सम्बन्ध का त्याग करता हूँ।
५१८. अज्ञानी मनुष्य अन्य भवों में गये हए दूसरे लोगों के लिए तो शोक
करता है, किन्तु भव-सागर मे कष्ट भोगनेवाली अपनी आत्मा की चिन्ता नहीं करता !
५१९. जो शरीर को जीव के स्वरूप से तत्त्वतः भिन्न जानकर आत्मा का
अनुचिन्तन करता है, उसकी अन्यत्व भावना कार्यकारी है ।
५२०. मांस और हड्डी के मेल से निर्मित, मल-मूत्र से भरे, नौ छिद्रों के
द्वारा अशुचि पदार्थ को बहानेवाले शरीर मे क्या मुख हो सकता है ?
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समणसुत्त
५२१. एदे मोह्य-भावा, जो परिवज्जेइ उवसमे लीणो।
हेयं ति मन्नमाणो, आसवअणुवेहणं तस्स ॥१७॥ एतान् मोहजभावान्, यः परिवर्जयति उपशमे लीनः। हेयम् इति मन्यमानः, आस्रवानुप्रेक्षणं तस्य ।।१७॥
५२२. मणवयणकायत्ति-दियस्स समिदीसु अप्पमत्तस्स ।
आसवदारणिरोहे, णवकम्मरयासवो ण हवे ॥१८॥ मनोवचनकायगुप्तेन्द्रियस्य समितिषु अप्रमत्तस्य । आस्रवदारनिरोधे, नवकर्मरजआस्रवो न भवेत् ।।१८||
५२३. जाऊण लोगसारं, णिस्सारं दीहगमणसंसारं ।
लोयग्गसिहरवासं झाहि पयत्तण सुहवासं ॥१९॥ ज्ञात्वा लोकसारं, निःसारं दीर्घगमनसंसारम् । लोकाग्रशिखरवासं, ध्याय प्रयत्नेन सुखवासम् ॥१९॥
५२४. बंधप्पदेस-ग्गलणं णिज्जरणं इदि जिणे हि पणतं ।
जेण हवे संवरणं तेण दु णिज्जरण मिदि जाण ॥२०॥ बन्ध-प्रदेश-गलनं निर्जरणं इति जिनः प्रज्ञप्तम् । येन भवेत संवरणं, तेन तु निर्जरणं इति जानी हि ॥२०॥
५२५ जरामरणवेगेणं, वज्झमाणाण पाणिणं ।
धम्मो दीवो पइट्ठा य, गई सरणमुत्तमं ॥२१॥ जरामरणवेगेन, डह्यमानानां प्राणिनाम् ।
धर्मो द्वीपः प्रतिष्ठा च, गतिः शरणमुत्तमम् ॥२१॥ ५२६. माणुस्सं विग्गहं लखु, सुई धम्मस्स दुल्लहा।
जं सोच्चा पविज्जति तवं खंतिम हिंसयं ॥२२॥ ___ मानुष्यं विग्रहं लब्ध्वा, श्रतिधर्मस्य दुर्लभा ।
यं श्रुत्वा प्रतिपद्यन्ते, तपः क्षान्तिमहिस्रनाम् ॥२२॥
आहच्च सवणं लद्धं, सद्धा परमदुल्लहा। ___ सोच्चा नेआउयं मग्गं, बहवे परिभस्सई ॥२३॥
आहत्य श्रवणं लब्ध्वा , श्रद्धा परमदुर्लभा । श्रुत्वा नैयायिक मार्ग बहवः परिभ्रश्यन्ति ।।२३।।
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मोक्ष-मार्ग
५२१ मोह के उदय से उत्पन्न होनेवाले इन सब भावों को त्यागने योग्य
जानकर उपशम (साम्य ) भाव मे ल न मुनि इनका त्याग कर देता है। यह उसकी आस्रव अनुप्रेक्षा है।
५२२. तीन गुप्तियो के द्वारा इन्द्रियो को वश मे करनेवाला तथा पंच
समितियो के पालन मे अप्रमत्त मुनि के आस्रवद्वारो का निरोध हो जाने पर नवीन कर्म-रज का आनव नही होता है । यह संवर अनुप्रेक्षा है।
५२३. लोक को निःमार तथा संसार को दीर्घ गमनरूप जानकर मुनि
प्रयत्नपूर्वक लोक के सर्वोच्च अग्रभाग में स्थित मुनिपद का ध्यान करता है, जहाँ मुक्त (सिद्ध) जीव सु वपूर्वक सदा निवास
करते है।
५२४. बँधे हुए कर्म प्रदेशों के क्षरण को निर्जरा कहा जाता है। जिन
कारणो से संवर होता है, उन्ही कारणो से निर्जरा होती है।
५२५. जरा और मरण के तेज प्रवाह मे बहते-डूबते हुए प्राणियों के
लिए धर्म ही द्वीप है, प्रतिष्ठा है, गति है तथा उत्तम शरण है।
५२६. (प्रथम तो च पूर्गतियो में भ्रमण करनेवाले जीव को मनुष्य-शरीर
ही मिलना दुर्लभ है, फिर) मनुष्य-शरीर प्राप्त होने पर भी ऐसे धर्म का श्रवण तो और भी कठिन है, जिसे सुनकर तप, क्षमा और अहिसा को प्राप्त किया जाय ।
५२७ कदाचित् धर्म का श्रवण हो भी जाय, तो उस पर श्रद्धा होना
महा कठिन है। क्योकि बहुत-से लोग न्यायमगन मोक्षमार्ग का श्रवण करके भी उससे विचलित हो जाते है।
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समणसुत्तं
५२८ सुइ च लद्धं सद्धं च, वीरियं पुण दुल्लहं।
बहवे रोयमाणा वि, नो एणं पडिवज्जए ॥२४॥ श्रुति च लब्ध्वा श्रद्धा च, वीर्य पुनर्लभम् । बहवो रोचमाना अपि, नो च तत् प्रतिपद्यन्ते ॥२४॥
५२९. भावणाजोग-सुद्धप्पा, जले णावा व आहिया ।
नावा व तीरसंपण्णा, सन्ददुक्खा तिउट्टइ ॥२५॥ भावनायोगशुद्धात्मा, जले नौरिव आख्यातः। नौरिव तीरसंपन्ना, सर्वदुःखात् त्रुट्यति ॥२५॥
५३०. बारस अणुवेक्खाओ, पच्चक्खाणं तहेब पडिक्कमणं ।
आलोयणं समाही, तम्हा भावेज्ज अणुवेक्खं ॥२६॥ द्वादशानुप्रेक्षाः, प्रत्याख्यानं तथैव प्रतिक्रमणम् । आलोचनं समाधिः, तस्मात् भावयेत् अनुप्रेक्षाम् ॥२६॥
३१. लेश्यासूत्र ५३१. होति कमविसुद्धाओ, लेसाओ पीयपम्हसुक्काओ। घम्मज्झाणोवगयस्स,
तिव्व-मंदाइभेयाओ ॥१॥ भवन्ति क्रमविशुद्धाः, लेश्याः पीतपद्मशुक्लाः ।। धर्मध्यानोपगतस्य,
तीब्रमन्दादि-भेदाः ॥१॥
५३२. जोगपउत्ती लेस्मा. कसायउदयाणुरंजिया होई।
तत्तो दोण्हं कज्ज, बंधचउक्कं समुद्दिटुं ॥२॥ योगप्रवृत्तिर्लेश्या, कषायोदयानुरञ्जिता भवति ।। ततः द्वयोः कार्य, बन्धचतुष्कं समुद्दिष्टम् ॥२॥
५३३ किण्हा णीला काऊ, तेऊ पम्मा य सुक्कलेस्सा य ।
लेस्साणं णिद्देसा, छच्चेव हवंति णियमेण ॥३॥ कृष्णा नीला कापोता, तेजः घद्मा च शुक्ललेश्या च । लेश्यानां निर्देशात्. पट चैव भवन्ति नियमेन ॥३॥
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मोक्ष-मार्ग ५२८. धर्म-श्रवण तथा (उसके प्रति) श्रद्धा हो जाने पर भी संयम
म पुरुषार्थ होना अत्यन्त दुर्लभ है। बहुत-से लोग सयम में अभिरुचि रखते हुए भी उसे सम्यकरूपेण स्वीकार नहीं कर
पाते। ५२९. भावना-योग से शुद्ध आत्मा को जल मे नौका के समान कहा
गया है। जैसे अनुकूल पवन का सहारा पाकर नौका किनारे पर पहुँच जाती है, वैसे ही शुद्ध आत्मा समार के पार पहुँचती
है, जहाँ उसके समस्त दुखों का अन्त हो जाता है । ५३०. अत. बारह अनुप्रेक्षाओं का तथा प्रत्याख्यान, प्रतिक्रमण,
आलोचना एव समावि का वारम्वार चिन्तवन करते रहना चाहिए।
३१. लेश्यासूत्र ५३१. धर्मध्यान से युक्त मुनि के क्रमश विशुद्ध पीत, पद्म और शुक्ल
ये तीन शुभ लेश्याएं होती है। इन लेश्याओं के तीव्र-मन्द के रूप में अनेक प्रकार है।
५३२. कषाय के उदय से अनुरंजित मन-वचन-काय की योग-प्रवृत्ति
को लेश्या कहते है। इन दोनों अर्थात् कषाय और योग का कार्य है चार प्रकार का कर्म-बन्ध । कषाय से कर्मों के स्थिति और अनुभाग बन्ध होते है, योग से प्रकृति और
प्रदेश-बन्ध । ५३३. लेश्याएं छह प्रकार की है~-कृष्णलेश्या, नीललेश्या, कापोत
लेश्या, तेजोलेश्या (पीतलेश्या), पद्मलेश्या और शुक्ललेश्या ।
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समणसुत्त
५३४. किण्हा नीला काऊ, तिण्णि वि एयाओ अहम्मलेसाओ ।
एयाहि तिहि वि जीवो, दुग्गइं उववज्जई बहुसो॥४॥ कृष्णा नीला कापोता, तिम्रोऽप्यता अधर्मलेव्या: ।
एताभिरिन्मुभिरपि जीवो, दुर्गतिमुपपद्यते बहुश ॥४॥ ५३५. तेऊ पम्हा सुक्का, तिण्णि वि एयाओ धम्मलेसाओ ।
एयाहि तिहि वि जीवो, सुग्गइं उववज्जई बहुसो ॥५॥ तेज. पद्मा शुक्ला, तिस्रोऽयेता धर्मलेश्याः ।
एताभिस्तिसृभिरपि जीव., मुगतिमुपपद्यते बहुश ॥५॥ ५३६. तिव्वतमा तिव्वतरा, तिव्वा असुहा सुहा तहा मंदा ।
मंदतरा मंदतमा, छट्ठाणगया हु पत्तेयं ॥६॥ तीव्रतमास्तीव्रतरा-स्तीवा अशुभाः शुभास्तथा मन्दाः । मन्दतरा, मन्दतमाः, षट्स्थानगता हि प्रत्येकम् ॥६॥
५३७-५३८. पहिया जे छ प्पुरिसा, परिभट्ठारण्णमज्झदेसम्हि ।
फलभरियरुवखमेगं, पेविखत्ता ते विचितंति ॥७॥ णिम्मूलखंधसाहु-वसाहं छित्तुं चिणित्तु पडिदाई । खाउं फलाई इदि, जं मणेण वयणं हवे कम्मं ॥८॥ पथिका ये षट् पुरुषाः, परिभ्रष्टा अरण्यमध्यदेशे । फलभरितवृक्षमक, प्रेक्ष्य ते विचिन्तयन्ति ॥७॥ निर्मूलस्कन्धशाखोपशाख छित्वा चित्वा पतितानि । खादितु फलानि इति, यन्मनमा वचनं भवेत् कर्म ॥८॥
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मोक्ष - मार्ग
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५३४. कृष्ण, नील और कापोत ये तीनो अधर्म या अशुभ लेश्याएँ है । इनके तारण जीव विविध दुर्गनियो मे उत्पन्न होता है ।
५३५. पीत ( तेज ), पद्म और शुक्ल ये तीनों धर्म या शुभ लेश्याएँ है । इनके कारण जीव विविध सुगतियों में उत्पन्न होता है ।
५३६. कृष्ण, नील और कापोत इन तीन अशुभ लेश्याओं में से प्रत्येक के तीव्रतम, तीव्रतर और तीव्र ये तीन भेद होते है । शेष तीन शुभ लेश्याओं में से प्रत्येक के मन्द, मन्दतर और मन्दतम ये तीन भेद होते है । तीव्र और मन्द की अपेक्षा से प्रत्येक मे अनन्त भाग - वृद्धि, असख्यात भाग- वृद्धि, संख्यात भाग- वृद्धि, सख्यात गुण - वृद्धि, असख्यात गुण-वृद्धि, अनन्त गुण- वृद्धि ये छह वृद्धियाँ और इन्ही नाम की छह हानियाँ सदैव होती रहती है। इसी कारण लेश्याओं के भेदो मे भी उत्तर-चढ़ाव होता रहता है ।
५३७-५३८ छह पथिक थे । जंगल के बीच जाने पर वे भटक गये । भूख सताने लगी। कुछ देर बाद उन्हे फलों से लदा एक वृक्ष दिखाई दिया । उनकी फल खाने की इच्छा हुई । वे मन ही मन विचार करने लगे । एक ने सोचा कि पेड़ को जड़ मूल से काटकर इसके फल खाये जायें। दूसरे ने सोचा कि केवल स्कन्ध ही काटा जाय। तीसरे ने विचार किया कि शाखा ही तोड़ना ठीक रहेगा । चौथा सोचने लगा कि उपशाखा ( छोटी डाल ) ही तोड़ ली जाय । पाँचवाँ चाहता था कि फल ही तोड़े जायें । छठे ने सोचा कि वृक्ष से टपककर नीचे गिरे हुए पके फल ही चुनकर क्यों न खाये जायें। इन छहों पथिकों के विचार, वाणी तथा कर्म क्रमश. छहों लेश्याओं के उदाहरण हैं ।
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समणसुत्तं ५३९. चंडो ण मुंचइ वेरं, भंडणसोलो य धरमदयरहिओ।
दुट्ठो ण य एदि वसं, लक्खणमेयं तु किण्हस्स ॥९॥ चण्डो न मञ्चति वैर, भण्डनगीलश्च धर्मदयारहित ।
दुष्टो न चैति वशं, लक्षणमेतत्तु कृष्णस्य ॥९॥ ५४०. मंदो बुद्धिविहीणो, णिविणाणी य विसयलोलो य ।
लक्खणमेयं भणियं, समासदो णीललेस्सस्स ॥१०॥ मन्दो बुद्धिविहीनो, निर्विज्ञानी च विषयलोलश्च ।
लक्षणमेतद् भणित, समासतो नील लेश्यस्य ॥१०॥ ५४१. रूसइ णिदइ अन्ने, दूसइ बहुसो य सोयभयबहुलो ।
ण गणइ कज्जाकज्ज, लवखणमेयं तु काउस्स ॥११॥ रुष्यति निन्दति अन्यान्, दूषयति बहुशश्च शोक भयवहुल ।
न गणयति कार्याकार्य, लक्षणमेत् तु कापोतस्य ।।११।। ५४२. जाणइ कज्जाकज्ज, सेयमसेयं च सव्वसमपासी ।
दयदाणरदो य मिदू, लक्खणमेयं तु तेउस्स ॥१२॥ जानाति कार्याकार्य, श्रेयः अश्रेय. च सर्वसमदर्शी ।
दयादान रतश्च मृदुः, लक्षणमेत् तु तेजसः ॥१२॥ ५४३. चागी भद्दो चोक्खो, अज्जवकम्मो य खमदि बहुगं पि ।
साहुगुरुपूजणरदो, लक्खणमेयं तु पम्मस्स ॥१३॥ त्यागी भद्र: चोक्ष , आर्जवकर्मा च क्षमते बहुकमपि ।
साधुगुरुपूजनरतो, लक्षण मेत् तु पद्मस्य ॥१३॥ ५४४. ण य कुणइ पक्खवायं, ण वि य णिदाणं समो य सन्वेसि ।
पत्थि य रायद्दोसा, हो वि य सुक्कलेस्सस्स ॥१४॥ न च करोति पक्षपात, नापि च निदान समश्च सर्वेषाम् । न स्त. च रागद्वेषो, स्नेहोऽपि च शुक्ललेश्यस्य ॥१४॥ लेस्सासोधी अज्झवसाणविसोधीए होइ जीवरस । अज्झवसाणविसोधि, मंदकसायस्स णायच्वा ॥१५॥ लेश्याशुद्धि. अध्यवसानविशुद्धया भवति जीवस्य । अध्यवसानविशुद्धिः, मन्दकषायस्य ज्ञातव्या ॥१५।।
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मोक्ष-मार्ग
१७१ ५३९. स्वभाव की प्रचण्डता, वैर की मजबूत गाँठ, झगड़ालू वृत्ति, धर्म
और दया से शून्यता, दुष्टता, समझाने से भी नहीं मानना, ये कृष्णलेश्या के लक्षण है।
५४०. मन्दता, बुद्धिहीनता, अज्ञान और विषयलोलुपता-ये संक्षेप
मे नीललेश्या के लक्षण हैं।
५४१. जल्दी रुष्ट हो जाना, दूसरों की निन्दा करना, दोष लगाना,
अति शोकाकुल होना, अत्यन्त भयभीत होना-ये कापोतलेश्या के लक्षण है।
५४२. कार्य-अकार्य का ज्ञान, श्रेय-अश्रेय का विवेक, सबके प्रति
समभाव, दया-दान मे प्रवृत्ति--ये पीत या तेजोलेश्या के लक्षण है।
५४३. त्यागशीलता, परिणामों में भद्रता, व्यवहार में प्रामाणिकता,
कार्य में ऋजुता, अपराधियों के प्रति क्षमाशीलता, साधुगुरुजनों की पूजा-सेवा मे तत्परता--ये पद्मलेश्या के
लक्षण है। ५४४. पक्षपात न करना, भोगों का निदान न करना, सबमें
समदर्शी रहना, राग, द्वेप तथा स्नेह से दूर रहनाशुक्ललेश्या के लक्षण है ।
५४५. आत्मपरिणामों में विशुद्धि आने से लेश्या की विशुद्धि होती
है और कपायों की मन्दता से परिणाम विशुद्ध होते हैं।
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३२. आत्मविकाससूत्र (गुणस्थान) ५४६. जेहिं दु लक्खिज्जंते, उदयादिसु संभवेहि भावेहि ।
जीवा ते गणसण्णा, णिहिट्टा सव्वदरिसीहि ॥१॥ यैस्तु लक्ष्यन्ते, उदयादिपु सम्भवैर्भावः ।
जीवास्ते गुणसज्ञा, निर्दिष्टाः सर्वदर्शिभि. ॥१॥ ५४७-५४८. मिच्छो सासण मिस्सो, अविरदसम्मो य देसविरदो य ।
विरदो पमत्त इयरो, अपुव अणियट्टि , सुहुमो य ॥२॥ उवसंत खोणमोहो, सजोगिकवलिजिणो अजोगी य ।। चोइस गुणट्टाणाणि य, कमेण सिद्धा य णायवा ॥३॥ मिथ्यात्वं सास्वादनः मिश्रः, अविरतसम्यक्त्व: च देशविरतश्च । विरत: प्रमत्तः इतरः, अपूर्वः अनिवत्ति: सक्ष्म च ॥२॥ उपशान्तः क्षीणमोहः, संयोगिकेवलिजिनः अयोगी च ।
चतुर्दश गुणस्थानानि च, क्रमेण सिद्धाः च ज्ञातव्या ॥३॥ ५४९. तं मिच्छत्तं जमसद्दहणं, तच्चाण होदि अस्थाणं ।
संसइदमभिग्गहियं, अणभिगहियं तु तं तिविहं ॥४॥ तद् मिथ्यात्वं यदश्रद्धान, तत्त्वाना भवति अर्थानाम् ।
सशयितमभिगृहीतम-नभिगृहीत तु तत् त्रिविधम् ।।४।। ५५०. सम्मत्तरयणपन्वय-सिहरादो मिच्छभावसमभिमुहो ।
णासियसम्मत्तो सो, सासणणामो मुणेयत्वो ॥५॥ सम्यक्त्वरत्नपर्वत-शिखरात् मिथ्याभावसमभिमुखः ।
नाशितसम्यवत्व. सः, सास्वादननामा मन्तव्य ॥५॥ ५५१. दहिगुडमिव व मिस्सं, पिहुभावं व कारिदं सक्कं ।
एवं मिस्सयभावो, सम्मामिच्छो ति णायवो ॥६॥ दधिगुडमिव व्यामिश्र, पृथग्भाव नैव कर्तु शवयम् । एवं मिश्रकभावः, सम्यक्मिथ्यात्वमिति ज्ञातव्यम् ॥६॥ णो इंदिएसु विरदो, णो जीवे थावरे तसे चावि । जो सद्दहइ जिणत्तुं, सम्माइट्ठी अविरदो सो॥७॥ नो इन्द्रियेष विरतो, नो जीवे स्थावरे त्रसे चापि । य: श्रद्दधाति जिनोवतं, सम्यग्दृष्टि रविरतः सः ॥७॥
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३२. आत्मविकाससूत्र (गुणस्थान) ५४६. मोहनीय आदि कर्मो के उदय आदि (उपशम, क्षय, क्षयोपशम
आदि) से होनेवाले जिन परिणामो से युक्त जीव पहचाने जाते है, उनको सर्वदर्शी जिनेन्द्रदेव ने 'गुण' या 'गुणस्थान' संज्ञा दी है। अर्थात् सम्यक्त्व आदि की अपेक्षा जीवों की अवस्थाएँ
श्रेणियाँ-भूमिकाएँ गुणस्थान कहलाती है। ५४७-५४८. मिथ्यात्व, मासादन, मिश्र. अविरत सम्यग्दृष्टि, देशविरत,
प्रमत्तविरत, अप्रमत्तविरत, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसाम्पराय, उपशान्तमोह, क्षीणमोह, सयोगिकेवलीजिन, अयोगिकेवलीजिन-ये क्रमशः चौदह जीव-समास या गुणस्थान है। सिद्धजीव गुणस्थानातीत होते है।
५४९. तत्त्वार्थ के प्रति श्रद्धा का अभाव मिथ्यात्व है। यह तीन प्रकार
का है--संशयित, अभिगृहीत और अनभिगृहीत ।
५५०. सम्यक्त्व-रत्नरूपी पर्वत के शिखर से गिरकर जो जीव मिथ्यात्व
भाव के अभिमुख हो गया है--मिथ्यात्व की ओर मुड गया है, परन्तु (सम्यक्त्व के नष्ट हो जाने पर भी) जिसने अभी साक्षातरूपेण मिथ्यात्वभाव में प्रवेश नही किया है, उस मध्यवर्ती अवस्था को सासादन नामक गुणस्थान कहते है।
५५१. दही और गुड़ के मेल के स्वाद की तरह सम्यक्त्व और मिथ्यात्व
का मिश्रित भाव या परिणाम--जिसे अलग नही किया जा सकता, सम्यक्-मिथ्यात्व या मिश्र गुणस्थान कहलाता है।
५५२. जो न तो इन्द्रिय-विषयों से विरत है और न त्रस-स्थावर जीवों
की हिसा से विरत है, लेकिन केवल जिनेन्द्र-प्ररूपित तत्त्वार्थ का श्रद्धान करता है, वह व्यक्ति अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती कहलाता है।
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१७४
समणत्तं
५५३. जो तसवहाउविरदो, णो विरओ एत्थ थावरवहाओ । पडिसमयं सो जीवो, विरयाविरओ जिणेक्कमई ॥ ८ ॥ यस्त्रस्वधाद्विरतः, नो विरतः अत्र स्थावरवधात् । प्रतिसमयं सः जीवो, विरताविरतो जिनैकमति. ॥८॥ ५५४. वत्तावत्तपमाए, जो वसइ पत्तसंजओ होइ । सयलगुणसोलकलिओ, महत्वई चित्तलायरणो ॥९॥ व्यक्ताव्यक्तप्रमादे, यो वसति प्रमत्तसंयतो भवति । सकलगुणशीलकलितो,
महाव्रती चित्रलाचरणः ॥ ९ ॥
५५५. गट्ठासेसपमाओ,
वयगुणसोलोलिमंडिओ
गाणी | अणुक्समओ अखवओ, झाणणिलीणो हु अप्पमत्तो सो ॥१०॥ नष्टाशेषप्रमादो, व्रतगुणशीलावलिमण्डितो ज्ञानी । अनुपशमक: अक्षपको, ध्याननिलीनो हि अप्रमत्तः स . ॥१०॥
विसरिससम्बट्ठिएहि जीवेहि ।
५५६. एयम्मि गुणट्ठाणे, पुव्वमपत्ता जम्हा, होंति अपुव्वा हु परिणामा ॥ ११ ॥ एतस्मिन् गुणस्थाने, विसदृशसमयस्थितैर्जीवैः । पूर्वमप्राप्ता यस्मात् भवन्ति अपूर्वा हि परिणामाः ॥ ११ ॥ ५५७. तारिसपरिणामट्ठियजीवा, हु जिणेहिं गलियतिमिरोहि । मोहस्सऽपुव्वकरणा, खवणुवसमणुज्जया
भणिया ॥ १२ ॥
तादृशपरिणाम स्थितजीवा, हि जिनैर्गलिततिमिरैः । मोहस्यपूर्वकरणाः क्षपणोपशमनोद्यताः भणिताः ॥ १२ ॥
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मोक्ष-मार्ग ५५३. जो त्रस जीवों की हिसा से तो विरत हो गया है, परन्तु एकेन्द्रिय
स्थावर जीवों (वनस्पति, जल, भूमि, अग्नि, वायु) की हिसा से विरत नहीं हुआ है तथा एकमात्र जिन भगवान् मे ही श्रद्धा
रखता है, वह श्रावक रेसविरत गुणस्थानवर्ती कहलाता है । ५५४. जिसने महाव्रत धारण कर लिये है, सकल शील-गण से समन्वित
हो गया है, फिर भी अभी जिसमे व्यक्त-अव्यक्तरूप मे प्रमाद शेष है, वह प्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती कहलाता है । इसका
व्रताचरण किचित् सदोष होता है । ५५५. जिसका व्यक्त-अव्यक्त सम्पूर्ण प्रमाद नि.शेष हो गया है, जो
ज्ञानी होने के साथ-साथ व्रत, गुण और शील की माला से सुशोभित है, फिर भी जो न तो मोहनीय कर्म का उपशम करता है और न क्षय करता है--केवल आत्मध्यान मे लीन रहता
है, वह श्रमण अप्रमत्तसयत गुणस्थानवर्ती कहलाता है । ५५६. इस आठवे गुणस्थान में विसदृश (विभिन्न) समयों में स्थित
जीव ऐसे-ऐसे अपूर्व परिणामों (भावों) को धारण करते है, जो पहले कभी भी नही हो पाये थे। इसीलिए इसका नाम
अपूर्वकरण गुणस्थान है। ५५७. अज्ञानान्धकार को दूर करनेवाले (ज्ञानसूर्य) जिनेन्द्रदेव ने
उन अपूर्व-परिणामी जीवों को मोहनीय कर्म का क्षय या उपशम करने मे तत्पर कहा है। (मोहनीय कर्म का क्षय या उपशम तो नौवे और दसवे गुण-स्थानों में होता है, किन्तु उसकी तैयारी इस अष्टम गुणस्थान मे ही शुरू हो जाती है।)
*अप्रमत्तसयत गुणस्थान से आगे दो श्रेणियाँ प्रारम्भ होती है-उपशम और क्षपक । उपशम श्रेणीवाला तपस्वी मोहनीय कर्म का उपशम करते हुए ग्यारहवे गुणस्थान तक चढने पर पुन. मोहनीय कर्म का उदय होने से नीचे गिर जाता है और दूसरा क्षपक श्रेणीवाला मोहनीय कर्म का समूल क्षय करते हुए आगे बढ़ता जाता है और मोक्ष प्राप्त करता है।
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समणसुतं
५५८. होंति अणियट्टिणो ते, पडिसमयं जेसिमेव कपरिणामा । विमलयरझाणहुयवह-सिहाहिं
गिद्दड्ढकम्मवणा ॥१३॥ भवन्ति अनिवर्तिनस्ते, प्रतिसमय येषामेकपरिणामा । विमलतरध्यानहुतवह-शिखाभिर्निर्दग्धकर्मवना ॥ १३॥
५५९. कोसुंभो जिह राओ, अब्भंतरदो य सुहुमरत्तो य । एवं सुहुमसराओ, सुहुमकसाओ त्ति णायच्वो ॥१४॥
कौसुम्भः यथा राग, अभ्यन्तरतः च सूक्ष्मरक्तः च । एवं सूक्ष्मसराफ, सूक्ष्मकषाय इति ज्ञातव्य ॥ १४ ॥
५५०. सकदकफलजलं वा, सरए सरवाणियं व सयलोव संत मोहो, उवसंत कसायओ कतकफलयुतजल वा, शरदि सर. पानीयम् इव सकलोपशान्तमोह, उपशान्तक पायतो
५६१. णिस्सेसखीणमोहो,
खोणकसाओ
निर्मलकम् । भवति ॥ १५ ॥
फलिहामलभायणदय- समचित्तो । भण्णइ, णिग्गंथो वीयराएहिं ॥ १६॥ नि शेषक्षीणमोह, स्फटिकामल-भाजनोदक-समचित्तः । क्षीणकषायो
भण्यते, निर्ग्रन्थो वीतरागे ॥१६॥
५६२-५६३. केवलणाणदिवायर-किरणकलाव-प्पणासि अण्णाणो 1
णिम्मलयं ।
होदि ॥ १५ ॥
॥१७॥
णव केवललधुग्गम- पावियपरमप्यववएसो असहायणाणदंसण-सहिओ वि हु केवली हु जोएण । जुत्तो त्ति सजोइजिणो, अणाइणिहणारिसे वृत्तो ॥ १८ ॥ केवलज्ञानदिवाकर-किरणकलाप-प्रणाशिताज्ञानः । नवकेवललब्ध्युद्गम-प्रापितपरमात्मव्यपदेश.
॥१७॥
असहायज्ञानदर्शन- सहितोऽपि हि केवली हि योगेन । युवत इति सयोगिजिन, अनादिनिधन आर्पे उक्त ||१८||
५६४. सेलेसि संपत्तो, रुिद्धणिस्सेस-आसओ जोवो | कम्मरयविप्पम्वको, गयजोगो केवली शैलेशी सप्राप्त', निरुद्धनि शेषास्रवो जीवः ।
होइ ॥ १९ ॥
कर्म रजविप्रमुक्तो,
गतयोगः केवली
भवति ॥ १९॥
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मोक्ष-मार्ग
५५८ वे जीव अनिवृत्तिकरण गुणस्थानवाले होते है, जिनके प्रतिसमय
(निरन्तर) एक ही परिणाम होता है। (इनके भाव अप्टम गुणस्थानवालो की तरह विसदृश नही होते ।) ये जीव निर्मलतर
ध्यानरूपी अग्नि-शिखाओं से कर्म-वन को भस्म कर देते है। ५५९. कुसुम्भ के हल्के रग की तरह जिनके अन्तरग मे केवल सक्ष्म
राग शेष रह गया है, उन मुनियों को सूक्ष्म-सराग या सूक्ष्म
कपाय जानना चाहिए। ५६० जैसे निर्मली-फल से युक्त जल अथवा शरदकालीन सरोवर
का जल (मिट्टी के बैठ जाने से) निर्मल होता है, वैसे ही जिनका सम्पूर्ण मोह उपशान्त हो गया है, वे निर्मल परिणामी
उपशान्त-कषाय * कहलाते है । ५६१. सम्पूर्ण मोह पूरी तरह नष्ट हो जाने से जिनका चित्त स्फटिकमणि
के पात्र मे रखे हुए स्वच्छ जल की तरह निर्मल हो जाता है,
उन्हे वीतरागदेव ने क्षीण-व-पाय निर्ग्रन्थ कहा है। ५६२-५६३ केवलज्ञानरूपी दिवाकर की किरणो के समूह से जिनका
अज्ञान अन्धकार सर्वथा नष्ट हो जाता है तथा नौ केवललब्धियो (सम्यक्त्व, अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख, अनन्तवीर्य, दान, लाभ, भोग व उपभोग) के प्रकट होने से जिन्हे परमात्मा की संज्ञा प्राप्त हो जाती है, वे इन्द्रियादि की सहायता की अपेक्षा न रखनेवाले ज्ञान-दर्शन से युक्त होने के कारण केवली और काय योग से यक्त होने के कारण सयोगी केवली (तथा घातिकर्मो के विजेता होने के कारण) जिन कहलाते है। ऐसा
अनादिनिधन जिनागम में कहा गया है। ५६४. जो शील के स्वामी हैं, जिनके सभी नवीन कर्मो का आस्रव __ अवरुद्ध हो गया है, तथा जो पूर्वसचित कर्मो से (वन्ध से)
सर्वथा मुक्त हो चुके है, वे अयोगीकेवली कहलाते है । जैसे जल के हिल जाने से बैठी हुई मिट्टी ऊपर आ जाती है, वैसे ही मोह के उदय से यह उपशान्तकषाय श्रमण स्थानच्युत होकर सूक्ष्म-सराग दशा में पहुँच जाता है। उपशान्तकषाय और क्षीणकषाय मे यही अन्तर है कि उपशान्तकपायवाले का मोह दबा रहता है और क्षीणकषाय का मोह नष्ट हो जाता है। १२
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समणसुत्तं ५६५. सो तम्मि चेव समये, लोयगे उड्ढगमणसभाओ।
संचिट्ठइ असरीरो, पवरट्ट गुणप्पओ णिच्चं ॥२०॥ सो तस्मिन् चैव समये, लोकाने ऊर्ध्वगमनस्वभावः । सचेष्टते अशरीरः, प्रवराष्टगुणात्मको नित्यम् ॥२०॥
५६६. अट्ठविहकम्मवियडा, सीदीभूदा निरंजणा णिच्चा ।
अट्ठगुणा कयकिच्चा, लोयगणिवासिणो सिद्धा ॥२॥ अष्टविधकर्मविकला:, शीतीभूता निरञ्जना नित्याः । अष्टगुणाः कृतकृत्याः, लोकाग्रनिवासिनः सिद्धाः ॥२१॥
___३३. संलेखनासूत्र ५६७. सरीरमाहु नाव त्ति, जीवो वुच्चइ नाविओ।
संसारो अण्णवो वुत्तो, जं तरंति महेसिणो॥१॥ शरीरमाहुनौंरिति, जीव उच्यते नाविकः । ससारोऽर्णव उवत , य तरन्ति महर्षयः ॥१॥
५६८. बहिया उड्ढमादाय, नावकंखे कयाइ वि।
पुवकम्मक्खयट्टाए, इमं देहं समुद्धरे ॥२॥ वा ह्यमूर्ध्वमादाय, नावकाडक्षेत् कदाचिद् अपि । पूर्वकर्मक्षयार्थाय, इमं देह समुद्धरेत् ॥२॥ धीरेण वि मरियवं, काउरिसेण वि अवस्समरियवं । तम्हा अवस्समरणे, वरं खु धीरत्तणे मरिउं ॥३॥ धीरेणापि मर्त्तव्य, कापुरुषेणाप्यवश्यमर्त्तव्यम् ।
तस्मात् अवश्यमरणे, वर रूल धीरत्वे मतम् ॥३॥ ५७०. इवकं पंडियमरणं, छिदइ जाईसयाणि बहयाणि ।
तं मरणं मरियवं, जेण मओ सुम्मओ होइ ॥४॥ एक पण्डितमरण, हिनत्ति जातिशतानि बहुकानि । तद् मरणे मर्त्तव्य, येन मृत. सुमृत. भवति ॥४॥
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मोक्ष-मार्ग
१७९
इस (चौदहवे) गुणस्थान को प्राप्त कर लेने के उपरान्त उसी समय ऊर्ध्वगमन स्वभाववाला वह अयोगीकेवली अशरीरी तथा उत्कृष्ट आटगुण सहित होकर सदा के लिए लोक के अग्रभाग पर चला जाता है। (उसे सिद्ध कहते है।)
५६६. (ऐसे) सिद्ध जीव अप्टकर्मो से रहित, सुखमय, निरजन, नित्य,
अष्टगुण-सहित तथा कृतकृत्य होते है और सदैव लोक के अग्रभाग में निवास करते है।
३३. संलेखनासूत्र ५६७. शरीर को नाव कहा गया है और जीव को नाविक। यह
ससार समुद्र है, जिसे महर्षिजन तैर जाते है ।
५६८. ऊर्ध्व अर्थात् मुक्ति का लक्ष्य रखनेवाला साधक कभी भी बाह्य
विषयों की आकांक्षा न रखे। पूर्वकर्मो का क्षय करने के लिए ही इस शरीर को धारण करे ।
५६९. निश्चय ही धैर्यवान् को भी मरना है और कापुरुष को भी मरना
है। जब मरण अवश्यम्भावी है, तो फिर धीरतापूर्वक मरना ही उत्तम है।
५७०. एक पण्डितमरण (ज्ञानपूर्वक मरण) सैकडों जन्मो का नाश
कर देता है। अतः इस तरह मरना चाहिए, जिससे मरण सुमरण हो जाय ।
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समणसुत्त ५७१. इक्कं पंडियमरणं, पडिवज्जइ सुपुरिसो असंभंतो ।
खिप्पं सो मरणाणं, काहिइ अंतं अणंताणं ॥५॥ एक पण्डितमरण, प्रतिपद्यते स पुरुष असम्भ्रान्त ।
क्षिप्र स मरणाना, करिप्यति अन्तम् अनन्तानाम् ।।५।। ५७२. चरे पयाई परिसंकमाणो, जं किंचि पास इह मन्नमाणो ।
लाभतरे जीविय वहइत्ता, पच्चा परिणाय मलावधंसी ॥६॥ चरेत्पदानि परिशङकमान , यत्किचित्पाशमिह मन्यमान. ।
लाभान्तरे जीवित बृहयित्वा, पश्चात्परिज्ञाय मलावध्वसी ॥६॥ ५७३. तस्स ण कप्पदि भत्त-पइष्णं अणुवट्ठिदे भये पुरदो ।
सो मरणं पत्थितो, होदि ह सामण्णणिविष्णो ॥७॥ तम्थ न कल्पते भवत-प्रतिज्ञा अनुपस्थित भय पुरतः ।
सो मरण प्रेक्षमाण , भवति हि श्रामण्य निविण्णः ॥७॥ ५७४. संलेहणा य दुविहा, अभितरिया य बाहिरा चेव ।
अभितरिया कसाए, बाहिरिया होइ य सरोरे॥८॥ सलेखना च द्विविधा, अभ्यन्तरिका च बाह्या चैव ।
अभ्यन्तरिका कषाये, बा ह्या भवति च शरीरे ॥८॥ ५७५. कसाए पयणूएं किच्चा, अप्पाहारे तितिक्खए ।
अह भिक्खू गिलाएज्जा, आहारस्सेव अन्तियं ॥९॥ कपायान् प्रतनून् कृत्वा, अत्पाहार तितिक्षते ।
अथ भिक्षुग्ायेत्, आहारस्येव अन्तिकम् ।।९।। ५७६. न वि कारणं तणमओ संथारो, न वि य फासुया भूमी ।
अप्पा खलु संथारो, होइ विसुद्धो मणो जस्स ॥१०॥ नापि कारण तृण मय सस्तार , नापि च प्रासुका भूमि. ।
आत्मा खलु सरतारो भवति, विशुद्ध मनो यस्य ।।१०॥ ५७७-५७८. न वि तं सत्थं च विसं च, दुप्पउतु व्व कुणइ वेयालो ।
जंतं व दुप्पउत्तं, सप्पु व्व पमाइणो कुद्धो॥११॥ जं कुणइ भावसल्लं, अणुद्धियं उत्तमट्टकालम्मि । दुल्लहबोहीयत्तं, अणंतसंसारियत्तं च ॥१२॥
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मोक्ष-मार्ग
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५७१ असम्भ्रान्त (निर्भय) मत्पुरुष एक पण्डितमरण को प्राप्त
होता है और शीघ्र ही अनन्त-मरण का--बार बार के मरण का अन्त कर देता है।
साधक पग-पग पर दोपो की आशका (सम्भावना) को ध्यान म रखकर चले। छोटे से छोटे दोष को भी पाश समझे, उससे मावधान रहे। नये-नये लाभ के लिए जीवन को सुरक्षित रखे। जव जीवन तथा देह मे लाभ होता हुआ दिखाई न
दे तो परिज्ञानपूर्वक शरीर का त्याग कर दे । ५७३. (किन्तु) जिसके सामने (-अपने सयम, तप आदि साधना
का) कोई भय या किसी भी तरह की क्षति की आशका नही है, उसके लिए भोजन का परित्याग करना उचित नहीं है। यदि वह (फिर भी भोजन का त्याग कर) मरना ही चाहता
है तो कहना होगा कि वह मुनित्व से ही विन्क्त हो गया है। ५७४ सलेखना दो प्रकार की है---आभ्यन्तर और बाहा । कपायों
को कृग करना आभ्यन्तर मलेखना है और शरीर को कृग करना बाह्य सलेखना है ।
५७५. (सलेखना धारण करनेवाला साध) कपायो को कृटा करके
धीरे-धीरे आहार की मात्रा घटाये। यदि वह रोगी है--शरीर अत्यन्त क्षीण हो गया है तो आहार का मर्वथा त्याग कर दे ।
५७६. जिसका मन विशुद्ध है, उसका सस्तारक न तो तृणमय है
और न प्रासुक भूमि है। उसकी आत्मा ही उसका सस्तारक है।
५७७-५७८. दुष्प्रयक्त शस्त्र, विष, भूत तथा दुप्प्रयुक्त यन्त्र तथा ऋद्ध मर्प * सलेखना-धारी के लिए प्रामुक भूमि में तृणो का सस्तारक लगाया जाता है, जिस पर वह विश्राम करता है । इसीको लक्ष्य करके यह भाव-कथन किया गया है।
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१८२
समणसुत्तं तत् शस्त्रं च विपं च, दुष्प्रयुक्तो वा करोति वैताल. । यन्त्र वा दुप्प्रयुक्त, सर्पो वा प्रमादिन. क्रुद्धः ।।११।। यत् करोति भावगल्य-मनुद्धृतमुत्तमार्थकाले ।
दुर्लभबोधिकत्वम् अनन्तस सारिकत्व च ॥१२॥ ५७९. तो उद्धरं । गारवरहिया, मूलं पुणब्भवलयाणं ।
मिच्छादसणसल्लं, मायासल्लं नियाणं च ॥१३॥ तदुद्धरन्ति गौरवरहिता, मूल पुनर्भवलतानाम् ।
मिथ्यादर्शनशल्य, मायाशल्य निदान च ॥१३॥ ५८०. मिच्छदसणरत्ता, सनियाणा कण्हलेसभोगाढा ।
इय जे मरंति जीवा, तैसि दुलहा भवे बोही ॥१४॥ मिथ्यादर्शनरक्ता , सनिदाना कृष्णलेश्यामवगाढाः ।
इति ये म्रियन्ते जीवा-स्तेषा दुर्लभा भवेद् बोधि. ॥१४॥ ५८१. सम्मइंसणरत्ता, अनियाणा सुक्कलेसमोगाढा ।
इय जे मरंति जीवा, तेसिं सुलहा भवे बोही ॥१५॥ सम्यग्दर्शन रक्ताः अनिदाना. शुक्ललेश्यामवगाढा: ।
इति ये म्नियन्ते जीवा-स्तेषां सुलभा भवेद् बोधिः ॥१५॥ ५८२. आराहणाए कज्जे, परियम्मं सव्वदा वि कायध्वं ।
परियम्भभाविदस्स हु, सुहसज्झाऽऽराहणा होइ ॥१६॥ आराधनाया. कार्य, परिकर्म सर्वदा अति कर्त्तव्यम् । परिकर्मभावितस्य खलु, सुखसाध्या आराधना भवति ।।१६।।
५८३-५८४. जह रायकुलपसूओ, जोगं णिच्चमवि कुणइ परिकम्मं ।
तो जिदकरणो जद्धे, कम्मसमत्थो भविस्सदि हि ॥१७॥ इय सामण्णं साधूवि, कुणदि णिच्चवि जोगपरियम्मं । तो जिदकरणो मरणे, ज्झाणसमत्थो भविस्सति ॥१८॥ यथा राजकुलप्रसूतो, योग्यं नित्यमपि करोति परिकर्म । तत जितकरणो युद्धे, कर्म समर्थो भविष्यति हि ॥१७॥ एव श्रामण्य साधुरपि, करोति नित्यमपि योगपरिकर्म । ततः जित करणः मरणे, ध्यानसमर्थो भविष्यति ॥१८॥
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मोक्ष-मार्ग
१८३ आदि प्रमादी का उतना अनिष्ट नहीं करते, जितना अनिष्ट समाधिकाल मे मन में रहे हुए माया, मिथ्यात्व व निदान शल्य करते है। इससे बोधि की प्राप्ति दुर्लभ हो जाती है तथा
संसार का अन्त नहीं होता। ५७९. अत. अभिमान-रहित साधक पुनर्जन्मरूपी लता के मूल अर्थात्
मिथ्यादर्शनशल्य, मायाशल्य व निदानशल्य को अन्तरंग से निकाल फेकते है।
५८०. इस ससार मे जो जीव मिथ्यादर्शन में अनुरक्त होकर निदान
पूर्वक तथा प्रगाढ़ कृष्णलेश्यासहित मरण को प्राप्त होते है, उनके लिए बोधि-लाभ दुर्लभ है ।
५८१. जो जीव सम्यग्दर्शन के अनुरागी होकर, निदान-रहित तथा ___ शुक्ललेश्यापूर्वक मरण को प्राप्त होते है, उनके लिए बोधि
की प्राप्ति सुलभ होती है ।
५८२. (इसलिए मरण-काल मे रत्नत्रय की सिद्धि या सम्प्राप्ति के
अभिलाषी साधक को चाहिए कि वह ) पहले से ही निरन्तर परिकर्म अर्थात् सम्यक्त्वादि का अनुष्ठान या आराधना करता रहे, क्योंकि परिकर्म या अभ्यास करते रहनेवाले की आराधना सुख
पूर्वक होती है। ५८३-५८४. राजकुल मे उत्पन्न राजपुत्र नित्य समुचित शस्त्राभ्यास करता
रहता है तो उसमे दक्षता आ जाती है और वह युद्ध में विजय प्राप्त करने में समर्थ होता है। इसी प्रकार जो समभावी साधु नित्य ध्यानाभ्यास करता है, उसका चित्त वश मे हो जाता है और मरणकाल मे ध्यान करने में समर्थ हो जाता है ।
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१८४
समणसुत्तं ५८५. मोक्खपहे अप्पाणं, ठवेहि तं चैव झाहि तं चेव ।
तत्थेव विहर पिच्चं, मा विहरसु अन्नदव्वेसु॥१९॥ मोक्षपथे आत्मान, स्थापय त चैव ध्याय त चैव ।
तत्रैव विहर नित्य, मा विहरस्व अन्यद्रव्येषु ॥१९॥ ५८६. इहपरलो, संस-प्पओग, तह जीयमरणभोगेसु ।
वज्जिज्जा भाविज्ज य, असुहं संसारपरिणामं ॥२०॥ इहपरलोकाशसा-प्रयोगो तथा जीवितमरणभोगेषु ।
वर्जयेद् भावयेत् च अशुभं ससारपरिणामम् ।।२०।। ५८७. परदव्वादो दुग्गइ, सद्दव्वादो हु सुगई होई ।
इय णाऊ सदवे, कुणह रई विरई इयरम्मि ॥२१॥ परद्रव्यात् दुर्गति , स्वद्रव्यात् खलु सुगति भवति । इति ज्ञात्वा स्वद्रव्ये, कुरुत रति विरतिम् इतरस्मिन् ॥२१॥
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मोक्ष-मार्ग
१८५
५८५. भो भव्य ! तू मोक्ष-मार्ग में ही आत्मा को स्थापित कर ।
उसीका ध्यान कर। उसीका अनुभव कर तथा उसीमें विहार कर । अन्य द्रव्यो मे विहार मत कर।
५८६. मलेखना-रत साधक को मरण-काल में इस लोक और परलोक
मे सखादि के प्राप्त करने की इच्छा का तथा जीने और मरने की इच्छा का त्याग करके अन्तिम साँस तक संसार के अशुभ
परिणाम का चिन्तन करना चाहिए। ५८७. पर-द्रव्य अर्थात् धन-धान्य, परिवार व देहादि में अनुरक्त
होने से दुर्गति होती है और स्व-द्रव्य अर्थात् अपनी आत्मा में लीन होने से सुगति होती है। ऐसा जानकर स्व-द्रव्य में रत रहो और पर-द्रव्य से विरत ।
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समणसुत्तं
तृतीय खण्ड तत्त्व-दर्शन
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३४. तत्त्वसूत्र
दुखसम्भवा
1
,
५८८. जावन्तऽविज्जापुरिसा, सव्वे ते लुप्पन्ति बहुसो मूढा, संसारम्मि यावन्तोऽविद्या पुरुषा, सव ते लुप्यन्ते बहुशो मूढा ससारेऽनन्तके ॥१॥ ५८९. समिक्ख पंडिए तम्हा, पासजाइपहे बहू | सच्चमेसेज्जा, मेत्ति भूएस कप्पए ॥२॥ पण्डितस्तस्मात् पाशजातिपथान् वहून् । सत्यमेषयेत्, सत्यमेषयेत्, मंत्री भूतेषु कल्पयेत् ॥२॥
अप्पणा
समीक्ष्य आत्मना
-
५९० तच्च तह परमट्ठ, दव्वसहावं तहेव परमपरं । धेयं सुद्धं परमं, एयट्ठा हुंति अभिहाणा ॥३॥ तत्त्वं तथा परमार्थ, द्रव्यस्वभावस्तथैव परमपरम् ध्येयं शुद्धं परमम्, एकार्थानि भवन्त्यभिधानानि ॥ ३ ॥ ५९१. जीवाऽजीवा य बन्धो य, पुण्णं पावाssसवो तहा । संवरो निज्जरा मोक्खो, संतेए तहिया नव ॥४॥ जीवा अजीवाश्च बन्धश्च, पुष्य पापास्रव संवरो निर्जरा मोक्ष, सन्त्येते तथ्या ५९२. उवओगलक्खणमणाइ निहणमत्थंतरं जीवमरूवि कारि, भोयं च सयस्स उपयोगलक्षण अनादि-निधनमर्थान्तर जीवमरूपिण कारिण, भोगे च स्वकस्य कर्मण ॥५॥
तथा ।
कम्मस्स ॥५॥ शरीरात् ।
1
- १८८
दुक्खसंभवा ।
५९३. सुहदुक्खजाणणा वा, हिदपरियम्मं च अहिदभीरुतं । जस्स ण विज्जदि णिच्चं, तं समणा विति अज्जीवं ॥६॥ सुखदु खजान वा, हितपरिकर्म चाहितभीस्त्वम् । नित्य त श्रमणा ब्रुवते अजीव || ६ ||
यस्य न विद्यते
-
अणन्त ॥ १॥
नव ॥४॥
सरीराओ ।
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३४. तत्त्वसूत्र ५८८. समस्त अविद्यावान् (ज्ञानी पुरुप) दुखी है-दुख के उत्पादक
है । वे विवेकमूढ अनन्त संसार में बार-बार लुप्त होते है ।
५८९. इसलिए पण्डितपुरुष अनेकविध पाश या बन्धनरूप स्त्री-पुत्रादि
के सम्बन्धों की, जो कि जन्म-मरण के कारण है, समीक्षा करके स्वय सत्य की खोज करे और सब प्राणियों के प्रति मैत्रीभाव
रखे ।
५९०. तत्त्व, परमार्थ, द्रव्य-स्वभाव, पर-अपर ध्येय, शुद्ध, परम---
ये सब शब्द एकार्थवाची है ।
५९१. जीव, अजीव, बन्ध, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा और
मोक्ष--ये नौ तत्त्व या पदार्थ है ।
५९२. जीव का लक्षण उपयोग है। यह अनादि-निधन है, शरीर
से भिन्न है, अरूपी है और अपने कर्म का कर्ता-भोक्ता है ।
५९३. श्रमण-जन उसे अजीव कहते है जिसे सुख-दुःख का ज्ञान नही
होता, हित के प्रति उद्यम और अहित का भय नहीं होता।
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१९०
समणसुत्तं ५९४. अज्जीवो पुण ओ, पुग्गल धम्मो अधम्म आयासं ।
कालो पुग्गल मुत्तो, रूवादिगुणो अमुत्ति सेसा दु ॥७॥ अजीवः पुनः ज्ञेय. पुद्गल: धर्मः अधर्मः आकाशः ।
काल: पुद्गल. मूर्तः रूपादिगुण., अमूर्तयः शेषा. खलु ॥७॥ ५९५. नो इन्दियग्गेज्झ अमुत्तभावा, अमुत्तभावा वि य होइ निच्चो ।
अज्झत्थहे निययऽस्स बन्धो, संसारहेडं च वयन्ति बन्धं ॥८॥ नो इन्द्रियग्राह्योऽमूर्तभावात्, अमूर्तभावादपि च भवति नित्यः ।
अध्यात्महेतुनियत. अस्य बन्धः, संसारहेतुं च वदन्ति बन्धम् ॥८॥ ५९६. रत्तो बंधदि कम्म, मुच्चदि कम्हिं रागरहिदप्पा ।
एसो बंधसमासो, जीवाणं जाण णिच्छयदो॥९॥ रक्तो बध्नाति कर्म, मुच्यते कर्मभी रागरहितात्मा ।
एप बन्धसमासो, जीवानां जानीहि निश्चयतः ।।९।। ५९७. तम्हा णिव्वुदिकामो, रागं सव्वत्थ कुणदि मा किंचि ।
सो तेण वीदरागो, भवियो भवसायरं तरदि ॥१०॥ तस्मात् निर्वृत्तिकामो, रागं सर्वत्र करोतु मा किचित् ।
स तेन वीतरागो, भव्यो भवसागर तरति ॥१०॥ ५९८. कम्मं पुण्णं पावं, हेऊ तेसि च होंति सच्छिदरा ।
मंदकसाया सच्छा, तिव्वकसाया असच्छा हु॥११॥ कर्म पुण्यं पाप, हेतवः तेषां च भवन्ति स्वच्छेतरा. । मन्दकषायाः स्वच्छाः, तीनकषायाः अस्वच्छा: खलु ॥११॥ सव्वत्थ वि पियवयणं, दुव्वयणे दुज्जणे वि खमकरणं । सव्वेसि गुणगहणं, मंदकसायाण दिळंता ॥१२॥ सर्वत्र अपि प्रियवचनं, दुर्वचने दुर्जने अपि क्षमाकरणम् ।
सर्वेषा गुणग्रहणं, मन्दकषायाणां दृष्टान्ता. ॥१२॥ ६००. अप्पपसंसण-करणं, पुज्जेसु वि दोसगहण-सीलतं ।
वेरधरणं च सुइरं, तित्वकसायाण लिंगाणि ॥१३॥ आत्मप्रशंसनकरण, पूज्येषु अपि दोषग्रहणशीलत्वम् । वैरधारणं च सुचिरं, तीव्रकषायाणां लिङ्गानि ॥१३॥
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तत्व-दर्शन
१९१
५९.४. अजीवद्रव्य पाँच प्रकार का है~-पुद्गल, धर्मद्रव्य, अधर्म
द्रव्य, आकाश और काल । इनमे से पुद्गल रूपादि गुण युक्त होने से मूर्तिक है। शेष चारों अमूर्तिक है ।
५९५. आत्मा (जीव) अमूर्त है, अतः वह इन्द्रियों द्वारा ग्राह्य नही
है । तथा अमूर्त पदार्थ नित्य होता है। आत्मा के आन्तरिक रागादि भाव ही निश्चयतः बन्ध के कारण है और बन्ध को
संसार का हेतु कहा गया है । ५९६. रागयुक्त ही कर्मबन्ध करता है। रागरहित आत्मा कर्मो से
मुक्त होती है। यह निश्चय से संक्षेप मे जीवों के बन्ध का कथन है।
५९७. इसलिए मोक्षाभिलाषी को तनिक भी राग नही करना चाहिए ।
ऐसा करने से वह वीतराग होकर भवसागर को तैर जाता है ।
५९८. कर्म दो प्रकार का है--पुण्यरूप और पापरूप। पुण्यकर्म के बन्ध
का हेतु स्वच्छ या शुभभाव है और पापकर्म के बन्ध का हेतु अस्वच्छ या अशुभ भाव है। मन्दकषायी जीव स्वच्छभाववाले
होते है तथा तीव्रकषायी जीव अस्वच्छभाववाले । ५९९. सर्वत्र ही प्रिय वचन बोलना, दुर्वचन बोलनेवाले को भी क्षमा
करना तथा सबके गुणों को ग्रहण करना--ये मन्दकषायी जीवों के लक्षण है।
६००. अपनी प्रशंसा करना, पूज्य पुरुषों मे भी दोष निकालने का
स्वभाव होना, दीर्घकाल तक वैर की गाँठ को बाँधे रखना--ये तीव्रकषायवाले जीवों के लक्षण है।
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समणसुत्तं ६०१. रागद्दोसपमत्तो, इंदियवसओ करेइ कम्माई ।
आसवदाहिं अवि-गुहेहिं तिविहेण करणेणं ॥१४॥ रागद्वेषप्रमत्तः, इन्द्रियवशग. करोति कर्माणि । आस्रवद्वाररविगूहित स्त्रिविधेन
करणन ॥१४॥ ६०२ आसवदारेहि सया, हिंसाईएहि कम्ममासवइ ।
जह नावाइ विणासो, छिद्देहि जलं उयहिमज्झे ॥१५॥ आस्रवद्वारैः सदा, हिसादिकः कर्मास्रवति ।
यथा नावो बिनाश-श्छिद्रेः जलम् उदधिमध्ये ॥१५॥ ६०३. मणसा वाया कायण, का वि जुत्तस्स विरियपरिणामो ।
जीवस्स-प्पणिओगो, जोगो त्ति जिणेहि णिद्दिट्ठो ॥१६॥ मनसा वाचा कायन, वापि युक्तस्य वीर्यपरिणामः ।।
जीवस्य प्रणियोगः, योग इति जिननिर्दिष्टः ॥१६॥ ६०४. जहा जहा अप्पतरो से जोगो, तहा तहा अप्पतरो से बंधो ।
निरुद्धजोगिस्स व से ण होति, अछिद्दपोतस्स व अंबुणाथे ॥१७॥ यथा यथा अल्पतरः तस्य योगः, तथा तथा अल्पतर तस्य बन्धः ।
निरुद्धयोगिनः वा स. न भवति, अछिद्रपोतस्येव अम्बुनाथे ॥१७॥ ६०५. मिच्छत्ताविरदी वि य, कसाय जोगा य आसवा होति ।
संजम-विराय-दसण-जोगाभावो य संवरओ ॥१८॥ मिथ्यात्वाऽविरति. अपि च कषाया योगाश्च आस्रवा भवन्ति । संयम-विराग-दर्शन-योगाभावश्च
संवरकः ।।१८॥ ६०६. रुधियछिद्दसहस्से, जलजाणे जह जलं तु णासवदि ।
मिच्छत्ताइअभावे, तह जीवे संवरो होइ ॥१९॥ रुद्ध छिद्रसहस्र, जलयाने यथा जल तु नास्रवति ।
मिथ्यात्वाद्यभावे, तथा जीवे संवरो भवति ॥१९॥ ६०७. सव्वभूयऽप्पभूयस्स, सम्मं भूयाइं पासओ ।
पिहियासवस्स दंतस्स, पावं कम्मं न बंधई ॥२०॥ सर्वभूतात्मभूतस्य, सम्यक् भूतानि पश्यतः ।। पिहितास्रवस्य दान्तस्य, पापं कर्म न बध्यते ॥२०॥
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तत्त्व-दर्शन ६०१ रागद्वेष से प्रमत्त बना जीव इन्द्रियाधीन होता है। उसके आस्रव
द्वार बरावर खुले रहने के कारण मन-वचन-काय के द्वारा निरन्तर कर्म करता रहता है।
६०२. हिंसा आदि आस्रवद्वारों से सदा कर्मो का आस्रव होता रहता
है, जैसे कि समद्र मे जल के आने से सछिद्र नौका डूब जाती है।
-)
६०३. (योग भी आस्रव-द्वार है।) मन, वचन, काय से युक्त जीव
का जो वीर्य परिणाम या प्रदेश-परिस्पन्दनरूप प्रणियोग होता है, उसे योग कहते है।
६०४. जैसे-जैसे योग अल्पतर होता है, वैसे-वैसे बन्ध या आस्रव भी
अल्पतर होता है। योग का निरोध हो जाने पर बन्ध नही होता; जैसे कि छेदरहित जहाज मे जल प्रवेश नहीं करता।
६०५. मिथ्यात्व, अविरति, कपाय और योग--ये आस्रव के हेतु है ।
संयम, विराग, दर्शन और योग का अभाव--ये सवर के हेतु है।
६०६. जैसे जलयान के हजारों छेद बन्द कर देने पर उसमे पानी नही
घुसता, वैसे ही मिथ्यात्व आदि के दूर हो जाने पर जीव मे सवर होता है।
६०७. जो समस्त प्राणियों को आत्मवत् देखता है और जिसने कर्मानव
के सारे द्वार बन्द कर दिये है, उस संयमी को पापकर्म का बन्ध नहीं होता।
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समणसुत्तं ६०८. मिच्छत्तासवदारं, रंभइ सम्मत्तदिढकवाडेण ।
हिंसादिदुवाराणि वि, दिढवयफलिहहिं रुभति ॥२१॥ मिथ्यात्वास्रवद्वार रुध्यते सम्यक्त्वदृढकपाटेन ।
हिसादिद्वाराणि अपि दृढव्रतपरिच रुध्यन्ते ।।२१॥ ६०९-६१०. जहा महातलायस्स, सन्निरुद्ध जलागमे ।
उस्सिचणाए तवणाए, कमेण सोसणा भवे ॥२२॥ एवं तु संजयस्सावि, पावकम्मनिरासवे । भवकोडोसंचियं कम्म, तवसा निजरिज्जइ ॥२३॥ यथा महातडागस्य, सन्निरुद्ध जलागमे । उत्सिञ्चनया तपनया, क्रमेण शोषणा भवेत् ।।२२॥ एवं तु संयतस्यापि, पापकर्मनिरास्रवे ।
भवकोटिसंचितं कर्म, तपसा निर्जीर्यते ॥२३॥ ६११. तवसा चेव ण मोक्खो, संवरहीणस्स होइ जिणवयणे ।
ण हु सोत्ते पविसंते, किसिणं परिसुस्सदि तलायं ॥२४॥ तपसा चैव न मोक्षः, संवरहीनस्य भवति जिनवचने ।
न हि स्रोतसि प्रविशति, कृत्स्न परिशुष्यति तडागम् ॥२४॥ ६१२. ज अन्नाणी कम्मं खवेइ बहआहिं बासकोडीहि ।
तं नाणी तिहिं गुत्तो, खवेइ ऊसासमित्तेणं ॥२५॥ यद् अज्ञानी कर्म, क्षयपति बहुकाभिर्वर्षकोटीभिः ।
तद् ज्ञानी त्रिभिर्गुप्त , क्षपयत्युच्छ्वासमात्रेण ॥२५।। ६१३. सेणावइम्मि णिहए, जहा सेणा पणस्सई ।
एवं कम्माणि णस्संति, मोहणिज्जे खयं गए ॥२६॥ सेनापतौ निहते, यथा सेना प्रणश्यति ।
एवं कर्माणि नश्यन्ति, मोहनीये क्षय गते ॥२६।। ६१४. कम्ममलविप्पमुक्को, उड्ढं लोगस्स अंतमधिगंता ।
सो सव्वणाणदरिसी, लहदि सुहणिदियमणंतं ॥२७॥ कर्म मलविप्रमुक्त, ऊर्ध्व लोकस्यान्तमधिगम्य । स सर्वज्ञानदर्शी, लभते सुखमनिन्द्रियमनन्तम् ।।२७॥
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तत्त्व-दर्शन
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६०८. मुमुक्षुजीव सम्यक्त्वरूपी दृढ कपाटों से मिथ्यात्वरूपी आस्रवद्वार को रोकता है तथा दृढ़ व्रतरूपी कपाटों से हिंसा आदि द्वारों को रोकता है ।
६०९-६१०. जैसे किसी बड़े तालाब का जल, जल के मार्ग को बन्द करने से, पहले के जल को उलीचने से तथा सूर्य के ताप से क्रमश: सूख जाता है, वैसे ही संयमी का करोड़ों भवों में संचित कर्म पापकर्म के प्रवेश मार्ग को रोक देने पर तथा तप से निर्जरा को प्राप्त होता है--- नष्ट होता है ।
६११. यह जिन-वचन है कि संवरविहीन मुनि को केवल तप करने से ही मोक्ष नहीं मिलता; जैसे कि पानी के आने का स्रोत खुला रहने पर तालाब का पूरा पानी नहीं सूखता ।
६१२. अज्ञानी व्यक्ति तप के द्वारा करोड़ों जन्मों या वर्षो में जितने कर्मो का क्षय करता है, उतने कर्मो का नाश ज्ञानी व्यक्ति त्रिगुप्ति के द्वारा एक सॉस मे सहज कर डालता है ।
६१३. जैसे सेनापति के मारे जाने पर सेना नष्ट हो जाती है, वैसे ही एक मोहनीय कर्म के क्षय होने पर समस्त कर्म सहज ही नष्ट हो जाते है ।
६१४. कर्ममल से विमुक्त जीव ऊपर लोकान्त तक जाता है और वहाँ वह सर्वज्ञ तथा सर्वदर्शी के रूप में अतीन्द्रिय अनन्तसुख भोगता है ।
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समणसुत्तं ६१५. चक्किकुरुफणिसुरेदेसु, अहमिदे जं सुहं तिकालभवं ।
तत्तो अणंतगुणिदं, सिद्धाणं खणसुहं होदि ॥२८॥ चक्रिकुरुफणिसुरेन्द्रेषु, अहमिन्द्रे यत् सुख त्रिकालभवम् ।
ततः अनन्तगुणितं, सिद्धानां क्षणसुख भवति ॥२८॥ ६१६. सव्वे सरा नियटृति, तवका जत्थ न विज्जइ ।
मई तत्थ न गाहिया, ओए अप्पइट्ठाणस्स खेयन्ने ॥२९॥ सर्वे स्वराः निवर्तन्ते, तर्को यत्र न विद्यते । मतिस्तत्र न गाहिका, ओजः अप्रतिष्ठानस्य खेदज्ञः ॥२९॥
६१७. ण वि दुक्खं ण वि सुक्खं, ण वि पीडा व विज्जदे बाहा ।
ण वि मरणं ण वि जणणं, तत्थेव य होइ णिव्वाणं ॥३०॥ नापि दुःखं नापि सौख्यं, नापि पीडा नैव विद्यते बाधा ।
नापि मरणं नापि जननं, तत्रैव च भवति निर्वाणम् ॥३०॥ ६१८. ण वि इंदिय उवसग्गा, ण वि मोहो विम्यो ण णिद्दा य ।
ण य तिण्हा व छुहा, तत्थेव य होइ णिवाणं ॥३१॥ नापि इन्द्रियाणि उपसर्गाः, नापि मोहो विस्मयो न निद्रा च ।
न च तृष्णा नैव क्षुधा, तत्रैव च भवति निर्वाणम् ॥३१॥ ६१९. ण वि कम्मं णोकम्मं, ण वि चिता व अट्टरुद्दाणि ।
ण वि धम्मसक्कझाणे, तत्थेव य होइ णिव्वाणं ॥३२॥ नापि कर्म नोकर्म, नापि चिन्ता नैवार्तरौद्रे ।
नापि धर्मशुक्लध्याने, तत्रैव च भवति निर्वाणम् ॥३२॥ ६२०. विज्जदि केवलणाणं, केवलसोक्खं च केवलं विरयं ।
केवलदिट्ठि अमुत्तं, अत्थित्तं सप्पदेसत्तं ॥३३॥ विद्यते केवलज्ञानं, केवलसौख्य च केवलं वीर्यम् । केवलदृष्टि रमूर्तत्व-मस्तित्व
सप्रदेशत्वम् ॥३३॥
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तत्त्व-दर्शन
६१५ चक्रवतियों को, उत्तरकुरु, दक्षिणकुरु आदि भोगभूमिवाले
जीवों को, तथा फणीन्द्र, सुरेन्द्र एवं अहमिन्द्रो को त्रिकाल में जितना सुख मिलता है उस सबसे भी अनन्तगुना सुख सिद्धो
को एक क्षण मे अनुभव होता है। ६१६. मोक्षावस्था का शब्दों में वर्णन करना सम्भव नहीं है, क्योकि
वहाँ शब्दों की प्रवृत्ति नही है। न वहाँ तर्क का ही प्रवेश है, क्योंकि वहाँ मानस-व्यापार सम्भव नही है। मोक्षावस्था संकल्प-विकल्पातीत है। साथ ही समस्त मलकलक से रहित होने से वहाँ ओज भी नहीं है। रागातीत होने के कारण सातवे नरक तक की भूमि का ज्ञान होने पर भी वहाँ किमी प्रकार का खेद नही है।
६१७. जहाँ न दु ख है न सुख, न पीडा है न वाधा, न मरण है न जन्म,
वही निर्वाण है।
६१८. जहाँ न इन्द्रियाँ है न उपसर्ग, न मोह है न विस्मय, न निद्रा है
न तृष्णा और न भूख, वही निर्वाण है ।
६१९. जहाँ न कर्म है न नोकर्म, न चिन्ता है न आर्तरौद्र ध्यान, न धर्म
ध्यान है और न शुक्लध्यान, वही निर्वाण है ।
६२०. वहाँ अर्थात् मुक्तजीवों में केवलज्ञान, केवलदर्शन, केवग्सख,
केवलवीर्य, अरूपता, अस्तित्व और सप्रदेशत्व-ये गुण होता है।
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१९८
समणसुत्तं ६२१. निव्वाणं ति अवाहंति, सिद्धी लोगग्गमेव य ।
खेमं सिवं अणाबाह, जं चरंति महेसिणो॥३४॥ निर्वाणमित्यबाधमिति, सिद्धिर्लोकाग्रमेव च ।
क्षेमं शिवम् नावाधं, यत् चरन्ति महर्षयः ॥३४॥ ६२२. लाउअ एरण्डफले, अग्गीधूमे उसू धणुविमुक्के ।
गइ पुवपओगेणं, एवं सिद्धाण वि गती तु ॥३५॥ अलाबु च एरण्डफल-मग्निधूम इषुर्धनुर्विप्रमुक्तः । गति पूर्वप्रयोगणवं, सिद्धानामपि गतिस्तु ।। ३५।।
६२३. अव्वाबाहमणिदिय-मणोवमं पुण्णपावणिम्मुक्कं ।
पुणरागमणविरहियं, णिच्चं अचलं अणालंबं ॥३६॥ अव्याबाधमनिन्द्रिय-मनुपमं पुण्यपापनिर्मक्तम् । पुनरागमनविरहितं, नित्यमचलमनालम्बम् ।।३६॥
३५. द्रव्यसूत्र ६२४. धम्मो अहम्मो आगासं, कालो पुग्गल जन्तवो ।
एस लोगो त्ति पण्णत्तो, जिणेहिं वरदंसिहिं ॥१॥ धर्मोऽधर्म आकाशं, काल. पुद्गला जन्तवः ।
एष लोक इति प्रज्ञप्तः, जिनवरदर्शिभिः ।।१।। ६२५. आगासकालपुग्गल-धम्माधम्मसु पत्थि जीवगुणा ।
तेसि अचेदणतं, भणिदं जीवस्स चेदणदा ॥२॥ आकाशकालपुद्गल-धर्माधर्मेषु न सन्ति. जीवगुणाः ।
तेषामचेतनत्वं, भणितं जीवस्य चेतनता ॥२॥ ६२६. आगासकालजीवा, धम्माधम्मा य मुत्तिपरिहीणा ।
मुत्तं पुग्गलदव्वं, जीवो खलु चेदणो तेसु ॥३॥ आकाशकालजीवा, धर्माधर्मों च मूर्तिपरिहीनाः । मूर्त पुद्गलद्रव्यं, जीवः खलु चेतनस्तेषु ॥३॥
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तत्त्व-दर्शन
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६२१. जिसे महर्षि ही प्राप्त करते हैं वह स्थान निर्वाण है, अबाध है, सिद्धि है, लोकाग्र है, क्षेम, शिव और अनाबाध है ।
६२२. जैसे मिट्टी से लिप्त तुम्बी जल में डूब जाती है और मिट्टी का लेप दूर होते ही ऊपर तैरने लग जाती है अथवा जैसे एरण्ड का फल धूप से सूखने पर फटता है तो उसके बीज ऊपर को ही जाते है अथवा जैसे अग्नि या धूम की गति स्वभावतः ऊपर की ओर होती है अथवा जैसे धनुप से छूटा हुआ बाण पूर्व - प्रयोग से गतिमान् होता है, वैसे ही सिद्ध जीवो की गति भी स्वभावत' ऊपर की ओर होती है ।
६२३. परमात्म-तत्त्व, अव्यावाध, अतीन्द्रिय, अनुपम, पुण्य-पापरहित, पुनरागमन रहित, नित्य, अचल और निरालम्ब होता है ।
३५. द्रव्य सूत्र
६२४. परमदर्शी जिनवरों ने लोक को धर्म, अधर्म, आकाश, काल, पुद्गल और जीव इस प्रकार छह द्रव्यात्मक कहा है ।
६२५. आकाश, काल, पुद्गल, धर्म और अधर्म द्रव्यों मे जीव के गुण नही होते, इसलिए इन्हें अजीव कहा गया है । जीव का गुण चेतनता है ।
६२६. आकाश, काल, जीव, धर्म और अधर्म द्रव्य अमूर्तिक है । पुद्गल द्रव्य मूर्तिक है । इन सबमें केवल जीव द्रव्य ही चेतन है ।
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२००
समणसुत्तं ६२७. जीवा पुग्गलकाया, सह सक्किरिया हवंति ण य सेसा ।
पुग्गलकरणा जीवा, खंधा खलु कालकरणा दु॥४॥ जीवा. पुद्गलकाया , सह सक्रिया भवन्ति न च शेषाः ।
पुद्गलकर : जीवा , स्कन्धा. खलु कालकरणास्तु ॥४॥ ६२८. धम्मो अहम्मो आगासं, दव्वं इक्किक्कमाहियं ।
अणंताणि य दवाणि, कालो पुग्गल जंतवो ॥५॥ धर्मोऽधर्म आकाश, द्रव्यमकैकमाख्यातम् ।
अनन्तानि च द्रव्याणि, काल: (समयाः) पुद्गला जन्तवः ॥५॥ ६२९. धम्माधम्म य दोऽवए, लोगमित्ता वियाहिया ।
लोगालोगे य आगासे, समए समयखेत्तिए॥६॥ धर्माऽधर्मो च द्वावप्येतो, लोकमात्रौ व्याख्यातौ ।
लोकेऽलोके च आकाशः, समय समयक्षेत्रिकः ॥६॥ ६३०. अन्नोन्नं पविसंता, दिता ओगासमन्नमन्नस्स ।
मेलंता वि य णिच्चं, सगं सभावं ण विजहंति ॥७॥ अन्योऽन्यं प्रविशन्तः, ददत्यवकाशमन्योऽन्यस्य ।
मिलन्तोऽपि च नित्यं, स्वकं स्वभावं न विजति ॥७॥ ६३१. धम्मस्थिकायमरसं, अवण्णगंधं असद्दमप्फासं ।
लोगोगाढं पुठं, पिहुलमसंखादिय-पदेसं ॥८॥ धर्मास्तिकायोऽरसो-ऽवर्णगन्धोऽशब्दोऽस्पर्शः ।
लोकावगाढः स्पृष्टः, पृथुलोऽसंख्यातिकप्रदेशः ॥८॥ ६३२. उदयं जह मच्छाणं, गमणाणुग्गहयरं हवदि लोए ।
तह जीवपुग्गलाणं, धम्मं दव्वं वियाणेहि ॥९॥ उदकं यथा मत्स्यानां, गमनानुग्रहकरं भवति लोके ।
तथा जीवपुद्गलानां, धर्म द्रव्यं विजानीहि ॥९॥ ६३३. ण य गच्छदि धम्मत्थी, गमणं ण करेदि अन्नदवियस्स ।
हवदि गती स प्पसरो, जीवाणं पुग्गलाणं च ॥१०॥ न च गच्छति धर्मास्तिकायः, गमनं न करोत्यन्यद्रव्यस्य । भवति गतेः स प्रसरो, जीवानां पुद्गलाना च ॥१०॥
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तत्त्व-दर्शन
२०१ ६२७. जीव और पुद्गलकाय ये दो द्रव्य सक्रिय है। शेष सब द्रव्य
निष्क्रिय है। जीव के सक्रिय होने का बाह्य साधन कर्म नोकर्मरूप पुद्गल है और पुद्गल के सक्रिय होने का बाह्य
साधन कालद्रव्य है। ६२८. धर्म, अधर्म और आकाश ये तीनों द्रव्य संख्या में एक-एक है ।
(व्यवहार-) काल, पुद्गल और जीव ये तीनों द्रव्य अनंतअनत है।
६२९. धर्म और अधर्म ये दोनों ही द्रव्य लोकप्रमाण है । आकाश
लोक और अलोक मे व्याप्त है। (व्यवहार-) काल केवल समयक्षेत्र अर्थात् मनुप्यक्षेत्र में ही है ।
६३०. ये सब द्रव्य परस्पर में प्रविष्ट है। एक द्रव्य दूसरे द्रव्य को
अवकाश देते हुए स्थित है। ये इसी प्रकार अनादिकाल से मिले हुए है, किन्तु अपना-अपना स्वभाव नहीं छोड़ते है ।
६३१. धर्मास्तिकाय रस-रहित है, रूप-रहित है, स्पर्श-रहित, गन्ध-रहित
और शब्द-रहित है। समस्त लोकाकाश में व्याप्त है, अखण्ड है, विशाल है और असंख्यातप्रदेशी है ।
६३२. जैसे इस लोक मे जल मछलियों के गमन में सहायक होता
है, वैसे ही धर्मद्रव्य जीवों तथा पुद्गलों के गमन में सहायक या निमित्त बनता है ।
६३३. धर्मास्तिकाय स्वय गमन नही करता और न अन्य द्रव्यो का
गमन कराता है । वह तो जीवों और पुद्गलों की गति में उदासीन कारण है। यही धर्मास्तिकाय का लक्षण है ।
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समणसुत्तं ६३४. जह हवदि धम्मदव्वं, तह तं जाणेह दवमधम्मक्खं ।
ठिदिकिरियाजुत्ताणं, कारणभूदं तु पुढवीव ॥११॥ यथा भवति धर्मद्रव्यं, तथा तद् जानीहि द्रव्यमधर्माख्यम् ।
स्थितिक्रियायुक्तानां, कारणभूत तु पृथिवीव ॥११॥ ६३५. चेयणरहियममुत्तं, अवगाहणलक्खणं च सव्वगयं ।
लोयालोयविभेयं, तं णहदव्वं जिणुद्दिळं ॥१२॥ चेतनारहितममूर्त, अवगाहनलक्षणं च सर्वगतम् ।
लोकालोकद्विभेदं, तद् नभोद्रव्यं जिनोद्दिष्टम् ॥१२॥ ६३६. जीवा चेव अजीवा य, एस लोए वियाहिए ।
अजीवदेसमागासे, अलोए से वियाहिए ॥१३॥ जीवाश्चैव अजीवाश्च, एष लोको व्याख्यातः ।
अजीवदेश आकाश, अलोकः स व्याख्यातः ॥१३॥ ६३७. पासरसगंधवण्ण-व्वदिरित्तो अगुरुलहुगसंजुत्तो ।
वत्तणलक्खणकलियं, कालसरूवं इमं होदि ॥१४॥ स्पर्शरसगन्धवर्णव्यतिरिवतम् अगुरुलघुकसंयुक्तम् ।
वर्तनलक्षणकलितं कालस्वरूपम् इदं भवति ।।१४।। ६३८. जीवाण पुग्गलाणं, हुवंति परियट्टणाइ विविहाइ ।
एदाणं पज्जाया, वट्टते मुक्खकालआधारे ॥१५॥ जीवानां पुद्गलानां भवन्ति परिवर्तनानि विविधानि ।
एतेषां पर्याया वर्तन्ते मुख्यकालआधारे ॥१५॥ ६३९. समयावलिउस्सासा, पाणा थोवा य आदिआ भेदा ।
ववहारकालणामा, णिद्दिट्टा वीयराएहि ॥१६॥ समयआवलिउच्छ्वासाः प्राणाः स्तोकाश्च आदिका भेदाः ।
व्यवहारकालनामानः निर्दिष्टा वीतरागः ॥१६॥ ६४०. अणुखंधवियप्पेण दु, पोग्गलदव्वं हवेइ दुवियप्पं ।
खंधा हु छप्पयारा, परमाणू चेव दुवियप्पो ॥१७॥ अणुस्कन्धविकल्पेन तु, पुद्गलद्रव्यं भवति द्विविकल्पम् । स्कन्धाः खलु षट्प्रकाराः, परमाणुश्चैव द्विविकल्पः ॥१७॥
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तत्त्व-दर्शन
२०३ ६३४. धर्मद्रव्य की तरह ही अधर्मद्रव्य है। परन्तु अन्तर यह है कि
यह स्थितिरूप क्रिया से युक्त जीवों और पुद्गलों की स्थिति मे पृथ्वी की तरह निमित्त बनता है ।
६३५. जिनेन्द्रदेव ने आकाश-द्रव्य को अचेतन, अमूर्त, व्यापक और
अवगाह लक्षणवाला कहा है। लोक और अलोक के भेद से आकाश दो प्रकार का है ।
६३६. यह लोक जीव और अजीवमय कहा गया है। जहाँ अजीव
का एकदेश (भाग) केवल आकाश पाया जाता है, उसे अलोक कहते है।
६३७. स्पर्श, गन्ध, रस और रूप से रहित, अगुरु-लघु गुण से युक्त
तथा वर्तना लक्षणवाला कालद्रव्य है।
६३८. जीवों और पुद्गलों मे नित्य होनेवाले अनेक प्रकार के परिवर्तन
या पर्याय मुख्यतः कालद्रव्य के आधार से होती है-उनके परिणमन मे कालद्रव्य निमित्त होता है। (इसीको आगम
मे निश्चयकाल कहा गया है।) ६३९. वीतरागदेव ने बताया है कि व्यवहार-काल समय, आवलि,
उच्छ्वास, प्राण, स्तोक आदि रूपात्मक है ।
६४०. अणु और स्कन्ध के रूप मे पुद्गल-द्रव्य दो प्रकार का है।
स्कन्ध छह प्रकार का है और परमाणु दो प्रकार का--कारणपरमाणु और कार्य-परमाणु ।
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समणसुत्तं ६४१. अइथूलथूल थूलं, थूलसुहुमं च सहुमथलं च ।
सुहुमं अइसुहुमं इदि, धरादियं होदि छन्भेयं ॥१८॥ अतिस्थूलस्थूलाः स्थूला , स्थूलसूक्ष्माश्च सूक्ष्मस्थूलाश्च ।
सूक्ष्मा अतिसूक्ष्मा इति, धरादयो भवन्ति पड्भेदाः ॥१८॥ ६४२. पुढवी जलं च छाया, चरिंदियविसय-कम्मपरमाणू ।
छविहभेयं भणियं, पोग्गलदव्वं जिणवरहिं ॥१९॥ पृथिवी जल च छाया, चतुरिन्द्रियविषय-कर्मपरमाणवः ।
षड्विधभेद भणितं, पुद्गलद्रव्य जिनवरैः ।।१९।। ६४३. अंताहिमज्झहीणं, अपदेसं इंदिएहि ण हु गेझं ।
जं दव्वं अविभत्तं, त परमाणुं कहंति जिणा ॥२०॥ अन्त्यादिमध्यहीनम् अप्रदेशम् इन्द्रियैर्न खलु ग्राह्यम् ।
यद् द्रव्यम् अविभक्तम् त परमाणु कथयन्ति जिना. ॥२०॥ ६४४. वण्णरसगंधफासे, पूरणगलणाइ सव्वकालम्हि ।
खंदं इव कुणमाणा, परमाणू पुग्गला तम्हा ॥२॥ वर्णरसगन्धस्पर्श पूरणगलनानि सर्वकाले ।
स्कन्धा इव कुर्वन्त. परमाणव पुद्गला तस्मात् ॥२१॥ ६४५. पाणेहिं चहिं जीवदि, जीवस्सदि जो हु जीविदो पुत्वं ।
सो जीवो, पाणा पुण बलमिदियमाउ उस्सासो ॥२२॥ प्राणैश्चतुभिजीवति, जीविष्यति यः खलु जीवित. पूर्व ।
स जीवः, प्राणा, पुनर्बलमिन्द्रियमायु-रुच्छ्वास ॥२२॥ ६४६. अणुगुरुदेहपमाणो, उवसंहारप्पसप्पदो चेदा ।
असमुहदो ववहारा, णिच्छयणयदो असंखदेसो वा ॥२३॥ अणुगुरुदेहप्रमाण, उपसहारप्रमर्पत. चेतयिता ।
असमबहत व्यवहारात्, निश्चयनयत असख्यदेशो वा ॥२३॥ ६४७. जह पउमरायरयणं, खित्तं खीरे पभासयदि खीरं ।
तह देही देहत्थो, सदेहमत्तं पभासयदि ॥२४॥ यथा पद्मरागरत्न, क्षिप्त क्षीरे प्रभासयति क्षीरम् । तथा देही देहस्थ, स्वदेहमानं प्रभासयति ॥२४॥
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तत्त्व-दर्शन
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६४१. स्कन्ध पुद्गल के छह प्रकार ये हैं-- अतिस्थूल, स्थूल, स्थूलसूक्ष्म, सूक्ष्मस्थूल, सूक्ष्म और अतिसूक्ष्म । पृथ्वी आदि इसके छह दृष्टान्त है |
६४२ पृथ्वी, जल, छाया, नेत्र तथा शेष चार इन्द्रियों के विषय, कर्म तथा परमाणु--इस प्रकार जिनदेव ने स्कन्धपुद्गल के छह दृष्टान्त है | [ पृथ्वी अतिस्थूल का जल स्थूल का, छायाप्रकाश आदि नेत्रइन्द्रिय विषय स्थूल सूक्ष्म का रस-गध-स्पर्शशब्द आदि इन्द्रिय-विपय सूक्ष्म - स्थूल का, कार्मण-स्कन्ध सूक्ष्म का तथा परमाणु अतिसूक्ष्म का दृष्टान्त है । ]
६४३. जो आदि मध्य और अन्त से रहित है, जो केवल एकप्रदेशी है -- जिसके दो आदि प्रदेश नही है और जिसे इन्द्रियों द्वारा ग्रहण नही किया जा सकता, वह त्रिभागविहीन द्रव्य परमाणु है ।
६४४. जिसमे रण गलन की क्रिया होती है अर्थात् जो टूटता - जुड़ता रहता है, वह पुद्गल है । स्कन्ध की भाँति परमाणु के भी स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण गुणों मे सदा पूरण- गलन क्रिया होती रहती है, इसलिए परमाणु भी पुद्गल है ।
६४५. जो चार प्राणो से वर्तमान मे जीता है, भविष्य मे जीयेगा और अतीत में जिया है वह जीव द्रव्य है । प्राण चार है—-- बल, इन्द्रिय, आयु और उच्छ्वास ।
६४६. व्यवहारनय की अपेक्षा समुद्घात अवस्था को छोड़कर सकोचविस्तार की शक्ति के कारण जीव अपने छोटे या बड़े शरीर के बराबर परिमाण (आकार) का होता है । किन्तु निश्चयनय की अपेक्षा जीव असख्यातप्रदेशी है ।
६४७. जैसे पद्मरागमणि दूध में डाल देने पर अपनी प्रभा से प्रभासित करती है -- दुग्धपात्र के नही करती, वैसे ही जीव शरीर में रहकर अपने शरीर मात्र को प्रभासित करता है- -अन्य किसी बाह्य द्रव्य को नही ।
दूध को बाहर के किसी पदार्थ को
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समणसुत्तं ६४८. आदा णाणपमाणं, णाणं णेयप्पमाणमुट्ठि ।
णेयं लोयालोयं, तम्हा णाणं तु सव्वगयं ॥२५॥ आत्मा ज्ञानप्रमाण, ज्ञानं ज्ञेयप्रमाणमुद्दिष्टम् ।
ज्ञेयं लोकालोकं, तस्माज्ज्ञान तु सर्वगतम् ॥२५॥ ६४९. जीवा संसारत्था, णिव्वादा चेदणप्पगा दुविहा ।
उवओगलक्खणा वि य, देहादेहप्पवीचारा ॥२६॥ जीवाः ससारस्था, निर्वाताः, चेतनात्मका द्विविधा. ।
उपयोगलक्षणा अपि च, देहादेहप्रवीचाराः ॥२६॥ ६५०. पुढविजलतेयवाऊ-वणप्फदी विविहथावरेइंदी ।
बिगतिगचदुपंचक्खा, तसजीवा होंति संखादी ॥२७॥ पृथिवीजलतेजोवायु-वनस्पतयः विविधरथावरैकेन्द्रियाः । द्विकत्रिकचतुपञ्चाक्षाः, त्रसजीवा भवन्ति शड्खादयः ॥२७॥
३६. सृष्टिसूत्र ६५१. लोगो अकिट्टिमो खल, अणाइणिहणो सहावणिव्वत्तो ।
जीवाजीवहिं फुडो, सव्वागासावयवो णिच्चो॥१॥ लोक: अकृत्रिमः खलु, अनादिनिधनः स्वभावनिर्वृत्तः ।
जीवाजीवः स्पृष्टः, सर्वाकाशावयवः नित्यः ॥१॥ ६५२. अपदसो परमाणू, पदसमेत्तो य समयसद्दो जो ।
गिद्धो वा लुक्खो वा, दुपदेसादित्तमणुहदि ॥२॥ अप्रदेशः परमाणुः, प्रदेशमात्रश्च स्वयमशब्दो यः ।
स्निग्धो वा रूक्षो वा, द्विप्रदेशादित्वमनुभवति ॥२॥ ६५३. दुपदेसादी खंधा, सुहुमा वा बादरा ससंठाणा ।
पुढविजलतेउवाऊ, सगपरिणामेहिं जायते ॥३॥ द्विप्रदेशादयः स्कन्धाः, सूक्ष्मा वा बादराः ससंस्थानाः । पृथिवीजलतेजोवायवः, स्वकपरिणामर्जायन्ते ॥३॥
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तत्त्व-दर्शन
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६४८. ( इस प्रकार व्यवहारनय से जीव शरीरव्यापी है, किन्तु - ) वह ज्ञान -प्रमाण है, ज्ञान ज्ञेयप्रमाण है तथा ज्ञेय लोक- अलोक है, अतः ज्ञान सर्वव्यापी है । आत्मा ज्ञान- प्रमाण होने से आत्मा भी सर्वव्यापी है ।
६४९ जीव दो प्रकार के है -- संसारी और मुक्त । दोनों हीं चेतना स्वभाववाले और उपयोग लक्षणवाले है । संसारी जीव शरीरी होते है और मुक्तजीव अशरीरी ।
६५०. संसारीजीव भी त्रस और स्थावर दो प्रकार के है । पृथ्वीकायिक, जलकायिक, तेजकायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक ये सब एकेन्द्रिय स्थावर जीव है और शंख, पिपीलिका, भ्रमर तथा मनुष्य- पशु आदि क्रमशः द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय व पंचेन्द्रिय त्रस जीव हैं ।
३६. सृष्टिसूत्र
६५१. वस्तुतः यह लोक अकृत्रिम है, अनादिनिधन है, स्वभाव से ही निर्मित है, जीव व अजीव द्रव्यों से व्याप्त है, सम्पूर्ण आकाश का ही एक भाग है तथा नित्य है ।
६५२. (लोक में व्याप्त - ) पुद्गल - परमाणु एकप्रदेशी है -- दो आदि प्रदेशी नही है, तथा वह शब्दरूप नही है, फिर भी उसमें स्निग्ध व रूक्ष स्पर्श का ऐसा गुण है कि एक परमाणु दूसरे परमाणुओं से बँधने या जुड़ने या मिलने पर दो प्रदेशी आदि स्कन्ध रूप धारण कर लेते हैं ।
का
६५३. द्विप्रदेशी आदि सारे सूक्ष्म और बादर (स्थूल ) स्कन्ध अपने परिणमन के द्वारा पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु के रूप मे अनेक आकारवाले बन जाते है ।
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समणसुत्तं ६५४. ओगाढगाढणिचिदो, पुग्गलकाहिं सव्वदो लोगो ।
सुहुमेहि बादरेहि य, अप्पाओगेहिं जोग्गेहिं ॥४॥ अवगाढगाढनिचितः, पुद्गलकार्यः सर्वतो लोक । सूक्ष्मर्बादरश्चा-प्रायोग्यर्योग्यः ॥४॥
६५५. कम्मत्तणपाओग्गा, खंधा जीवस्स परिणइं पप्पा ।
गच्छंति कम्मभावं, ण हि ते जीवेण परिणमिदा ॥५॥ कर्मत्वप्रायोग्या', स्कन्धा जीवस्य परिणति प्राप्य । गच्छन्ति कर्मभाव, न हि ते जीवन परिणमिताः ॥५॥
६५६. भावेण जेण जीवो, पेच्छदि जाणादि आगदं विसये ।
रज्जदि तेणेव पुणो, बज्झदि कम्म ति उवदेसो ॥६॥ भावेन येन जीव., प्रेक्षते जानात्यागतं विषये । रज्यति तेनैव पुनर्बध्यते कर्मत्युपदेशः ॥६।।
६५७. सव्वजीवाण कम्मं तु, संगहे छद्दिसागयं ।
सव्वेस वि पएसेस, सव्वं सवेण बद्धगं ॥७॥ सर्वजीवाना कर्म तु, संग्रहे षड्दिशागतम् । सर्वेप्वपि प्रदेशेषु, सर्व सर्वेण बद्धकम् ॥७॥ तेणावि जं कयं कम्मं, सुहं वा जइ वा दुहं । कम्मणा तेण संजत्तो, गच्छई उ परं भवं ॥८॥ तेनापि यत् कृत कर्म, सुख वा यदि वा दुखम् ।
कर्मणा तेन सयुक्त., गच्छति तु पर भवम् ॥८॥ ६५९. ते ते कम्मत्तगदा, पोग्गलकाया पुणो वि जीवस्स ।
संजायंते देहा, देहतरसंकमं पप्पा ॥९॥ ते ते कर्मत्वगता , पुद्गलकाया. पुनरपि जीवस्य ।। सजायन्ते देहा देहान्तरसक्रम प्राप्य ॥९॥
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तत्त्व-दर्शन ६५४. यह लोक सब ओर से इन सूटम-वादर पुद्गल-स्कन्धो से ठसा
ठस भरा हुआ है। उनमें से कुछ पुद्गल कर्मरूप से परिण मन के योग्य होते है और कुछ अयोग्य होते है ।
६५५. कर्मरूप में परिणमित होने के योग्य पुद्गल जीव के रागादि
(भावों) का निमित्त पाकर स्वय ही कर्मभाव को प्राप्त हो जाते है । जीव स्वय उन्हे (बलपूर्वक) कर्म के रूप में परिणमित
नहीं करता। ६५६. जीव अपने राग या द्वेपरूप जिस भाव से संपक्त होकर इन्द्रियों के
विषयो के रूप में आगत या ग्रहण किये गये पदार्थो को जानतादेखता है, उन्हीसे उपरक्त होता है और उसी उपरागवश
नवीन कर्मो का बन्ध करता है । ६५७ सभी जीवों के लिए संग्रह (बद्ध) करने के योग्य कर्म-पुद्गल
छहों दिशाओ मे सभी आकाशप्रदेशो मे विद्यमान है। वे सभी कर्म-पुद्गल आत्मा के सभी प्रदेशो के साथ बद्ध होते है ।
६५८ व्यक्ति सुख-दु.खरूप या शुभाशुभरूप जो भी कर्म करता है,
वह अपने उन कर्मों के साथ ही परभव मे जाता है ।
६५९. इस प्रकार कर्मो के रूप में परिणत वे पुद्गल-पिण्ड देह से
देहान्तर को-नवीन शरीररूप परिवर्तन को-प्राप्त होते रहते है। अर्थात् पूर्वबद्ध कर्म के फलरूप मे नया शरीर बनता है
और नये शरीर मे नवीन कर्म का बध होता है। इस तरह जीव निरन्तर विविध योनियो में परिभ्रमण करता रहता
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लोक - दर्शन
अवलोक
लोकाकाश
मध्यलोक)
अलोकाकाश
अधोलोक
चौदह राजु उत्तंग नभ लोक पुरुषसंठान । तामै जीव अनादितै भरमत है बिन ज्ञान ॥
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समणसुत्तं
चतुर्थ खण्ड स्याद्वाद
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३७. अनेकान्तसूत्र ६६०. जेण विणा लोगस्स वि, ववहारो सव्वहा न निव्वहइ ।
तस्स भुवणेक्कगुरुणो, णमो अणेगंतवायरस ॥१॥ येन विना लोकस्य अपि व्यवहार सर्वथा न निवहति ।
तस्मै भवनकगुरवे नम. अनेकान्तवादास ११॥ ६६१. गुणाणमासओ दवं, एगदवस्सिया गुणा ।
लकवणं पज्जवाणं तु, उभओ अस्सिया भवे॥२॥ गणानामाश्रयो द्रव्य, एकद्रव्याश्रिता गमा
लक्षण पर्यवाणा तु, उभयोगश्रिता भवन्ति ॥२॥ ६६२. दध्वं पज्जवविउयं, दवविउत्ता य पज्जवा गथि ।
उप्पाय-ट्टिइ-भंगा, हंदि दवियलक्खणं एये ॥३॥ द्रव्य पर्यववियत, द्रव्यवियुक्ताश्च पर्यवा न सन्ति ।
उत्पादस्थितिभङ्गा . हन्त द्रव्यलक्षणमेतत् ।।३॥ ६६३. ण भवो भंगविहीणो, भंगो वा स्थि संभवविहीणो ।
उप्पादो वि य भंगो, ण विणा धोवेण अत्थेण ॥४॥ न भवो भङ्गविहीनो, भगो वा नास्ति सम्भवविहीन ।
उत्पादोपि च मङ्गो, न विना प्रौव्यणाथन ॥४॥ ६६४ उम्पाददिदिभंगा, विज्जते पज्जएस पज्जाया ।
दत्वं हि संति नियतं, तम्हा दव्वं हदि सव्व ॥५॥ उत्पादस्थिनिभङ्गा, विद्यन्ते पर्याय पर्याया. ।
का हि मन्ति नियत. तस्माद् द्रव्य भवति सर्वम् ।।५।। ६६५. समवेदं खलु दव्वं, संभवठिदिणाससण्णिदह्रोह ।
एक्कम्मि चेव समये रम्हा दव्वं खु तत्तिदयं ॥६॥ गमवन्न प्रय, सम्भवम्तिनाशसजितार्थे । एकस्मिन् चैव नमये. तः । ५ खलु तत् त्रितयम् ॥६॥
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३७. अनेकान्तसूत्र ६६० जिमझे बिना लोक का व्यवहार बिलकुल नहीं चल सकता
विश्व के उस एकमेव गुरु अनेकान्तवाद को प्रणाम करता हूं।
६६१. द्रव्य गणों का आश्रय या आधार है। जो एक द्रव्य के आश्रय
रहते है, वे गुण है। पर्यायों का लक्षण द्रव्य या गुण दोनों के आश्रित रहना है ।
६६२ पर्याय के बिना द्रव्य नही और द्रव्य के विकास नही ।
उत्पाद. स्थिति (ध्रुवता) और व्यय (नाम इत्य का अग है। अर्थात् द्रव्य उसे कहते है जिसमे प्रति ममय उत्पाद यादि तीनों
घटिन होते रहते है । ६६३ उत्पाद व्यय के बिना नहीं होता और व्यय उत्ताद के बिना
नहीं होता। इसी प्रकार उत्पाद और व्यय दाना निकालस्थायी प्रौव्यअर्थ (आधार) के बिना नहीं गते ।
६६४. उत्पाद, व्यय ओर ध्रौव्य (उत्पत्ति, विनान ओर रिदिय
तीनो द्रव्य में नहीं होते अपितु द्रव्य को नित्य परिवर्तनगो पर्यायो में होते है । परन्तु पर्यायो का समूह रकम है, अन मर
द्रव्य ही है । ६६५ द्रव्य एक ही समय में उत्पाद, व्यय व ध्रोब्ध नामक अर्थों के
साथ ममवेत-एकमेक है। इसलिए ये तीनो वास्तत्र में द्रव्य है ।
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समणसुत्तं ६६६. पाडुब्भवदि य अन्नो, पज्जाओ पज्जाओ वयदि अन्नो ।
दव्वस्स तं पि दवं, णेव पणठं व उप्पन्नं ॥७॥ प्रादुर्भवति चान्य , पर्याय पर्यायो व्ययते अन्यः ।
द्रव्यस्य तदपि द्रव्य, नैव प्रनष्ट नव उत्पन्नम् ॥७॥ ६६७. पुरिसम्मि पुरिससद्दो, जम्माई-मरणकालपज्जन्तो ।
तस्स उ बालाईया, पज्जवजोया बहुवियप्पा ॥८॥ पुरुपे पुरुषशब्दो, जन्मादि-मरण कालपर्यन्त ।
तस्य तु बालादिका, पर्यययोग्या बहुविकल्पा ॥८॥ ६६८. तम्हा वत्थूणं चिय, जो सरिसो पज्जवो स सामन्नं ।
जो विसरिसो विसेसो, य मओऽणत्यंतरं तत्तो॥९॥ तस्माद् वस्तूनामेव, य. सदृश पर्यव सः सामान्यम् ।
यो विसदृशो विशेष, स मतोऽनर्थान्तरं तत. ।।९।। ६६९. सामन्न अह विसेसे, दवे गाणं हवेइ अविरोहो ।
साहइ तं सम्मत्तं, णहु पुण तं तस्स विवरीयं ॥१०॥ सामान्यमथ विशेषः, द्रव्ये ज्ञान भवत्यविरोध. ।
माधयति तत्सम्यक्त्व, नहि पुनस्तत्तस्य विपरीतम् ॥१०॥ ६७०. पिउ-पुत्त-णत्तु-भव्वय-भाऊणं एगपुरिससंबंधो ।
ण य सो एगस्स पिय, त्ति सेसयाणं पिया होइ ॥११॥ पित-पुत्र-नात-भव्यक-भ्रातणाम् एक पुरुषसम्बन्ध ।
न च स एकस्य पिता इति शेषकाणा पिता भवति ॥११॥ ६७१. सवियप्प-णिवियप्पं इय, पुरिसं जो भणेज्ज अवियप्पं ।
सवियप्पमेव वा णिच्छएण, ण स निच्छओ समए ॥१२॥ सविकल्प-निर्विकल्पम् इति पुरुष यो भणेद् अविकल्पम् ।
सविकल्पमेव वा निश्चयेन न स निश्चित. समये ॥१२॥ ६७२. अन्नोन्नाणुगयाणं, 'इमं व तं व' त्ति विभयणमजुत्तं ।
जह दुद्ध-पाणियाणं, जावंत विसेसपज्जाया ॥१३॥ अन्योन्यानुगतयो: 'इद वा तद् वा' इति विभजनमयुक्तम् । यथा दुग्ध-पानीययो: यावन्त विशेषपर्यायाः ॥१३॥
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स्याद्वाद
२१५ ६६६. द्रव्य की अन्य (उत्तरवर्ती) पर्याय उत्पन्न (प्रकट) होती है
और अन्य (पूर्ववर्ती ) पर्याय नष्ट (अदृश्य) हो जाती है । फिर भी द्रव्य न तो उत्पन्न होता है और न नष्ट होता है--
द्रव्य के रूप मे सदा ध्रुव (नित्य ) रहता है । ६६७. पुरुष मे पुरुष शब्द का व्यवहार जन्म से लेकर मरण तक होता
है। परन्तु इसी बीच बचपन-बुढापा आदि अनेक पर्याय उत्पन्न हो-होकर नष्ट होती जाती है।
६६८. (अतः) वस्तुओं की जो सदृश पर्याय है-दीर्घकाल तक बनी
रहनेवाली समान पर्याय है, वही सामान्य है और उनकी जो विसदृश पर्याय है वह विशेष है। ये दोनो सामान्य तथा विशेष
पर्याय उस वस्तु से अभिन्न (कथचित् ) मानी गयी है । ६६९. सामान्य तथा विशेष इन दोनों धर्मो से युक्त द्रव्य मे होनेवाला
विरोध-रहित ज्ञान ही. सम्यक्त्व का साधक होता है। उसमे विपरीत अर्थात् विरोधयुक्त ज्ञान साधक नहीं होता।
६७०. एक ही पुरुष मे पिता, पुत्र, पौत्र, भानेज, भाई आदि अनेक
सम्बन्ध होते है। एक ही समय में वह अपने पिता का पुत्र और अपने पुत्र का पिता होता है। अत. एक का पिता होने से
वह सबका पिता नही होता । (यही स्थिति सब वस्तुओं की है।) ६७१. निर्विकल्प तथा सविकल्प उभयरूप पुरुष को जो केवल निर्विकल्प
अथवा सविकल्प (एक ही) कहता है, उसकी मति निश्चय ही शास्त्र में स्थिर नही है ।
६७२. दूध और पानी की तरह अनेक विरोधी धमों द्वारा परस्पर
घुले-मिले पदार्थ मे 'यह धर्म' और 'वह धर्म' का विभाग करना उचित नही है । जितनी विशेष पर्याय हों, उतना ही अविभाग समझना चाहिए।
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२१६
६७३. संकेज्ज याऽसंकितभाव भिक्खू, विभज्जवायं च वियागरेज्जा । भासादुगं धम्मसमुट्टितेहि, वियागरेज्जा समया सुपने ॥ १४ ॥ शङ्कित चाशङ्कितभावो भिक्षु विभज्यवाद च व्यागृणीवान् । भाषाद्विक च सम्यक् समुत्थितै व्यागृणीयात् समतया सुप्रज्ञ.।।१४।।
सम
(अ)
पञ्चविध ज्ञान
६७४. संसयविमोह-विन्भय-विवज्जियं
३८. प्रमाणसूत्र
ग्रहण
६७५. तत्थ
अप्पपरसरूवस्स ।
सायारमणेयभेयं तु ॥१॥
1
गहणं सम्म णाणं, संशयविमोह - विभ्रमविवर्जितमात्म-परस्वरूपस्य
सम्यग्ज्ञानं,
पंचविहं नाणं, सुयं ओहिनाणं तु तइयं, तत्र पञ्चविधं ज्ञानं, अवधिज्ञान तु तृतीय, मनोज्ञान च
साकारमनेकभेद
तु ॥ १ ॥ आभिनिबोहियं । मणनाणं च केवलं ॥२॥ श्रुतमाभिनिबोधिकम् । केवलम् ॥२॥
खइयं ॥३॥
६७६. पंचेव होंति णाणा, मदिसुदओहीमणं च खयउवसमिया चउरो, केवलणाणं हवे पञ्चैव भवन्ति ज्ञानानि, मतिश्रुतावधिमनश्च केवलम् । क्षायोपशमिकानि चत्वारि, केवलज्ञान भवेत् क्षायिकम् ||३|| ६७७. ईहा अपोह वीमंसा, मग्गणा य गवसणा । सण्णा सती मती पण्णा, सव्वं आभिणिबोधियं ॥४॥ ईहा अपोहः विमर्श: मार्गणा च गवेषणा | संज्ञा स्मृति मति प्रज्ञा सर्वम् आभिनिबोधिकम् ॥४॥ ६७८. अत्थाओ अत्यंतर - मुवलंभे तं भणति सुयणाणं । आभिणिबोहियपुव्वं, णियमेण य सद्दयं मूलं ॥५॥ अर्थादर्थान्तरमुपलम्भ. तं भणन्ति श्रुतज्ञानम् । आभिनिबोधिकपूर्व नियमेन च शब्दज मूलम् ॥५॥
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केवलयं ।
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स्याद्वाद
२१७
६७३. सूत्र और अर्थ के विषय मे शकासहित साधु भी गर्वरहित होकर
स्थाद्वादमय वचन का व्यवहार करे। धर्माचरण में प्रवृत्त माधुओ के साथ विचरण करते हुए सत्यभापा तथा अनुभय (जो न सत्य हो और न असत्य) भापा का व्यवहार करे । धनी या निर्धन का भेद न करके समभावपूर्वक धर्म-कथा कहे ।
३८. प्रमाणसूत्र (अ) पञ्चविध ज्ञान ६७४. सशय, विमोह (विपर्यय) और विभ्रम (अनध्यवसाय) इन
तीन मिथ्याज्ञानों से रहित अपने और पर के स्वरूप का ग्रहण करना सम्यग्ज्ञान है। यह वस्तुस्वरूप का यथार्थ निश्चय कराता है, अतएव इसे साकार अर्थात् सविकल्पक (निश्चयात्मक)
कहा गया है । इसके अनेक भेद है । ६७५. वह ज्ञान पाँच प्रकार का है--आभिनिबोधिक या मतिज्ञान,
श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन पर्ययज्ञान और केवलज्ञान । ६७६. इस प्रकार मति, श्रुत, अवधि, मन पर्यय और केवल के रूप में
ज्ञान पाँच ही है। इनमें से प्रथम चार ज्ञान क्षायोपशमिक हैं,
और केवलज्ञान क्षायिक है। (एकदेश क्षय व उपशम से उत्पन्न होने के कारण चार ज्ञान अपूर्ण है और समस्त कर्मो के क्षय से
उत्पन्न होने के कारण पाँचवाँ केवलज्ञान परिपूर्ण है।) ६७७. ईहा, अपोह. मीमासा, मार्गणा, गवेषणा, सज्ञा, शक्ति, मति
और प्रज्ञा--ये सव आभिनिबोधिक या मतिज्ञान है । ६७८. (अनुमान या लिगज्ञान की भाँति ) अर्थ (शब्द) को जानकर
उस पर से अर्थान्तर (वाच्यार्थ) को ग्रहण करना श्रुतज्ञान कहलाता है। यह ज्ञान नियमतः आभिनिबोधिक ज्ञानपूर्वक होता है । इसके दो भेद है--लिगजन्य और शब्दजन्य । (धुआँ देखकर होनेवाला अग्नि का ज्ञान लिगज है और वाचकशब्द सुन या पढ़कर होनेवाला ज्ञान शब्दज है।) आगम मे शब्दज श्रुतज्ञान का प्राधान्य है।
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२१८
समणसुत्त
६७९. इंदियमणोनिमित्तं, जं विष्णाणं सुयाणुसारेणं ।
निययतत्थुत्तिसमत्थं, तं भावसुयं मई सेसं ॥६॥ इन्द्रियमनोनिमित्त, यद्विज्ञान श्रुतानुसारेण । निजकार्योक्तिसमर्थ, तद् भावश्रुत मति. शेषम् ॥६।।
६८०. मइपुत्वं सुयमुत्तं, न मई सुयपुब्विया विसेसोऽयं ।
पुव्वं पूरणपालण-भावाओ जं मई तस्स ॥७॥ मतिपूर्व श्रुतमुक्तं, न मति श्रुतपूर्विका विशेषोऽयम् । पूर्व पूरणपालन - भावाद्यद् मतिस्तस्य ॥७॥
६८१. अवहीयदित्ति ओही, सीमाणाणेत्ति वणियं समए ।
भवगुणपच्चय-विहियं, तमोहिणाण त्ति णं बिति ॥८॥ अवधीयत इत्यवधि , सीमाज्ञानमिति वणितं समये । भवगुणप्रत्ययविधिक, तदवधिज्ञानमिति ब्रुवन्ति ॥८॥
६८२. चितियमचितियं वा अद्धं चितिय अणेयभेयगयं ।
मणपज्जव त्ति णाणं, जं जाणइ तं तु णरलोए ॥९॥ चिन्तितमचिन्तितं वा, अर्द्ध चिन्तितमनेकभेदगतम् । मन पर्यय. ति ज्ञानं, यज्जानाति तत्तु नरलोके ॥९॥
६८३. केवलमेगं सुद्धं, सगलमसाहारणं अणंतं च ।
पायं च नाणसद्दो, नामसमाणाहिगरणोऽयं ॥१०॥ केवलमेकं शुद्ध, सकल मसाधारणमनन्त च । प्रायश्च ज्ञानशब्दो, नामसमानाधिकरणोऽयम् ॥१०॥
६८४. संभिन्नं पासंतो, लोगमलोगं च सव्वओ सव्वं ।
तं नत्थि जं न पासइ, भूयं भव्वं भविस्सं च ॥११॥ संभिन्नं पश्यन्, लोकमलोक च सर्वतः सर्वम् । तन्नास्ति यत्र पश्यति, भूतं भव्यं भविष्यच्च ॥११॥
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२१९
स्याद्वाद ६७९ इन्द्रिय और मन के निमित्त से श्रुतानुसारी होनेवाला ज्ञान
श्रुतज्ञान कहलाता है। वह अपने विषयभूत अर्थ को दूसरे से कहने में समर्थ होता है। शेष इन्द्रिय और मन के निमित्त से होनेवाला अश्रुतानुसारी अवग्रहादि ज्ञान मतिज्ञान है। (इससे स्वयं तो जाना जा सकता है, किन्तु दूसरे को नही समझाया जा सकता ।) श्रुतज्ञान मतिजानपूर्वक होता है । मतिज्ञान श्रुतज्ञानपूर्वक नही होता । यही दोनों ज्ञानों में अन्तर है। 'पूर्व' शब्द 'पृ' धातु से बना है, जिसका अर्थ है पालन और पूरण । श्रुत का पूरण और पालन करने से मतिज्ञान पूर्व में ही होता है। अत. मति
पूर्वक ही श्रुत कहा गया है । ६८१. 'अवधीयते इति अवधि.' अर्थात् द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की मर्यादा
पूर्वक रूपी पदार्थो को एकदेश जाननेवाले ज्ञान को अवधिज्ञान कहते है। इसे आगम मे सीमाज्ञान भी कहा गया है।
इसके दो भेद है--भवप्रत्यय और गुणप्रत्यय । ६८२. जो ज्ञान मनुप्यलोक मे स्थित जीव के चिन्तित, अचिन्तित, अर्ध
चिन्तित आदि अनेक प्रकार के अर्थ से मन को प्रत्यक्ष जानता है,
वह मन.पर्ययज्ञान है । ६८३ केवल शब्द के एक, शद्ध, सकल, असाधारण और अनन्त आदि
अर्थ है। अत. केवलज्ञान एक है, इन्द्रियादि की सहायता से रहित है और उसके होने पर अन्य सब ज्ञान निवृत्त हो जाते है । इसीलिए केवलज्ञान एकाकी है, मलकलक से रहित होने से शुद्ध है। सम्पूर्ण ज्ञेयो का ग्राहक होने से सकल है। इसके समान और कोई ज्ञान नही है, अत असाधारण है। इसका
कभी अन्त नही होता, अत अनत है । ६८४. केवलज्ञान लोक और अलोक को सर्वत परिपूर्ण रूप से जानता
है। भूत, भविष्य और वर्तमान में ऐसा कुछ भी नही है जिसे केवलज्ञान नही जानता ।
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२२०
समणसुतं (आ) प्रत्यक्ष-परोक्ष प्रमाण ६८५. गेहणइ वत्थुसहावं, अविरुद्धं सम्मरूवं ज णाण ।
भणियं खु तं पमाणं, पच्चक्खपरोक्खभेएहि ॥१२॥ गृह्णाति वस्तुस्वभावम्, अविरुद्ध सम्यग्रूप यजज्ञानम ।
भणितं खलु तत् प्रमाण, प्रत्यक्षपरोक्षभेदाभ्याम् ।।१२।। ६८६. जीवो अक्खो अत्थव्ववण - भोयणगुणनिओ जेणं ।
तं पइ वट्टइ नाणं, . जे पच्चक्खं तयं तिविहं ॥१३॥ जीवः अक्षः अर्थव्यापन - भोजनगुणान्वितो येन ।
तं प्रति वर्तते ज्ञानं, यत् प्रत्यक्षं तत् त्रिविधम् ।।१३।। ६८७. अक्खस्स पोग्गलकया, जं दबिन्दियमणा परा तेणं ।
तेहिं तो जं नाणं, परोक्खमिह तमणुमाणं व ॥१४॥ अक्षस्य पुद्गल कृतानि यत्, द्रव्येन्द्रियमनासि पराणि तेन ।
तैस्तस्माद् यज्ज्ञान, परोक्षमिह तदनुमानमिव ॥१४॥ ६८८. होंति परोक्खाई मइ-सुयाई जीवस्स परनिमित्ताओ।
पुवोवलद्धसंबंध-सरणाओ वाणुमाणं व ॥१५॥ भवतः परोक्षे मति-श्रते जीवस्य परनिमित्तात् ।
पूर्वोपलब्धसम्बन्ध-स्मरणाद् वाऽनुमानमिव ॥१५॥ ६८९. एगतेण परोक्खं, लिगियमोहाइयं च पच्चक्खं ।
इंदियमणोभवं जं, तं संववहारपच्चक्खं ॥१६॥ एकान्तेन परोक्ष, लैङ्गिक मध्यादिक च प्रत्यक्षम् । इन्द्रियमनोभव यत्, तत् सव्यवहारप्रत्यक्षम् ।।१६।।
३९. नयसूत्र ६९०. जं गाणीण वियप्पं, सुयभेयं वत्थुअंससंगणं ।
तं इह जयं पउत्तं, णाणी पुण तेण गाणेण ॥१॥ यो ज्ञानिना विकल्प., श्रुतभेदो वस्त्वंशसंग्रहणम् । स इह नयः प्रयुक्तः, ज्ञानी पुनस्तेन ज्ञानेन ॥१॥
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स्याद्वाद
२२१
(जा) प्रत्यक्ष-परोक्ष प्रमाण ६८५ जो ज्ञान वस्तु-स्वभाव को--यथार्थस्वरूप को-सम्यकप से
जानता है, उसे प्रमाण कहते है । इसके दो भेद है--प्रत्यक्ष
और परोक्ष । ८८६ जीव को 'अक्ष' कहते है। यह शब्द 'अशु व्याप्तौ' धातु से बना
है। जो ज्ञानरूप में समस्त पदार्थो में व्याप्त है, वह अक्ष अर्थात् जीव है । 'अक्ष' शब्द की व्युत्पत्ति भोजन के अर्थ में 'अम्' धातु से भी को जा सकती है। जो तीनों लोक की समस्त समृद्धि आदि को भोगता है वह अक्ष अर्थात् जोव है। इस तरह दोनों व्युत्पत्तियो से (अर्थव्यापन व भोजनगुण से) जीव का अक्ष अर्थ सिद्ध होता है । उस अक्ष से होनेवाला ज्ञान प्रत्यक्ष
कहलाता है। इसके तीन भेद है---अवधि, मन.पर्यय और केवल । ६८७. पौदगलिक होने के कारण द्रव्येन्द्रियाँ और मन 'अक्ष' अर्थात
जीव से 'पर' (भिन्न ) है । अत. उनसे होनेवाला ज्ञान परोक्ष कहलाता है। जैसे अनुमान में धूम से अग्नि का ज्ञान होता है,
वैसे ही परोक्षज्ञान भी 'पर' के निमित्त से होता है। ६८८. जीव के मति और श्रुत-ज्ञान परनिमित्तक होने के कारण परोक्ष
है । अथवा अनुमान की तरह पहले से उपलब्ध अर्थ के स्मरण
द्वारा होने के कारण भी वे परनिमित्तक है । ६८९. धूम आदि लिग से होनेवाला श्रुतज्ञान तो एकान्तरूप से परोक्ष ही
है। अवधि, मन.पर्यय और केवल ये तीनों ज्ञान एकान्तरूप से प्रत्यक्ष ही है । किन्तु इन्द्रिय और मन से होनेवाला मतिज्ञान लोकव्यवहार में प्रत्यक्ष माना जाता है। इसलिए वह सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहलाता है।
३९. नयसूत्र ६९०. श्रुतज्ञान के आश्रय से यवत वस्तु के अंश को ग्रहण करनेवाले
ज्ञानी के विकल्प को 'नय' कहते है। उस ज्ञान से जो युक्त है,
वही ज्ञानी है। * परनिमित्तक = मन और इन्द्रियो की सहायता से होनेवाला ज्ञान ।
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२२२
समणसुत्तं ६९१. जम्हा ण णएण विणा, होइ णरस्स सियवायपडिवत्ती ।।
तम्हा सो बोहव्वो, एयंतं हतुकामेण ॥२॥ यस्मात् न नयेन विना, भवति नरस्य स्याद्वादप्रतिपत्ति ।
तस्मात् स बोद्धव्य., एकान्त हन्तुकामेन ॥२॥ ६९२. धम्मविहीणो सोक्खं, तण्हाछेयं जलेण जह रहिदो ।
तह इह बंछइ मूढो, पयरहिओ दव्वणिच्छिती ॥३॥ धर्मविहीनः सौख्यं, तृष्णाच्छेदं जलेन यथा रहित. ।
तथेह वाञ्छति मूढो, नयरहितो द्रव्यनिश्चिती ॥३॥ ६९३. तित्थयरवयणसंगह-विसेसपत्यार-मूलवागरणी ।
दव्वढिओ य पज्जवणओ, य सेसा वियप्पा सि ॥४॥ तीर्थकरवचनसंग्रहविशेषप्रस्तार - मलव्याकरणी ।
द्रव्याथिकश्च पर्यवनयश्च, शेषाः विकल्पा. एतेषाम् ॥४॥ ६९४. दवट्ठियवत्तव्वं, अवत्थु णियमेण पज्जवणयस्स ।
तह पज्जववत्थु, अवत्थमेव दवट्टियनयस्स ॥५॥ द्रव्याथिकवक्तव्यं - अवस्तु नियमेन पर्यवनयस्य ।
तथा पर्यववस्तु, अवस्तु एव द्रव्यार्थिकनयस्य ।।५।। ६९५. उप्पज्जति वियंति य, भावा नियमेण पज्जवनयस्स ।
रवट्ठियस्स सव्वं, सया अणुप्पन्नमविणळें ॥६॥ उत्पद्यन्ते व्ययन्ति च, भावा नियमेन पर्यवनयस्य ।
द्रव्यार्थिकस्य सर्व, सदानुत्पन्नमविनप्टम् ।।६।। ६९६. दवट्ठिएण सव्वं, दव्वं तं पज्जयट्ठिएण पुणो ।
हवदि य अन्नमणन्नं, तक्काले तम्मयत्तादो ॥७॥ द्रव्याथिकेन सर्व, द्रव्यं तत्पर्यायाथिकेन पुनः ।
भवति चान्यद् अनन्यत्-तत्काले तन्मयत्वात् ॥७॥ ६९७. पज्जय गउणं किच्चा, दव्वं पि य जो हु गिण्हइ लोए ।
सो दव्वत्थिय भणिओ, विवरीओ पज्जयत्थिणओ॥८॥ पर्यय गौणं कृत्वा, द्रव्यमपि च यो हि गलाति लोके । स द्रव्याथिको भणितो, विपरीतः पर्ययार्थिनयः ॥८॥
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६९१
२२३
नय के विना मनुष्य को स्याद्वाद का बोध नही होता । अतः जो एकान्त का या एकान्त आग्रह का परिहार करना चाहता है, उसे नय को अवश्य जानना चाहिए ।
स्याद्वाद
६९२. जैसे धर्मविहीन मनुष्य सुख चाहता है या कोई जल के बिना अपनी प्यास बुझाना चाहता है, वैसे ही मूढजन नय के विना द्रव्य के स्वरूप का निश्चय करना चाहते है ।
६९३. तीर्थकरों के वचन दो प्रकार के है- - सामान्य और विशेष । दोनो प्रकार के वचनों की राशियों के ( संग्रह के ) मूल प्रतिपादक नय भी दो ही है - - द्रव्याथिक और पर्यायार्थिक । शेष सब नय इन दोनो के ही अवान्तर भेद है । ( द्रव्यार्थिक नय वस्तु के सामान्य अश का प्रतिपादक है और पर्यायाथिक विशेषाश का 1 ) ६९४. द्रव्यार्थिक नय का वक्तव्य ( सामान्यांश ) पर्यायार्थिक नय के लिए नियमतः अवस्तु है और पर्यायार्थिक नय की विषयभूत वस्तु (विशेषांश) द्रव्यार्थिक नय के लिए अवस्तु है ।
६९५. पर्यायार्थिक नय की दृष्टि से पदार्थ नियमतः उत्पन्न होते है और नष्ट होते है । और द्रव्यार्थिक नय की दृष्टि से सकल पदार्थ सदैव अनुत्पन्न और अविनाशी होते है ।
६९६. द्रव्यार्थिक नय से सभी द्रव्य है और पर्यायार्थिक नय से वह अन्यअन्य है, क्योंकि जिस समय में जिस नय से वस्तु को देखते है, उम समय वह वस्तु उसी रूप मे दृष्टिगोचर होती है ।
६९७. जो ज्ञान पर्याय को गौण करके लोक मे द्रव्य का ही ग्रहण करता है, उसे द्रव्यार्थिक नय कहा गया है । और जो द्रव्य को गौण करके पर्याय का ही ग्रहण करता है, उसे पर्यायार्थिक नय कहा गया है ।
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२२४
समणसुत्तं ६९८. नेगम-संगह-ववहार-उज्जुसुए चेव होई बोधव्वा ।
सद्दे य समभिरूढे, एवंभूए य मूलनया ॥९॥ नैगम-सग्रह-व्यवहार-ऋजसूत्रश्च भवन्ति वोद्धव्य । शब्दरच समभिरूढ , एवंभृतश्च मूलनया. ।।९।।
६९९. पढमतिया दव्वत्थी, पज्जयगाही य इयर जे भणिया ।
ते चदु अत्यपहाणा, सहपहाणा हु तिणि या ॥१०॥ प्रथमत्रिका. द्रत्यार्थिकाः, पर्यायग्राहिणश्चेतरे ये भणिताः। ते चत्वारोऽर्थप्रधानाः, शब्दप्रधाना: हि त्रयो नयाः ॥१०॥
७००. गाइं माणाई, सामन्नोभयविसेसनाणाहं ।
जं तेहिं मिणइ तो, णेगमो णओ णेगमाणो ति ॥१२॥ नैकानि मानानि, सामान्योभय-विशेषज्ञानानि । यतैमिनोति ततो, नगमो नयो नैक मान इति ॥११॥
७०१. णिवित्त दवकिरिया, वट्टणकाले दु जं समाचरणं ।
तं भूयणइगमणयं, जह अज्जदिणं निव्वुओ वीरो॥१२॥ निर्वृत्ता द्रव्यक्रिया, वर्तने काले तु यत् समाचरणम् । म भूतनैगमनयो, यथा अद्य दिन निवृतो वीर ॥१२॥
७०२. पारद्धा जा किरिया, पपणविहाणादि कहइ जो सिद्धं ।
लोए य पुच्छमाणे, तं भण्णइ वट्टमाणणयं ॥१३॥ प्रारब्धा या क्रिया, पचनविधानादि कथयति य. सिद्धाम् । लोके च पच्छयमाने, स भण्यते वर्तमाननयः ॥१३॥
७०३. णिप्पण्णमिव पर्यपदि, भाविपदत्थं णरो अणिपण्णं ।
अप्पत्थे जह पत्थं, भण्णइ सो भावि गइगमो त्ति णओ॥१४॥ निप्पन्नमिव प्रजल्पति, भाविपदार्थ नरोऽनिष्पन्नम् । अप्रस्थे यथा प्रस्थः, भण्यते स भाविनैगम इति नयः ॥१४॥
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स्याद्वाद
२२५
६९८. (द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नय के भेदरूप) मूल नय सात
है--नैगम, सग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़ तथा एवंभूत।
६९९. इनमें से प्रथम तीन नय द्रव्याथिक है और शेष चार नय पर्या
यार्थिक है । सातों मे से पहले चार नय अर्थप्रधान है और अन्तिम तीन नय शब्दप्रधान है।
सामान्यज्ञान, विशेषज्ञान तथा उभयज्ञान रूप से जो अनेक मान लोक में प्रचलित है उन्हें जिसके द्वारा जाना जाता है वह नैगम नय है। इसीलिए उसे 'नयिकमान' अर्थात् विविधरूप से जानना कहा गया है।
७०१. (भूत, वर्तमान और भविष्य के भेद से नैगमनय तीन प्रकार
का है।) जो द्रव्य या कार्य भूतकाल में समाप्त हो चुका हो उसका वर्तमानकाल मे आरोपण करना भूत नैगमनय है। जैसे हजारों वर्ष पूर्व हुए भगवान् महावीर के निर्वाण के लिए निर्वाणअमावस्या के दिन कहना कि 'आज वीर भगवान् का
निर्वाण हुआ है।' ७०२. जिस कार्य को अभी प्रारम्भ ही किया है उसके बारे मे लोगो के
पूछने पर 'पूरा हुआ कहना' जैसे भोजन बनाना प्रारम्भ करने पर ही यह कहना कि 'आज भात बनाया है' यह वर्तमान नैगमनय है।
७०३. जो कार्य भविष्य में होनेवाला है उसके निष्पन्न न होने पर भी
निष्पन्न हुआ कहना भावी नैगमनय है । जैसे जो अभी गया नहीं है उसके लिए कहना कि 'वह गया' ।
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२२६
समणसुत्तं ७०४. अवरोप्परमदिरोहे, सवं अस्थि ति सुद्धसंगहणे ।
होइ तमेव असुद्धं, इगजाइविसेसगहणेण ॥१५॥ परम्परमविरोधे, सर्वमरतीति शुद्धसग्रहणम् ।
भवति स एवाशुद्ध , एकजातिविशेषग्रहणेन ।।१५।। ७०५. जं संगहेण गहियं, भेयइ अत्थं असुद्धं सुद्धं वा ।
सो ववहारो दुदिहो, असुद्धसुद्धत्थभेयकरो ॥१६॥ यः सग्रहण गृहीत, भिनत्ति अर्थ अशुद्ध शुद्ध वा ।
स व्यवहारो द्विविधो शुद्धशुद्धार्थभेटकर ॥१६॥ ७०६. जो एयसमयवट्टी, गिलइ दवे धुवत्तपज्जायं ।
सो रिउसुत्तो सुहुमो, सव्वं पि सदं जहा खणियं ॥१७॥ यः एकसमयवर्तिन, गृह्णाति द्रव्ये ध्रुवत्वपर्यायम् ।।
म ऋजमुत्रः सूक्ष्म, सर्वोऽपि शब्द यथा क्षणिकः ।।१७।। ७०७. मणुयाइयपज्जाओ, मणुसो त्ति सगढ़िदीस वटतो।
जो भणइ तावकालं, सो थूलो होइ रिउसुत्तो ॥१८॥ मनुजादिकपर्यायो, मनुष्य इति स्वकस्थितिषु वर्तमान ।
यः भणति तावत्कालं, स स्थूलो भवति ऋजसूत्रः ।।१८।। ७०८. सवणं सपइ स तेणं, व सप्पए वत्थु जं तओ सद्दो ।
तस्रात्थपरिग्गहओ, नओ वि सद्दो त्ति हेउ व्व ॥१९॥ जपनं शपति स तेन, वा शप्यते वस्तु यत् तत हाब्दः ।
तस्यार्थपरिग्रहतो, नयोऽपि शब्द इति हेतुरिव ॥१९॥ ७०९. जो वट्टणं ण मण्णइ, एयत्थे भिन्नलिंगआईणं ।
सो सद्दणओ भणिओ, णेओ पुस्साइआण जहा ॥२०॥ यो वर्तन च मन्यते, एकार्थे भिन्नलिङ्गादीनाम् ।
स शब्दनयो भणित., ज्ञेयः पुष्यादीनां यथा ॥२०॥ ७ १०. अहवा सिद्ध सद्दे, कीरइ जं कि पि अत्थववहरणं ।
तं खलु सद्दे विसयं, 'देवो' सद्देण जह देवो ॥२१॥ अथवा सिद्ध शब्दः, करोति यत् किमपि अर्थव्यवहरणम् । तत् खलु शब्दस्य विषयः, 'देवः' शब्देन यथा देवः ॥२१॥
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स्याद्वाद
२२७ ७०४. संग्रहनय के दो भेद है--शुद्धसंग्रहनय और अशुद्धसंग्रहनय ।
शुद्धसंग्रहनय मे परस्पर में विरोध न करके सत्रूप से सबका ग्रहण होता है। उसमे से एक जातिविशेष को ग्रहण करने से
वही अशुद्धसंग्रहनय होता है । ७०५. जो संग्रहनय के द्वारा गृहीत शुद्ध अथवा अशुद्ध अर्थ का भेद
करता है, वह व्यवहारनय है। यह भी दो प्रकार का है--एक अशुद्धार्थ-भेदक और दूसरा शुद्धार्थ-भेदक ।।
७०६. जो द्रव्य में एकसमयवर्ती (वर्तमान) अध्रुव पर्याय को ग्रहण
करता है उसे सूक्ष्मऋजुसूत्रनय कहते है । जैसे सब शब्दक्षणिक
७०७. और जो अपनी स्थितिपर्यन्त रहनेवाली मनुष्यादि पर्याय को
उतने समय तक एक मनुष्यरूप से ग्रहण करता है, वह स्थूलऋजुसूत्रनय है।
७०८. शपन अर्थात् आह्वान शब्द है, अथवा जो 'गपति' अर्थात
आह्वान करता है यह शब्द है । अथवा 'शप्यते' जिसके द्वारा वस्तु को कहा जाता है वह शब्द है। उस शब्द का वाच्य जो
अर्थ है, उसको ग्रहण करने से नय को भी शब्द कहा गया है । ७०९. जो एकार्थवाची शब्दों में लिग आदि के भेद से अर्थभेद मानता है,
उसे शब्दनय कहा गया है । जैसे पुष्य शब्द पुल्लिग में नक्षत्र का वाचक है और पुष्या स्त्रीलिंग तारिका का बोध कराती है।
७१०. अथवा व्याकरण से सिद्ध शब्द में अर्थ का जो व्यवहार किया
जाता है, उसी अर्थ को उस शब्द के द्वारा ग्रहण करना शब्दनय है। जैसे देव शब्द के द्वारा उसका सुग्रहीत अर्थ देव अर्थात् सुर ही ग्रहण करना ।
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२२८
समणसुत्तं ७११. सद्दारूढो अत्थो, अत्थारूढो तहेव पुण सद्दो ।
भणइ इह समभिरूढो, जह इंद पुरंदरो सक्को ॥२२॥ शब्दारूढोऽर्थोऽस्टिस्तथैव पुनः शब्दः ।। भगति इह ममभिरूढो, यथा इन्द्रः पुरन्दर शकः ॥२२॥
७१२. एवं जह सद्दत्थो, संतो भूओ तदन्नहाऽभूओ।
तेणेवंभूयनओ, सद्दत्थपरो विसेसेण ॥२३॥ एव यथा शब्दार्थः, सन् भूतस्तदन्यथाऽभूतः । तेनेवभूतनय , शब्दार्थपरो विशेषेण ।.२३॥
७१३. जं जं करेइ कम्मं, दही मणवयणकायचेट्ठादो ।
तं तं खु णामजुत्तो, एवंभूओ हवे स णओ ॥२४॥ यद् यद् कुरुते कर्म, देही मनोवचनकायचेप्टातः । तत् तत् खलु नामयुवत', एवंभूतो भवेत् स नयः ॥२४॥
४०. स्याद्वाद व सप्तभङ्गीसूत्र ७१४. अवरोप्परसावेक्खं, णयविसयं अह पमाणविसयं वा ।
तं सावेखं भणियं, हिरवेक्खं ताण विवरीयं ॥१॥ परस्परसापेक्षो, नयविपयोऽथ प्रमाणविषयो वा । तत् सापेक्षं भणितं, निरपेक्ष तयोविपरीतम् ॥१॥
७१५. णियमणिसेहणसीलो, णिपादणादो य जो हु खलु सिद्धो ।
सो सियसद्दो भणिओ, जो सावेक्खं पसाहेदि ॥२॥ नियमनिषेधनशीलो, निपातनाच्च यः खलु सिद्धः । स स्याच्छब्दो भपितः, य. सापेक्षं प्रसाधयति ॥२॥
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स्याद्वाद
२२९
७११ जिन प्रकार प्रत्येक पदार्थ, अपने वाचक अर्थ में आम है, उसी प्रकार प्रत्येक शब्द भी अपने-अपने अर्थ मे आ है । अर्थात् शब्दभेद के साथ अर्थभेद होता ही है । जैसे इन्द्र, पुरन्दर और शत्र - तीनो शब्द देवो के राजा के बोधक है, तथापि इन्द्र शब्द से उसके ऐश्वर्य का बोध होता है, पुरन्दर मे अपने शत्रु के पुरो का नाश करनेवाले का बोध होता है। इस प्रकार शब्दभेदानुसार अर्थभेद करनेवाला 'समभिनय' है (यह शब्द को अर्थाख्ढ और अर्थ को शब्दारुद कहता है ।)
७१२. एव अर्थात् जैसा शब्दार्थ हो उसी रूप मे जो व्यवहृत होता है वह भूत अर्थात् विद्यमान है । और जो शब्दार्थ से अन्यथा है वह् अभूत अर्थात् अविद्यमान है । जो ऐसा मानता है वह 'एवभूतनय' है । इसीलिए शब्दनय और समभिनय की अपेक्षा एवभूतनय विशेषरूप से शब्दार्थतत्पर नय है ।
७१३. जीव अपने मन, वचन व काय की क्रिया द्वारा जो-जो काम करता है, उस प्रत्येक कर्म का वोधक अलग-अलग शब्द है और उसीका उस समय प्रयोग करनेवाला एवभूतनय है । जैसे मनुष्य को पूजा करते समय ही पुजारी और युद्ध करते समय ही योडा कहना |
४०. स्याद्वाद व सप्तभङ्गीसूत्र
७१४. नय का विषय हो या प्रमाण का, परस्पर-सापेक्ष विषय को ही सापेक्ष कहा जाता है और इससे विपरीत को निरपेक्ष | ( प्रमाण का विषय सर्व नयों की अपेक्षा रखता है और नय का विषय प्रमाण की तथा अन्य विरोधी नयों की अपेक्षा रखता है, तभी वह विषय सापेक्ष कहलाता है | )
७१५. जो सदा नियम का निषेध करता है और निपात रूप से सिद्ध है, उस शब्द को 'स्यात्' कहा गया है । यह वस्तु को सापेक्ष सिद्ध करता है ।
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समणसुत्तं ७१६. सत्तेव हुंति भंगा, पमाणणयदुणयभेदजुत्ता वि ।
सिय सावक्खं पमाणं, णएण णय दुणय णिरवेक्खा ॥३॥ पप्तब भवन्ति भङ्गाः, प्रमाणनयदुर्नयभेदयुक्ताः अपि । स्यात् सापेक्षं प्रमाणं, नयेन नया दुर्नया निरपेक्षाः ॥३॥
७१७. अस्थि त्ति पत्थि दो वि य, अव्वत्तव्वं सिएण संजुत्तं ।
अव्वत्तव्वा ते तह, पमाणभंगी सुणायव्वा ॥४॥ अग्नीति नास्ति द्वावपि, च अवक्तव्यं स्याता संयुक्तम् ।। अबवतव्यास्ते तथा, प्रमाणभङ्गी सुज्ञातव्या ॥४॥
७१८. अस्थिसहावं दव्वं, सद्दवादीसु गाहियणएण ।
तं पि य पत्थिसहावं, परदव्वादीहि गहिएण ॥५॥ अस्तिस्वभावं द्रव्यं, स्वद्रव्यादिषु ग्राहकनयेन । तडपि च नास्तिस्वभावं, परद्रव्यादिभिगृहीतेन ॥५॥
७१९. उयं उहयणएण, अव्वत्तव्वं च तेण समुदाए ।
ते लिय अव्वत्तव्वा, णियणियणयअत्थसंजोए ॥६॥ उभयमुभयनयेना-वक्तव्यं च तेन समुदाये । ते त्रिका अवक्तव्या, निजनिजनयार्थसयोगे ॥६॥
७२०. अस्थि त्ति णस्थि उहयं, अव्वत्तव्वं तहेव पुण तिदयं ।
तह सिय णयणिरवेक्खं, जाणसु दवे दुणयभंगी ॥७॥ अस्तीति नास्त्यभयम-वक्तव्यं तथैव पुनस्त्रितयम् । तथा स्यात् नयनिरपेक्षं, जानीहि द्रव्येषु दुर्नयभङ्गी ॥७॥
७२१. एकणिरुद्ध इयरो, पडिवक्खो अवरे य सम्भावो ।
सर्वेसि स सहावे, कायव्वा होइ तह भंगा ॥८॥ एकनिरुद्धे इतरः, प्रतिपक्षो अपरश्च स्वभावः । सर्वेषां स स्वभावे, कर्तव्या भवन्ति तथा भङ्गाः ॥८॥
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स्याद्वाद ७१६. (अनेकान्तात्मक वस्तु की सापेक्षता के प्रतिपादन मे
वाक्य के साथ 'स्यात्' लगाकर कथन करना स्थान न्य लक्षण है।) इस न्याय म प्रमाण, नय और वृनच के उक्त सात भग होते है। 'स्यात्'-सापेक्ष भगो को . कहते है। नय-युक्त भगो को नय कहते है और निरपेक्ष भ
दुर्न य । ७१० स्यात् अस्ति, स्यात् नास्ति. स्यात् अस्ति-नास्ति न्यान् अब
स्यात् अरित-अवक्तव्य, स्यात् नास्ति-अवक्तव्य, स्यात्
नास्ति-अवक्तव्य--इन्हे प्रमाण सप्तभगी जानना च ७१८ स्व-द्रव्य, स्व-क्षेत्र, स्व-बाल और स्व-भाव की अपेक्षा
अस्तिस्वरूप है। वहौ पर-द्रव्य, पर-क्षेत्र, पर-कार
पर-भाव की अपेक्षा नास्तिस्वरूप है। ७१९. स्व-द्रव्यादि चतुष्टय और पर-द्रव्यादि चता टय दोन
अपेक्षा लगाने पर एक ही वस्तु स्यात्-अस्ति और स्यात्-- रूप होती है। दोनों धर्मो को एक साथ कहने की अपे वस्तु अवक्तव्य है। इसी प्रकार अपने-अपने नय के साथ अ योजना करने पर अस्ति-अवक्तव्य, नास्ति अवक्तव्य
अस्ति-नास्ति अवक्तव्य है। ७२०. स्यात् पद तथा नय-निरपेक्ष होने पर यही सातो भंग
भगी कहलाते है। जैसे वस्तु अस्ति ही है, नास्ति । उभयरूप ही है, अवक्तव्य ही है, अस्ति-अवक्तव्य नास्ति-अवक्तव्य ही है या अस्ति-नास्ति अवक्तव्य ही (किसी एक ही पहलू या दृष्टिकोण पर जोर देना या ।
रखना तथा दूसरे की सर्वथा उपेक्षा करना दुर्नय है ।) ७२१. वस्तु के एक धर्म को ग्रहण करने पर उसके प्रतिपक्ष
धर्म का भी ग्रहण अपने-आप हो जाता है, क्योकि दोन धर्म वस्तु के स्वभाव है । अत. सभी वस्तु-धर्मो में भगी की योजना करनी चाहिए।
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४१. समन्वयसूत्र ७२२. सव्वं पि अयंतं, परोक्खरूवेण जं पयासेदि ।
तं सुयमाणं भण्णदि, संसय-पहुदीहि परिचत्तं ॥१॥ सर्वमपि अनेकान्त, परोक्षरूपेण यत् प्रकाशयति ।
तत् श्रुतज्ञान भण्यते, संशयप्रभृतिभिः परित्यक्तम् ॥१॥ ७२३. लोयाणं ववहारं, धम्म-विवक्खाइ जो पसाहेदि ।
सुयणाणस्स वियप्पो, सो वि णओ लिंगसंभूदो ॥२॥ लोकाना व्यवहार, धर्मविवक्षया यः प्रसाधयति ।
श्रुतज्ञानस्य विकल्पः, स. अपि नयः लिङ्गसम्भूतः ॥२॥ ७२४. णाणाधम्मजुदं पि य, एयं धम्म पि वुच्चदे अत्थं ।
तस्सेयविवक्खादो, णत्थि विवक्खा हु सेसाणं ॥३॥ नानाधर्मयुतः अपि च, एक धर्मः अपि उच्यते अर्थः ।
तस्य एकविवक्षात , नास्ति विवक्षा खलु शेषाणाम् ॥३॥ ७२५. ते सावेक्खा 'सुणया, हिरवेक्खा ते वि दुग्णया होति ।
सयल-ववहार-सिद्धी, सुणयादो होदि णियमेण ॥४॥ ते सापेक्षा. सुनया:, निरपेक्षा. ते अपि दुर्नया भवन्ति ।
सकलव्यवहारसिद्धि , सुनयाद् भवति नियमेन ॥४॥ ७२६. जावंतो वयणपधा, तावंतो वा नया 'वि' सद्दाओ।
ते चेव य परसमया, सम्मत्तं समुदिया सवे ॥५॥ यावन्तो वचनपथा-स्तावन्तो वा नया: 'अपि'शब्दात् ।
त एव च परसमया, सम्यक्त्व समुदिताः सर्वे ।।५।। ७२७. परसमएगनयमयं, तप्पडिवक्खनयओ निवत्तेज्जा ।
समए व परिग्गहियं, परेण जं दोसबुद्धीए ॥६॥ परसमयकनयमतं, तत्प्रतिपक्षनयतो निवर्तयेत् । समये वा परिगृहीतं, परेण यद् दोषबुद्धया ॥६॥
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४१. समन्वयसूत्र
७२२. जो परोक्षरूप से समस्त वस्तुओं को अनेकान्तरूप दर्शाता है और सराय आदि से रहित है, वह श्रुतज्ञान है ।
७२३. जो वस्तु के किसी एक धर्म की विवक्षा या अपेक्षा से लोकव्यवहार को साधता है, वह नय है । नय श्रुतज्ञान का भेद है और लिंग से उत्पन्न होता है ।
७२४ अनेक धर्मो से युक्त वस्तु के किसी एक धर्म को ग्रहण करना नय का लक्षण है । क्योंकि उस समय उसी धर्म की विवक्षा है, शेप धर्मो की विवक्षा नहीं है ।
७२५. वे नय ( विरोधी होने पर भी ) सापेक्ष हों तो सुनय कहलाते है और निरपेक्ष हों तो दुर्नय । सुनय से ही नियमपूर्वक समस्त व्यवहारों की सिद्धि होती है ।
७२६. (वास्तव मे देखा जाय तो लोक मे - ) जितने वचन-पन्थ है, उतने ही नय है, क्योंकि सभी वचन वक्ता के किसी न किसी अभिनाय या अर्थ को सूचित करते है और ऐसे वचनों में वस्तु के किसी एक धर्म की ही मुख्यता होती है । अत. जितने नय सावधारण ( हठग्राही ) है, वे सब पर समय है, मिथ्या है; और अवधारणरहित ( सापेक्षसत्यग्राही) तथा स्यात् पद से युक्त समुदित सभी नय सम्यक् होते है ।
७२७. नय - विधि के ज्ञाता को पर समयरूप ( एकान्त या आग्रहपूर्ण ) अनित्यत्व आदि के प्रतिपादक ऋजुसूत्र आदि नयो के अनुसार लोक में प्रचलित मतो का निवर्तन या परिहार नित्यादि का कथन करनेवाले द्रव्यार्थिक नय से करना चाहिए | तथा स्वसमयरूप जिन - सिद्धान्त में भी अज्ञान या द्वेप आदि दोषों से युक्त किसी व्यक्ति ने दोषबुद्धि से कोई निरपेक्ष पक्ष अपना लिया हो तो उसका भी निवर्तन (निवारण) करना चाहिए
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समणसुत्तं ७२८. णिययवयणिज्जसच्चा, सन्दरया पर वियालणे मोहा ।
ते उण ण दिट्ठसमओ, विभयइ सच्चे व ऑलए या॥७॥ निजकवचनीयसत्या., सर्वनया. परविचारणे मोघा: । तान् पुनः न दृष्टसमयो, विभजति सत्यान् वा अलीकान् वा ॥७॥
७२९. न समेन्ति न य समेया, सम्मत्तं नेव वत्थुणो गमगा ।
वत्थुविघायाय नया, विरोहओ वेरिणो चेव ॥८॥ न समयन्ति न च समेता, सम्यवत्वं नैद वस्तुनो गमका । वस्तुविघाताय नयाः, विरोधतो वैरिण इव ॥८॥
७३०. सव्वे समयंति सम्म, चेगवसाओ नया विरुद्धा वि ।
मिच्च-ववहारिणो इव, राओदासीण-वसवत्ती॥९॥ सर्वे समयन्ति सम्यक्त्वं, चैकवशाद् नया विरुद्धा अपि । भृत्यव्यवहारिण इव, राजोदासीन-वशवर्तिनः ॥९॥
७३१. जमणेगधम्मणो वत्थुणो, तदंसे च सव्वपडिवत्ती ।
अंध व्व गयावयवे तो, मिच्छाद्दिट्ठिणो वीसु ॥१०॥ यदनेकधर्मणो वस्तुन-स्तदशे च सर्वप्रतिपत्तिः । अन्धा इव गजावयवे, ततो मिथ्यादृष्टयो विष्वक् ॥१०॥
७३२. जं पुण समत्तपज्जाय - वत्थुगमग त्ति समुदिया तेणं ।
सम्मत्तं चक्खुमओ, सव्वगयावयवगहणे व्व ॥११॥ यत्पुन समस्तपर्याय-वस्तुगमका इति समुदितास्तेन । सम्यक्त्वं चक्षुष्मन्त., सर्वगजावयवग्रहण इव ॥११॥
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स्याद्वाद
२३५ ७२८ सभी नय अपने-अपने वक्तव्य मे मच्चे हैं, किन्तु यदि दूसरे
नयों के वक्तव्य का निराकरण करते है तो मिथ्या है। अनेकान्तदृष्टि का या शास्त्र का ज्ञाता उन नयो का ऐसा विभाजन नही
करता कि 'ये सच्चे है' और वे झूठे है'। ७२९ निरपेक्ष नय न तो सामुदायिकता को प्राप्त होते है और न वे
समुदायरूप कर देने पर सम्यक होते है। क्योंकि प्रत्येक नय मिथ्या होने से उनका समदाय तो महामिथ्यारूप होगा। समुदायरूप होने से भी वे वस्तु के गमक नही होते, क्योंकि पृथक्-पृथक् अवस्था में भी वे गमक नहीं है। इसका कारण यह है कि निरपेक्ष होने के कारण वैरी की भॉति परस्पर विरोधी है। जैसे नाना अभिप्रायवाले अनेक सेवक एक राजा, स्वामी या अधिकारी के बा में रहते है, या आपस मे लडने-झगड़नेवाले व्यवहारी-जन किसी उदासीन (तटस्थ) व्यक्ति के वशवर्ती होकर मित्रता को प्राप्त हो जाते हैं. वैसे ही ये सभी परस्पर विधी नय स्यावाद की धारण म जाकर सम्यकभाव को प्राप्त हो जाते है। अर्थात स्याद्वाद की छत्रछाया में परस्पर विरोध की कारणभूत सावधारणता दूर हो जाती है और वे
सब सापेक्षतापूर्वक एकत्र हो जाते है। ७३१. जसे हाथी के पूंछ, पैर. सूंड़ आदि टटोलकर एक-एक अवयव को
ही हाथी माननेवाले जन्मान्ध लोगों का अभिप्राय मिथ्या होता है, वैसे ही अनेक धर्मात्मक वस्तु के एक-एक अश को ग्रहण करके 'हमने पूरी वस्तु जान ली है-ऐसी प्रतिपत्ति करनेवालों का
उस वस्तुविषयक ज्ञान मिथ्या होता है । ७३२. तथा जैसे हाथी के समस्त अवयवों के समुदाय को हाथी जानने
वाले चक्षुष्मान् (दृष्टिसम्पन्न) का ज्ञान सम्यक होता है, वैसे ही समस्त नयों के समुदाय द्वारा वस्तु की समस्त पर्यायों को या उसके धर्मो को जाननेवाले का ज्ञान सम्यक् होता है।
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२३६
समणसुत्तं
७३३. पण्णवणिज्जा भावा, अणंतभागो तु अभिलप्पाणं ।
पण्णवणिज्जाणं पुण, अणंतभागो सुदणिबद्धो ॥१२॥ प्रज्ञापनीया. भावा , अनन्तभाग तु अनभिलाप्यानाम् ।
प्रज्ञापनीयाना पुन , अनन्तभाग श्रुतनिवद्धः ॥१२॥ ७३४. सयं सयं पसंसंता, गरहंता परं वयं ।
जे उ तत्थ विउस्संति, संसारं ते विउस्सिया ॥१३॥ स्वकं स्वक प्रशसन्त., गर्हयन्त , पर वच. ।
ये तु तत्र विद्वस्यन्ते, ससार ते व्युच्छिता ॥१३॥ ७३५. णाणाजीवा णाणाकम्म, णाणाविहं हवे लद्धी ।
तम्हा वयणविवाद, सगपरसमएहि वज्जिज्जा ॥१४॥ नानाजीवा नानाकर्म, नानाविधा भवेल्ल ब्धिः ।
तस्माद् वचनविवाद, स्वपरसमयवर्जयेत् ।।१४।। ७३६. भई मिच्छादसण-समूहमइयस्स अमयसारस्स ।
जिणवयणस्स भगवओ, संविग्गसुहाहिगम्मस्स ॥१५॥ भद्रं मिथ्यादर्शनसमहमयस्य अमृतसारस्य । जिनवचनस्य भगवत. सविग्नसुखाधिगम्यस्य ॥१५॥
४२. निक्षेपसूत्र ७३७. जुत्तीसुजुत्तमग्गे, जं चउभेएण होइ खलु ठवणं ।
कज्जे सदि णामादिसु, तं णिक्खेवं हवे समए ॥१॥ युक्तिसुयुक्तमार्गे, यत् चतुर्भेदेन भवति खलु स्थापनम् ।
कार्ये सति · नामादिपु, स निक्षेपो भवेत् समये ॥१॥ ७३८. दवं विविहसहावं, जेण सहावेण होइ तं झेयं ।
तस्स निमित्तं कीरइ, एक्कं पि य दव्व चउभेयं ॥२॥ द्रव्यं विविधस्वभावं, येन स्वभावेन भवति तद्ध्येयम् ।
तस्य निमित्त क्रियते, एकमपि च द्रव्यं चतुर्भेदम् ॥२॥ ७३९. णाम ढवणा दव्वं, भावं तह जाण होइ णिक्खवं ।
दव्वे सण्णा णाम, दुविहं पि य तं पि विक्खायं ॥३॥ नाम स्थापना द्रव्य, भावं तथा जानीहि भवति निक्षेप: । द्रव्ये संज्ञा नाम, द्विविधमपि च तदपि विख्यातम् ॥३॥
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स्याद्वाद
२३७
७३३. संसार में ऐसे बहुत से पदार्थ है जो अनभिलाप्य है । शब्दों द्वारा उनका वर्णन नही किया जा सकता । ऐसे पदार्थो का अनन्तवाँ भाग ही प्रज्ञापनीय ( कहने योग्य) होता है । इन प्रज्ञापनीय पदार्थों का भी अनन्तवाँ भाग ही शास्त्रों में निबद्ध है । [ ऐसी स्थिति में कैसे कहा जा सकता है कि अमुक शास्त्र की बात या अमुक ज्ञानी की बात ही निरपेक्ष सत्य है ।] ७३४. इसलिए जो पुरुष केवल अपने मत की प्रशंसा करते है तथा दूसरे के वचनो की निन्दा करते है और इस तरह अपना पांडित्यप्रदर्शन करते है, वे संसार मे मजबूती से जकड़े हुए है--दृढ़रूप में आवद्ध है ।
७३५. इस संसार मे नाना प्रकार के जीव है, नाना प्रकार के कर्म है, नाना प्रकार की लब्धियाँ है, इसलिए कोई स्वधर्मी हो या परधर्मी, किसीके भी साथ वचन-विवाद करना उचित नहीं ।
७३६. मिध्यादर्शनों के समूहरूप, अमृतरस-प्रदायी और अनायास मुमुक्षुओ की समझ मे आनेवाले वन्दनीय जिनवचन का कल्याण हो ।
४२. निक्षेपसूत्र
७३७. युक्तिपूर्वक, उपयुक्त मार्ग मे प्रयोजनवश नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव मे पदार्थ की स्थापना को आगम में निक्षेप कहा गया है ।
७३८. द्रव्य विविध स्वभाववाला है । उनमें से जिस स्वभाव के द्वारा वह ध्येय या ज्ञेय (ध्यान या ज्ञान ) का विषय होता है उस स्वभाव के निमित्त एक ही द्रव्य के ये चार भेद किये गये है ।
७३९. और (इसीलिए ) निक्षेप चार प्रकार का माना गया है -- नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव । द्रव्य की संज्ञा को नाम कहते हैं । उसके भी दो भेद प्रसिद्ध है ।
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समणसुतं
७४०. सायार इयर ठवणा, कित्तिम इयरा दु बिबजा पढमा । इयरा इयरा भणिया, ठवणा अरिहो य णायच्वो ||४|| साकारेतरा स्थापना, कृत्रिमेतरा हि बिम्वजा प्रथमा । इतरा इतरा भणिता, स्थापनाऽर्हश्च ज्ञातव्य. ॥४॥
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७४१-७४२. दव्वं खु होइ दुविहं, आगम-णोआगमेण जह भणियं । अरहंत सत्थ- जाणो, अणजुत्तो दव्व- - अरिहंतो ॥५॥ गोआगमं पि तिविहं, देहं णाणिस्स भाविकम्मं च । णाणिसरीरं तिविहं, चुद चत्तं चाविदं चेति ॥६॥ द्रव्यं खलु भवति द्विविधं, आगमनोआगमाभ्याम् यथा भणितम् । अर्हत् शास्त्रज्ञायकः, अनुपयुक्तो द्रव्यार्हन् ॥५॥ नोआगम अपि त्रिविध देहो ज्ञानिनो भाविकर्म च । ज्ञानिशरीर त्रिविधं, च्युतं त्यक्तं च्यावितम् च इति ॥ ६ ॥
७४३-७४४. आगम-णोआगमदो, तहेव भावो वि होदि दव्वं वा । अरहंत सत्थजाणो, आगमभावो दु तग्गुणए य परिणदो, णोआगमभाव होइ तग्गुणएई झादा, केवलणाणी हु परिणदो
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अरहंतो ॥७॥
अरहंतो । भणिओ ॥८॥
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स्याद्वाद
२३९ ७४०. जहाँ एक वस्तु का किसी अन्य वस्तु में अरेप किया जाता है
वहाँ स्थापना निक्षेप होता है। यह दो प्रकार का है--साकार और निराकार । कृत्रिम और अकृत्रिम अर्हत की प्रतिमा माकार स्थापना है तथा किसी अन्य पदार्थ में अर्हत की स्थापना करना निराकार स्थापना है ।
७४१-७४२. जहाँ वस्तु की वर्तमान अवस्था का उल्लघन कर उसका भूत
कालीन या भावी स्वरूपानुसार व्यवहार किया जाता है, वहाँ द्रव्यनिक्षेप होता है। उसके दो भेद है--आगम और नोआगम । अर्हतकथित शास्त्र का जानकार जिस समय उस शास्त्र मे अपना उपयोग नही लगाता उस समय वह आगम द्रव्यनिक्षेप से अर्हत् है। नोआगम द्रव्यनिक्षेप के तीन भेद है-- ज्ञायकशरीर, भावी और कर्म । जहाँ वस्तु के ज्ञाता के शरीर को उस वस्तुरूप माना जाय वहाँ ज्ञायक शरीर न आगम द्रव्यनिक्षेप है। जैसे राजनीतिज्ञ के मत शरीर को देखकर कहना कि राजनीति मर गयी। ज्ञायकशरीर भी भूत, वर्तमान और भविष्य की अपेक्षा तीन प्रकार का तथा भूतज्ञायक शरीर च्युत, त्यक्त और च्यावित रूप से पुनः तीन प्रकार का होता है। वस्तु को जो स्वरूप भविष्य में प्राप्त होगा उसे वर्तमान में ही वैसा मानना भावी नोआगम द्रव्यनिक्षेप है। जैसे युवराज को राजा मानना तथा किसी व्यक्ति का कर्म जैसा हो अथवा वस्तु के विषय मे लौकिक मान्यता जैसी हो गयी हो उसके अनुसार ग्रहण करना कर्म या तद्व्यतिरिवत नोआगम द्रव्यनिक्षेप है। जैसे जिस व्यक्ति में दर्शनविशुद्धि, विनय आदि तीर्थकर नामकर्म का बन्ध करानेवाले लक्षण दिखायी दें उसे तीर्थकर ही कहना अथवा पूर्णकलश, दर्पण आदि पदार्थो को लोक-मान्यतानुसार मागलिक कहना।
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२४०
समणसुत्तं आगमनोआगमतस्तथैव भावोऽपि भवति द्रव्यमिव । अर्हत् शास्त्रज्ञायक., आगमभावो हि अर्हन् ॥७॥ तद्गुणश्च परिणतो, नोआगमभावो भवति अर्हन् । तद्गुणाता, केवल ज्ञानी हि परिणतो भणितः ॥८॥
४३. समापन ७४५. एवं से उदाहु अणुत्तरनाणी, अणुत्तरदंसी अणुत्तरणाणदंसणधरे ।
अरहा नायपुत्ते भगवं, वेसालिए वियाहिए ति बेमि ॥१॥ एव स उदाहृतवान्-अनुत्तरज्ञा-न्यनुत्तरदर्शी अनुत्तरज्ञानदर्शनधरः अर्हन् ज्ञातपुत्रो भगवान्, वैशालिको व्यारयातवानिति ब्रवीमि ॥
७४६. णहि पण पुरा अणुस्सुयं, अदुवा तं तह णो समट्रियं ।
मुणिणा सामाइ आहियं, नाएणं जगसव्वदंसिणा ॥२॥ नहि नून पुराऽनुश्रुत-मथवा तत्तथा नो समुत्थितम् । मुनिना सामायिकाद्याख्यात, ज्ञातन जगत्सर्वदर्शिना ॥२॥
७४७-७४८. अत्ताण जो जाणइ जोय लोगं, जो आगति जाणइ णागति च ।
जो सासयं जाण असासयंच, जाति मरणं च चयणोववातं ॥३॥ अहो वि सत्ताण वि ठहणं च, जो आसवं जाणति संवरं च । दुक्खं च जोजाणइ णिज्जरंच, सोभासिउमरिहति किरियवाद । आत्मानं यः जानाति यश्च लोक यः आगति नाति च । यः शाश्वत जानाति अशाश्वतं च जाति मरण च च्यवनोपपातम् ।। अध. अपि सत्त्वानाम् अपि ऊर्व य आस्रव जानाति सवर च । दु.ख च यः जानाति निर्जरा च स भापितुम् अर्हति त्रियावादान् ।।
७४९. लद्धं अलद्धपुट्वं, जिणवयण-सुभासिदं अमिदभूदं ।
गहिदो सुग्गइमग्गो, णाहं मरणस्स बोहेमि ॥५॥ लब्धमलब्धपूर्व, जिनवचन-सुभाषितं अमृतभूतम् । गृहीतः सुगतिमार्गो, नाहं मरणाद् बिभेमि ॥५॥
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स्याद्वाद
२४१ ७४३-७४४. तत्कालवर्ती पर्याय के अनुसार ही वस्तु को सम्बोधित करना या
मानना भावनिक्षेप है। इसके भी दो भेद है--आगम भावनिक्षेप और नोआगम भावनिक्षेप । जैसे अहत्-शास्त्र का ज्ञायक जिस समय उस ज्ञान में अपना उपयोग लगा रहा है उसी समय अर्हत् है , यह आगमभावनिक्षेप है। जिस समय उसमे अर्हत् के समस्त गुण प्रकट हो गये है उस समय उभे अहेत् कहना तथा उन गुणो से युक्त होकर ध्यान करने वाले को केवलजानी कहना नोआगमभावनिक्षेप है।
४३. समापन ७४५. इस प्रकार यह हितोपदेश अनुत्तरजाती, अनुत्तरदर्शी तथा
अनुत्तरज्ञानदर्शनधारी ज्ञातपुत्र भगवान् महावीर ने विशाला नगरी में दिया था।
७४६. सर्वदर्शी ज्ञातपुत्र भगवान् महावीर ने सामायिक आदि का
उपदेश दिया था, किन्तु जीव ने उसे सुना नही अथवा सुनकर उसका सम्यक् आचरण नही किया ।
७४७-७४८. जो आत्मा को जानता है, लोक को जानता है, आगति और
अनागति को जानता है, शाश्वत-अशाश्वत, जन्म-मरण, चयन और उपपाद को जानता है, आस्रव और सवर को जानता है, दु.ख और निर्जरा, को जानता है, वही क्रियावाद का अर्थात्
सम्यक् आचार-विचार का कथन कर सकता है । ७४९. जो मुझे पहले कभी, प्राप्त नहीं हुआ, वह अमृतमय सुभाषितरूप
जिनवचन आज मुझे उपलब्ध हुआ है और तदनुसार सुगति का मार्ग मैने स्वीकार किया है। अत: अब मुझे मरण का कोई भय नही है।
१६
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४४. वीरस्तवन
७५० णावं सरणं से, दंसणं च सरणं च चरिव सरणं च । तव सजमं सरणं, च भगवं सरणो महावीरो ॥१॥ ज्ञान चरण मम, दर्शन च शरण च चारित्र शरण च । तप. सयमश्च शरणं, भगवान् शरणो महावीरः ॥ १॥ ७५१. से सव्वदंसी अभिभूयणाणी, णिरामगंधे धिइमं ठियप्पा
अणुत्तरे सव्वजगंसि विज्जं, गंथा अतीते अभए अणाऊ ||२|| स सर्वदर्शी अभिभूयज्ञानी, निरामगन्धो धृतिमान् स्थितात्मा । अनुत्तर सर्वजगति विद्वान्, ग्रन्थादतीतः अभयोऽना ||२| ७५२. से भूइपणे अणिएयचारी, ओहंतलरे धीरे अनंतचक्खू
अणुत्तरे तवति सूरिए व, वइरोयणिदेव तमं पगासे ॥३॥ स भूतिप्रज्ञोऽनिकेतचारी, ओघन्तरो धीरोऽनन्तचक्षुः । अनुतर तपति सूर्य इव, वैरोचनेन्द्र इव तम. प्रकाशयति ॥३॥ ७५३. हत्थोसु एरावणमाहु पाए, सीहो मिगाणं सलिलाण गंगा ।
परखी वा गरुले वेणुदेवो, निव्वाणवादीणिह नायपुत्ते ॥४॥ हतिध्वेरावणमाहुः ज्ञात, मिहो मृगाणा सलिलाना गङ्गा । पक्षिषु वा गरडी वैनतेय निर्वाणवादिनामिह ज्ञातपुत्र. ॥४॥ ७५४. दाणाण सेट्ठ अभयप्पयाणं, सच्चेसु वा अणवज्जं वयंति ।
तवेसु वा उत्तम बंभचेरं, लोगुत्तमे समणे नायपुत्ते ॥५॥ दानानां श्रेष्ठमभयप्रदान, सत्येषु वा अनवद्य वदन्ति । तपस्सु वा उत्तमं ब्रह्मचर्य, लोकोत्तमः श्रमणो ज्ञातपुत्रः ॥ ५ ॥ ७५५. जयइ जगजीवजोणी-वियाणओ जगगुरू जगाणंदो ।
जगणाहो जगबंधू, जयइ जगप्पियामहो भयवं ॥ ६ ॥ जयति जगज्जीवयोनि - विज्ञायको जगद्गुरुर्जगदानन्दः । जगन्नाथो जगद्बन्धु-र्जयति जगन्पितामहो भगवान् ॥ ६ ॥ ७५६. जयइ सुयाणं पभवो, तित्थयराणं अपच्छिमो जयइ । जयइ गुरू लोगाणं, जयइ महप्पा महावीरो ॥७॥ जयति श्रुतानां प्रभव, तीर्थकराणामपश्चिमो जयति । जयति गुरुलोंकाना, महावीरः ॥७॥
महात्मा
जयति
२४२
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४४. वीरस्तवन ७५०. ज्ञान मेरा शरण है, दर्शन मेरा शरण है, चारित्र मेरा शरण है,
तप और संयम मेरा शरण है तथा भगवान् महावीर मेरे शरण है। ७५१. वे भगवान् महावीर सर्वदर्शी, केवलज्ञानी, मूल और उतर.
गुणों सहित विशुद्ध चारित्र का पालन करनेवाले, धैर्यवान् और ग्रन्थातीत अर्थात् अपरिग्रही थे, अभय थे और आयकर्म से रहित थे।
७५२. वे वीरप्रभु अनन्तज्ञानी, अनियताचारी थे। संसार-सागर को
पार करनेवाले थे। धीर और अनन्तदर्शी थे। सर्य की भॉति अतिशय तेजस्वी थे। जैसे जाज्वल्यमान अग्नि अन्धकार को नष्ट कर प्रकाश फैलाती है, वैसे ही उन्होने अज्ञानांधकार का निवारण करके पदार्थो के सत्यस्वरूप को प्रकाशित किया था।
७५३. जैसे हाथियो मे ऐरावत, मृगों मे सिह, नदियों में गंगा, पक्षियों मे
वेणु देव (गरुड) श्रेष्ठ है, उसी तरह निर्वाणवादियो मे ज्ञातपुत्र (महावीर) श्रेष्ठ थे।
७५४. जैसे दानो मे अभयदान श्रेष्ठ है, सत्यवचनों मे अनवद्य वचन
(पर-पीडाजनक नही) श्रेष्ठ है। जैसे सभी सत्यतपों मे ब्रह्मचर्य उत्तम है, वैसे ही ज्ञातपुत्र श्रमण लोक मे उत्तम थे ।
७५५. जगत् के जीवों की योनि अर्थात् उत्पत्तिस्थान को जाननेवाले,
जगत् के गुरु, जगत् के आनन्ददाता, जगत् के नाथ, जगत् के बन्धु, जगत् के पितामह भगवान् जयवन्त हों।
७५६. द्वादशांगरूप श्रुतज्ञान के उत्पत्तिस्थान जयवन्त हों, तीर्थकरो म
अन्तिम जयवन्त हों । लोकों के गुरु जयवन्त हों। महात्मा महावीर जयवन्त हों।
-०४३ -
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परिशिष्ट । १
गाथानुक्रमणिका
गाथांक
वायांक
७१७
४७४
AU0
___ अ अत्थंगयम्मि आइच्चे ६८१ अत्थाओ अत्यंतर ३७२ अत्थि त्ति पत्थि उह्य
७८ अथित्ति णस्थि दो वि ६४३ अत्थिसहाव दव ६८७ अद्धाणतेणसावद १७५ अर्धवमसरण मेगत्त
अधुवे असासयम्मि ५९८ अन्न इमं सरीर जीव ति १५४ अन्नाईण सुद्धाण
अन्नोन्न पविसंता
अन्नोन्नाणुगयाण ३२२
अपदेसो परमाण १३४
अप्पडिकुठं उवधि
अप्पणछा परट्ठा वा ३४९
अप्पपससणकरणं अप्पसत्थेहिं दारेहि अप्पा अप्पम्मि रओ अप्पा कत्ता विकत्ता य
अप्पा चेव दमेयन्यो १९४ अप्पा जाणइ अप्पा १५७ अप्पाणमयाणतो ७४७ अप्पाणमेव जुज्झाहि
अइथूलथूल थल अइभर्मि न गच्छेज्जा अइसयमादसमुत्थ अतादिमज्झहीण अक्खस्स पोग्गलकया अक्खाणि बहिरप्पा अगणिअ जो मुक्खसुह अज्जीवो पुण णेओ अज्झवसिएण बधो अट्ठविह""सीदोभूदा अट्ठविह " णिट्ठियकज्जा अठेणं त न बंधइ अणथोव वणथोव अणसणमूणोयरिया अणाभोगकिदं कम्म अणिस्सिओ इह लोए अणुखंधवियप्पेण दु अणुगुरुदेहपमाणो अणुसोअइ अन्नजण अण्णाणघोरविमिरे अण्णाणादो गाणी अत्ता चेव अहिंसा अत्ताण जो जाणइ
६७२
३७७
३६९
६४०
५१८
१२३
१२७
१२१
२५१ १२६
-- २४५ -
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समणसुत्तं
गाथांक
गाथांक
२१८ ५८२
१८१ ४३१ ४६० ४२०
.
.
५२७
३८९
३२९
अप्पा नई वेयरणी अब्भनरसोधीए अभट्ठाण अजलिकरण अभय पत्थिवा तुब्भ अरममावमगध अरहतभासिमत्थ अग्हता मगल अरहता लोगत्तमा अरहते सरण पव्वज्जामि अग्हिता, असरीरा अवरोप्परमविरोहे अवरोप्परसावेक्खं अबहोयदि त्ति ओही अवि झाइ से महावीरे अवाबाहमणिदिय अमहायणाणदसण अमुहादो विणिवित्ती अह अहहिं ठाणेहिं अह पचहि ठाणेहिं अहमिक्को "णिम्ममओ अहमिक्को दसणणाण अहवा मिद्धे सद्धे अहिंसा सच्च च अतेणग अहो निच्चं तवोकम्म अहो वि सत्ताण वि
१२२ आया हु मह नाणे २८१ आराहणाए कज्जे
आरुहवि अंतरप्पा आलोचणणिदणगरहण आलोयण पडिकमण आवासएण हीणो आसवदारेहिं सया आसामो पोसासो आहच्च सवण लधु आहच्च हिंसा समितस्स
आहाकम्परिणओ ७१४
आहारदेहसक्कार ६८१
आहारमिच्छेमियमे ४९९
आहारामणणिद्दाजय
आहारे व विहारे ५६३
आहारोसहमत्थाभय इदियमणोणिमित्त
इक्क पडिय छिदइ १७१
इक्क पडिय....पडिवज्जइ इच्छाय अणुण्णवणा
इत्तरियपरिग्गहिया ७१०
इत्थी जूय मज्ज इन्दियत्थे विवज्जित्ता इम च मे अत्थि इय सामण्ण माधू वि इरियाभासणाऽऽदाणे इह उवसतकसाओ इह परलोगासंस-प्पओग
६२३
२८८ ३७८ ३३१
اس
२६३ १७२
aro
५७१ ४३०
www. mm
३१४
३०३ ३९७
"
१६०
५८४ ३८४
आ
५८६
आगमणोआगमदो आगासकालजीवा आगासकालपुग्गल आदा णाणपमाण आदाणे णिक्खेव
६२५ ईहा अपोह वीमसा ६४८ १६९ उग्गम उप्पादणएसणेहिं
४०५
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२४७
गाथांक
४०८ १४७
४१६
७१२
उच्चालियाम्म पाए उड्ढमहे तिरिय पि य उत्तमखममद्दवज्जव उत्तमगुणाण धाम उदय जह मच्छाण उप्पज्जति वियति य उत्पादलिदिभगा उवओगलक्षण उवभोगमिदियहिं उवमत खीणमोहो उम्मणो अक्खाण उवममेण हणे कोहं उवनाम पुवणीता उमहमजिय च वदे उसहादिजिणवराण उह्य उहयणएण
७८
७४५ ४६४
६५४
गाथानुक्रमणिका गाथांक ३९१ एमेए ममणा मुत्ता ३१९ एय खु णाणिणो सार
एयम्मि गुणट्ठाणे १७७ एयाओ पचसमिईओ ६३२ एया पवयणमाया ६९५ एव जह सहत्थो ६६४ एव तु सजयस्सावि ५९२ एव ववहरणओ २२८ एव मसकप्पविकप्पणासु ५४८ एवं मे उदाह ४४६ एवमणुद्धि यदोसो १३६ एमो पचणमोयारो १३२
ओ ओगाढगाढणिचिदो ४२९ ७१९
कदप्प कुक्कुइयं
कज्ज गाणदीय ११४ कम्म चिणति सवसा
कम्म पुग्ण पावं ४६८ कम्मत्तणपाओग्गा १२९ कम्मत्तण एक्कं
कम्ममलविप्पमुक्को ४११ कम्मममुह कुसील
कम्मरयजलोहविणिग्गयस्स १२४ कम्मवसा खलु जीवा १२० कम्माण णिज्जर
कम्मासवदाराई
कसाए पयणए किच्चा ३८५ कामाणुगिद्धिप्पभव ५२२ कायसा वयसा मत्त १८४ कि काहदि वणवासो
३२३ ४४
७२१
९९८
ए॥ ८ मगे समइक्कमित्ता एकगिद्ध इयरो
निम होलियम्मि गओ विरइ कुज्जा एमनमणावाए एगने अच्चित्त दूरे एगले परोक्ख हमपा अजिए सत्तू एगो मूल पि हारित्ता पग मे मासओ अप्पा एडम्ति रदो णिच्च पदाओ अपवयण एदे मोह्यभावा एदे नव्ये भावा
८० ५७.
३५३
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________________
२८
समणसुत्तं
माथांक
पायाक
गुणेहि साहू अगुणेहि गेलइ वत्थुसहाव गोयरपमाणदायग
३४२ ६८५
२२६
५३४ ५३३
घणघाइकम्ममहणा
५०८
कि किंचणत्ति तक्क कि पुण गुणसहिदाओ कि बहुणा भणिएणं किण्हा णीला काऊ तिण्णि किण्हा णीला काऊ तेऊ. कथं च जिणवरिदं कुलजोणिजीवमग्गण कुलरूवजादिबुद्धिसु केवलणाणदिवायर नावलमेगं सुद्ध को णाम भणिज्ज बुहो कोसुंभी जिह राओ कोहादिसगम्भावक्खय कोहेण जो ण तप्पदि कोहो पोई वणासेड
८८
१८२
५६२
६८३
MG
६१५
४१०
१०८
२८३
८८
चइऊण महामोह चउगइभवसभमण चउरंगं दुल्लहं मत्ता
चडो ण मुचइ वेर १९०
चदेहि णिम्मलयरा ५५९
चक्किकुरुफणिसुरेदेसु ४५८
चक्खुसा पडिले हित्ता
चत्तपुत्तकलत्तस्त १३५
चत्ता पावारंभ चरे पयाई परिसकमाणो चागी भद्दो चोक्खो
चारित्तं खलु धम्मो २०४
चालिज्जइ बीभेइ य चितियचितियं वा चित्तमंतम "अप्प चित्तमंतम""परिगिज्झ
चेयणरहियममुत्त ४१५
छठ्ठट्ठमदसमवालसेहिं १४६ ५३ जइ किचि पमाएण ४९० जउकुंभे जोइउवगूढे ३७० ज अन्नाणी कम्म ३४८ जं इच्छसि अप्पणतो ६६१ जं किंचि मे दृच्चरितं
वणमेत्तसोक्खा वमामि सव्वजीवाण ग्वयरामरमणुय बाईपूयालाह खित्ताइहिरण्णाई खीरदहिसप्पिमाई खुहं पिवासं दुस्सेज्ज खेत्तस्स वई णयरस्स
५४३ २७४ ५०३ ६८२
३७१
३१६ ४५०
३५१
६३५
ग
८७
११३
गथच्चाओ इदिय गदिमधिगदस्स देहो गरहियनियदुच्चरिओ गामे वा गयरे वा गारवेसु कसाएसु गणाणमामओ दव्वं
२
२४ ४३८
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________________
गाथानुक्रमणिका
२४९
गाथांक
३३५
५०४
२४७
१७६ ६४.५
५८३ २८४ २२७
४२३
६०४
०
गाथांक
जह चिरसचियमिधणम ५७८ जह जह सुयमोगाहइ ३१८ जह णवि सक्कमणज्जो ७१३ जह ते न पिकं दुक्खं
जह दीवा दीवसय २६९ जह पउमरायरयण ६९० जह बालो जंपन्तो ४८५ जह रायकुलपसूओ ७३२ जह व णिरुद्धं असुहं २२१ जह सलिलेण ण लिप्पइ ७०५ जह सोलरक्खयाणं ४३९ जह हवदि धम्मदव्य २४० जहा कुम्मे सभंगाई
जहा जहा अप्पतरो
जहा दुमस्स पुप्फेसु ५०७
जहा पोम्म जले जाय जहा महातलायस्स
जहा य अंडप्पभवा ६९१ जहा य तिण्णि व वणिया ३९५ जहा लाहो तहा लोहो ७५५ जागरह नरा ! निच्च ७५६ जागरिया धम्मीणं ३९४ जा जा वच्चई रयणी २२ जाणइ कज्जाकज्ज २९५ जाणिज्जइ चिन्तिज्जइ ५२५ जायदि जीवस्सेवं
जावंतऽविज्जापुरिसा ४८७ जावति लोए पाणा २०९ जावतो वयणपधा ४६३ जिणवयणमोसहमिण
४९ जिणवयणे अणुरत्ता ३८७ जीववहो अप्पवहो
ज कीरइ परिरक्खा ज कुणइ भावसल्ल ज च दिसावेरमण ज ज करेइ कम्म ज जं समय जीवो ज जाणिऊण जोई ज गाणीण वियप्प ज थिरमज्झवसाण ज पुण समत्तपज्जाय ज मोण तं सम्म ज संगहेण गहियं जत्थ कसायणिरोहो जत्थेव पासे कइ दुप्पउत्त जदि सक्कदि कादु जे जमगधम्मणो वत्थुमो जम्म मरणेण समं जम्मं दुक्ख जरा दुक्ख अमल्लोणा जीवा जम्हा ण णएण विणा जय चरे जयं चिट्ठे जयइ जगजीवजोणी जयइ सुयाण पभवो जयणा उ धम्मजणणी जय वीयराय ! जय गुरु । जरा जाव न पीलेइ जरामरणवेगेण जस्स गुरुम्मि न भत्ती जस्स न "जोगपरिकम्मो नस्स न""सव्वदम्वेसु जह कंटएण विद्धो जह कच्छुल्लो कच्छु जहगृत्तस्सिरियाई
०
१०
१७
११० ९७
१६८
११८
५४२
५४ ५८८
१४०
७२६
W
१५१
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०५०
समणसुत्तं
मायाक
२७०
१११
m
गायांक
जो जाणिकुण दल जो जे पगारे जो ण क रेदि जुगुप्प
जो ण पमाण णोड २७ जो तमवहाउविरदो ६४९
जो दु ण करेदि कर १७८
जो धम्मिएमु भत्तो जो परदचम्मि मूह
जो पस्मदि'अबद्धपुट ७३७
जो पस्मदि "नमभावे २५७ जो मुणि भुत्तविसेस ४९२ जो वट्टणं ण मण्ण इ २५८ जो समो सव्वभूदेसु ४३५ जो सव्वसगमुक्को २५२ जो सहस्सं सहस्साण २५३ जो मिय भेदुवयार ६६० जो हवइ असम्मूढो ৩৩
झाण ट्ठिओ हु जोइ १४२
झाणणिलोणो साहू झाणोवरमेऽवि मुणी झायह पच वि गुरवे
.
४२८
जोत्रा चेव अजीवा य जीवाऽजीवा य बन्धोच जोवाण पुग्गलाण जीवादी सद्दण जोवा पुग्गलकाया जीवा संसारत्था जीवा हवंति तिविहा जीवो अक्खो अत्थव्वावण जीवो बभ जीवम्मि जुत्तीसुजुत्तमग्गे जे अज्झत्थं जाणड जे इंदियाणं विसया जे एगं जाणइ जे केइ उवसग्गा जेण तच्चं विबुज्झेज्ज जेण रागा विरज्जेज्ज जेण विणा लोगस्म वि जेण विरागो जायड जे पयणुभत्तपाणा जे ममाइयतिं जहाति जे य कते पिए भोए जेहिं द लक्खिज्जते जो अप्पाणं जाणदि जो अवमाणकरणं दोस जो इंदियादिविजई जो एयसमयवट्टो जो खलु संसारत्थो जोग पउत्ती लेस्मा जो चितेइ ण वंक जोजस्स उ आहागे जो जहवयं न कुणइ जो जाण दि अरहंतं
१०८
०३७
१०४
G
r
Som
ठाणा वीरासणाईया
४५२
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७०६
णताणतभवेण णट्ठासेसपमाओ
ण दुक्खं ण सुखं वा वि ४४८ ण बलाउसाउअट्ठ
७० " भवो भर्गावहीणो २६० ामो अग्हताण
९१
४०६
ती
-.
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गाथांक ७०१
गाथानुक्रमणिका गाथांक
णि वित्त दवकिरिया णिग्वेदनिय भावड णिस्सलस्मव पुणो णिस्सेमखीणमोहो णेगाइ माणाड णोआगम पि तिविह णो इदिएमु विरदो णो छादा गोविय
06.01
५२४
७५०
ण य कुणइ पक्ववाय ण य गच्छदि धम्मन्धी णवि इदिय उवमग्गा ण वि कम्म णोकम्म णवि दुक्खं णवि मुक्ख गवि होदि अप्पमत्तो गसि शूण पूरा अणुस्सुय ण हि तम्पादणि मित्तो णाऊण लोगमार णाणं सरणं मे जाण होदि पमाण णाणाजीवा णाणाकम्म गाणाऽऽणत्तोए पुणो गाणाधम्मजुदं पि य पाणी कम्मस्स खयत्थ माणेण ज्झाणसिज्झी णातीतमट्ठ ण य णामट्ठवणादद णाहं देहो ण मणः णाहं होमि परेसिं णिग्गंथो णीरागो णिच्छयणयस्स एव णिच्छयणयेण भणिदो णिन्छयववहारणया णिच्छयववहारसरूव णिच्छयसज्झसरूव णि हो णिहदो णिप्पण्णमिव पयपदि णिम्मूलखंघसाहुवसाह णियभावं ण वि मुच्चइ णियमणिसेहणसीलो णिययवयणिज्जसच्चा
त जइ इच्छासि गतु ३३ त मिच्छत्त नमसद्दहण ७३५ तग्गुणए य परिण दो २४६ । तच्च तह परमट्ठ ७२४ तत्थ ठिच्चा जहाठाण १५६ तत्थ पचविह नाण ४७८ तम्हा णि व्वदिकामो ५०० तम्हा दु कुसीलेहिं य ७३९ तम्हा वत्थूण चिय १८९ तम्हा सव्वपयत्ते ४९६ तम्हा सव्वे वि णया
तवनारायजुत्तेण २६८ तवसा चेव ण मोक्खो १६ तस्स ण कप्पदि
तस्म मुहुग्गदवयण १९६ तस्सेस मग्गो गुरु
तहेव काण काणे त्ति १८६ तहेव फरुसा भासा
तहेवुच्चावया पाणा ५३८ तारिसपरिणामट्ठिय ४३७ तिण्णो हु सि अण्णव ७१५ तित्थय रषयण सगह २१८८ तिब्बतमा तिव्वतरा
C.००००G MARG.GK GK
GWA G ती ० ० G4 . . . . -
१८७
३४
२८०
७०३
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समणसुत्त
गायक
६५३ ४०४
४३४
नुग न मदराओ तुम सि नाम म चव तऊ पम्हा सुक्का तेणावि ज कय कम्म त ते कम्मत्तगदा तेल्लोकाडविडहणो ने सावेक्खा सुणया नेमि तु तवो ण सुद्धो तो उद्धरंति गारवरहिया
गाथांक १५८ दुकव ह्य जम्मन १५२ दुपदेसादी बधा
दुल्लहा उ मुहादाई ६५८ देवास्सियणियमादिमु
देहम इजड्डद्धी
देहविवित्तं पेच्छड ७२५
देहादिसगरहिओ
देहादिमु अणुरता ५७२ दो चेव जिण व रेहि
४८१
६५९ ११७
४९५
४८२
३४३
२९६
२४३
थिरकय जोगाण पुण थिरधरियसीलमाला थूलमुसावायस्स थोवम्मि सिक्खिदे
६९२ २०८ ६२९
६२४
६२८
२२३
४९१
धम्मकहाकहणेण य धम्मत्थिकायमरम
धम्मविहीणो सोक्ग्व ३११ २६७
धम्मादीसहहण धम्माधम्मे य दोऽवए
धम्माराम चरे भिक्खू १९३
धम्मो अहम्मो आगास कालो २१५
धम्मो अहम्मो आगाम दव्व ४६७
धम्मो मगलमुक्किट्ठ
धम्मो वत्थुसहावो २२४
धीरेण वि मरियच ७४१
धी ससारो जहिय ६६२ ७३८
न कम्मुणा कम्म खवेति ६९४ न कसायसमुत्थेहि य ४३० न कामभोगा समय उति ५५१ न तस्स दुक्ख विभयन्ति २९७ न य ससारम्मि सुह ३३२ नरविबु हेसरसुक्ख ७५४ न लम्वेज्ज पुट्ठी ४०३ न वि कारण तणमओ
दसणणाण " मोक्खमग्गो दसणणाण · सेविदव्वाणि दसणणाणे विण ओ दसणभट्ठा भट्ठा दंसणसुद्धा सूद्धो दन्व खु होइ दुविह दब्वं पज्जव विउय दन्वं विविहसहाव दव्वट्ठिएण सव्व दम्वठियवत्तन्व दब्वे खेत्ते काले दहिगुडमिव वामिस्म दाण पूया मुक्ख दाण भोयणमेत्त दाणांण सेठें अभयप्पयाण दिटें मिय अमदिद
५६९ ५११
२३०
७३
४८ ३९९
५७६
Page #276
--------------------------------------------------------------------------
________________
नाव त कुणइ अमिना
नविन मत्थ च विम
नवि डिएण समो
नमन्ति न य समेया
नमी परिग्गहो बुत्तो न हूँ जिणे अज्ज दिस्सई
नाग चरिन होण
नापदमण सपण्ण
नाणमपवायसहिओ
नाणगग्गचित्तो य
नाणस्म मव्वस्स
नागल्म होइ भागी
नाणसावर णिज्ज
नागण जाणई भाव
नाणेण दसणेणं च
नाणेण य झाणेण य
नादयणिस्स नाण
नामकम्म न गोयं च
नालस्सेण सम सुवख
नासीले न विसीले
निच्छ्रयओ दुष्णेय निच्छयनयस्म चरणाय
निच्छयमवलंबता
निम्मो निरहकारी निव्वाण ति अबाहति
निस्सकिय निक्कंखिय
नगम संग्रहवहार नो इन्दियग्गेज्झ
ना खलु यह तहा नो सक्कियमिच्छ
प
पउमिणिपत्त व जा
गावानुक्रमणिका
गायांक
७२
५७७
ܘܐܕ
७९
३७९
३५५
२१०
३३९
४८३
१७४
२८९
२८
६४
२०९
२३८
१३१
२११
६५
१६७
१७३
४२
२८५
४०
३४६
६२१
२३१
६९८
५९५
२९९
२३४
३९३
मनमहव्वयतुगा पचय अणुब्वयाई
पचवर सहियात्र
तचेव होति गाणा
पच्चयत्य च लोगस्स
पज्जय गउण किच्चा
उपहारसमज्ज पडिकमणपहुदिकिरिय पढमतिया दव्वत्थो
पण्णवणिज्जा भावा
पत्तेयं पतेयं नियंग
पत्थं हिदियाणि
पमाय कम्ममाहसु
परदव्वादो दुइ
परमम्हि दु अट्ठिदो
परमाणुमित्तियं पिहु
परसतावयकारणवयण
परसमय एगनयमय परिचत्ता परभाव
परिणामम्मि असुद्धे
परियणाय वायणा
पलियंकं बधेज
पहिया जे छ पुरिमा
पाडुब्भवदि य अन्नो
प्राणि बहमुसावाए
पाहि चदुहि जीवदि
पायच्छित्तं विणओ
पारद्धा जा किरिया
पापणी धम्मकही
पासंडीलिंगाणि व
पास रसगंध वण्ण पिउपुत्तण तु भव्वय
For Private Personal Use Only
२५३
गाथांक
cog
३०२
६७६
३५७
६९७
६६
४२१
६९९
७३३
५१५
९४
१६४
५८७
२७२
२५०
९२
७२७
४१८
३६२
४७५
४८९
५३७
६६६
३०९
६४५
४५६
७०२
२४४
३५८
६३७
६७०
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________________
पुढवि जलतेयवाऊ
पुढवी जलं च छाया पुण्ण पि जो समिच्छदि
पुरसम्म पुरिममद्दो
पुरिसायारो अप्पा
पुल्लेद मुट्ठी जह से पुत्र्वाभिमुो उत्तरमुहो याद रक्खो
सुहामकक्कम
कामुयमग्गेण दिवा
फ
बप्पदेसगालण
धवच्छ विच्छए
बलं थाम च पेहाए
बहवे इमे असाहू
बहिया उड्ढमादाय बहुं सुइ कहि भयंकर दोसाण
बारस अणुवेक्खाओ बारस विहम्भि बाहिरसमा खेत्तं
बुद्धे परिनिव्वुडे चरे
19 तव
भद्द मिच्छादण
भावणाजोग सुद्धप्पा भावविद्धिणिमित्त
भाविज्ज य सतोस
भावेज्ज अवत्थतिय
भावेण जेण जीवो
ब
भ
भावे विरत्तो मणुओ भावो हि पदमलिंग
समणसुतं
गाथांक
६५०
६४२
१९९
६६७
४९४
३५९
४८८
४७६
४०२
३९६
५२४
३१०
४४५
३३८
५६८
३४४
७५
५३०
४७९
१४४
३५४
७३६
५२९
३६१
३१७
४९८
६५६
८१
३६०
For Private
भोगाण परिसखा
भोगामिनदोसविमण्णे
भोचत्रा माणुस्मर भोए
मइपुव्व सुयमत्त
मदो बुद्धिविहीण
म
मट्रियसघाए
मग्गो मग्गफल ति य
मज्जेण णरो अवमो
मणकात्ति
मणसा वाया कायेण
मणुयाइयपज्जाओ
मदमाणमायलोह
मरदु व जियदुव मासासणेण वड्ढइ
मा चिट्ठह मा जपह
माणुस विग्गह लद्ध्
मादुसुदाभगिणीव य
मासे मास दु जो बालो
मिच्छत्त वेदतो जीवो
मिच्छत्तपरिणदपा
मिच्छत्त वेदरागा
मिच्छत्ताविरदी विय
मिच्छत्तासवदार
मिच्छद्दसणरत्ता
मिच्छो सामण मिस्सा
मूल अमहम्मस्स
मक्खहे अप्पाण
तूण वरण
मोतूण मयलजप्पमोगरा पच्छा य
Personal Use Only
गाथाक
३२४
५०
२०६
६८०
५४०
५२१
१९=
३०६
५२३
६०३
७०७
२८२
३८८
३०४
५०१
५२६
३७४
२७३
६८
*ર્
१४३
ܝܘܟ
६०८
५८०
५४७
३७३
५८५
४३२
४३६
J:
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________________
गाथानुक्रमणिका
गाथांक
गायक
हालए उ जुनम्म
m.
'नो बधदि कम्म
जलयमेव गण रवणलयसंजुत्तो
या पगाम न निसेवियव्वा गगहोनपमनो गगादोणमणुपाओ
गे दोसे य दो पावे रागो य दोमो विय रधियछिद्दसहस्से रूमइ णिदइ अन्न
ww
3w.८
बयणोच्चारजकिरिय वयभगका होइ वयममिदिवमायाण वर में आपा दतो वर वयतवेहि मग्गो ववहारणयचरितं ववहारेणुवदिस्पड बवहार'ऽभूयत्यो वसे गुरुकुले निच्च वाहिजरमरणमयरो विज्जदि केवलणाण विणओ मोक्खहार विणओ मासाणे मूल विणओवयार माणस्म विशयाहिया विज्जा वित्तं पसवो य णाइओ विरई अणत्यदडे विरदो सव्वसावज्जे विरया परिग्गहाओ विवत्ती अविणोयस्स विवित्तसेज्जासण विमयकमायविणिग्गह विस्ससणिज्जो माया व वसोवि अप्पमाणो
॥
लद्ध अलद्धपुव्व लक्ष्णं णिहि एक्को लवण व्व सलिलजोए लाउस एरंडफले लाभालाभे सुहे दुक्खे लेस्सासोधी अज्झवसाण लोइयसत्थम्मि वि लोगो अकिट्टिमो खलु लोयाणं ववहार
WM
2 YOr mrs mr
४२७
५४५
३०५ ६५१
२९४
३२५
से
१८३
वज्जणमणतगुबरि वज्जिज्जा तेनाहड वण्णरसगंधफासा वण्णरसगंधफास वत्तावत्तपमाए वदसमिदीगुत्तीओ वद-समिदि-सील-सजमवयणमयं पडिकमण
३१३
मकेज याऽसकितभाव ६४४ सग परिजाणामि
सगनिमित्त मारइ १९५ राघो गुणसघाओ
सजोअसिद्धीइ फल वयर्यात ४२२ सजोगमला जोवेण
१४०
४५७
२१३
५१७
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--------------------------------------------------------------------------
________________
-५६
समणसुत्त
गायांक
गाथांक
२४२
mar
२२२
२२५
२१४
२३२ ७३४ ४८. ५६७ ७०८ ६७१ ११२ ७२२
मतिमे मुहुमा पाणा मथारमेज्जामणभत्तपाणे रनिहिं च न कुब्वेज्जा सपत्तदसणाई मपत्ति तस्सेव जदा मभिन्नं पासंतो सरभसमारम्भ · काय भरभसमारम्भे"मण सरंभसमारम्भ " वय मलेहणा य दुविहा सर्वगजणिदकरणा ससयविमोहविब्भम सकरकफल जल वा मक्किरिया विरहातो मच्चम्मि वसदि तवो सच्चम्मि मज्झायं जाणतो मज्झायझाणजुत्ता मत्तू वि मितभान मत्तेव हुँति भगा मद्दहदि य पत्तेदि य मद्दारूढो अत्थो मद्धं नगर किच्चा मन्ति एगेहिं भिक्खूहि समणो त्ति सजदो त्ति य ममदा तह मज्झत्था समभावो सामइय समयाए समणो होइ ममयावलिउस्सामा समवेदं खलु दा समसतोसजलेण समिक्ख पंडिए तम्हा सम्मत्तरयणपन्वय
३८३ सम्मनरयण भट्ठा ३८१ नम्मत्तरयणसार ३८० मम्मत्तविरहिया ण
मम्मत्तस्य य लभो ३९० सम्मईसणणाण ६८४ मम्मदसणरत्ता ४१४ मम्मद्दिट्ठी जीवा ४१२ सय सय पससता ४१३ सयणासणठाणे वा ५७४ सरीरमाहु नाव त्ति ३०७ मवणं सपइ स तेण ६७४ सवियप्प णि वियप्प इय
सव्वंगं पेच्छंतो २६५ सग पि अणेयत
सव्वगथविमुक्को ४७७ सव्वजीवाण कम्म तु ३४५ सव्वतो पमत्तस्स भय ३०८ सव्वत्थ वि पिय वयण
सव्वभूयप्पभूयस्स १९७ सव्वे जीवा वि इच्छति
सव्वे समयति सम्म २८६ सव्वे सरा नियति २९८ सव्वेसि गथाण ३३६ सवसिमासमाण २७५
ससमयपरसमयविऊ ४२५ ससरीरा अरहंता ३४१ सहसा अब्भक्खाण ६३९ सामन्न अह बिसेसे
सामाइयं चउवीसत्थओ
सामाइय ति काउं ५८९ सामाइयम्मि उ कए ५५० सायार इयर ठवणा
५९१ ६०७ १४८
७३०
३७५
२३ १८०
o
r
ur
४२४ ३२८ ३२७ ७४०
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________________
गाथानुक्रमणिका
२५७
गाथांक
गाथाक
१३८
३१ से जाणमजाण वा ३२६ सेज्जोगासणि सेज्जो ३३३ सेणावइम्मि णिहए १६१ से भूइपण्णे अणि" ४८४ सेलेसि सपत्तो ३३७ सेवतो वि ण सेवइ ५२८ से मव्वदसी अभिभूय णाणी
४७ सोच्चा जाणइ कल्लाण १६३ सो तम्मि चेव समये २५६ सो तवो दुविहो बनो २७७ मो नत्थि इहोगासो
४१ सो नाम अणसण तवो २६६ मोवणिय पिणियर, २६४
२४.५
४४०
मावगजणमहुयर सावज्जजोगपरिरक्खणट्ठा साहूण कप्पणिज्ज मोतति सुवताण सोस जहा सरीरस्स सोहगयवसहमियपसु सुई च लधु सद्ध च सुट्ठवि मग्गिज्जतो मुत्तेसु यावी पडिबुद्ध जीवी सुद्धं तु वियाणतो मुद्धस्स य सामण्ण मुद्धो सुद्धादेशो सुबहु पि सुयमहीय मुयनाणम्मि वि जीवो सुवण्णरुप्पस्स उ पन्वया सुविदिदपयत्थसुत्तो सुविदियजगस्सभावो सुविहिं च पुप्फयतं सुह वसामो जीवामो सुहदुक्खजाणणा वा सुहपरिणामो पुण्ण सुहेण भाविद णाण मुई जहा ससुत्ता में असई उच्चागोए
४४४
hc/
१०७
२७६ हत्थीसु एरावणमाह ४९३ हय नाण कियाहीण १४ हा ! जह मोहियमइणा
हिंसादो अविरमण ५९३ हियाहारा मियाहारा
होति अणियट्टिणो ते ४५३ होति कम्मविसुद्धाओ २४८ होति परोक्खाई मइ ९० होऊण य णिस्सगो
७५८
६८८
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________________
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--------------------------------------------------------------------------
________________
परिशिष्ट : २
पारिभाषिक शब्दकोश
[अंक गाथाओ के द्योतक है। जिन अंको के साथ सूत्र लिखा है, वे अकं प्रकरण के द्योतक है।
अंग-सम्यग्दर्शन के आठ गण (सूत्र १८) आदि से निरपेक्ष जन्म-जात तात्त्विक अगार-वेश्म या घर (२९८)
अश्रद्धान (५४९) अज्ञान-मोहयुक्त मिथ्याज्ञान (२८९) अनर्थदण्डव्रत-प्रयोजनविहीन कार्यों का अज्ञानी-मिथ्यादप्टि (१९५)
त्याग (३२१-३२२) अजीव-सुख दुख तथा हिताहित के ज्ञान अनशन-कर्मो की निर्जरार्थ यथाशक्ति एक
से (५९३) और चेतना से रहित दो दिन आदि के लिए आहार-त्यागपुद्गल आदि पाँच द्रव्य (६२५) रूप तप (४४२-४४७) अणवत-श्रावको के पाँच व्रत ( सूत्र ३००) अनित्य-अनप्रेक्षा-वैराग्य-वृद्धि के लिए अतिथिसंविभागवत-साधु को चार प्रकार जगत् की क्षणभगुरता का बारम्बार का दान देना (३३०-३३१)
चिन्तन (५०७-५०८) अतीन्द्रिय सुख-आत्म-जात निराकूल अनिवृत्तिकरण-साधक की नवम भूमि, __ आनन्दानुभूति (६१४-६१५)
जिसमे समान समयवर्ती सभी साधको अदत्तादान-व्रत-अचौर्यव्रत (३१३)
के परिणाम समान हो जाते है, और अधर्मद्रव्य-जीव तथा पुदगल की स्थिति मे, प्रतिसमय उत्तरोत्तर अनन्तगणी
पृथिवी की भॉति सहायक, लोकाकाश विशुद्धता को प्राप्त होते रहते है (५५८) प्रमाण एक अमूर्त द्रव्य (६२५, ६२९, अनुप्रेक्षा-वैराग्य-वृद्धि के लिए बार-बार
चिन्तवन की जानेवाली १२ भावनाएँ अध्यवसान-पदार्थ-निश्चय (५४५) (सूत्र ३०) अध्यवसाय-कर्म-बन्ध का कारण, जीव की अनेकान्त-वस्तु की स्वतन्त्र सत्ता का या राग-बुद्धि (१५४, ३९२)
वस्तु की अनन्त धर्मात्मकता का निदर्शक अध्यात्म-शुद्धात्मा में विशुद्धता का आधार- तत्त्व , नित्यत्व-अनित्यत्व आदि परस्परभूत अनुष्ठान (१६७)
विरोधी अनेक धर्म-युगलो से युक्त वस्तु अनगार-गृहत्यागी साधु (३३६)
का अविभाज्य एकरसात्मक जात्यन्त र अनभिगृहीत मिथ्यात्व-दूसरे के उपदेश स्वरूप (६६९-६७२)
- २५९ -
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________________
समणमुत्त
अन्तरात्मा-देहादि से भिन्न आत्मस्वरूप को यन्तर ग्रन्थ-मिथ्यादर्शन तथा कपाय
समझने वाला सम्यग्दृष्टि ( १७९) मादि १४ भाव (१४३) अन्तराय-कर्म-दान लाभ आदि में बाधक अ अन्तर तप-प्रायश्चित्त, विनय आदि के कर्म (६६)
प में व्ह प्रकार का आन्तरिक तप अन्यत्व-अनुप्रेक्षा-अपने स्वरूप को देहादि (४५६)
से भिन्न देग्वने की भावना (५१८- अ पन्तर सलेखना-कपायो की कृशता ५२०) अपध्यान-राग-द्वेपवश दूसरो का अनिष्ट दृष्टि-तत्त्वो के प्रति अभ्रान्तदृष्टि चिन्तन (३२१)
(२३७) अपरभाव-वस्तु का शुद्ध स्वभाव या तत्त्व अमन-इन्द्रिय-प्रत्यक्ष न होने के कारण
(५९५) जीव आदि पॉच द्रव्य (६२६) अपरमभाव-अपरभाववत् (५९०) अयोगी-केवली-साधक की चौदहवी अथवा अपवाद-शक्ति की हीनतावश वीतराग- अन्तिम भूमि जिसमे मन वचन काय की
मागियो को भी आहार आदि के ग्रहण नमस्त चेप्टाएँ शान्त होकर शैलेशी की आज्ञा (४४)
स्थिति प्राप्त जीव (५६४) अपूर्वकरण-साधक की अष्टम भूमि, जिसमे अग्हत या अर्हन्त-प्रथम परमेष्ठी (१), प्रविष्ट होने पर जीवो के परिणाम प्रति जीवन्मुक्त सर्वज्ञ (७), जो पुन. देह समय अपूर्व-अपूर्व ही होते है (५५६- पारण नही करते (१८०) ५५७)
अर्थ--ज्ञान के विषय द्रव्य गुण व पर्याय अप्रदेश-जिसका अन्य कोई प्रदेश नही होता
ऐसा एकप्रदेशी परमाणु (६५२) अरूपी-दे० अमूर्त (५९२) अप्रमत्त-रागद्वेष रहित, यानाचारी और अलोक-'लोक' के बाहर स्थित केवल आत्मा के प्रति सदा जागृत (१६६-- असीम आकाश (६३६)
अधिज्ञान-मर्यादित देश-काल की अपेक्षा अप्रमत्तसंयत-साधक की सप्तम भूमि, जहाँ न्तरित कुछ द्रव्यो को तथा उनके कुछ किसी प्रकार का भी प्रमाद व्यक्त नही सुक्ष्म भावो तक को एक सीमा तक प्रत्यक्ष होता (५५५)
करनेवाला ज्ञान-विशेष (६८१, ६८९) अप्रमाद-राग-द्वेषविहीन आत्मजागृति अनमोदर्य-आहार की मात्रा में क्रमश. कमी (सूत्र १३)
करते हुए एक चावल तक पहुंचना अभयदान-मरण आदि के भय से ग्रस्त १४४८) जीवो की रक्षा करना (३३५)
गरत सम्यग्दृष्टि-साधक की चतुर्थ भूमि, अभिगृहीत मिथ्यात्व-दूसरो के उपदेश जसमे सम्यग्दर्शन हो जाने पर भी भोगों
जादि से असत्य धर्म तथा तत्त्वो के अथवा हिसा आदिक पापो के प्रति प्रति उत्पन्न श्रद्धा और सत्य के प्रति विरति भाव जागृत नही हो पाया अश्रद्धा (५४९)
(५५२)
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________________
पारिभाषिक शब्दकोश
२६१
अविरति-हिसा आदि पाँच पापो में विपिन अहिंसा-प्राणि-बध न करना व्यवहार का अभाव (६०८)
अहिमा है (१४८) और राग-द्वेप न अशरण-अनप्रेक्षा-वैराग्य-वद्धि के लिए न- हाना (१५१) अथवा यतनाचारकुटुम्बादि की अगरणता का चिन्तवन
अप्रमाद (१५७) निश्चय अहिसा है । तथा धर्म की शरण में जाने की भावना आकाश-सर्व द्रव्यो को अवकाश देनेवाला (५०९-५१०)
सर्वगत अमूर्त द्रव्य, जो लोक और अशुचि-अनुप्रेक्षा-वैराग्य-वृद्धि के लिए
अलोक दो भागो मे विभक्त है देह की अशुचिता का बार-बार चिन्तवन (५२१)
आकिचन्य-नि सगता या अकिचनवृत्तिअशुभ-भाव-तीव्र कपाय (५९८)
नितान्त अपरिग्रहवृत्ति । दस धर्मों में से अशभ-लेश्या-कृष्ण आदि तीन कपाययक्त
नौवाँ (१०५-११०) तीन वृत्तियाँ (५३४)
आगम-पूर्वापर-विरोध-रहित जैनग्रन्थ,
वीतरागवाणी (२०) अष्ट-१. कर्म, २ सिद्धो के गुण, ३ प्रवचन
आगम-निक्षेप-विचारणीय पदार्थ विषयक माता तथा ४ मद ये सब आठ-आठ है।
शास्त्र का ज्ञाता पुरुप भी कदाचित् उसी असंख्यप्रदेश-आकाश अनन्त है जिसके माय
नाम से जाना जाता है, जैसे मशीनरी लोक-भाग केवल अमख्यातप्रदेश प्रमाण
का ज्ञाता मैकेनिक (७८१-७४४) है। धर्म तथा अधर्म द्रव्य भी इतने ही परिमाणवाले है। जीवद्रव्य नी
आचार्य-स्वमत तथा परमत के ज्ञाता परमार्थत इतना ही बडा है, परन्तु देह
__ मघनायक साधु (९, १७६) में सकुचित होने से यह पनि आत्मा-व्यक्ति का निजत्व (१२१-१२८) अव्यक्त है । उसकी केवल-समुद्धात
अथवा उसका ज्ञान-दर्शन-प्रधान चेतन अवस्था ही ऐसी है कि एक क्षण तथा अमूर्त अन्तस्तत्त्व (१८५) लिए वह फैलकर लोक-प्रमाण हो जाना (सूत्र १५) है (६४६)
आदान-निक्षेपण समिति-वस्तुओ को उठानेअस्तिकाय-जीव आदि छहो द्रव्य अग्निव धरने में विवेक-यतनाचार (४१०)
युक्त है, परन्तु प्रदेश प्रचययुक्त होन न आधाकर्म-चक्की चूल्हा आदि के अधिक कायवान् केवल पाँच है । परमागबन् आरम्भ द्वारा तैयार किया गया हिसासमय मात्र एकप्रदेशी होने के कारण युक्त भोजन (४०९) कालद्रव्य कायवान् नही है (१०९, आभिनिबोधिक-ज्ञान-इन्द्रियाभिमुख विपयो
का ग्रहण । मतिज्ञान का दूसरा अस्तेय-बिना दिये कोई वस्तु ग्रहण न बन्न नाम (६७७)
का भाव या व्रत (३१३, ३७०-३-१) आयकर्म-आत्मा को शरीर में रोक रखनेअहंकार-देह में 'म'-पन का भाव (३.८) वाला कर्म (६६)
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________________
२६२
समणसुत्तं
आरम्भ-प्राणियो को दुख पहुँचानेवाली उत्पाद-द्रव्य की नित्य नवीन पर्यायों की
हिसायुक्त प्रवृत्ति (४१२-४१४) उत्पत्ति (६६६-६६७) आर्जव-निम्छलता तथा सरलता (९१) उत्पादन-दोष-गृहस्थो को उनके इच्छानुसार आर्तध्यान-इष्टवियोग, अनिष्टसयोग तथा विद्या, सिद्धि या चिकित्सा आदि का
वेदना आदि के कारण उत्पन्न हो नाला उपाय बताने से प्राप्त होनेवाली सदोष दुख व खेदयुक्त मन स्थिति (३२८) मिक्षा (४०५) आलोचना-सरलभाव से अपने दोषों का उत्सर्ग-ज्ञानादि कार्य की सफलता का सर्वथा आत्मनिन्दनपूर्वक प्रकटीकरण (४६१- निर्दोष अति कर्कशमार्ग जिसमें साधु
किसी भी प्रकार का परिग्रह ग्रहण नहीं आवश्यक-साधु के द्वारा नित्य करणीय करता (४४) प्रतिक्रमण आदि छ कर्त्तव्य' (६१८- उद्गम-दोष-अपने निमित्त से तैयार किया ६२०, ६२४)
गया भोजन या भिक्षा ग्रहण करना आसन-ध्यान तथा तप आदि के लिए साधु
सदोष (४०५) के बैठने अथवा खड़े होने की विधि। उदुम्बर-ऊमर, बड, पीपल, गूलर तथा पल्यकासन (४८९) वीरासन (४५२)
पाकर घे अग्राह्य पाँच फल जिनमे छोटेआदि के भेद से अनेक प्रकार के।
छोटे जीवो की बहुलता होती है (३०२) आस्रव-मन वचन काय की प्रवत्ति के उपगूहन-सम्यग्दर्शन का एक अग, अपने द्वारा शुभाशुभ कर्मो का आगमन
गुणो को तथा दूसरो के दोपो को प्रकट (६०१-६०४)
न करना (२३९) आस्रव-अनुप्रेक्षा-वैराग्य-वद्धि के लिए मोह- उपधि-शक्ति की हीनतावश निर्ग्रन्थ साधु
के द्वारा ग्रहण किये जानेवाले आहार जन्य भावो को तथा मन वचन काय की प्रवृत्तियो की हेयता का चिन्तवन
__ आदि कुछ निर्दोष तथा शास्त्रसम्मत (५२२)
पदार्थ (३७७-३७८) आस्रवद्वार-कर्मागमन के मूल कारण
उपभोग-पुन पुन भोगे जाने योग्य वस्त्रामिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग
लकार आदि पदार्थ या विषय (३२३)
उपयोग-आत्मा का चैतन्यानुविधायी ज्ञानइन्द्रिय-ज्ञान के पाँच करण-स्पर्शन, रसना,
दर्शन युक्त परिणाम (६४९) घ्राण, नेत्र तथा श्रोत्र (४७)
उपवंहण-धार्मिक भावनाओ के द्वारा इहलोक-मनुष्य या तिर्यक् जगत् (१२७)
____ आत्मिक शक्तियो की अभिवृद्धि (२३८) ईर्या-समिति-गमनागमन विषयक यतना- उपशम-क्षमाभाव (१३६) चार (३९६)
उपशमक-कपायो का उपशमन करनेवाला उच्चार-समिति-दे० प्रतिष्ठापना समिति साधक (५५५) उत्तमार्थकाल-सलेखनायुक्त मरणकाल उपशमन-ध्यान-चिन्तन आदि के द्वारा (५७८)
__ कषायो को प्रशान्त करना (५५७)
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पारिभाषिक शब्दकोश
उपशान्त-कषाय-साधक की ग्यारहवी भूमि निमित्त से बन्ध को प्राप्त होनेवाला जिसमे कषायो का पूर्ण उपशमन हो कर्मजातीय सूक्ष्म पुद्गलस्कन्धरूप द्रव्य जाने से वह कुछ काल के लिए अत्यन्त कर्म जो ज्ञानावरण आदि आठ भेद रूप शान्त हो जाता है (५६०)
है । कर्म के फलोदय वश होनेवाले उपशान्त-मोह-उपशान्त-कपाय गुणस्थान
रागादि परिणाम भाव-कर्म है (सूत्र ६) का दूसरा नाम ।
कषाय-क्रोध, मान, माया और लोभरूपी उपाध्याय-चतुर्थ परमेष्ठी (१), आगम- आत्मघातक विकार (१३५-१३६) ज्ञाता साधु (१०)
कापोत-लेश्या-तीन अशुभ लेश्याओ में से ऊनोदरी-दे० अवमौदर्य
तृतीय या जघन्य (५३४, ५४१) ऋजुसूत्र-नय-भूत-भविष्यत् से निरपेक्ष कामभोग-इन्द्रियो द्वारा भोग्य विषय (४९)
केवल वर्तमान पर्याय को पूर्ण द्रव्य काय-अनेक प्रदेशो का प्रचय या समूह स्वीकार करनेवाली क्षणभगवादी दृष्टि जिससे युक्त द्रव्य कायवान् है (६५९)। (७०६-७०७)
जीव के पृथिवी आदि पाँच स्थावर ऋषि-ऋद्धि-सिद्धि-सम्पन्न साधु (३३६)
तथा एक त्रस ऐसे छ: जाति के शरीर एकत्व-अनुप्रेक्षा-वैराग्य-वृद्धि के लिए अपने
काय कहलाते हे (६५०) कर्मो का फल भोगने में सर्व जीवों की कायक्लेश-ग्रीष्म-ऋतु मे गिरि-शिखर पर असहायता का चिन्तवन (५१५)
उत्कट आसन लगाकर आतापन योग
धारण करना, और इसी प्रकार शरदएकेन्द्रिय केवल स्पर्शन इन्द्रियधारी पृथिवी,
ऋतु मे शीतयोग और वर्षाऋतु मे वर्षाजल, वायु, अग्नि व वनस्पति आदि जीव
योग धारण करना, एक तप (४५२) (६५०)
कायगुप्ति-काय-प्रवृत्ति का गोपन, सकोचन एवंभूत-नय-जिस शब्द का जिस क्रियावाला
(४१४) व्युत्पत्ति-लभ्य अर्थ होता है, उसके
कायोत्सर्ग-कुछ काल के लिए शरीर को द्वारा उस क्रियारूप परिणमित पदार्थ
काष्ठवत समझ धैर्यपूर्वक उपसर्ग सहन को ही समझना। जैसे गमनार्थक 'गो'
करने के रूप में किया जानेवाला शब्द के द्वारा चलती हुई गाय का ही
आभ्यन्तर तप (४३४-४३५, ४८०) ग्रहण करना, न कि बैठी हुई का (७१२
काल-समयप्रमाण एकप्रदेशी अमूर्त तथा ७१३)
निष्क्रिय द्रव्य, जो समस्त द्रव्यो के एषणा-समिति-भिक्षाचर्या विषयक विवेक
परिणमन मे सामान्य हेतु है (६२५-- यतनाचार (४०४-४०९)
६२९, ६३७-६३९) करण-प्रवृत्ति के साधन वचन व काय कुल-जीवो की १९९३ लाख करोड़ (६०१) अथवा इन्द्रियाँ।
जातियाँ (३६७) कर्म-मन वचन काय की शुभ या अशुभ कूटशाल्मली-नरको के अति पीड़ादायक
प्रवृत्ति या व्यापार (६०१)। उसके कँटीले वृक्ष (१२२)
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२६४
मत्तं
कृष्ण-लेश्या - तीन अशुभ लेश्याओं में से प्रथम या तीव्रतम (५३४, ५३९ ) केवलज्ञान - इन्द्रिय आदि से निरपेक्ष तथा सर्वग्राही आत्मज्ञान ( ६८४, ६८९ ) केवलदर्शन - केवलज्ञानवत् रुग्राही दर्शन (६२० )
केवललब्धि - केवलज्ञान की भाँति अर्हन्तो तथा सिद्धो की नव लब्धियाँ - अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्त सम्यवत्व, अनन्तचारित्र या सुख । तथा अनन्त दान, लाभ, भोग, उपभोग तथा वीर्य (५६२) केवलवीर्य - केवलज्ञानवत् जानने-देखने आदि
की अनन्तशक्ति ( ६२० ) केवलसुख- केवलज्ञानवत् इन्द्रियादि से निरपेक्ष अनन्तसुख या निराकुल आनन्द (६२० )
केवली - केवलज्ञान दर्शन आदि शक्तियो से सम्पन्न अर्हन्त परमेष्ठी (५६२-५६३) क्षपक- कषायो का क्षपण करनेवाला
साधक (५५५) क्षपण-ध्यान आदि के द्वारा कषायो को समूल नष्ट कर देना, जिससे वे पुन न उभरे (५५७)
क्षमा-दस धर्मो में से एक (८५, १३५) क्षीणकषाय-साधक की १२वी भूमि,
जिसमें कषायों का समूल नाश हो जाता है । (५६१) क्षीणमोह-क्षीणकषाय गुणस्थान का दूसरा
नाम ।
खेचर - विद्या के बल से आकाश मे विचरण करने में समर्थ मनुष्यों की एक जातिविशेष, विद्याधर ( २०४) खरकर्म-कोयला बनाना, पशुओ के द्वारा बोझ दुलाई इत्यादि ऐसे व्यापार जो
प्राणियों को पीडा पहुँचें विना हो नही सकते । (३२५)
गच्छ-तीन से अधिक पुरुषो या साधुओं का समूह (२६)
गण - तीन पुरुषो या साधुओ का समूह अथवा स्थविर साधुओ की परम्परा (२६)
गणधर - तीर्थकर के साधु-गण के नायक, जो अर्हन्तोपदिष्ट ज्ञान को शब्दबद्ध करते है (१९)
गति - भव से भवान्तर की प्राप्तिरूप चार गतियाँ - नारक, तिर्यञ्च, मनुष्य तथा देव (५२)
गर्हण - रागादि का त्याग कर गुरु के समक्ष
कृत दोपो को प्रकट करना ( ४३० ) गुण-द्रव्य के सम्पूर्ण प्रदेशो में तथा उसकी
समस्त पर्यायो में व्याप्त धर्म । जैसे मनुष्य में ज्ञान तथा आम्रफल में रस (६६१)
गुणव्रत - श्रावक के पाँच अणुव्रतो में वृद्धि करनेवाले दिक्, देश तथा अनर्थदण्ड नामक तीन व्रत ( ३१८)
गुणस्थान - कर्मो के उदयादि के कारण होनेवाली साधक की उत्तरोत्तर उन्नत १४ भूमिकाएँ (५४६ - ५४८ ) ( विशेष दे० सूत्र ३२)
गुप्ति समितियो में सहायक मानसिक वाचनिक तथा कायिक प्रवृत्तियों का गोपन ( ३८४, ३८६ ) ( विशेष दे० सूत्र २६-इ)
गुरु- सम्यक्त्वादि गुणो के द्वारा महान होने के कारण अर्हन्त सिद्ध आदि पच परमेष्ठी (६)
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पारिभाषिक शब्दकोश
गृहीत- मिथ्यात्व - (दे० अभिगृहीत मिथ्यात्व ) गोत्रकर्म - जिस कर्म के कारण जीव उच्च
तथा नीच कुल में जन्म लेता है (६६) गौरव - वचन, कला, ऋद्धि तथा समृद्धि के
कारण व्यक्ति में उत्पन्न होनेवाला अभिमान (३४८) ज्ञानावरण-जीव के ज्ञान गुण को आवृत या मन्द करनेवाला कर्म (६६) ग्रन्थ - २४ प्रकार का परिग्रह (१४३) घातीकर्म - जीव के ज्ञानादि अनुजीवी गुणो
का घात करनेवाले ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय नामक चार कर्म (७)
चतु - १
अर्थ- नय, २ कपाय, ३ गति, ४ निक्षेप, ५ पर्यायार्थिकनय, ६ शिक्षाव्रत सब चार-चार होते है । चतुरिन्द्रिय- स्पर्शन, रसना, घ्राण तथा नेत्र इन चार इन्द्रियोवाले भ्रमर आदि जीव (६५०)
चतुर्दश- १ आभ्यन्तर परिग्रह, २ गुणस्थान, ३ जीवस्थान, ४ मार्गणास्थान ये सब १४-१४ होते हैं ।
चारित्र - मन वचन काय की प्रवृत्ति में निमित्तरूप गुण - विशेष ( ३६ )
चेतना - जीव में ज्ञान दर्शन की तथा कर्तृत्व भोवतृत्व की निमित्तभूत मूलशक्ति (१८५)
च्यावित - शरीर - आत्म-हत्या द्वारा छूटनेवाला शरीर ( ७४२ ) च्युत-शरीर-आयु पूर्ण हो जाने पर स्वत छूटनेवाला शरीर ( ७४२)
छद्मस्थ - अल्पज्ञ ( ४९७) जिन - इन्द्रिय-जयी तथा कपाय -जयी वीतरागी अर्हन्त भगवान् (१३)
२६५
जीव - चार शारीरिक प्राणो से अथवा चैतन्य प्राण ने जीने के कारण आत्मतत्व ही जीव है ( ६४५), यह उपयोग लक्षणवाला (५९२६४९ ) क्रियावान् अमूर्त द्रव्य है, तथा गणना में अनन्त है ( ६२५६२८) ज्ञान की अपेक्षा सर्वगत होते हुए भी (६४८) प्रदेशो की अपेक्षा लोकाकाश - प्रमाण हैं जो अपनी सकोचविस्तार की शक्ति के कारण देहप्रमाण रहता है । (६४६-६४७)
जीवस्थान - जीवो के बस स्थावर, सूक्ष्म,
बादर आदि १४ भेद (१८२, ३६७ ) जुगुप्सा - अपने दोपो को तथा दूसरो के
गुणो को छिपाना, अथवा दूसरो के प्रति ग्लानि का भाव ( २३६)
तत्त्व - द्रव्य का अन्य निरपेक्ष निज-स्वभाव
या सर्वस्व (५०० ) तप-विषय-कपायों के निग्रह् अथवा इच्छाओं
के निरोध के लिए बाह्य तथा आभ्यन्तर रूप से की जानेवाली क्रियाएँ (१०२, ४३९)
तीर्थ - ससार मागर को पार करने के लिए तीर्थकर प्ररूपित रत्नत्रय-धर्म तथा
तद्युक्त जीव (५१४)
तेजोलेश्या - तीन शुभ लेग्याओ मे से जघन्य
या शुभ (५३४, ५४२ )
त्यवत - शरीर-सलेखना - विधि से छोडा गया शरीर (७४२)
स- रक्षार्थ या आहार आदि की खोज में स्वयं चलने-फिरने में समर्थ द्वीन्द्रियादि सभी जीव (६५० )
त्रि - १ गुणव्रत, २ गुप्ति, ३ गौरव,
४ दण्ड, ५ द्रव्यार्थिक- नय, ६. निर्वेद,
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२६६
समणसुत्तं
७. नैगम, ८ नय, ९ बल, १०. भुवन, द्रव्य-कर्म-जीव के रागादि भावो का निमित्त ११. मूढता, १२. योग, १३ लोक, पाकर उसके साथ बन्च को प्राप्त १४. वेद, १५ शब्दनय, १६. शल्य, हो जानेवाला सूक्ष्म पुद्गलस्कन्ध १७. सामायिक, १८. स्त्री, ये सब (६२, ६५४-६५५) तीन-तीन है।
द्रव्य-निक्षेप-आगामी परिणाम की योग्यता त्रीन्द्रिय-स्पर्शन, रसना, घ्राण इन तीन रखनेवाले किसी पदार्थ को वर्तमान में
इन्द्रियोवाले चीटी आदि जीव (६५०) ही वैसा कह देना, जैसे राजपुत्र को दण्ड-मन वचन काय (१०१)
राजा कहना (७४१-७४२) दमन-ज्ञान ध्यान व तप द्वारा इन्द्रिय- द्रव्य-प्रतिक्रमण-प्रतिक्रमणपाठ का उच्चाविषयों तथा कपायों का निरोध रण मात्र (४२२, ४३२) (१२७, १३१)
द्रव्य-लिंग-साधु का बाह्य वेश या चिह्न दर्शन-ज्ञान के विषयभूत पदार्थ का निरा- (३६०-३६२)
कार तथा निर्विकल्प प्रतिभास करने- द्रव्य-हिंसा-प्राणि-बध (३८९-३९०) वाली चेतनाशक्ति (३६)
द्रव्याथिकनय-पर्यायो को दृष्टि से ओझल दर्शनावरण-जीव के दर्शन-गुण को आवृत
करके द्रव्य को सदा अनुत्पन्न तथा अथवा मन्द करनेवाला कर्म (६६)
अविनष्ट देखनेवाली दृष्टि (६९४दश-बाह्य परिग्रह तथा धर्म दस-दस है ।
६९७) दान्त-इन्द्रियो तथा कषायो को दमन द्वन्द्व-इष्ट-अनिष्ट, दुख-सुख, जन्म-मरण, करनेवाला (१२७)
संयोग-वियोग आदि परस्पर-विरोधी दिग्वत-परिग्रह-परिमाणव्रत की रक्षार्थ ।
युगल भाव (१०५) व्यापार-क्षेत्र को सीमित रखने में
__ द्वादश-तप तथा श्रावक-व्रत १२-१२ है । __ सहायक गुणव्रत (३१९)
द्विपद-स्त्री, कुटुम्ब आदि (१४४) दुर्गति-नरक व तिर्यञ्च गतियाँ (५८७) दुर्नय-विरोधी धर्म की अपेक्षा को ग्रहण न
द्वीन्द्रिय जीव-स्पर्शन और रसना इन दो करनेवाली केवल अपना पक्ष पकड़ने
___ इन्द्रियोवाले केचुआ जोक आदि जीव
(६५०) वाली दृष्टि (७२५) देशव्रत या देशावकाशिकव्रत-देश-देशान्तर द्वेष-अनिष्ट या अरुचिकर पदार्थों के प्रति
में गमनागमन या व्यापार-सबधी अप्रीति का भाव (सूत्र ८) मर्यादारूप व्रत अथवा जिस देश में धर्म-जीव के निज-स्वभाव या तत्त्वरूप जाने से व्रतभग होने का भय हो वहाँ सम्यग्दर्शन आदि, अहिसा आदि, क्षमा जाने का त्याग (३२०)
आदि अथवा समता आदि भाव (८३, द्रव्य-गुणो और पर्यायो का आश्रयभतपदार्थ २७४, सूत्र १५)
(६६१) जो जीव पुद्गल आदि के भेद धर्म-अनुप्रेक्षा-वैराग्य-वृद्धि के लिए जन्मसे छह है (६२४)
जरामरणरूप इस दुखमय संसार मे
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पारिभाषिक शब्दकोश
धर्म का ही रक्षकरूप में चिन्तवन (५२५) धर्म-द्रव्य-जीव तथा पुद्गलो की गति मे सहायक हेतु लोकाकाश प्रमाण निष्क्रिय अमूर्त्त द्रव्य ( ६२५ -६३३ )
धर्म- ध्यान - आत्मा के अथवा अर्हन्त सिद्ध आदि के स्वरूप का एकाग्र चिन्तवन तथा मंत्र जाप्य आदि (५०५ ) ध्यान - आत्म-चिन्तवन आदि में चित्त की
एकाग्रता (४८५, सूत्र २९ ) धौव्य-द्रव्य का नित्य अवस्थित सामान्य भाव, जैसे बाल युवा आदि अवस्थाओ मे मनुष्यत्व (६६२–६६७)
नय - वक्ता ज्ञानी का हृदयगत अभिप्राय (३३), सकलार्थग्राही प्रमाणस्वरूप श्रुतज्ञान का विकलार्थग्राही एक विकल्प, अथवा वस्तु के किसी एक अंश का ग्राहक ज्ञान (६९० )
नव - केवललब्धि तथा तत्त्वार्थ नौ-नौ है । नाम-कर्म - जीव के लिए चारो गतियो मे
विविध प्रकार के शरीरो की रचना करनेवाला कर्म (६६) नाम-निक्षेप - अपनी इच्छा से किसी वस्तु
का कुछ भी नाम रसना ( ७३९ ) निःकांक्षा-वस्तु की तथा ख्याति-लाभ - पूजा
की इच्छा से रहित निष्काम भाव; सम्यग्दर्शन का एक अग (२३३ - २३५) निःशंका- किसी भी प्रकार के भय या आशका से रहित भाव; सम्यग्दर्शन का एक अग (२३२)
निःसंग - सभी बाह्य पदार्थों से तथा उनकी आकांक्षा से रहित निर्ग्रन्थ साधु (३४६ )
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२६७
निक्षेप - नाम अथवा स्थापना, द्रव्य और भाव द्वारा किसी पदार्थ को युक्तिपूर्वक जानने तथा जतलाने का माध्यम (२३, ७१७)
निदान मरने के पश्चात् पर-भव में मुखादि
प्राप्त करने की अभिलापा. (३६६) निमित्तज्ञान- तिल, मसा आदि देखकर भविष्य बतानेवाली विद्या अथवा ज्योतिष ( २४४)
निर्ग्रन्थ- ग्रन्थ और ग्रन्थिरहित अपरिग्रही, देखो निसग । निर्जरा-सात तत्त्वो में से एक, जिसके दो
भेद है, दुख-सुख तथा जन्म-मरण आदि द्वन्द्व से अतीत, जीव की केवल ज्ञानानन्दरूप अवस्था (६१७–६१९) अर्थात् मोक्ष (१९२, २११ ) निर्वाण - देखे मोक्ष |
निर्विचिकित्सा - जुगुप्सा का अभाव; सम्यग्दर्शन का एक अग ( २३६ ) निर्वेद - ससार, देह व भोग तीनों से वैराग्य (२२)
निश्चयनय - अनन्त धर्मात्मक वस्तु के अखण्ड तथा वास्तविक स्वरूप को दर्शानेवाला वह ज्ञान जो न गुण-गुणी रूप भेदोपचार करके व्याख्या करता है और न ही बाह्य निमित्त नैमित्तिक सम्बन्धरूप कोई अभेदोपचार स्वीकार करता है (३५) | जैसे कि मोक्षमार्ग को सम्यग्दर्शन आदि रूप से त्रयात्मक न कहकर सर्व पक्षो से अतीत निर्विकल्प कहना ( २१४), अथवा जीव-वध को हिसा न कहकर रागादि भाव को ही हिसा कहना (१५३)
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२६८
समणसुत्तं नील-लेश्या-तीन अशुभ लेग्याओ में से पर-द्रव्य-आत्मा के अतिरिक्त देह आदि
द्वितीय या तीव्रतर (५२८, ५४०) सहित सर्व पदार्थ (५८७) नैगम-नय-संकल्प मात्र के आधार पर गत पर-भाव-आत्मा के शुद्ध स्वभाव के अति
पदार्थ को अथवा अनिप्पन्न या अर्ध- रिक्त उसके रागादि सर्व विकारी भाव निष्पन्न पदार्थ को वर्तमान में अवस्थित तथा अन्य सर्व पदार्थो के रूप रम आदि या निप्पन्न कहना (७००-७०३) भाव (१८८-१९१), तत्त्व या वस्तु (विशेष दे० भूत वर्तमान व भावि का युद्ध स्वभाव (५९०) नैगम नय)
परमभाव-तत्त्व या वस्तु का शुद्ध स्वभाव नैमित्तिक-निमित्तज्ञानी (२४४)
(५९०) नोआगम-निक्षेप-किसी पदार्थ के ज्ञाता परमाणु-सर्व स्कन्धो का मूल कारण,
व्यक्ति के कर्म व शरीर को वह पदार्थ केवल एकप्रदेशी, अविभाज्य, सूक्ष्म, कह देना, जैसे मैकेनिक के मृत शरीर पुद्गल द्रव्य (६४३, ६५२) को 'यह मैकेनिक था' ऐसा कहना परमात्मा-अप्ट कर्म से रहित तथा आत्मा के (१४१, ७४४)
शुद्ध स्वरूप में अवस्थित अर्हन्त तथा नोकर्म-देह आदि को लेकर जितने कुछ सिद्ध (१७८-१७९) ।
भी दृष्ट पदार्थ है अथवा उनके कारण- परमार्थ-तत्त्व या वस्तु का शुद्ध स्वभाव भूत सूक्ष्म स्कन्ध है वे सब कर्म निमित्तक
(५९०) होने से नोकर्म कहलाते है।
परमेष्ठी-मुमुक्षु के लिए परम इष्ट तथा नो-इन्द्रिय-किचित् इन्द्रिय होने के कारण
मगलस्वरूप अर्हन्त, सिद्ध, आचार्य, __ मन का नाम ।
उपाध्याय व साधु (१-२) पंच-१ अजीव, २ अणुव्रत, ३ इन्द्रिय,
परलोक-मृत्यु के पश्चात् प्राप्त होनेवाला ४ उदुम्बर फल, ५ गुरु, ६ ज्ञान,
अन्य भव (१२७) ७ महाव्रत, ८ समिति, ९ स्थावर जीव पाँच-पाँच है।
परसमय-आत्म-स्वभाव के अतिरिक्त अन्य
पदार्थो में अथवा अन्य भावो में इप्टापंचेन्द्रिय-स्पर्शनादि पाँचो इन्द्रियोवाले
निष्ट की कल्पना करनेवाला मिथ्यादृष्टि मनुष्यादि जीव (६५०)
(१९४-१९५), अन्य मत (२३, पण्डित-अप्रमत्त ज्ञानी (१६४-१६५)
७३५), पक्षपात (७२६-७२८) तिमरण-अप्रमत्त ज्ञानियो का सले-
टेट आदि सहित आत्मातिरिक्त खनायुक्त मरण (५७०-५७१)
जितने भी पर-पदार्थ या पर-भाव है पदस्थ ध्यान-विविध मत्रो की जाप करने
उनका ग्रहण या सचय व्यवहार-परिग्रह मे मन का एकाग्र होना (४९७)
है, और उन पदार्थो मे इच्छा तथा पद्म-लेश्या-तीन शुभ लेश्याओ मे से द्वितीय
ममत्व भाव का ग्रहण निश्चय-परिग्रह या शुभतर (५३४, ५४३)
है (सूत्र ११), (३७९)
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पारिभाषिक शब्दकोश
परिभोग - दे० 3भोग
परीषह - मार्ग से च्युत न होने के लिए तथा कर्मों की निर्जरा के लिए भूख-प्यास आदि सहन करना (५०३ ) परोक्षज्ञान- इन्द्रिय व मन की सहायता से
होनेवाला मति और श्रुतज्ञान ( ६८७ ) पर्यकासन- दोनो जघाओ को मिलाकर ऊपर-नीचे रखना (४८९ )
पर्याय-वस्तु की उत्पन्न-ध्वसी परिणमनशील अवस्थाएँ, अथवा गुणो का विकार । जैसे मनुष्य की वाल युवा आदि अवस्थाएं अथवा रस गुण के खट्टेमीठे आदि विकार (६६१-६६७) पर्यायार्थिक नय - त्रिकाली द्रव्य को दृष्टि से ओझल करके उसकी वर्तमान समयवर्ती किसी एक पर्याय को ही स्वतंत्र सत्ताधारी पदार्थ के रूप में देखना ( ६९४ - ६९३), ऋजुसूत्रादि के भेद से चार प्रकार की (६९९) पिण्डस्थ-ध्यान- अर्हन्त व सिद्ध का अथवा
देहाकार आत्मा का ध्यान ( ४९७ ) पीत-लेश्या-दे० तेजोलेश्या
पुद्गल - परमाणु और स्कन्धरूप सक्रिय तथा मूर्त्त भौतिक द्रव्य जो नित्य पूरण गलन स्वभावी हैं (६२५–६२८, ६४०-६४४)
प्रतिक्रमण - निन्दन गर्हण आदि के द्वारा कृत दोषो का शोधन ( ४३० )
प्रतिलेखन - वस्तु को उठाते-धरते अथवा उठते-बैठते समय उस स्थान को जीव रक्षा के भाव से अच्छी तरह देखना (४१०)
२६९
प्रतिष्ठापना समिति - मल-मूत्र आदि के निक्षेपण या विसर्जन में विवेकयतनाचार (४११)
प्रत्यक्षज्ञान- इन्द्रिय व मन से निरपेक्ष केवल आत्मोत्थ ज्ञान ( ६८६)
प्रत्याख्यान - आगामी दोषो के त्याग का सकल्प (४३६-४३८)
प्रदेश- एक परमाणु-परिमाण आकाश इसी प्रकार जीवादि सभी द्रव्यों में प्रदेश की स्थिति (६२०, ६५७ ) प्रमत्त - आत्म-स्वभाव के प्रति सुप्त या अजागरूकता ( १६२ - १६४ ) अथवा राग-द्वेष-रत (६०१ )
प्रमत्त-संयत-साधक की पष्ठ भूमि जहाँ सयम के साथ-साथ मन्द रागादि के रूप में प्रमाद रहता है (५५४) प्रमाण - सशयादिरहित सम्यग्ज्ञान ( ६८५ ) प्रमाद - आत्म- प्रसुप्ति, चारित्र के प्रति
अनुत्साह तथा अनादर (सूत्र १३ ) प्रमादचर्या -बैठे-बैठे अपने आमन में से सूत या तिनके तोडते रहना, पानी का नल खुला छोड देना इत्यादि अप्रयोजनीय सावद्यक्रिया (३२१ )
प्रमार्जन वस्तुओं को उठाते-धरते या उठते
बैठते समय उस स्थान को क्षुद्र जीवो की रक्षा के लिए किसी कोमल उपकरण से झाडना ( ४१० )
प्रवचनमाता - मातृवत् रत्नत्रय की रक्षक रूप पचसमिति और तीन गुप्ति (३८५) प्राण - मन-वचन-काय रूप तीन बल, पाँच इन्द्रियों, आयु और श्वासोच्छ्वास ये दस प्राण है ( ६४५)
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२७०
समणसुत्तं
प्रासुक-जीवो के सयोग अथवा सवार से भय-सात है-इहलोक-भय, परलोक-भय,
रहित भोजन (४०९), भूमि (५७६), वेदना-भय मृत्यु-भय, अरक्षा-भय, मार्ग (३९६) इत्यादि ।
अगुप्ति-भय और आकस्मिक-भय प्रोषधोपवास-एक बार भोजन करना प्रोपध
है और बिलकुल भोजन न करना भव-देह से देहान्तर की प्राप्ति के रूप मे उपवास । पर्व से पहले दिन सबेरे के चतुर्गति-भ्रमण (१८२) समय और उसके अगले दिन सन्ध्या के भारण्ड पक्षी-पक्षी-विशेष जिसके एक समय केवल एक-एक बार भोजन करना
शरीर में दो जीव, दो ग्रीवा और तीन और पर्ववाले दिन दोनो समय भोजन पैर होते है । जब एक जीव सोता है न करना । इस प्रकार १६ प्रहर तक
तब सावधानी के लिए दूसरा जागता सर्व आरम्भ का तथा भोजन का त्याग
___ रहता है (१६३) (३२९)
भाव-कर्म-द्रव्य-कर्म की फलदान-शक्ति बन्ध-जीव के रागादि परिणामो के निमित्त
___ अथवा उसके उदयवश होनेवाले जीव के से, कर्म-जातीय सूक्ष्म पुद्गल परमाणुओ
रागादिक भाव (६२) का जीव के प्रदेशो में अवस्थित हो
भाव-निक्षेप-विवक्षित पर्याययुक्त वस्तु जाना (५५६-५५७)
को ही उस नाम से कहना, जैसे कि बल-तीन है-मन वचन व काय (६४५)
राज्यनिष्ठ राजा को राजा कहना बहिरात्मा-देह को आत्मा माननेवाला (७४३-७४४) ___ मिथ्यादृष्टि (६९)
भाव-प्रतिक्रमण-दोष-शुद्धि के लिए किया बाल-अज्ञानी, मिथ्यादृष्टि (५०, २७२) गया आत्मनिन्दन व ध्यान आदि बाह्य-क्षेत्र मकान आदि दस प्रकार का
(४३१-४३२) परिग्रह (१४८) अनशन आदि छह
भाव-लिग-साधु का नि सग तथा निष्कषाय प्रकार का तप (४४१) देह कृशता
रूप समताभाव (३६३) रूप सलेखना (५७४) इत्यादि। भाव-हिंसा-आत्महननस्वरूप रागादि की बोधि-रत्नत्रय (५८०-५८१)
उत्पत्ति के रूप में होनेवाली हिंसा भक्त-प्रत्याख्यान-सलेखनाविधि मे शरीर (१५३, ३८९-३९२)
कृश करने के लिए धीरे-धीरे भोजन भावि नैगमनय-सकल्पमात्र के आधार पर त्याग करने की प्रक्रिया-विशेष (५७३) अनिष्पन्न पदार्थ को भी उसी नाम से भंग-स्याद्वाद-न्याय के अनुसार अनेकान्त
कहना जैसे कि पाषाण को प्रतिमा रूप वस्तु के जटिल स्वरूप का
कहना (७०३) प्रतिपादन परस्पर विरोधी प्रत्येक __भाषा-समिति-बोलचाल विषयक विवेकधर्म-युगल में सात-सात विकल्प उत्पन्न यतनाचार (३९१-४०३) करके करने की पद्धति (सूत्र ४०) भुवन-तीन है-ऊर्ध्व, मध्य व अधो (७)
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पारिभाषिक शब्दकोश
भूत नैगमनय - सकल्पमात्र के आधार पर गत पदार्थ को वर्तमान में अवस्थित कहना । जैसे 'आज दीपावली के दिन भगवान दीर निर्वाण को प्राप्त हुए ' (७०१) भोग- परिभोग परिमाण - व्रत- भोगलिप्सा को नियन्त्रित करने के लिए भोग तथा परिभोग की वस्तुओं के ग्रहण को सीमित करना ( ३२५) मतिज्ञान- दे० आभिनिवोधिक ज्ञान
मद-गर्व आठ है - कुल, जाति, लाभ, बल, रूप, ज्ञान, तप, सत्ता (८८, १८७ ) मनःपर्यव ज्ञान --दूसरे की मन की बात प्रत्यक्ष जान लेनेवाला ज्ञान ( ६८२, ६८९ ) मनोगुप्ति- मन की प्रवृत्ति का गोपन (४१२)
ममकार - आत्मातिरिक्त देहादि अन्य पदार्थो में मै-मेरेपन का भाव (१८६, ३४६ ) ममत्व - ममकार (७९, १४२) मल - कर्म स्कंध (५८) महाव्रत-साधुओ के सर्वदेशव्रत । देखे--व्रत । माध्यस्थ्य भाव - मोह क्षोभविहीन समता
या विश्रान्त भाव ( २७४-२७५) मार्ग मोक्ष का उपाय ( १९२ ) मार्गणास्थान - जिन-जिनके द्वारा जीवों का
अन्वेषण (खोज) किया जाय, वे सब धर्म १४ है - गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, सयम, दर्शन, लेश्या, भव्यत्व, सम्यक्त्व, सज्ञित्व, आहारकत्व
(१८२, ३६७)
मार्दव - अभिमानरहित मृदु परिणाम, दस धर्मो में से द्वितीय (८८) मिथ्यात्व या मिथ्यादर्शन- तत्त्वो अश्रद्धान या विपरीत श्रद्धान
का और
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२७१
तत्परिणामस्वरूप यथार्थ धर्म में अरुचि । १४ गुणस्थानो में प्रथम (६८, ५४९)
मिश्र - साधक की तृतीय भूमि जिसमे उसका परिणाम दही व गुड मिश्रित स्वाद की भाँति, सम्यक्त्व तथा मिथ्यात्व के मिश्रण जैसा होता है (५५१)
मूर्च्छा-इच्छा या ममत्वभाव मोहान्धता या आसक्ति ( ३७९, १४२ )
मूढ़ता - रूढिगत भेडचाल की स्वीकृतिरूप मिथ्या अन्ध-विश्वास, जो तीन प्रकार का है - लोकमूढता, देवमूढता, गुरुमूढता (१८६)
मूर्त - इन्द्रियग्राह्य होने से मात्र पुद्गल द्रव्य (५९५, ६२६ )
मोक्ष - सकल कर्मो का नाश हो जाने पर जीव का केवलज्ञानानन्दमय स्वरूप को प्राप्त होकर, देह के छूट जाने पर, ऊर्ध्वगमन स्वभाव के द्वारा ऊपर लोक के अग्रभाग में सदा के लिए स्थित हो जाना (६१४-६२३), मुक्ति या निर्वाण । मोह - श्रेयाश्रेय विवेक से विहीन भाव अर्थात् मिथ्यादर्शन । यही राग-द्वेष का तथा कर्मबन्ध का मूल है (७१) मोहनीय - मद्यपान की भाँति श्रेयाश्रेय के विवेक को नष्ट करनेवाला प्रबल कर्म (६६, ६१३)
योग - मन वचन काय की चेष्टा का कारणभूत अन्तरग प्रयत्न या वीर्यपरिणाम (६०३)
योनि - जीवो की उत्पत्ति के योग्य ८४ लाख स्थान (३६७)
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समणसुत्तं
रत्नत्रप-मोक्षमार्गरूप सम्यग्दर्शन, सम्य- वर्तमान नैगमनय-सक पमात्र के आधार
रज्ञान और सम्यक्चारित्र (सूत्र १७) पर कोई काम प्रारम्भ करते समय ही रस-परित्याग-स्वाद-विजय के लिए धी दूध उसे हो गया कहना। जैसे भात पकाना
नमक आदि रसो के त्यागरूप में एक प्रारम्भ करते ही कह देना कि 'भात पक बाह्यतप (४५०)
गया' (७०२) राग-इप्ट-विषयो के प्रति प्रीति का भाव विरताविरत-साधक की पचम भूमि जिसमे (सूत्र ८)
त्रस-हिसा आदि स्थूल पापो के प्रति तो रूक्ष-परमाणु का विकर्षण गण जो आकर्षण
माविकर्षण गण जो आकर्षण विरक्ति हो जाती है, परन्तु स्थावर के साथ मिलने पर बन्ध का मूल हेतु हिसा आदि सूक्ष्म पापो से विरति नही होता है (६५२)
होती (५५३) रूपस्थध्यान-अनेक विभूति-सम्पन्न अर्हन्त विरागचारित्र या वीतरागचारित्र-वाह्याका ध्यान (४९७)
भ्यन्तर सकल परिग्रह के पूर्ण त्यागरूप रूपातीतध्यान-केवलज्ञान-शरीरी सिद्ध निरपवाद उत्सर्ग चारित्र (४२१)
भगवान् का अथवा तत्सदृश निज विविक्त शय्यासन-एकान्तवास (४५१) शुद्धात्मा का ध्यान (४९७)
शेषवि-दूसरे की अपेक्षा विसदृश परिणाम, लिग-बुद्धि या अनुमान ज्ञान (१८५), जैसे बाल्यावस्था और वृद्धावस्था परस्पर साधु का वाह्याभ्यन्तररूप (सूत्र २४
_ विसदृश होने से मनुष्य के विशेष -आ)
धर्म है (६६८) लेश्या-मन वचन काय की कपाययुक्त वीरासन-दोनो पैरो को दोनो जघाओ के
वत्तियाँ जिनके स्वरूप का कथन कृष्ण ऊपर रखना (४५२) नील आदि छह रगो की उपमा द्वारा वेदनीय-दुख-सुख की कारणभूत बाह्य किया गया है (मूत्र ३१)
सामग्री के सयोग-वियोग में हेतुरूप लोक-असीम आकाश का मध्यवर्ती वह कर्म (६६), इसके दो भेद है।
पुरुपाकार क्षेत्र जिसमे छह द्रव्य अवस्थित वैतरणी-नरक की अति दुर्गन्धित रक्त व है (६३६, ६५१)। यह तीन भागो मवाद मय नदी (१२२) में विभक्त है-जधालाक (नरक), वैयावत्य-रोगी, ग्लान व श्रमित श्रमण मध्यलोक (मनुप्य व तिर्यञ्च) और
आदि की प्रेमपूर्ण सेवा (४७३-४७४) अवलोक (स्वर्ग) ( देखे पृष्ठ २१०) लोकान-लोकाकाश का शीर्ष भाग (५६५,
वृत्ति-परिसंख्यान-अटपटे अभिग्रह लेकर
भिक्षाचर्या के लिए निकलना (४४९) ६२१) लोकान्त-लोक का अन्तिम भाग अर्थात् व्यय-द्रव्य में नित्य होता रहनेवाला पूर्वलोकशिखर (६१४)
पूर्व पर्यायो का नाश (६६६-६६७) वचनगुप्ति-वचन की प्रवृत्ति का गोपन व्यवहार-नय-अनन्त धर्मात्मक वस्तु के एक
___रसात्मक भाव का गुण-गुणी आदि रूप
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पारिभाषिक शब्दकोश
२७३
विश्लेपण द्वारा भेदोपचार कथन, अथवा शील-साधु के अनेक गुण (५५५) अन्य वस्तुओ के साथ निमित्तक- शीलवत-श्रावक के पाँच अणुव्रतो के रक्षक नैमित्तिक सम्बन्धरूप अभेदोपचार तीन गणव्रत और चार शिक्षाव्रत कथन (३५)। जैसे अखण्ड मोक्षमार्ग (३००) को सम्यग्दर्शन आदि तीन रूप से कहना शक्ललेश्या-तीन शभ लेश्याओ मे से अन्तिम (२१४) अथवा दूसरे प्राणी के घात
उत्कृष्ट या शुभतम (५३४, ५४४) को हिमा कहना (३८८-३९२)
शुद्धभाव-कर्मो के उदय उपशम व क्षय व्यसन-टेव या बुरी आदते । जूआ खेलना, आदि से निरपेक्ष जीव का त्रैकालिक पर-स्त्री गमन करना आदि सात व्यसन
स्वभाव या तत्त्व (१८८, ५९०) है । अन्य सभी कुटेवो का इन्हीमे ।
शुद्धोपयोग-ज्ञान व चारित्रयुक्त साधु की, अन्तर्भाव हो जाता है (३०३)
शुभाशुभ भावो से निरपेक्ष, केवल आत्मा व्रत-हिसा आदि पापो से विरति । एकदेश
के शुद्धस्वभाव में अवस्थिति अथवा तथा सर्वदेश के भेद से व्रत दो प्रकार
मोह क्षोभ विहीन साम्यभाव (२७४-- का है । एकदेश-व्रत अणुव्रत कहलाता २७९) है और सर्वदेश-व्रत महाव्रत (३००)
शौच-लोभ व तृष्णारहित सन्तोपभाव दस (मूत्र २५)
धर्मो में से शब्द-नय-पदार्थो के वाचक शब्दो मे ही
श्रमण-मोक्षमार्ग में श्रम करने के कारण जिनका व्यापार होता है, वे नय शब्दनय
समताधारी (३४१) निर्ग्रन्थ तथा कहलाती है, जो तीन प्रकार की है-शब्द,
__ वीतरागी (८२१), सयतजन (३३६) समभिरूढ ओर एवभूत । ये उत्तरोत्तर
(मूत्र २८) सूक्ष्म है (६९९) । इनमें मे प्रथम शब्दनय लोकगास्त्र में स्वीकृत एकार्थवाची
श्रमण-धर्म-इसमें ध्यानाध्ययन की प्रमुखता हाब्दो में से समान लिग, कारक आदि
होती है। (२९.) (सूत्र २४) वाले गब्दो को ही एकार्थवाची मानता श्रावक-गुरमुख से धर्मोपदेश सुननेवाला है, असमान लिग आदिवालो को नही धर्मात्मा अविरत या अगुव्रती गृहस्थ
(७०८) शय्यासन-माधु के बैठने, साने आदि के श्रावक-धर्म-इसमें दया, दान, भक्ति, विनय
उपकरण फलक, पाटा आदि (८७३) आदि की प्रमुग्यता होती है (२९७) शल्य-कॉटे की भाँति पीडाका, माया,
(विशेप दे० मूत्र २३) मिथ्या व निदान नानक तीन भावरूप श्रुत-शास्त्र या आगम (१७८)
पारमाथिक गल्य (५७७-५७९) श्रुतज्ञान-धुंआ देखक र अग्नि को जानने की शिक्षाव्रत-श्रमण-धर्म की शिक्षा या अभ्यास भाँति अर्थ में अर्थान्तर का ग्रहण करने
मे हेतुरूप सामायिक आदि चार-त्रत वाला मन व इद्रियो की सहायता से (३२४)
होनेवा परोक्षजान । वाचक से १८
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२७४
समणसुत्तं वाच्यार्थ को ग्ररण करनेवाला शब्द- संस्तर-मलेवनाधारी साध के लिए झाडलिगज ज्ञान । (६७८)
बहारकर तैयार की गयी निर्जन्तु भूमि पड-१ जाश्यन्तर तप, आवश्यक, अथवा घास का विछौना (५७६)
३ जीव काय, ४ द्रव्य, ५ बाह्यतम, संस्थान-गरीर तथा अन्य पुद्गल-स्कन्धो ६ लेण्या, ७ स्कन्ध ये सव छह- के विविध आकार (१८३, ६५३)
संहनन-देस्थित अस्थियो के न या कमसंग-देहसहित समस्त वाह्याभ्यन्तर परि- जोर बन्धन तथा जोड आदि । यह छह ग्रह (३६३, १४३-१४८)
प्रकार का है (१८३) संग्रहनय-लोक स्थित समस्त जड-चेतन सप्त-१ तत्त्व, २ नय, ३ भग, ४ भय, द्रव्यो में अस्तित्व सामान्य की अपेक्षा
५ व्यसन, ६ समुद्घात सव सातएकत्व की, अथवा प्रत्येक जाति के सान है। अनेक द्रव्यो म उस जाति की अपेक्षा समता-सग्व-दुख छात्र-मित्र आदि द्वन्द्वो मे एकत्व की दृष्टि (७०४)
यमान रहनेवाला वीतरागियो का मोह संघ-रत्नत्रय आदि अनेक गुणो से युक्त क्षोभ विहीन परिणाम (२७९, ३४९, श्रमणो का समुदाय (सूत्र ३) ।
२७४) सज्ञा-दन्द्रिय ज्ञान (६७७) अथवा आहार समभिरुढ-नय-तीन गव्द नयो में से
भय मैथुन निद्रा परिग्रह आदि की द्वितीय, जो प्रथम नय के द्वारा स्वीकृत वासनाएं।
समान लिग आदिवाले एकार्थवाची संयम-व्रत समिति आदि का पालन, मन, शब्दो में भी अर्थभेद मानता है वचन, काय का नियन्त्रण, इन्द्रिय-जय, (७११) और कपाय निग्रह आदि सब भाव । समय--आत्मा (२६), धर्म पथ या मत
(१०१) (सून १०) सरम्भ-कार्य करने की प्रयत्नशीलता समयसार-- दिवाल्पो से अतीत आत्मा (४१२-४१८)
क गुद्ध स्वभाव (२१४) (दे० शुद्ध संबर-सम्बनबादि द्वारा नवीन कर्मो का भाव) __ आगमन रोकना (६०-६०८) समाधि-अन्ना का निर्विकल्प ध्यान संदेग-धर्म के प्रति अनुराग (७७)
(८२६) अथवा शास्त्राध्यान में संशय-मिथ्यात्व-तन्धो के रकस्म में गा है त मानता (१०८) ___ या रोपा के ना देर में रहना (५४९) सायन-ार्य प्रारम्भ करने के लिए संसार-न्म-
म रपनगरण (५:--', ४) मा. ना (८६३-४९८) ससार-अनक्ष-गग्य-वदि के लिए समिति-ना का प्रति (३८:
ससार ने जम-मरण मा देवते गए ८८) (विशेप दे० सूत्र २६) इससे मस्त होने की भावना का पुन रामबहाना आदि के निति रो, देह पुन. चिन्तवन (५८)
__. ति आमा के कुछ प्रदेशो का देश
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पारिभाषिक शब्दकोश
से बाहर निकलकर फैल जाना । यह सात प्रकार का होता है ( ६४६ ) सम्यक्त्व - ३० सम्यग्दर्शन
सम्यक्चारित्र-व्रत-समिति आदि का पालन व्यवहार चारित्र है (२६३) और निजस्वरूप में स्थितिस्वरूप (२६८) मोह-क्षोभविहीन समता या प्रशान्त भाव निश्चय - चारित्र है ( २७४ ) सभ्य मिथ्यात्व दे० मिश्र
शास्त्रज्ञान
सम्यग्ज्ञान- सम्यग्दर्शन-युक्त व्यवहार-सभ्यग्ज्ञान (२०८, २४५) और रागादि की निवृत्ति में प्रेरक शुद्धात्मा का ज्ञान निश्चय - सम्यग्ज्ञान
(२५० - २५५)
सम्यग्दर्शन - सप्त-तत्त्व का श्रद्धान व्यवहार-सम्यग्दर्शन और आत्मरुचि निश्चय सम्यग्दर्शन (२२०-२२१) सयोगी- केवली - साधक की तेरहवी भूमि जहाँ पूर्णकाम हो जाने पर भी देह शेष रहने से प्रवृत्ति बनी रहती है । अर्हन्त या जीवन्मुक्त अवस्था (५६२-५६३) सराग चारित्र - व्रत समिति गुप्ति आदि का
धारण व पालन होने पर भी, राग भाव के कारण, जिस चारित्र में आहार तथा योग्य उपाधि के ग्रहणस्वरूप कुछ अपवाद स्वीकार कर लिया जाता है । निश्चय चारित्र का साधन । ( २८० ) सलेखना-सयम की सामर्थ्य न रहने पर, देह का युक्त विधि से समतापूर्वक त्याग करना (सूत्र ३३ )
सामाचारी - धर्मोपदेश ( ३०१ ) । सामाचारी दम है।
सामान्य - अनेक विसदृश पदार्थो मे एक सदृश परिणाम, जैसे कि बाल्यावस्था
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तथा वृद्धावस्था में मनुष्यत्व (६६७६६८) सामायिक- पापारम्भवाले समस्त कार्यो मे निवृत्ति व्यवहार सामायिक है । (४२७ ) और तृण कचन आदि में (४२५) अथवा सर्वभूतो में समभाव (४२८) निश्चय सामायिक है । सावद्य - प्र - प्राणी-पीड़ाकारी प्रवृत्ति, भाषा तथा कार्य (३२६, ३९१, ४२७ )
सासादन - साधक की द्वितीय भूमि । इसकी प्राप्ति एक क्षण के लिए उस समय होती है जब साधक कर्मोदयवश सम्यक्त्व से च्युत होकर मिथ्यात्वअभिमुख होता है, परन्तु साक्षात् मिथ्यात्वावस्था में प्रविष्ट नही हो पाता ( ५५० )
सिवथ - भात का कण या चावल (४४८ ) सिद्ध- १४ भूमियो का अतिक्रम कर लेने
पर आठ कर्मो का नाश हो जाने से अष्ट गुणो की प्राप्ति के फलस्वरूप देह छोड़कर लोक के शिखर पर जानेवाला (५६६)
सिद्धि - मोक्ष प्राप्ति (६२१ )
सुनय - अपेक्षावाद के द्वारा विरोधी-धर्म का समन्वय करनेवाली निष्पक्ष दृष्टि (७२५)
सूक्ष्म- कषाय- दे० सूक्ष्म साम्पराय सूक्ष्म-सराग - दे० सूक्ष्म साम्पराय
सूक्ष्म साम्वराय - साधक की दसवी भूमि जहाँ सब कषाऍ उपशान्त या क्षीण हो जाने पर भी, लोभ या राग का कोई सूक्ष्म लव जीवित रहता है (५५९)
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________________ 276 समणसुत्त स्कन्ध-दो या अधिक परमाणुओ के सयोग स्यात्-'ऐसा ही है', ऐसे एकान्त हट का से उत्पन्न, द्वयणक आदि छह प्रकार निषेध करके 'कञ्चित् ऐसा भी है' के सूक्ष्म-स्थूल भौतिक तत्त्व (660- इस प्रकार का समन्वय स्थापित करने६६१, 648-650) वाला एक निपात (715) स्त्री-तीन प्रकार की--मनष्यणी, तिर्य- स्याद्वाद--'स्यात्' पदयुक्त वावय द्वारा, चिनी और देवी (374) वस्तु के जटिल स्वरूप का विवेचक स्थापना-निक्षेप-किसी पुरुष या पदार्थ के हा समन्वयकारी न्याय (सूत्र 40) चित्र को, प्रतिमा को अथवा किसी स्व-द्रव्य-शुद्ध-आत्मा (587) पदार्थ में कल्पित आकार को 'यह वही हैं स्व-समय-शुद्ध आत्मा में ही अपनत्व का है' ऐसा मानकर विनय आदि रूप द्रष्टा सम्यग्दृष्टि स्व-समय है (271), व्यवहार करना (740) / स्व-मत (23, 735), परस्पर विरोधी मतो का युक्तिपूर्ण समन्वय, स्थावर-पृथिवी, अप, तेज, वायु और साधक का निप्पक्ष भाव (726) वनस्पति इन पाँच कायोवाले एकेन्द्रिय __ स्वाध्याय-शास्त्राध्ययनरूप तप, जो पाँच जीव (650) प्रकार का है (475) स्थितिकरण-किसी कारणवश अधर्ममार्ग हिसा-जीव-वध या प्राणातिपात व्यवहारमें प्रवृत्त हो जाने पर अपने को या या हिसा है (389) और रागादि की साधर्मी बन्धु को विवेकपूर्वक धर्ममार्ग में उत्पत्ति (153) अथवा अयतनाचारपुन आरूढ़ करना (240-241) रूप प्रमाद (157) निश्चय हिसा है। स्नग्ध-परमाणु का आकर्षण गुण जो हिंसादान-प्राणि-पीडावारी या वधकारी विकर्षण का योग पाकर बन्ध का हेतु उपकरण (कस्सी, कुदाली, चूहेदानी हो जाता है (652) आदि) का लेन-देन (321)