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अथवा भक्ति ज्ञान कर्म की समन्वित त्रिवेणी में धुल जाती है। इष्टानिष्ट के समस्त द्वन्द्व समाप्त हो जाते है तथा समता व वात्सत्य का झरना फट पड़ता है। सासारिक भोगों के प्रति विरत होकर उसका चित्त प्रशान्त हो जाता है। घर मे रहते हुए भी वह जल मे कमल की भाँति अलिप्त रहता है। व्यापारधन्धा आदि सब कुछ करते हुए भी वह कुछ नहीं करता। श्रावक तथा क्रमश. श्रमण धर्म का अवलम्बन लेकर उसका चित्त सहज ही ज्ञान-वैराग्य तथा ध्यान की विविध श्रेणियों को उत्तीर्ण करते हुए धीरे-धीरे ऊपर उठने लगता है, यहाँ तक कि उसकी समस्त वासनाएँ निर्मूल हो जाती है, ज्ञान-सूर्य पूरी प्रखरता के साथ चमकने लगता है और आनन्द-सागर हिलोरे लेने लगता है। जब तक देह है, तब तक वह अर्हन्त या जीवन्मुक्त दशा में दिव्य उपदेशो के द्वारा जगत् मे कल्याणमार्ग का उपदेश करते हुए विचरण करता है, और जव देह स्थिति या आयु पूर्ण हो जाती है तब सिद्ध या विदेह दशा को प्राप्त कर सदा के लिए आनन्द-सागर में लीन हो जाती है।
ततीय खण्ड 'तत्व-दर्शन' है, जिसमे जीव-अजीव आदि सात तत्त्वों का अथवा पुण्य-पाप आदि नौ पदार्थो का विवेचन है। जीवात्मा पुद्गल-परमाणु आदि षट् द्रव्यों का परिचय देकर उनके सयोग व विभाग द्वारा विश्व सष्टि की अकृत्रिमता तथा अनादि-अनन्तता प्रतिपादित की गयी है।
चतुर्थ खण्ड ‘स्याद्वाद' है। ऊपर अनेकान्त का सक्षिप्त परिचय दिया जा चका है। यही जैनदर्शन का प्रधान न्याय है। इस खण्ड मे प्रमाण, नय, निक्षेप, व सप्तभगी जैसे गढ व गम्भीर विषयो का हृदयग्राही, सरल व सक्षिात परिचय दिया गया है । अन्त मे वीरस्तवन के साथ ग्रन्थ समाप्त होता है।
कहा जा सकता है कि इन चार खण्डों में अथवा ७५६ गाथाओं मे जैनधर्म, तत्त्व-दर्शन तथा आचार-मार्ग का सर्वाङ्गीण सक्षिप्त परिचय आ गया है। यों तो जैन-वाङमय विपुल है और एक-एक शाखा पर अनेक ग्रथ उपलब्ध है। सक्षमतापूर्वक अध्ययन करने के लिए तो निश्चय ही उन ग्रन्थों का सहारा लेना आवश्यक है। किन्तु साम्प्रदायिक अभिनिवेश से परे, मूल रूप मे जैनधर्मसिद्धान्त का, आचार-प्रणाली का, जीवन के क्रमिक-विकास की प्रक्रिया का, सर्वसाधारण को परिचय कराने के लिए यह एक सर्वसम्मत प्रातिनिधिक प्रन्थ है। जैनं जयति शासनम् ।
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