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या पारस्परिक व्यवहार की दृष्टि से आचार - नियमो का प्रतिपादन जैनधर्म मे नही है । शक्ति की मापेक्षता एव विकास की प्रक्रिया में वाह्य क्रियाकाण्ड या गित लोकसूता, देवमूढता या गुरुमूढता को उसमे कतई स्थान नही है । अणुव्रतादि का पालन श्रावक को जहाँ साधक बनने की प्रेरणा देता है, वहाँ वह समाज के सुमचालन मे भी अपूर्व भूमिका निभाता है ।
ग्रन्थ- परिचय
'समणसुत्त' ग्रन्थ मे जैन धर्म-दर्शन की सारभूत वातो का, सक्षेप में, क्रमपूर्वक सकलन किया गया है । ग्रन्थ मे चार खण्ड है और ४४ प्रकरण है । कुल मिलाकर ७५६ गाथाएँ है ।
ग्रंथ की सरचना या सकलना प्राकृत गाथाओ मे की गयी है, जो गेय है तथा पारायण करने योग्य है। जैनाचार्यो ने प्राकृत गाथाओ को सूत्र कहा है । प्राकृत के सुत्त शब्द का अर्थ सूत्र, सूवत तथा श्रुत भी होता है । जैन-परम्परा मे सूत्र शब्द रूढ है । इसीलिए ग्रथ का नाम 'समणसुत्त' ( श्रमणसूत्रम् ) रखा गया है । गाथाओ का चयन प्राय प्राचीन मूल ग्रन्थो से किया गया है। अतः यह समणसुत्त आगमवत् स्वत प्रमाण है ।
प्रथम खण्ड 'ज्योतिर्मुख' है, जिसमे व्यक्ति 'खाओ पीओ मौज उडाओ' की निम्न भौतिक भूमिका या बाह्य जीवन से ऊपर उठकर आभ्यन्तर जीवन के दर्शन करता है। वह विषय-भोगो को असार, दुखमय तथा जन्म जरा नरणरूप संसार का कारण जानकर, इनसे विखत हो जाता है । रागद्वेष को ही अपना सबसे बडा शत्रु समझकर वह हर प्रकार से इनके परिहार का उपाय करने लगता है और क्रोध मान माया व लोभ के स्थान पर क्षमा । मार्दव, सरलता व सन्तोष आदि गुणो का आश्रय लेता है। कपायो का निग्रह करके विषय-गृद्ध इन्द्रियो को सयमित करता है । सभी प्राणियों को आत्मवत् देखता हुआ उनके सुख-दुख का वेदन करने लगता है और दूसरो की आवव्यकताओ का सम्मान करते हुए परिग्रह का यथाशक्ति त्याग करता है । स्वव पर के प्रति सदा जागरूक रहता है तथा यतनाचारपूर्वक मोक्षमार्ग मे निर्भय विचरण करने लगता है ।
द्वितीय खण्ड 'मोक्षमार्ग' है। इसमें पदार्पण करने पर व्यक्ति की समस्त शकाएँ, भययुक्त संवेदनाएँ, आकाक्षाएँ तथा मूढताएँ, श्रद्धा ज्ञान व चारित्र
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