________________
ज्योतिर्मुख १८८. आत्मा ज्ञायक है । जो ज्ञायक होता है, वह न अप्रमत्त होता है
और न प्रमत्त। जो अप्रमत्त और प्रमत्त नही होता वह शुद्ध होता है। आत्मा ज्ञायकरूप में ही ज्ञात है और वह शुद्ध अर्थ मे ज्ञायक ही है। उसमे ज्ञेयकृत अशुद्धता नही है ।*
१८९
मै (आत्मा) न शरीर हूँ, न मन हूँ, न वाणी हूँ और न उनका कारण हूँ। मै न कर्ता हूँ, न करानेवाला हूँ और न कर्ता का अनुमोदक ही हूँ।
१९०. आत्मा के शुद्ध स्वरूप को जाननेवाला तथा परकीय (आत्म
व्यतिरिक्त) भावों को जाननेवाला ऐसा कौन ज्ञानी होगा, जो यह कहेगा कि 'यह मेरा है।
१९१. मै एक हूँ, शुद्ध हूँ, ममतारहित हूँ तथा ज्ञानदर्शन से परिपूर्ण हूँ।
अपने इस शुद्ध स्वभाव में स्थित और तन्मय होकर मै इन सब (परकीय भावों) का क्षय करता हूँ।
* गुणस्थानो की दृष्टि से जीव को छठे गुणस्थान तक प्रमत्त और सातवे से अप्रमत्त कहा जाता है। ये दोनो दशाएँ शुद्ध जीव की नही है ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org