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मोक्ष-मार्ग २०५ (पुण्य के प्रताप से) देवलोक मे यथास्थान रहकर आयुक्षय
होने पर देवगण वहाँ से लौटकर मनुप्य-योनि में जन्म लेते हैं। वहाँ वे दशाग भोग-मामग्री से युक्त होते है।
२०६-२०७. जीवनपर्यन्त अनुपम मानवीय भोगो को भोगकर पूर्वजन्म
मे विशुद्ध समीचीन धर्माराधन के कारण निर्मल बोधि का अनुभव करते है और चार अगो (मनुष्यत्व, श्रति, थद्धा तथा वीर्य) को दुर्लभ जानकर वे सयम-धर्म स्वीकार करते है और फिर तपश्चर्या से कर्मो का नाश करके शाश्वत सिद्धपद को प्राप्त होते है।
१७. रत्नत्रयसूत्र (अ) व्यवहार-रत्नत्रय २०८. धर्म आदि (छह द्रव्य) तथा तत्त्वार्थ आदि का श्रद्धान करना
सम्यग्दर्शन है । अगों और पूर्वो का ज्ञान सम्यग्ज्ञान है। तप मे प्रयत्नशीलता सम्यकचारित्र है। यह व्यवहार मोक्ष
मार्ग है। २०९. (मनुष्य) ज्ञान से जीवादि पदार्थो को जानता है, दर्शन से
उनका श्रद्धान करता है, चारित्र से (कर्मास्रव का) निरोध करता है और तप से विशुद्ध होता है ।
२१०. (तीनों एक-दूसरे के पूरक हैं इसीलिए कहा है कि) चारित्र
के विना ज्ञान, सम्यग्दर्शन के बिना मुनिलिग का ग्रहण और सयमविहीन तप का आचरण करना निरर्थक है ।
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