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मोक्ष मार्ग
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(इ) गुप्ति ४१२. यतनामम्पन्न (जागरूक) यति म रम्भ, समारम्भ व आरम्भ में
प्रवर्त्तमान मन को रोके-उसका गोपन करे ।
४१३. यतनासम्पन्न यति संरम्भ, समारम्य व आरम्भ मे प्रवर्तमान वचन
को रोके-उसका गोपन करे ।
८१८. यतनासम्पन्न यति मरम्भ, समारम्भ व आरम्भ मे प्रवर्तमान
काया को रोके--उसका गोरनारे ।
४१५. जैसे खेत की रक्षा बाड़ और नगर की रक्षा खाई या प्राकार
करते है, वैसे ही पान-निरोधक मियाँ माधु के मयम की रक्षा करती है।
४१६. जो मुनि इन आठ प्रवचन माना यो का सम्यक आचरण करता है,
वह ज्ञानी शीघ्र समार से मुक्त हो जाता है।
२७. आवश्यकसूत्र
४१७. पर-भाव का त्याग करके निर्मल-स्वभावी आत्मा का ध्याता
आत्मवशी होता है । उसके कर्म को 'आवश्यक' कहा जाता है।
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