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________________ मोक्ष-मार्ग १५१ ४३ जरया. वमति, आसन तथा प्रतिलेखन से उपकृत साधजनो की आहार, औषधि, वाचना, मल-मल-विसर्जन तथा बन्दना आदि से सेवा-सुथपा करना वयावृत्य तप है। ४.७४. जो मार्ग में चलने से थक गये है, चोर, स्वापद (हिमपा) राजा द्वारा व्यथित, नदी की रुकावट, मरी (प्लेग) आदि रोग तथा दुभिक्ष से पीडित है, उनकी सार-सम्हाल तथा रक्षा करना वैयावृत्य है। ४७५. परिवर्तना, वाचना, पृच्छना, अनुप्रेक्षा और स्तुति-मगलपूर्वक धर्मकथा करना-यह पाँच प्रकार का स्वाध्याय तप है । ४७६. आधोने के लिए मुखकारी ४७६. आदर-सत्कार की अपेक्षा से रहित होकर जो वार्मम्पी मल को धोने के लिए भक्तिपूर्वक जिनशास्त्रो को पड़ता है, उनका श्रुतलाभ स्व-पर मुखकारी होता है । ४७७. स्वाध्यायी अर्थात् शास्त्रो का ज्ञाता माधु पाँचों इन्द्रियों से संवत, तीन गुप्तियों से युक्त, विनय में समाहित तथा एकाग्रमन होता है। ४७८. ज्ञान मे ध्यान की सिद्धि होती है। ध्यान से सब कर्मो की निर्जरा होती है। निर्जरा का फल मोक्ष है । अतः सतत ज्ञानाभ्यास करना चाहिए । ४७९. बाह्याभ्यन्तर बारह तपों में स्वाध्याय के समान तप न तो है, न हुआ है, न होगा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.008027
Book TitleSaman suttam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri, Nathmalmuni
PublisherSarva Seva Sangh Prakashan
Publication Year1989
Total Pages299
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size14 MB
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