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ज्योतिर्मुख
१५६ ज्ञानी कर्म-क्षय के लिए उद्यत हुआ है, हिसा के वह निश्छलभाव से अहिसा के लिए प्रयत्नशील वह अप्रमत्त मुनि अहिसक होता है ।
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१५७. आत्मा ही अहिसा है और आत्मा ही हिसा है--यह सिद्धान्त का निश्चय है । जो अप्रमत्त है वह अहिसक है और जो प्रमत्त है वह हिंसक है ।
लिए नही । रहता है ।
१५८. जैसे जगत् में मेरु पर्वत से ऊँचा और आकाश से विशाल और कुछ नही है, वैसे ही अहिसा के समान कोई धर्म नही है ।
१५९. मुनि ने कहा: 'पार्थिव । तुझे अभय है और तू भी अभयदाता वन । इस अनित्य जीव-लोक मे तू क्यो हिसा मे आसक्त हो | रहा है ?"
१३. अप्रमादसूत्र
१६०. यह मेरे पास है और यह नही है, यह मुझे करना है और यह नही करना है -- इस प्रकार वृथा बकवास करते हुए पुरुष को उठानेवाला (काल) उठा लेता है । इस स्थिति मे प्रमाद कैसे किया जाय ?
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१६१. जो पुरुष सोते है उनके जगत् में सारभूत अर्थ नष्ट हो जाते है । अतः सतत जागते रहकर पूर्वार्जित कर्मों को नष्ट करो ।
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