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ज्योतिर्मुख
१९. जो अर्हत् के द्वारा अर्थरूप मे उपदिष्ट है तथा गणधरों के द्वार सूत्ररूप में सम्यक् चुकित है, उस श्रुतज्ञानरूपी महासिन्धु को मैं भक्तिपूर्वक सिर नवाकर प्रणाम करता हूँ ।
२०. अर्हत् के मुख से आगम कहते है।
उद्भूत, पूर्वापरदोष रहित शुद्ध वचनों को उस आगम में जो कहा गया है वही सत्यार्थ है । ( अर्हत् द्वारा उपदिष्ट तथा गणधर द्वारा संकलित श्रुत आगम है | )
२१. जो जिनवचन में अनुरक्त है तथा जिनवचनों का भावपूर्वक आचरण करते हैं, वे निर्मल और असक्लिष्ट होकर परीतसंसारी (अल्प जन्म-मरणवाले) हो जाते है ।
२२. हे वीतराग ।, हे जगद्गुरु हे भगवन् ! आपके प्रभाव से
,
मुझे ससार से विरक्ति, मोक्षमार्ग का अनुसरण तथा इष्टफल की प्राप्ति होती रहे ।
२३. जो स्वसमय व परसमय का ज्ञाता है, गम्भीर, दीप्तिमान, कल्याणकारी और सौम्य है तथा रोकड़ों गुणों से युक्त है, वही निर्ग्रन्थ प्रवचन के सार को कहने का अधिकारी है ।
२४. जो तुम अपने लिए चाहते हो वही दूसरों के लिए भी चाहो तथा जो तुम अपने लिए नही चाहते वह दूसरो के लिए भी न चाहो । यही जिनशासन है - - तीर्थकर का उपदेश है ।
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