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मोक्ष-मार्ग
१४७ ४५९. अनन्तानन्त भवो मे उपार्जित शुभाशुभ कर्मो के समूह का नाश
तपश्चरण से होता है। अत: तपश्चरण करना प्रायश्चित्त है ।
४६०. प्रायश्चित्त दस प्रकार का है-आलोचना, प्रतिक्रमण, उभय,
विवेक, व्युत्सर्ग, तप, छेद, मूल, परिहार तथा श्रद्धान ।
४६१. मन-वचन-काय द्वारा किये जानेवाले शुभाशुभ कर्म दो प्रकार के
होते है-आभोगकृत और अनाभोगकृत । दूसरो द्वारा जाने गये कर्म आभोगकृत है और दूसरों द्वारा न जाने गये कर्म अनाभोगकृत है। दोनों प्रकार के कर्मो की तथा उनमे लगे दोषों की आलोचना गुरु या आचार्य के समक्ष निराकुल चित्त से करनी
चाहिए । ४६२. जैसे बालक अपने कार्य-अकार्य को सरलतापूर्वक माँ के समक्ष
व्यक्त कर देता है, वैसे ही साध को भी अपने समस्त दोषो की
आलोचना माया-मद (छल-छद्म) त्यागकर करनी चाहिए । ४६३-४६४. जैसे कॉटा चुभने पर सारे शरीर मे वेदना या पीड़ा होती है और
कॉटे के निकल जाने पर शरीर निःशल्य अर्थात् सर्वाग सुखी हो जाता है, वैसे ही अपने दोषो को प्रकट न करनेवाला मायावी दु.खी या व्याकुल रहता है और उनको गुरु के समक्ष प्रकट कर देने पर सुविशुद्ध होकर सुखी हो जाता है-मन में कोई शल्य नही रह जाता।
४६५. अपने परिणामों को समभाव में स्थापित करके आत्मा को देखना
ही आलोचना है। ऐसा जिनेन्द्रदेव का उपदेश है ।
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