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ज्योतिर्मुख
३५ १०२. इन्द्रिय-विषयों तथा कषायों का निग्रह कर ध्यान और स्वाध्याय
के द्वारा जो आत्मा को भावित करता है उसीके तपधर्म होता है।
१०३. सब द्रव्यो मे होनेवाले मोह को त्यागकर जो त्रिविध निर्वेद
(संसार देह तथा भोगों के प्रति बैराग्य) से अपनी आत्मा को भावित करता है, उसके त्यागधर्म होता है, ऐसा जिनेन्द्र
देव ने कहा है। १०४. त्यागी वही कहलाता है, जो कान्त और प्रिय भोग उपलब्ध
होने पर उनकी ओर से पीठ फेर लेता है और स्वाधीनतापूर्वक भोगों का त्याग करता है।
१०५. जो मुनि सब प्रकार के परिग्रह का त्याग कर निःसंग हो जाता है,
अपने सुखद व दुखद भावों का निग्रह करके निर्द्वन्द्व विचरता है, उसके आकिचन्य धर्म होता है ।
१०६. में एक, शुद्ध, दर्शन-ज्ञानमय, नित्य और अरूपी हूँ। इसके
अतिरिक्त अन्य परमाणुमात्र भी वस्तु मेरी नहीं है। (यह आकिचन्यधर्म है।)
१०७-१०८. हम लोग, जिनके पास अपना कुछ भी नही है, सुखपूर्वक रहते
और सुख से जीते हैं। मिथिला जल रही है उसमें मेरा कुछ भी नही जल रहा है, क्योंकि पुत्र और स्त्रियों से मुक्त तथा व्यवसाय से निवृत्त भिक्षु के लिए कोई वस्तु प्रिय भी नहीं होती और अप्रिय भी नहीं होती। (यह बात राज्य त्यागकर साधु हो जानेवाले राजर्षि नमि के दृढ वैराग्य से सम्बद्ध है।)
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