________________
ज्योतिर्मुख १३७. जैसे कछुआ अपने अगों को अपने शरीर में समेट लेता है, वैसे
ही मेधावी (ज्ञानी) पुरुष पापों को अध्यात्म के द्वारा समेट लेता है।
१३८. जान या अजान मे कोई अधर्म कार्य हो जाय तो अपनी आत्मा
को उससे तुरन्त हटा लेना चाहिए, फिर दूसरी बार वह कार्य न किया जाय।
१३९. धैर्यवान्, धर्म के रथ को चलानेवाला, धर्म के आराम में रत,
दान्त और ब्रह्मचर्य मे चित्त का समाधान पानेवाला भिक्षु धर्म के आराम मे विचरण करे ।
११. अपरिग्रहसूत्र १४०. जीव परिग्रह के निमित्त हिसा करता है, असत्य बेलता है,
चोरी करता है, मैथुन का सेवन करता है और अत्यधिक मूर्छा करता है। (इस प्रकार परिग्रह पाँचो पापो की जड़ है।)
१४१. सजीव या मिर्जी व स्वल्प वस्तु का भी जो परिग्रह रखता है अथवा
दूसरे को उसकी अनुज्ञा देता है, वह दु.ख से मुक्त नहीं होता।
१४२. जो परिग्रह की बुद्धि का त्याग करता है, वही परिग्रह को त्याग
सकता है। जिसके पास परिग्रह नही है, उसी मुनि ने पथ को देखा है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org