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मोक्ष-मार्ग
१२७ जैसे अध्यात्म (शास्त्र) में मूर्छा को ही परिग्रह कहा गया है, वैसे ही उसमे प्रमाद को हिगा कहा गया है ।
३९३. जमे स्नेहगुण से युक्त कमलिनी का पत्र जल से लिप्त नही
होता, वैसे ही समितिपूर्वक जीवों के बीच विचरण करनेवाला साधु पाप (कर्मवन्ध ) से लिप्त नहीं होता ।
३९४. यतनाचारिता धर्म की जननी है । यतनाचारिता धर्म की पालन
हार है। यतनाचारिता धर्म को बढ़ाती है। यतनाचारिता एकान्त सुखावह है।
३९५. यतनाचार (विवेक या उपयोग) पूर्वक चलने, यतनाचारपूर्वक
रहने, यतनाचारपूर्वक बैठने, यतनाचारपूर्वक सोने, यतनाचारपूर्वक खाने और यतनाचारपूर्वक बोलने से साधु को पाप-कर्म का
बध नहीं होता। (आ) समिति ३९६. कार्यवश दिन मे प्रासुकमार्ग से (जिस मार्ग पर पहले से आवा
गमन शुरू हो चुका हो), चार हाथ भूमि को आगे देखते हुए, जीवों की विराधना बचाते हुए गमन करना ईर्या-समिति है।
३९७. इन्द्रियों के विषय तथा पाँच प्रकार के स्वाध्याय का कार्य छोड़कर
केवल गमन-क्रिया मे ही तन्मय हो, उसीको प्रमुख महत्त्व देकर उपयोगपूर्वक (जागृतिपूर्वक) चलना चाहिए।
३९८. गमन करते समय इस बात की भी पूरी सावधानी रखनी चाहिए
कि नाना प्रकार के जीव-जन्तु, पशु-पक्षी आदि इधर-उधर से चारे-दाने के लिए मार्ग मे इकट्ठा हो गये हों तो उनके सामने भी नहीं जाना चाहिए. ताकि वे भयग्रस्त न हो।
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