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स्याद्वाद
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७११ जिन प्रकार प्रत्येक पदार्थ, अपने वाचक अर्थ में आम है, उसी प्रकार प्रत्येक शब्द भी अपने-अपने अर्थ मे आ है । अर्थात् शब्दभेद के साथ अर्थभेद होता ही है । जैसे इन्द्र, पुरन्दर और शत्र - तीनो शब्द देवो के राजा के बोधक है, तथापि इन्द्र शब्द से उसके ऐश्वर्य का बोध होता है, पुरन्दर मे अपने शत्रु के पुरो का नाश करनेवाले का बोध होता है। इस प्रकार शब्दभेदानुसार अर्थभेद करनेवाला 'समभिनय' है (यह शब्द को अर्थाख्ढ और अर्थ को शब्दारुद कहता है ।)
७१२. एव अर्थात् जैसा शब्दार्थ हो उसी रूप मे जो व्यवहृत होता है वह भूत अर्थात् विद्यमान है । और जो शब्दार्थ से अन्यथा है वह् अभूत अर्थात् अविद्यमान है । जो ऐसा मानता है वह 'एवभूतनय' है । इसीलिए शब्दनय और समभिनय की अपेक्षा एवभूतनय विशेषरूप से शब्दार्थतत्पर नय है ।
७१३. जीव अपने मन, वचन व काय की क्रिया द्वारा जो-जो काम करता है, उस प्रत्येक कर्म का वोधक अलग-अलग शब्द है और उसीका उस समय प्रयोग करनेवाला एवभूतनय है । जैसे मनुष्य को पूजा करते समय ही पुजारी और युद्ध करते समय ही योडा कहना |
४०. स्याद्वाद व सप्तभङ्गीसूत्र
७१४. नय का विषय हो या प्रमाण का, परस्पर-सापेक्ष विषय को ही सापेक्ष कहा जाता है और इससे विपरीत को निरपेक्ष | ( प्रमाण का विषय सर्व नयों की अपेक्षा रखता है और नय का विषय प्रमाण की तथा अन्य विरोधी नयों की अपेक्षा रखता है, तभी वह विषय सापेक्ष कहलाता है | )
७१५. जो सदा नियम का निषेध करता है और निपात रूप से सिद्ध है, उस शब्द को 'स्यात्' कहा गया है । यह वस्तु को सापेक्ष सिद्ध करता है ।
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