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________________ पारिभाषिक शब्दकोश भूत नैगमनय - सकल्पमात्र के आधार पर गत पदार्थ को वर्तमान में अवस्थित कहना । जैसे 'आज दीपावली के दिन भगवान दीर निर्वाण को प्राप्त हुए ' (७०१) भोग- परिभोग परिमाण - व्रत- भोगलिप्सा को नियन्त्रित करने के लिए भोग तथा परिभोग की वस्तुओं के ग्रहण को सीमित करना ( ३२५) मतिज्ञान- दे० आभिनिवोधिक ज्ञान मद-गर्व आठ है - कुल, जाति, लाभ, बल, रूप, ज्ञान, तप, सत्ता (८८, १८७ ) मनःपर्यव ज्ञान --दूसरे की मन की बात प्रत्यक्ष जान लेनेवाला ज्ञान ( ६८२, ६८९ ) मनोगुप्ति- मन की प्रवृत्ति का गोपन (४१२) ममकार - आत्मातिरिक्त देहादि अन्य पदार्थो में मै-मेरेपन का भाव (१८६, ३४६ ) ममत्व - ममकार (७९, १४२) मल - कर्म स्कंध (५८) महाव्रत-साधुओ के सर्वदेशव्रत । देखे--व्रत । माध्यस्थ्य भाव - मोह क्षोभविहीन समता या विश्रान्त भाव ( २७४-२७५) मार्ग मोक्ष का उपाय ( १९२ ) मार्गणास्थान - जिन-जिनके द्वारा जीवों का अन्वेषण (खोज) किया जाय, वे सब धर्म १४ है - गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, सयम, दर्शन, लेश्या, भव्यत्व, सम्यक्त्व, सज्ञित्व, आहारकत्व (१८२, ३६७) मार्दव - अभिमानरहित मृदु परिणाम, दस धर्मो में से द्वितीय (८८) मिथ्यात्व या मिथ्यादर्शन- तत्त्वो अश्रद्धान या विपरीत श्रद्धान Jain Education International का और For Private २७१ तत्परिणामस्वरूप यथार्थ धर्म में अरुचि । १४ गुणस्थानो में प्रथम (६८, ५४९) मिश्र - साधक की तृतीय भूमि जिसमे उसका परिणाम दही व गुड मिश्रित स्वाद की भाँति, सम्यक्त्व तथा मिथ्यात्व के मिश्रण जैसा होता है (५५१) मूर्च्छा-इच्छा या ममत्वभाव मोहान्धता या आसक्ति ( ३७९, १४२ ) मूढ़ता - रूढिगत भेडचाल की स्वीकृतिरूप मिथ्या अन्ध-विश्वास, जो तीन प्रकार का है - लोकमूढता, देवमूढता, गुरुमूढता (१८६) मूर्त - इन्द्रियग्राह्य होने से मात्र पुद्गल द्रव्य (५९५, ६२६ ) मोक्ष - सकल कर्मो का नाश हो जाने पर जीव का केवलज्ञानानन्दमय स्वरूप को प्राप्त होकर, देह के छूट जाने पर, ऊर्ध्वगमन स्वभाव के द्वारा ऊपर लोक के अग्रभाग में सदा के लिए स्थित हो जाना (६१४-६२३), मुक्ति या निर्वाण । मोह - श्रेयाश्रेय विवेक से विहीन भाव अर्थात् मिथ्यादर्शन । यही राग-द्वेष का तथा कर्मबन्ध का मूल है (७१) मोहनीय - मद्यपान की भाँति श्रेयाश्रेय के विवेक को नष्ट करनेवाला प्रबल कर्म (६६, ६१३) योग - मन वचन काय की चेष्टा का कारणभूत अन्तरग प्रयत्न या वीर्यपरिणाम (६०३) योनि - जीवो की उत्पत्ति के योग्य ८४ लाख स्थान (३६७) Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.008027
Book TitleSaman suttam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri, Nathmalmuni
PublisherSarva Seva Sangh Prakashan
Publication Year1989
Total Pages299
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size14 MB
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