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समणसुत्तं
रत्नत्रप-मोक्षमार्गरूप सम्यग्दर्शन, सम्य- वर्तमान नैगमनय-सक पमात्र के आधार
रज्ञान और सम्यक्चारित्र (सूत्र १७) पर कोई काम प्रारम्भ करते समय ही रस-परित्याग-स्वाद-विजय के लिए धी दूध उसे हो गया कहना। जैसे भात पकाना
नमक आदि रसो के त्यागरूप में एक प्रारम्भ करते ही कह देना कि 'भात पक बाह्यतप (४५०)
गया' (७०२) राग-इप्ट-विषयो के प्रति प्रीति का भाव विरताविरत-साधक की पचम भूमि जिसमे (सूत्र ८)
त्रस-हिसा आदि स्थूल पापो के प्रति तो रूक्ष-परमाणु का विकर्षण गण जो आकर्षण
माविकर्षण गण जो आकर्षण विरक्ति हो जाती है, परन्तु स्थावर के साथ मिलने पर बन्ध का मूल हेतु हिसा आदि सूक्ष्म पापो से विरति नही होता है (६५२)
होती (५५३) रूपस्थध्यान-अनेक विभूति-सम्पन्न अर्हन्त विरागचारित्र या वीतरागचारित्र-वाह्याका ध्यान (४९७)
भ्यन्तर सकल परिग्रह के पूर्ण त्यागरूप रूपातीतध्यान-केवलज्ञान-शरीरी सिद्ध निरपवाद उत्सर्ग चारित्र (४२१)
भगवान् का अथवा तत्सदृश निज विविक्त शय्यासन-एकान्तवास (४५१) शुद्धात्मा का ध्यान (४९७)
शेषवि-दूसरे की अपेक्षा विसदृश परिणाम, लिग-बुद्धि या अनुमान ज्ञान (१८५), जैसे बाल्यावस्था और वृद्धावस्था परस्पर साधु का वाह्याभ्यन्तररूप (सूत्र २४
_ विसदृश होने से मनुष्य के विशेष -आ)
धर्म है (६६८) लेश्या-मन वचन काय की कपाययुक्त वीरासन-दोनो पैरो को दोनो जघाओ के
वत्तियाँ जिनके स्वरूप का कथन कृष्ण ऊपर रखना (४५२) नील आदि छह रगो की उपमा द्वारा वेदनीय-दुख-सुख की कारणभूत बाह्य किया गया है (मूत्र ३१)
सामग्री के सयोग-वियोग में हेतुरूप लोक-असीम आकाश का मध्यवर्ती वह कर्म (६६), इसके दो भेद है।
पुरुपाकार क्षेत्र जिसमे छह द्रव्य अवस्थित वैतरणी-नरक की अति दुर्गन्धित रक्त व है (६३६, ६५१)। यह तीन भागो मवाद मय नदी (१२२) में विभक्त है-जधालाक (नरक), वैयावत्य-रोगी, ग्लान व श्रमित श्रमण मध्यलोक (मनुप्य व तिर्यञ्च) और
आदि की प्रेमपूर्ण सेवा (४७३-४७४) अवलोक (स्वर्ग) ( देखे पृष्ठ २१०) लोकान-लोकाकाश का शीर्ष भाग (५६५,
वृत्ति-परिसंख्यान-अटपटे अभिग्रह लेकर
भिक्षाचर्या के लिए निकलना (४४९) ६२१) लोकान्त-लोक का अन्तिम भाग अर्थात् व्यय-द्रव्य में नित्य होता रहनेवाला पूर्वलोकशिखर (६१४)
पूर्व पर्यायो का नाश (६६६-६६७) वचनगुप्ति-वचन की प्रवृत्ति का गोपन व्यवहार-नय-अनन्त धर्मात्मक वस्तु के एक
___रसात्मक भाव का गुण-गुणी आदि रूप
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