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पारिभाषिक शब्दकोश
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विश्लेपण द्वारा भेदोपचार कथन, अथवा शील-साधु के अनेक गुण (५५५) अन्य वस्तुओ के साथ निमित्तक- शीलवत-श्रावक के पाँच अणुव्रतो के रक्षक नैमित्तिक सम्बन्धरूप अभेदोपचार तीन गणव्रत और चार शिक्षाव्रत कथन (३५)। जैसे अखण्ड मोक्षमार्ग (३००) को सम्यग्दर्शन आदि तीन रूप से कहना शक्ललेश्या-तीन शभ लेश्याओ मे से अन्तिम (२१४) अथवा दूसरे प्राणी के घात
उत्कृष्ट या शुभतम (५३४, ५४४) को हिमा कहना (३८८-३९२)
शुद्धभाव-कर्मो के उदय उपशम व क्षय व्यसन-टेव या बुरी आदते । जूआ खेलना, आदि से निरपेक्ष जीव का त्रैकालिक पर-स्त्री गमन करना आदि सात व्यसन
स्वभाव या तत्त्व (१८८, ५९०) है । अन्य सभी कुटेवो का इन्हीमे ।
शुद्धोपयोग-ज्ञान व चारित्रयुक्त साधु की, अन्तर्भाव हो जाता है (३०३)
शुभाशुभ भावो से निरपेक्ष, केवल आत्मा व्रत-हिसा आदि पापो से विरति । एकदेश
के शुद्धस्वभाव में अवस्थिति अथवा तथा सर्वदेश के भेद से व्रत दो प्रकार
मोह क्षोभ विहीन साम्यभाव (२७४-- का है । एकदेश-व्रत अणुव्रत कहलाता २७९) है और सर्वदेश-व्रत महाव्रत (३००)
शौच-लोभ व तृष्णारहित सन्तोपभाव दस (मूत्र २५)
धर्मो में से शब्द-नय-पदार्थो के वाचक शब्दो मे ही
श्रमण-मोक्षमार्ग में श्रम करने के कारण जिनका व्यापार होता है, वे नय शब्दनय
समताधारी (३४१) निर्ग्रन्थ तथा कहलाती है, जो तीन प्रकार की है-शब्द,
__ वीतरागी (८२१), सयतजन (३३६) समभिरूढ ओर एवभूत । ये उत्तरोत्तर
(मूत्र २८) सूक्ष्म है (६९९) । इनमें मे प्रथम शब्दनय लोकगास्त्र में स्वीकृत एकार्थवाची
श्रमण-धर्म-इसमें ध्यानाध्ययन की प्रमुखता हाब्दो में से समान लिग, कारक आदि
होती है। (२९.) (सूत्र २४) वाले गब्दो को ही एकार्थवाची मानता श्रावक-गुरमुख से धर्मोपदेश सुननेवाला है, असमान लिग आदिवालो को नही धर्मात्मा अविरत या अगुव्रती गृहस्थ
(७०८) शय्यासन-माधु के बैठने, साने आदि के श्रावक-धर्म-इसमें दया, दान, भक्ति, विनय
उपकरण फलक, पाटा आदि (८७३) आदि की प्रमुग्यता होती है (२९७) शल्य-कॉटे की भाँति पीडाका, माया,
(विशेप दे० मूत्र २३) मिथ्या व निदान नानक तीन भावरूप श्रुत-शास्त्र या आगम (१७८)
पारमाथिक गल्य (५७७-५७९) श्रुतज्ञान-धुंआ देखक र अग्नि को जानने की शिक्षाव्रत-श्रमण-धर्म की शिक्षा या अभ्यास भाँति अर्थ में अर्थान्तर का ग्रहण करने
मे हेतुरूप सामायिक आदि चार-त्रत वाला मन व इद्रियो की सहायता से (३२४)
होनेवा परोक्षजान । वाचक से १८
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