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समणसुत्तं
प्रासुक-जीवो के सयोग अथवा सवार से भय-सात है-इहलोक-भय, परलोक-भय,
रहित भोजन (४०९), भूमि (५७६), वेदना-भय मृत्यु-भय, अरक्षा-भय, मार्ग (३९६) इत्यादि ।
अगुप्ति-भय और आकस्मिक-भय प्रोषधोपवास-एक बार भोजन करना प्रोपध
है और बिलकुल भोजन न करना भव-देह से देहान्तर की प्राप्ति के रूप मे उपवास । पर्व से पहले दिन सबेरे के चतुर्गति-भ्रमण (१८२) समय और उसके अगले दिन सन्ध्या के भारण्ड पक्षी-पक्षी-विशेष जिसके एक समय केवल एक-एक बार भोजन करना
शरीर में दो जीव, दो ग्रीवा और तीन और पर्ववाले दिन दोनो समय भोजन पैर होते है । जब एक जीव सोता है न करना । इस प्रकार १६ प्रहर तक
तब सावधानी के लिए दूसरा जागता सर्व आरम्भ का तथा भोजन का त्याग
___ रहता है (१६३) (३२९)
भाव-कर्म-द्रव्य-कर्म की फलदान-शक्ति बन्ध-जीव के रागादि परिणामो के निमित्त
___ अथवा उसके उदयवश होनेवाले जीव के से, कर्म-जातीय सूक्ष्म पुद्गल परमाणुओ
रागादिक भाव (६२) का जीव के प्रदेशो में अवस्थित हो
भाव-निक्षेप-विवक्षित पर्याययुक्त वस्तु जाना (५५६-५५७)
को ही उस नाम से कहना, जैसे कि बल-तीन है-मन वचन व काय (६४५)
राज्यनिष्ठ राजा को राजा कहना बहिरात्मा-देह को आत्मा माननेवाला (७४३-७४४) ___ मिथ्यादृष्टि (६९)
भाव-प्रतिक्रमण-दोष-शुद्धि के लिए किया बाल-अज्ञानी, मिथ्यादृष्टि (५०, २७२) गया आत्मनिन्दन व ध्यान आदि बाह्य-क्षेत्र मकान आदि दस प्रकार का
(४३१-४३२) परिग्रह (१४८) अनशन आदि छह
भाव-लिग-साधु का नि सग तथा निष्कषाय प्रकार का तप (४४१) देह कृशता
रूप समताभाव (३६३) रूप सलेखना (५७४) इत्यादि। भाव-हिंसा-आत्महननस्वरूप रागादि की बोधि-रत्नत्रय (५८०-५८१)
उत्पत्ति के रूप में होनेवाली हिंसा भक्त-प्रत्याख्यान-सलेखनाविधि मे शरीर (१५३, ३८९-३९२)
कृश करने के लिए धीरे-धीरे भोजन भावि नैगमनय-सकल्पमात्र के आधार पर त्याग करने की प्रक्रिया-विशेष (५७३) अनिष्पन्न पदार्थ को भी उसी नाम से भंग-स्याद्वाद-न्याय के अनुसार अनेकान्त
कहना जैसे कि पाषाण को प्रतिमा रूप वस्तु के जटिल स्वरूप का
कहना (७०३) प्रतिपादन परस्पर विरोधी प्रत्येक __भाषा-समिति-बोलचाल विषयक विवेकधर्म-युगल में सात-सात विकल्प उत्पन्न यतनाचार (३९१-४०३) करके करने की पद्धति (सूत्र ४०) भुवन-तीन है-ऊर्ध्व, मध्य व अधो (७)
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