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पारिभाषिक शब्दकोश
परिभोग - दे० 3भोग
परीषह - मार्ग से च्युत न होने के लिए तथा कर्मों की निर्जरा के लिए भूख-प्यास आदि सहन करना (५०३ ) परोक्षज्ञान- इन्द्रिय व मन की सहायता से
होनेवाला मति और श्रुतज्ञान ( ६८७ ) पर्यकासन- दोनो जघाओ को मिलाकर ऊपर-नीचे रखना (४८९ )
पर्याय-वस्तु की उत्पन्न-ध्वसी परिणमनशील अवस्थाएँ, अथवा गुणो का विकार । जैसे मनुष्य की वाल युवा आदि अवस्थाएं अथवा रस गुण के खट्टेमीठे आदि विकार (६६१-६६७) पर्यायार्थिक नय - त्रिकाली द्रव्य को दृष्टि से ओझल करके उसकी वर्तमान समयवर्ती किसी एक पर्याय को ही स्वतंत्र सत्ताधारी पदार्थ के रूप में देखना ( ६९४ - ६९३), ऋजुसूत्रादि के भेद से चार प्रकार की (६९९) पिण्डस्थ-ध्यान- अर्हन्त व सिद्ध का अथवा
देहाकार आत्मा का ध्यान ( ४९७ ) पीत-लेश्या-दे० तेजोलेश्या
पुद्गल - परमाणु और स्कन्धरूप सक्रिय तथा मूर्त्त भौतिक द्रव्य जो नित्य पूरण गलन स्वभावी हैं (६२५–६२८, ६४०-६४४)
प्रतिक्रमण - निन्दन गर्हण आदि के द्वारा कृत दोषो का शोधन ( ४३० )
प्रतिलेखन - वस्तु को उठाते-धरते अथवा उठते-बैठते समय उस स्थान को जीव रक्षा के भाव से अच्छी तरह देखना (४१०)
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प्रतिष्ठापना समिति - मल-मूत्र आदि के निक्षेपण या विसर्जन में विवेकयतनाचार (४११)
प्रत्यक्षज्ञान- इन्द्रिय व मन से निरपेक्ष केवल आत्मोत्थ ज्ञान ( ६८६)
प्रत्याख्यान - आगामी दोषो के त्याग का सकल्प (४३६-४३८)
प्रदेश- एक परमाणु-परिमाण आकाश इसी प्रकार जीवादि सभी द्रव्यों में प्रदेश की स्थिति (६२०, ६५७ ) प्रमत्त - आत्म-स्वभाव के प्रति सुप्त या अजागरूकता ( १६२ - १६४ ) अथवा राग-द्वेष-रत (६०१ )
प्रमत्त-संयत-साधक की पष्ठ भूमि जहाँ सयम के साथ-साथ मन्द रागादि के रूप में प्रमाद रहता है (५५४) प्रमाण - सशयादिरहित सम्यग्ज्ञान ( ६८५ ) प्रमाद - आत्म- प्रसुप्ति, चारित्र के प्रति
अनुत्साह तथा अनादर (सूत्र १३ ) प्रमादचर्या -बैठे-बैठे अपने आमन में से सूत या तिनके तोडते रहना, पानी का नल खुला छोड देना इत्यादि अप्रयोजनीय सावद्यक्रिया (३२१ )
प्रमार्जन वस्तुओं को उठाते-धरते या उठते
बैठते समय उस स्थान को क्षुद्र जीवो की रक्षा के लिए किसी कोमल उपकरण से झाडना ( ४१० )
प्रवचनमाता - मातृवत् रत्नत्रय की रक्षक रूप पचसमिति और तीन गुप्ति (३८५) प्राण - मन-वचन-काय रूप तीन बल, पाँच इन्द्रियों, आयु और श्वासोच्छ्वास ये दस प्राण है ( ६४५)
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