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४१. समन्वयसूत्र
७२२. जो परोक्षरूप से समस्त वस्तुओं को अनेकान्तरूप दर्शाता है और सराय आदि से रहित है, वह श्रुतज्ञान है ।
७२३. जो वस्तु के किसी एक धर्म की विवक्षा या अपेक्षा से लोकव्यवहार को साधता है, वह नय है । नय श्रुतज्ञान का भेद है और लिंग से उत्पन्न होता है ।
७२४ अनेक धर्मो से युक्त वस्तु के किसी एक धर्म को ग्रहण करना नय का लक्षण है । क्योंकि उस समय उसी धर्म की विवक्षा है, शेप धर्मो की विवक्षा नहीं है ।
७२५. वे नय ( विरोधी होने पर भी ) सापेक्ष हों तो सुनय कहलाते है और निरपेक्ष हों तो दुर्नय । सुनय से ही नियमपूर्वक समस्त व्यवहारों की सिद्धि होती है ।
७२६. (वास्तव मे देखा जाय तो लोक मे - ) जितने वचन-पन्थ है, उतने ही नय है, क्योंकि सभी वचन वक्ता के किसी न किसी अभिनाय या अर्थ को सूचित करते है और ऐसे वचनों में वस्तु के किसी एक धर्म की ही मुख्यता होती है । अत. जितने नय सावधारण ( हठग्राही ) है, वे सब पर समय है, मिथ्या है; और अवधारणरहित ( सापेक्षसत्यग्राही) तथा स्यात् पद से युक्त समुदित सभी नय सम्यक् होते है ।
७२७. नय - विधि के ज्ञाता को पर समयरूप ( एकान्त या आग्रहपूर्ण ) अनित्यत्व आदि के प्रतिपादक ऋजुसूत्र आदि नयो के अनुसार लोक में प्रचलित मतो का निवर्तन या परिहार नित्यादि का कथन करनेवाले द्रव्यार्थिक नय से करना चाहिए | तथा स्वसमयरूप जिन - सिद्धान्त में भी अज्ञान या द्वेप आदि दोषों से युक्त किसी व्यक्ति ने दोषबुद्धि से कोई निरपेक्ष पक्ष अपना लिया हो तो उसका भी निवर्तन (निवारण) करना चाहिए
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