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३२. आत्मविकाससूत्र (गुणस्थान) ५४६. मोहनीय आदि कर्मो के उदय आदि (उपशम, क्षय, क्षयोपशम
आदि) से होनेवाले जिन परिणामो से युक्त जीव पहचाने जाते है, उनको सर्वदर्शी जिनेन्द्रदेव ने 'गुण' या 'गुणस्थान' संज्ञा दी है। अर्थात् सम्यक्त्व आदि की अपेक्षा जीवों की अवस्थाएँ
श्रेणियाँ-भूमिकाएँ गुणस्थान कहलाती है। ५४७-५४८. मिथ्यात्व, मासादन, मिश्र. अविरत सम्यग्दृष्टि, देशविरत,
प्रमत्तविरत, अप्रमत्तविरत, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसाम्पराय, उपशान्तमोह, क्षीणमोह, सयोगिकेवलीजिन, अयोगिकेवलीजिन-ये क्रमशः चौदह जीव-समास या गुणस्थान है। सिद्धजीव गुणस्थानातीत होते है।
५४९. तत्त्वार्थ के प्रति श्रद्धा का अभाव मिथ्यात्व है। यह तीन प्रकार
का है--संशयित, अभिगृहीत और अनभिगृहीत ।
५५०. सम्यक्त्व-रत्नरूपी पर्वत के शिखर से गिरकर जो जीव मिथ्यात्व
भाव के अभिमुख हो गया है--मिथ्यात्व की ओर मुड गया है, परन्तु (सम्यक्त्व के नष्ट हो जाने पर भी) जिसने अभी साक्षातरूपेण मिथ्यात्वभाव में प्रवेश नही किया है, उस मध्यवर्ती अवस्था को सासादन नामक गुणस्थान कहते है।
५५१. दही और गुड़ के मेल के स्वाद की तरह सम्यक्त्व और मिथ्यात्व
का मिश्रित भाव या परिणाम--जिसे अलग नही किया जा सकता, सम्यक्-मिथ्यात्व या मिश्र गुणस्थान कहलाता है।
५५२. जो न तो इन्द्रिय-विषयों से विरत है और न त्रस-स्थावर जीवों
की हिसा से विरत है, लेकिन केवल जिनेन्द्र-प्ररूपित तत्त्वार्थ का श्रद्धान करता है, वह व्यक्ति अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती कहलाता है।
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