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ज्योतिर्मुख ११६. किन्तु ऐसी भी शीलगुणसम्पन्न स्त्रियाँ है, जिनका यश सर्वत्र
व्याप्त है । वे मनुष्य-लोक की देवता है और देवो के द्वारा वन्दनीय है।
११७. विषयरूपी वृक्षों से प्रज्वलित कामाग्नि तीनों लोकरूपी
अटवी को जला देती है। यौवनरूपी तृण पर संचरण करने मे कुशल कामाग्नि जिस महात्मा को नही जलाती वह
धन्य है। ११८. जो-जो रात बीत रही है वह लौटकर नही आती। अधर्म
करनेवाले की रात्रियाँ निष्फल चली जाती है।
११९-१२०. जैसे तीन वणिक् मूल पूंजी को लेकर निकले। उनमें से एक
लाभ उठाता है, एक मूल लेकर लौटता है, और एक मूल को भी गॅवाकर वापस आता है। यह व्यापार की उपमा है। इसी प्रकार धर्म के विषय में जानना चाहिए।
१२१. आत्मा ही यथास्थित (निजस्वरूप मे स्थित) आत्मा को
जानता है । अतएव स्वभावरूप धर्म भी आत्मसाक्षिक होता है। इस धर्म का पालन (अनुभवन) आत्मा उसी विधि से करता है, जिससे कि वह अपने लिए सुखकारी हो।
१०. संयमसूत्र १२२. (मेरी) आत्मा ही वैतरणी नदी है। आत्मा ही कूटशाल्मली
वृक्ष है। आत्मा ही कामदुहा धेनु है और आत्मा ही नन्दवन है।
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