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तत्त्व-दर्शन ६०१ रागद्वेष से प्रमत्त बना जीव इन्द्रियाधीन होता है। उसके आस्रव
द्वार बरावर खुले रहने के कारण मन-वचन-काय के द्वारा निरन्तर कर्म करता रहता है।
६०२. हिंसा आदि आस्रवद्वारों से सदा कर्मो का आस्रव होता रहता
है, जैसे कि समद्र मे जल के आने से सछिद्र नौका डूब जाती है।
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६०३. (योग भी आस्रव-द्वार है।) मन, वचन, काय से युक्त जीव
का जो वीर्य परिणाम या प्रदेश-परिस्पन्दनरूप प्रणियोग होता है, उसे योग कहते है।
६०४. जैसे-जैसे योग अल्पतर होता है, वैसे-वैसे बन्ध या आस्रव भी
अल्पतर होता है। योग का निरोध हो जाने पर बन्ध नही होता; जैसे कि छेदरहित जहाज मे जल प्रवेश नहीं करता।
६०५. मिथ्यात्व, अविरति, कपाय और योग--ये आस्रव के हेतु है ।
संयम, विराग, दर्शन और योग का अभाव--ये सवर के हेतु है।
६०६. जैसे जलयान के हजारों छेद बन्द कर देने पर उसमे पानी नही
घुसता, वैसे ही मिथ्यात्व आदि के दूर हो जाने पर जीव मे सवर होता है।
६०७. जो समस्त प्राणियों को आत्मवत् देखता है और जिसने कर्मानव
के सारे द्वार बन्द कर दिये है, उस संयमी को पापकर्म का बन्ध नहीं होता।
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