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तत्त्व-दर्शन
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६४८. ( इस प्रकार व्यवहारनय से जीव शरीरव्यापी है, किन्तु - ) वह ज्ञान -प्रमाण है, ज्ञान ज्ञेयप्रमाण है तथा ज्ञेय लोक- अलोक है, अतः ज्ञान सर्वव्यापी है । आत्मा ज्ञान- प्रमाण होने से आत्मा भी सर्वव्यापी है ।
६४९ जीव दो प्रकार के है -- संसारी और मुक्त । दोनों हीं चेतना स्वभाववाले और उपयोग लक्षणवाले है । संसारी जीव शरीरी होते है और मुक्तजीव अशरीरी ।
६५०. संसारीजीव भी त्रस और स्थावर दो प्रकार के है । पृथ्वीकायिक, जलकायिक, तेजकायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक ये सब एकेन्द्रिय स्थावर जीव है और शंख, पिपीलिका, भ्रमर तथा मनुष्य- पशु आदि क्रमशः द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय व पंचेन्द्रिय त्रस जीव हैं ।
३६. सृष्टिसूत्र
६५१. वस्तुतः यह लोक अकृत्रिम है, अनादिनिधन है, स्वभाव से ही निर्मित है, जीव व अजीव द्रव्यों से व्याप्त है, सम्पूर्ण आकाश का ही एक भाग है तथा नित्य है ।
६५२. (लोक में व्याप्त - ) पुद्गल - परमाणु एकप्रदेशी है -- दो आदि प्रदेशी नही है, तथा वह शब्दरूप नही है, फिर भी उसमें स्निग्ध व रूक्ष स्पर्श का ऐसा गुण है कि एक परमाणु दूसरे परमाणुओं से बँधने या जुड़ने या मिलने पर दो प्रदेशी आदि स्कन्ध रूप धारण कर लेते हैं ।
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६५३. द्विप्रदेशी आदि सारे सूक्ष्म और बादर (स्थूल ) स्कन्ध अपने परिणमन के द्वारा पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु के रूप मे अनेक आकारवाले बन जाते है ।
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