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ज्योतिर्मुख १४९. लोक में जितने भी त्रस और स्थावर प्राणी है, निर्ग्रन्थ जान या
अजान मे उनका हनन न करे और न कराये।
१५०. जैसे तुम्हे दु.ख प्रिय नही है, वैसे ही सब जीवों को दुख प्रिय
नही है--ऐसा जानकर, पूर्ण आदर और सावधानीपूर्वक, आत्मौपम्य की दृष्टि से सब पर दया करो।
१५१. जीव का वध अपना ही वध है। जीव की दया अपनी ही दया है।
अतः आत्महितैषी (आत्मकाम) पुरुषों ने सभी तरह की जीव-हिसा का परित्याग किया है।
१५२. जिसे तू हननयोग्य मानता है, वह तू ही है। जिसे तू आज्ञा में
रखने योग्य मानता है, वह तू ही है ।
१५३. जिनेश्वरदेव ने कहा है--राग आदि की अनुत्पत्ति अहिसा है
और उनकी उत्पत्ति हिसा है।
१५४. हिसा करने के अध्यवसाय से ही कर्म का बंध होता है, फिर
कोई जीव मरे या न मरे। निश्चयनय के अनुसार सक्षेप में जीवों के कर्म-बंध का यही स्वरूप है।
१५५. हिंसा से विरत न होना और हिसा का परिणाम रखना हिसा ही
है। इसलिए प्रमाद का योग नित्य-प्राणघातक है।
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