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मोक्ष-मार्ग
२७४ वास्तव मे चारित्र ही धर्म है। इस धर्म को शमरूप कहा गया
है। मोह व क्षोभ मे रहित आत्मा का निर्मल परिणाम ही शम या समतारूप है।
२७५. समता, माध्यस्थभाव, शुद्धभाव, वोतरागता, चारित्र, धर्म
और स्व-भाव-आराधना--ये सव दाब्द एकार्थक है ।
२७६ जिसने (स्व-द्रव्य व पर-द्रव्य के भेदज्ञान के श्रद्धान तथा
आचरण द्वारा) पदार्थों तथा सूत्रो को भलीभाँति जान लिया है, जो संयन और तप से युक्त है, विगतराग है, सुख-दुःख मे
समभाव रखता है, उसी श्रमण को शुद्धोपयोगी कहा जाता है। २७७ (ऐसे) शुद्धोपयोग को ही श्रामण्य कहा गया है। उसीका
दर्शन और ज्ञान कहा गया है। उसीका निर्वाण होता है। वही सिद्धपद प्राप्त करता है। उसे मै नमन करता हूँ।
२७८ शुद्धोपयोग से सिद्ध होनेवाली आत्माओ को अतिशय, आत्मो
त्पन्न, विषयातीत अर्थात् अतीन्द्रिय, अनुपम, अनन्त और अविनाशी सुख (प्राप्त) है ।
२७९ जिसका समस्त द्रव्यो के प्रति राग, द्वेष और मोह नही है तथा
जो सुख-दुख मे समभाव रखता है, उस भिक्षु के शुभाशुभ कर्मो का आस्रव नही होता ।
(इ) समन्वय २८०. निश्चयचारित्र तो साध्य-रूप है तथा सराग (व्यवहार)
चारित्र उसका साधन है । साधन तथा साध्यस्वरूप दोनों चारित्र को क्रमपूर्वक धारण करने पर जीव प्रबोध को प्राप्त होता है ।
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