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मोक्ष-मार्ग
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इस (चौदहवे) गुणस्थान को प्राप्त कर लेने के उपरान्त उसी समय ऊर्ध्वगमन स्वभाववाला वह अयोगीकेवली अशरीरी तथा उत्कृष्ट आटगुण सहित होकर सदा के लिए लोक के अग्रभाग पर चला जाता है। (उसे सिद्ध कहते है।)
५६६. (ऐसे) सिद्ध जीव अप्टकर्मो से रहित, सुखमय, निरजन, नित्य,
अष्टगुण-सहित तथा कृतकृत्य होते है और सदैव लोक के अग्रभाग में निवास करते है।
३३. संलेखनासूत्र ५६७. शरीर को नाव कहा गया है और जीव को नाविक। यह
ससार समुद्र है, जिसे महर्षिजन तैर जाते है ।
५६८. ऊर्ध्व अर्थात् मुक्ति का लक्ष्य रखनेवाला साधक कभी भी बाह्य
विषयों की आकांक्षा न रखे। पूर्वकर्मो का क्षय करने के लिए ही इस शरीर को धारण करे ।
५६९. निश्चय ही धैर्यवान् को भी मरना है और कापुरुष को भी मरना
है। जब मरण अवश्यम्भावी है, तो फिर धीरतापूर्वक मरना ही उत्तम है।
५७०. एक पण्डितमरण (ज्ञानपूर्वक मरण) सैकडों जन्मो का नाश
कर देता है। अतः इस तरह मरना चाहिए, जिससे मरण सुमरण हो जाय ।
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