________________
१०३
मोक्ष-मार्ग ३१३ अचौर्याण व्रती श्रावक को न चोरी का माल खरीदना चाहिए
न चोरी में प्रेरक बनना चाहिए। न ही राज्य-विरुद्ध अर्थात् कर आदि की चोरी व नियम-विरुद्ध कोई कार्य करना चाहिए। वस्तुओ में मिलावट आदि नही करना चाहिए। जाली मित्रके
या नोट आदि नही चलाना चाहिए। ३१४ स्व-स्त्री मे सन्तुष्ट ब्रह्मचर्याणुव्रती श्रावक को विवाहित या
अविवाहित स्त्रियो से सर्वथा दूर रहना चाहिए । अनग-क्रीडा नही करनी चाहिए। अपनी सन्तान के अतिरिवत दूसरो के विवाह आदि कराने में दिलचस्पी नही लेनी चाहिए। काम
सेवन की तीव्र लालसा का त्याग करना चाहिए। ३१५-६ १६. अपरिमित परिग्रह अनन्ततृष्णा का कारण है, वह वहृत
दोषयक्त है तथा नरकगति का माग है। अत. परिग्रह-परिमाणाणुव्रती विशुद्धचित्त श्रावक को क्षेत्र-मकान, सोना-चाँदी, धन-धान्य, द्विपद-चतुप्पद तथा भण्डार (संग्रह) आदि परिग्रह के अगीकृत परिमाण का अतिक्रमण नही करना चाहिए।
३१७ उसे सन्तोष रखना चाहिए। उसे ऐसा विचार नही करना
चाहिए कि 'इस समय मैने विना जाने थोडा परिमाण किया. आगे आवश्यक होने पर पुन अधिक ग्रहण कर लूंगा।
३१८. श्रावक के सात शील व्रतो मे ये तीन गुणवत होते है--दिशा
विरति, अनर्थदण्डविरति तथा देशावकाशिक ।
अपना ही दूसरा विवाह करना पर-विवाह है। इसका यह आशय है कि विशिष्ट सन्तोष न होने से अन्य कन्या के साथ अपना विवाह करता है। यह स्वदार सन्तोषव्रत का अतिचार है ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org