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२१. साधनासूत्र २८८. जिनदेव के मतानुसार आहार, आसन तथा निद्रा पर विजय
प्राप्त करके गुरुप्रसाद से ज्ञान प्राप्त कर निजात्मा का ध्यान करना चाहिए।
२८१ सम्पूर्णज्ञान के प्रकाशन से, अज्ञान और मोह के परिहार से तथा
राग-द्वेष के पूर्णक्षय से जीव एकान्त सुख अर्थात् मोक्ष प्राप्त करता है।
२९०. गुरु तथा वृद्ध-जनों की सेवा करना, अज्ञानी लोगों के सम्पर्क से
दूर रहना, स्वाध्याय करना, एकान्तवास करना, सूत्र और अर्थ का सम्यक् चिन्तन करना तथा धैर्य रखना--ये (दु.खों से
मुक्ति के) उपाय है। २९१. समाधि का अभिलापी तपस्वी श्रमण परिमित तथा एषणीय
आहार की ही इच्छा करे, तत्त्वार्थ में निपुण (प्राज्ञ) साथी को ही चाहे तथा विवेकयुक्त अर्थात् विविक्त (एकान्त) स्थान में ही निवास करे।
२९२ जो मनुष्य हित-मित तथा अल्प आहार करते है, उन्हे कभी
वैद्य से चिकित्सा कराने की आवश्यकता ही नहीं पड़ती। वे तो स्वय अपने चिकित्सक होते है। अपनी अन्तशुद्धि में लगे रहते है।
२९३. रसो का अत्यधिक सेवन नही करना चाहिए। रम प्रायः
उन्मादवर्धक होते हैं--पुष्टिवर्धक होते है। मदाविष्ट सा विषयासक्त मनुष्य को काम वैसे ही सताता या उत्पीडित करता है जैसे स्वादिष्ट फलवाले वृक्ष को पक्षी ।
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